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भाषा- कर्म शत्रु जीतन बलवान, श्रीजयदेव परम सुखखान ।
पूजत मिथ्यातम विघटाय, तत्त्व कुतत्त्व प्रगट दरशाय । ॐ हीं जयदेवाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
- आत्मप्रभावोदयनान्नितांतं लब्धोदयत्वादुदयप्रभाख्यां ।
समाप यस्मादपि सार्थकत्वात् कृतार्चनं तस्य कृती भवामि ॥९१॥ भाषा- आत्मप्रभाव उदयजिन भयो, उदयप्रभजिन तातें थयो।
पूजत उदय पुण्यका होय, पापबन्ध सब डाले खोय ।। ॐ हीं उदयप्रभ जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभा मनीषा प्रकृत्तिर्मतिप्रिभृत्युदीर्णैकफलेति मत्त्वा ।
जाता प्रभादेव इति प्रशस्तिस्ततोऽर्चनातोहमपि प्रयामि ||९२॥ भाषा- प्रभा मनीषा बुद्धिप्रकाश, प्रभादेवजिन छूटी आश ।
पूजत प्रभा ज्ञान उपजाय, संशय तिमिर सबै हट जाय ।। ॐ हीं प्रभादेवजिनाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
उदंकदेव त्वयि भक्तिभोग्य घटी घटी सा न तदुच्यते हा ।
त्वामेव लब्ध्वा जननं प्रयातं वरं यतस्त्वामहं महामि ॥९३|| भाषा- भव्यभक्तिजिनराजकराय, सफल काल तिनका होजाय ।
देव उदंक पूज जो करें, मनुष देह अपनी वर करें । ॐ ही उदंकदेव जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सुरासुर स्वांतगतभ्रमैकविध्वंसने प्रश्नकृतोपपत्या ।
कीर्तिं ययौ प्रोष्ठिलमुख्यनामस्तवैर्निरुक्तोऽहमुदंच्यामि ।।९४॥ भाषा- सुरविद्याधर प्रश्न कराय, उत्तर देत भरम टल जाय ।
प्रश्नकीर्तिजिन यश के धार, पूजत कर्मकलंक निवार ॥ ॐ ह्रीं प्रश्नकीर्ति जिनाय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
पापाश्रवाणां दलनाद् यशोभिर्व्यक्तेर्जयात् कीर्तिसमागमेन ।
निरुक्तलक्ष्म्यै जयकीर्तिदेवं स्तवसजा नित्यमुपाचरामि ॥१५॥ भाषा- पाप दलनते जयको पाय, निर्मल यश जगमें प्रगटाय ।
गणधरादि नित वन्दन करें, पूजत पापकर्म सब हरें ॥ ॐ हीं जयकीर्ति देवाय अर्घ्यम् निर्दपामीति स्वाहा ।
कैवल्यभानातिशये समग्रा बुद्धिप्रवृत्तिर्यत उत्तमार्था ।
तत्पूर्णबुद्धेश्चरणौ पवित्रावयेन यायज्मि भवप्रणष्ट्यै ॥९६।। भाषा- बुद्धिपूर्ण जिन वंदूं पाय, केवलज्ञान ऋद्धि प्रगटाय ।
चरण पवित्र करण सुखदाय, पूजत भव बाधा नश जाय ॥ ॐ हीं पूर्णबुद्धि जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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