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भूमिका प्रस्तुत 'प्रतिष्ठा प्रदीप' ग्रंथ मूर्ति प्रतिष्ठा की विधि का प्रदर्शक एक संग्रहीत ग्रंथ है। यद्यपि दि. जैन साहित्य में प्रतिष्ठा विधि के अनेक ग्रंथ हैं पर संस्कृत भाषा में निबद्ध होने और भाषा क्लिष्ट होने से सबकी गति नहीं हो पाती।
दूसरे, कुछ विधियों में भी अन्तर पाया जाता है जिससे प्रतिष्ठा में एकरूपता नहीं रहती। इन बातों पर विचार कर अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् ने दिनांक १७-१०-१९८७ को स्थान इन्दौर म.प्र. के अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर आधनिक भाषा में विधिविधान के स्पष्टीकरण के साथ प्रतिष्ठापाठ संकलित करने का प्रस्ताव किया था और यह कार्य श्री पं. नाथूलालजी शास्त्री, संहिता सूरि इन्दौर को सौंपा था तदनुसार पंडितजी ने उक्त संकलन कर इसे तैयार किया है।
श्री पं. गुलाबचन्दजी 'पुष्प' टीकमगढ़ निवासी प्रतिष्ठाचार्य के पास भी एक संकलन था, उन्होंने उसे भी व्यवस्थित किया। विचार यह हुआ कि दोनों विद्वान् परस्पर परामर्श कर इसे एकरूपता प्रदान करें। मैंने श्री पं. गुलाबचन्दजी 'पुष्प' को प्रेरणा दी कि आप श्री पं. नाथूलालजी शास्त्री इन्दौर के पास जाकर परामर्श करें, वे इन्दौर गये और जो भी परामर्श हुआ हो, यह ग्रंथ प्रकाश में आ रहा है।*
इस पंचमकाल में न तो तीर्थंकर होते हैं और न केवली भगवान, पर सम्यग्दर्शन में श्रद्धा के विषयभूत देव-शास्त्र-गुरु हैं। इस काल में न देव का सद्भाव है, न इस काल में होगा। ग्रंथ जरूर है और ये जिनवाणी के आधार पर वीतराग आचार्यों द्वारा प्ररूपित पाये जाते हैं, अतः जिनवाणी जीवित है।
यद्यपि कुछ नई रचनाएँ भी मुनियों, आचार्यों व गृहस्थ विद्वानों द्वारा गत ५-७ सौ वर्षों में हुई हैं और उनमें पूर्वाचार्यों की परम्परा को ही मान्यता दी है, अतः वे भी प्रमाण की कोटि में हैं। हाँ, कुछ रचनाकारों ने आचार्यों के नाम से कुछ स्वेच्छा कल्पित ग्रंथ भी बनाये हैं और जनता में यह भ्रम भी फैला रहे हैं कि वे भी आचार्य प्रणीत हैं। परन्तु वे प्राचीन आचार्यों की परम्परा से मेल नहीं खाते।
यद्यपि प्रतिमा निर्जीव है तथापि यदि अन्तस् में वीतरागता संभव नहीं, तो भी बाह्य में वीतराग मुद्रा है और अन्तस् में भी राग की स्थिति अचेतन में सहज ही नहीं है। लोक में सजीव पुरुष में भी ईश्वर की स्थापना की जाती है, जैसे रामलीला, कृष्णलीला में राम-कृष्ण की पर जैनाचार्यों ने माना है कि जिस व्यक्ति में स्थापना की जानी है उसके न तो भीतरी ईश्वरत्व है और न बाहर वीतरागता, अतः स्थापना निक्षेप के अनुसार तदाकार जिन बिम्ब में जिनस्थापना का विधान किया गया है। स्थापना दो प्रकार की होती है, तदाकार स्थापना अर्थात् जिसकी स्थापना जिस मूर्ति में
स मति में की जाय वह उसके अनुरूप आकार हो। दूसरी स्थापना अतदाकार है - जैसे पाषाण आदि की शिला में सिन्दूर आदि लगाकर लोक में देवस्थापना कर लेते हैं। जिनागम में दोनों प्रकार की स्थापना स्वीकृत है। दैनिक पूजा में जहाँ वेदी में विराजमान जिनबिम्ब की हम पूजन करते हैं वहीं जो जिनबिम्ब अन्य तीर्थंकरों की है और पजा अन्य तीर्थंकर की करना है या अकृत्रिम चैत्यालयों की, नन्दीश्वर द्वीप की भी करते हैं उनकी अतदाकार स्थापना करके करते हैं। 'अत्रअवतर' इत्यादि स्थापना के मन्त्र हैं। अतदाकार स्थापना का निषेध तो नहीं है पर वह पंचम कालिक जिन प्रतिमा के सन्मुख ही करना चाहिये अन्यत्र नहीं, यह भी आगम में निदेश है। यह तत्काल के लिए ही है पर तदाकार स्थापना स्थायी होती है अत: उसकी प्रतिष्ठा आवश्यक है।
इसी प्रतिष्ठा विधि के शास्त्र प्रतिष्ठाशास्त्र कहे जाते हैं। अप्रतिष्ठित मूर्ति तदाकार भी पूज्य नहीं है। आजकल प्लास्टिक आदि की भी तदाकार मूर्ति बनती है, चित्र भी तदाकार बनाये जाते हैं, वे सब अनादरणीय नहीं, पर अष्टद्रव्य से पूजा उनकी नहीं की जाती, यह एक मर्यादा है।
* कुछ क्रियाओं में विचार भेद होने से एकरूपता नहीं हो सकी। -संपादक
(सत्रह)
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