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________________ (इस श्लोक को पढ़कर निर्मल वस्त्र से जिनबिंब पर स्थित जल कणों को साफ करें) स्नानं विधीय भवतोऽष्टसहस्त्र नाम्नामुच्चारणेन मनसो वचसो विशुद्धिम् । जिघृक्षुरिष्टिमिन! तेऽष्टतयीं विधातुम्, सिंहासने विधिवदत्र निवेशयामि ॥१५॥ (यह पढ़कर श्री जिनबिम्ब को वेदी में विराजमान करें) जलगन्धाक्षतैः पुष्पैश्चरुदीपसुधूपकैः । फलैरधृजिनमर्चे जन्मदःखापहानये ॥१६।। ॐ ह्रीं श्री सिंहासन स्थित जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । इमे नेत्रे जाते सकृतजलसिक्ते सफलिते, ममेदं मानुष्यं कृतिजनगणादेयमभवत् । मदीयाद्भालाद्दादशुभवसुकर्माटनमभूत् सदेदृक् पुण्यार्हन् मम भवतु ते पूजन विधौ ॥१७॥ (पुष्पांजलि क्षेपण करें) सूचना - (१) प्रतिमाजी को यथास्थान विराजमान करने के बाद यदि शांतिधारा पाठ पढ़ना हो तो प्रतिमाजी के साथ लाये हुए विनायक यंत्र पर आगे के मन्त्र पढ़ते हुए झारी से अखंडधारा देना चाहिये । (२) उक्त हिन्दी अभिषेक पाठ वेदी पर विराजमान प्रतिमाजी के अभिषेक के समय बोलें। संस्कृत अभिषेक पाठ मंडल विधान में छोटी प्रतिमाजी के बाहर लाते समय बोलें । वेदी पर विराजमान प्रतिमा के संक्षिप्त अभिषेक के लिए भी १, २, ६, ८, ९, ११, १२, १३ वें पद्य पढ़े जा सकते हैं। शांतिधारा ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं वं मं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वी झ्वी क्ष्वीं क्ष्वी द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते । ॐ ह्रीं क्रों अस्माकं पापं खंड खंड हन हन दह दह पच पच पाचय पाचय अर्हन् झंझ्वी क्ष्वी हं सः झं वं ह्यः पः हः क्षां क्षीं हूं क्षे झै क्षों क्षौं क्षं क्षः ह्रां ह्रीं हूं हें हैं हो ह्रौं ह्रः द्रां द्रीं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ठः ठः अस्माकं श्रीरस्तु वृद्धिरस्तु तुष्टिरस्तु पुष्टिरस्तु शांति-रस्तु कांतिरस्तु कल्याणमस्तु स्वाहा । एवं अस्माकं कार्य सिद्धयर्थं सर्वविघ्न निवारणार्थ श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञ परमेष्ठि परमपवित्राय नमोनमः । अस्माकं श्री शांति भट्टारक पाद पद्मप्रसादात् सद्धर्म श्रीबलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिरस्तु स्वशिष्य परशिष्य वर्गं प्रसीदंतु नः।। ॐ श्री वृषभादि वृर्द्धमान पर्यान्ताश्चतुर्विशत्यर्हन्तो भगवन्तः सर्वज्ञाः परम मंगलानामधेयाः इहामुत्र च सिद्धिं तनोतुसद्धर्मकार्येषु इहामुत्र च सिद्धिं प्रयच्छंतु नः। ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते श्रीमत्पार्श्वतीर्थकराय श्री भद्रत्नत्रयरूपाय दिव्यतेजोमूर्तये प्रभामंडल मंडिताय द्वादशगण सहिताय अनंतचतुष्टसहिताय समवशरण केवलज्ञानलक्ष्मी शोभिताय अष्टादशदोष रहिताय षट् चत्वारिंशत् गुणसंयुक्ताय परमेष्ठि पवित्राय सम्यग्ज्ञानाय स्वयंभुवे सिद्धाय बुद्धाय परमात्मने परम सुखाय त्रैलोक्य महिताय अनंतसंसारचक्रप्रमर्दनाय अनंतज्ञान दर्शन वीर्यसुखास्पदाय त्रैलोक्य वशंकराय सत्यज्ञानाय सत्यब्रह्मणे उपसर्ग विनाशनाय घातिकर्मक्षयंकराय अजराय अभवाय अस्माकं व्याधि हन्तु । श्री जिन पूजन प्रसादात् अस्माकं सेवकानां सर्वदोषरोग शोकभय पीड़ा विनाशनं भवतु । [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [५१ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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