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________________ प्रतिष्ठा पंचकल्याणक रूप में की जाती है। तीर्थंकर प्रभु के गर्भावतरण, जन्म तथा राज्याभिषेकदीक्षा - ज्ञान- भगवान् की देशना ( समवशरण रचना के साथ) मोक्ष कल्याणक आदि जो-जो विधान सौधर्म इन्द्र ने किये हैं वे सब विधियाँ समन्त्र प्रतिमा पर की जाती हैं तब प्रतिमा प्रतिष्ठित या पूज्य मानी जाती है। ये सब विधियाँ इस ग्रंथ में लिखी गई हैं, अतः प्रतिष्ठा विधि के लिए यह उत्कृष्ट प्रामाणिक ग्रंथ है। यह इस सरलता के तथा विशिष्ट सूचनाओं के साथ लिखा गया है कि प्रतिष्ठाचार्य विद्वान् सहज ही विधि से परिचित हो जाएगा। बिंब प्रतिष्ठा में दिगम्बर गुरु की अनिवार्यता के प्रमाण : १. वसुनन्दि आचार्यकृत प्रतिष्ठा सार संग्रह आचारादि गुणाधारो, रागद्वेषविवर्जितः । यशपातोज्झितः शांतः, साधुवर्गाग्रणीर्गणी । । ८ । । अशेषशास्त्रविच्चक्षुः प्रव्यक्तं लौकिक स्थितिः । गंभीरो मृदुभाषी च स सूरिः परिकीर्तितः । । ९ । । आचारादिगुणयुक्त, रागद्वेषरहित, निष्पक्ष, शांत, ज्ञाता, गंभीर, मिष्टभाषी सूरि कहे गये हैं। आगे लिखा है कि इनके पास प्रतिष्ठा के समय प्रतिष्ठाचार्य (इन्द्र) व याजक स्नानादि कर उपवास ग्रहण कर प्रतिष्ठा मंडप में प्रवेश करें। ( ४०२-४०३) २. प्रतिष्ठा सारोद्धार श्री आशाधर कृत : ऐदं युगीन श्रुतधर धुरीणो, गणपालकः । पंचाचार परो दीक्षा प्रवेशाय तयोर्गुरुः । । ११७ । । प्रतिष्ठाचार्य और यजमान को प्रतिष्ठा कराने की दीक्षा देने वाले आचार्य व्यवहार शास्त्र के ज्ञाता श्रुतज्ञानी मुख्य, साधु संघ के पालक, दर्शन आदि पंचाचार पालने में लीन होते हैं। C. ३. श्री आचार्य जयसेन प्रतिष्ठा पाठ : प्रातर्गृहीत्वा गुरु पूजनार्थं वादित्रनादोल्वणयात्रया सः । गुरूप कंठे नत मस्तकेन भूमिं स्पृशत् वाक्यमुपाचरेत् सत् । । २३४ । । इत्याद्यभिप्रायवशादुदीर्य व्रतग्रहः सद्गुरुणोपदेश्यः यज्वेन्दुकाभ्यामपरैर्विधार्यः । । २४९ । । मंत्रेणबद्धांजलि मस्तकाभ्यां यहाँ गुरुपूजन हेतु प्रतिष्ठाचार्य दिगम्बर गुरु के पास जाकर इन्द्र व याजक आदि के साथ निवेदन करें कि हम बिंब प्रतिष्ठा कराना चाहते हैं। गुरु उन्हें उपदेश दे कर नियम करावें । ४. श्री नेमिचन्द्र देवकृत प्रतिष्ठा तिलक : चैत्यादिभक्तिभिः स्तुत्वा देवं शेषं धर्माचार्य समभ्यर्च्य नत्वा त्वत्प्रसादात् प्रबुध्यार्हत्पूजादेर्लक्षणं जिन प्रतिष्ठामिच्छामः कर्तुमेतेऽद्य बालिशाः । ।२० ॥ स्फुटम् । जिनदेव एवं धर्माचार्य ( सूरि ) की पूजा कर उनसे जिन प्रतिष्ठा करने की इच्छा प्रगट करें। श्लोक ३३ - ३४ में प्रतिष्ठाचार्य के लक्षण हैं । इन्द्र के भी ३५-३६-३७ श्लोक में लक्षण बताये हैं। श्लोक ३८-३९-४० में प्रतिष्ठाचार्य व यजमान आदि को दीक्षा मन्त्र दिगम्बर गुरु ( सूरि ) द्वारा दिये गये हैं तथा श्लोक ५० तक नियम भी दिलाये हैं। Jain Education International 2010_05 (अठारह) समुद्वहन्। विज्ञापयेदिदम् ।।१७।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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