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________________ मुक्तिप्रासाद में प्रवेश करने में सोपान के समान सहायक हैं। अतः जिनमंदिर की रचना करनी चाहिये-ऐसा हेतु आचार्य ने प्रदर्शित किया है। वे कहते हैं 'यद्यप्यारम्भतो हिंसा हिंसायाः पापसम्भवः । तथाप्यत्र कृतारम्भो महत्पुण्यं समश्नुते निरालम्बन धर्मस्य स्थितिर्यस्मत्ततः सताम् मुक्ति प्रासाद सोपानमाप्तैरुक्तो जिनालयः ।।' "इस प्रतिष्ठा ग्रंथ की रचना देखने से आचार्य ज्योतिष-शास्त्रों में निष्णात थे-ऐसा सिद्ध होता है। अस्तु।" पंचकल्याणक प्रतिष्ठाविधि, समुद्र के समान गंभीर एवं अगाध है और सर्वसाधारण के लिए सूक्ष्म, अगम्य एवं गूढ़ है। जैसे समुद्र का जल स्वयं समुद्र से ग्रहण करने से खारा ही मिलता है। परंतु वही जल मेघ के द्वारा प्राप्त होता है तो मधुर (मीठा) होता है। उसी तरह मनमाने प्रतिष्ठा-पाठ ग्रंथों को अपने आप पढ़ कर उसका मनमाने विधि-विधान करने पर वह खारे जल के समान ही अग्राह्य होगा। जैसे मेघ के द्वारा आनीत वही जल मधुर होता है, उसी तरह परिपक्व ज्ञानी विद्वानों से या आचार्य* परंपरा से अधीत आगम-सम्मत प्रतिष्ठा-पाठ ही ग्राह्य एवं उपयोगी होगा। 'देवीं वाचमुपासत हि बहवः सारं तु सारस्वतं। जानीते नितरामसौ गुरुकुलक्लिष्टो मुरारिः कविः।। अब्धिलंधित एव वानरभटैः किन्त्वस्यगम्भीरतां। आपाताल - निमग्न - पीवरतनुर्जानाति मंथाचलः।।" पंचकल्याणक पूजा में भगवान् के माता-पिता नहीं 'यजमान' बनते हैं-वस्तुतः ‘पंचकल्याणक पूजा में यज्ञनायक के रूप में 'यजमान' की ही विधि शास्त्र-सम्मत है, अन्य 'माता-पिता' आदि पद नहीं हैं। इनसे अविनय भी होती है। अतः बिना किसी आशंका एवं पूर्वाग्रह के शास्त्र की मूल परिपाटी को स्वीकार करके 'यजमान' ही बनाना चाहिये, माता-पिता नहीं। पुस्तक की विद्या से अब तक अनेकों ने वाग्देवी की उपासना की है। सारस्वत सार को मात्र, गुरुकुलवास में निवास करके आक्लिष्ट हुये मुरारी कवि ही जानता है। कपिभटों ने समुद्र का लंघन तो किया लेकिन क्या उसकी गहराई को जाना? नहीं जाना, उसकी गहराई को पाताल तक डूबा हुआ महान् मंथाचल ही जानता है। हमें इस बात का गौरव है कि भारतीय दि. जैन विद्वानों में नवोन्मेषशालिनी प्रतिभावान् एवं सिद्धहस्त लेखक यशस्वी प्रतिष्ठाचार्य धर्मानुरागी श्री पंडित नाथूलाल शास्त्रीजी ने 'प्रतिष्ठा-प्रदीप' ग्रंथ को परिश्रमपूर्वक संग्रह करके लिखा है। एतावता आज के प्रबुद्ध समाज में प्रतिष्ठा-प्रदीप ग्रंथ गौरव गरिमा को प्राप्त होगा, ऐसी हमारी भावना है। कुन्दकुन्द भारती १८-बी, स्पेशल इंस्टीट्यूशन एरिया नई दिल्ली-११० ०६७ शुभाशिर्वाद आचार्य नियाद (चौदह) Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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