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________________ क्रोधादयश्चात्मसपत्नभावं स्वधर्मनाशान्न जहत्युदीर्णं । तेषां हतिर्येन कृता स्वशक्तेस्तं निःकषायं प्रयजामि नित्यं ॥९७|| भाषा- हैं कषाय जगमें दुखकार, आत्मधर्मक नाशनहार । निःकषाय होंगे जिनराज, तातें पूजू मंगल काज ॥ ॐ ह्रीं निःकषाय जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।। मलव्यपायान्मननात्मलाभाद् यथार्थशब्दं विमलप्रभेति । लब्धं कृतौ स्वीयविशुद्धिकामाः संपूजयामस्तमनय॑जातं ।।९८॥ भाषा- कर्मरूप मल नाशनहार, आत्म शुद्ध कर्ता सुखकार । विमलप्रभ जिन पूजू आय, जासे मन विशुद्ध होजाय ।। ॐ ही विमलप्रम देवाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। भास्वद्गुणग्रामविभासनेन पौरस्त्यसंप्राप्तविभावितानं । संस्मृत्य कामं बहुलप्रभं तं समर्चये तद्गुणलब्धिलुब्धः ॥९९।। भाषा-दीप्तवंत गुण धारणहार, बहुलप्रभ पूजों हितकार । आतम गुण जासों प्रगटाय, मोहतिमिर क्षणमें विनशाय ।। ॐ हीं बहुलप्रभदेवाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। नीराभ्ररत्नानि सुनिर्मलानि प्रवाद एषोऽनृतवादिनां वै । येन द्विधा कर्ममलो निरस्तः स निर्मलः पातु सदर्चितो माम् ।।१००।। भाषा- जलनभरत्न विमल कहवाय, सो अभूत व्यवहार वसाय । भाव कर्म अठकर्म महान, हत निर्मल जिन पूजू जान ।। ॐ ह्रीं निर्मल जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। मनोवचःकायनियंत्रणेन चित्राऽस्ति गुप्तिर्यदवाप्तिपूर्तेः । तं चित्रगुप्ताह्वयमर्चयामि गुप्तिप्रशंसाप्तिरियं मम स्यात् ।।१०१।। भाषा- मनवचकाय गुप्ति धरतार, चित्रगुप्ति जिन हैं अविकार । पूजूं पग तिन भाव लगाय, जासें गुप्तित्रय प्रगटाय ।। ॐ ह्रीं चित्रगुप्ति जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । अपारसंसारगतौ समाधिर्लब्धो न यस्माद् विहितः स येन । समाधिगुप्तिर्जिनमर्चयित्वा लभे समाधिं त्विति पूजयामि ।।१०२॥ भाषा- चिरभव भ्रमण करत दुख सहा, मरण समाधि न कबहूं लहा। गुप्ति समाधि शरणको पाय, जजत समाधि प्रगट हो जाय ।। ॐ ह्रीं समाधिगुप्ति जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। स्वयं विनाऽन्यस्य सुयोगमात्मस्वशक्तिमुद्भाव्यनिजस्वरूपे । व्यक्तो बभूवेतिजिनः स्वयंभूर्दध्यात् शिवं पूजनयानयार्थ्यः ।।१०३।। भाषा- अन्य सहाय बिना जिनराज, स्वय लेंय परमातमराज । नाथ स्वयंभू मग शिवदाय, पूजत बाधा सब टल जाय ।। ॐ ह्रीं स्वयंभू जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । ७२] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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