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परम पूज्य सिद्धान्त-चक्रवर्ती आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज द्वारा
आशीर्वचन मनुष्य होना पुण्यों का परिणाम है। इतने पर भी मनुष्योचित गुणों का आस्पद होना और अधिक पुण्यशालिता का सूचक है। प्रायः मनुष्य अपने को उस मार्ग पर उन्मुक्त भाव से छोड़ देते हैं जो सरल-सुगम होता है और सरलपथ प्रायः ढलान जैसा होता है। उसमें उद्योग की अपेक्षा नहीं; किंतु उसी-में पतन की गहराइयाँ निहित हैं। कुएँ में प्रवेश करते समय रस्सी को परिश्रम नहीं करना होता, परंतु जब वह भरी हुई गागर लेकर ऊपर उठती है; तब खींचनेवाले के प्राण फूल जाते हैं। पर्वत पर आरोहण करना कितना कठिन प्रतीत होता है, पर नीचे उतरने में उतना कष्ट नहीं होता। जो लोग सरलता के समुपासक हैं और कठिनता से पलायन करते हैं, वे ऊपर कष्ट से खींचे जाने वाले जलपूर्ण कुंभ की विशिष्ट प्राप्ति के पात्र नहीं हो सकते।
__ मनुष्य की बुद्धि हीन व्यक्तियों के साथ हीन हो जाती है और समान के साथ समान रहती है। किंतु अपने से ऊँचे विशिष्ट पुरुषों के साथ रहने से विशिष्ट होती है। इस नीति से मनुष्य को उच्चतम कल्याण-मार्ग पर लगाने में परमात्म-पद प्राप्त भगवान् अरिहंत देव ही मित्र हैं, एक उपासना, भक्ति करने योग्य हैं। ऊँट का अभिमान हिमालय को देखकर नष्ट हो जाता है; किंतु जब तक वह भेड़-बकरियों के समूह में विचरता है, यह सोचता रहता है कि मेरे जितना ऊँचा और कोई नहीं। इसी प्रकार अरिहंत देव की श्रीशरण में आने से पूर्व मनुष्य मान-कषाय से फूला रहता है; परंतु मंदिर के मानस्तंभ को देखते ही उसका मान उतर जाता है। अन्यथा जिनेंद्रदेव आदि की आशातना होने से पाप कर्मों का बन्ध होता है-ऐसा कहा भी है
गुरौमानुष बुद्धिस्तु, मन्त्रे चाक्षरबुद्धिकम् ।
प्रतिमायां शिलाबुद्धिं, कुर्वाणो नरकं ब्रजेत् ।। ग्रंथ गुरु में सामान्य मनुष्य की बुद्धि रखनेवाला और णमोकार महामंत्र में सामान्य अक्षर समझने वाला तथा अरिहंत प्रतिमा में सामान्य पत्थर की कल्पना करने वाला नरक-बिल में जाता है। नरेन्द्रसेनाचार्य का प्रतिष्ठा दीपक
_ "इस 'प्रतिष्ठासार दीपक' में जिनमूर्ति, जिनमंदिर आदिकों के निर्माण में तिथि, नक्षत्र, योग आदि का विचार करना चाहिये"-ऐसा कहकर किस तिथ्यादिकों में इनकी रचना करने से रचयिता का शुभाशुभ होता है-इत्यादि वर्णन किया है। यह ग्रंथ साढ़े तीन सौ श्लोकों का है। ग्रंथ के अंत में प्रशस्ति नहीं है। इस ग्रंथ में स्थाप्य, स्थापक और स्थापना में से तीन विषयों का वर्णन है। पंचपरमेष्ठी तथा उनके पंचकल्याणक और जो-जो पुण्य के हेतुभूत हैं, वे 'स्थाप्य' हैं। यजमान, इन्द्र स्थापक' हैं। मन्त्रों से जो विधि की जाती है उसे 'स्थापना' कहते हैं। तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जहाँ हुए हैं, ऐसे स्थान तथा अन्य पवित्र स्थान, नदी तट, पर्वत, ग्राम, नगरादिकों के सुंदर स्थानों में जिनमंदिर निर्माण करना चाहिये।
आरंभ से हिंसा होती है, हिंसा से पाप लगता है, तो भी जिनमंदिर बाँधने में किये जाने वाले आरंभ से महापुण्य प्राप्त होता है। जिनमंदिर (धर्म) की स्थिति जिनमंदिर के बिना नहीं रहती तथा जिनमंदिर
(तेरह)
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