________________
ध्वज दण्ड शुद्धि मंदिर के ऊपर का ध्वजा दण्ड मंदिर के भीतर की ऊँचाई से अर्द्ध, तृतीय या चतुर्थ भाग ऊँचा अथवा शोभा के अनुसार होवे। शिखर पर जो कलश हो, उससे ध्वज दण्ड १ हाथ ऊँचा हो तो नीरोगता, २ हाथ हो तो पुत्र ऋद्धि, ३ हाथ हो तो शस्य सम्पत्ति, ४ हाथ ऊँचा हो तो शासक समृद्धि और ५ हाथ हो तो सुभिक्षराष्ट्र वृद्धि होती है।
सित, रक्त, सित, पीत, सित, कृष्ण (नील) इस प्रकार पुनः-पुनः मन्दिर की दीर्घता के अनुसार रंगीन वस्त्र ध्वजा का तैयार करावें ।
नोट:- वर्तमान में ऊपर ध्वजा दण्ड सामान्यतः २ हाथ ऊँचा हो तथा बीच में धवल रखते हुए रक्त, पीत, हरित और नील वर्ण के वस्त्र की ध्वजा पंचपरमेष्ठी की प्रतीक बनवावें । सीसम, पीपल व आम की लकड़ी और उस पर तांबे का पतरा मड़वा देवें।
ध्वजा के मजबूत कपड़े पर स्वस्तिक आदि दोनों ओर रहें। ध्वजा ५ से १० बिलस्त तक लम्बी और ११ अंगुल से २४ अंगुल तक चौड़ी हो ।
ध्वजा स्थान (मन्दिर के ऊपर शिखर के पीछे भाग में गोल खड्डा) की तीन पीठ चार ताल (१२ अंगुल) तीन ताल और दो ताल में से एक-एक पाद कम रहे । अर्थात् तीनों पीठ पत्थर या ईंट चूने की निर्माण करावें। बीच में स्तंभ की ऊँचाई से प्रथम पीठ ८ अंगुल, द्वितीय ६ अंगुल और तृतीय ४ अंगुल ऊँची रखें अथवा जितनी चौड़ी उतनी ही ऊँची रखें । मन्दिर के भीतर वेदी के कलशों से ऊँची ध्वजा १२ अंगुल लम्बी और ८ अंगुल से कम न हो।
ध्वजा दण्ड के ऊपर २४ अंगुल लम्बा और १८ अंगुल चौड़ा पाटिया को दो मिहराप के माफिक एक ओर से कटवाकर निकलवा देवें । उसके दोनों ओर नीचे को मुखकर ५-५ कड़ियाँ, सांकल और छोटी घंटिकाओं को लटकाने के लिए लगवा देवें । सांकलों में घंटिकायें रहें । उक्त पाटिया के पीछे भाग में ६ कड़िया सीधा मुख करके लगवायें जिसमें ध्वजा बाँधने को पीतल की २४ अंगुल की छड़ लगा देवें ।
ध्वज दण्ड सामने रखकर नवदेव पूजा करें। चिद्रूपं विश्वरूपं व्यतिकरितमनाद्यन्तमानंद सांद्रम् । यप्राक्तैस्तैर्विवतॆव्यत दतिपतदुःख सौख्याभिमानैः ।। कर्मोद्रेकात्तदात्म प्रतिघमलभिदोभ्दिन्ननिः सीमतेजः ।
प्रत्यासीदत्परौजः स्फुरदिह परमब्रह्म यज्ञेऽर्हमाह्वम् ॥ स्वामिन् संवौषट् कृताह्वाननस्य, द्विष्ठांते नोदंकित स्थापनस्य ।
स्वं निर्नेक्तुं ते वषट्कार जाग्रत् सन्निध्यस्य प्रारभेयावष्टधेष्टिम् ।। ॐ हीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनधर्म जिनागम जिन चैत्य चैत्यालय नवदेव समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । १२६]
[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
_Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
'- www.jainelibrary.org