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भाषा-गीताछंद कर्मतम को हननकर निजगुण प्रकाशन भानु हैं, अंत अर क्रम रहित दर्शन ज्ञान वीर्य निधान हैं । सुख स्वभावी द्रव्य चित् सत् सुद्ध परिणति में रमें, आइये सब विघ्न चूरण पूजते सब अघ वमें ।। ॐ ह्रीं अत्र जिनप्रतिष्ठाविधाने सर्वयागमण्डलोक्ता जिनमुनय अत्र अवतरत अवतरत संवौषट्, ॐ ह्रीं अत्र जिनप्रतिष्ठाविधाने सर्वयागमण्डलोक्ता जिनमुनय अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः, ॐ ह्रीं अत्र जिनप्रतिष्ठाविधाने सर्वयागमण्डलोक्ता जिनमुनय अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् । (यहाँ स्थापना मण्डल के बीच में न रख कर पूजा की टेबल ही पर रख कर पुष्प क्षेपण करें।)
अष्टक प्रांशुस्वर्णमणि प्रभाततिभृताभुंगारनालोच्छलद् गंगासिंधुसरिन्मुखोपचितसत्पाथो भरेण त्रिधा। जन्मारातिविभंजनौषधिमितेनोद्धृतगंधालिना चाये यागनिधीश्वरानघहृते निःश्रेयसः प्राप्तये ॥९॥
भाषा-छन्द चाल गंगा सिंधू वर पानी, सुवरण झारी भरलानी ।
गुरु पंच परमसुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्दपामीति स्वाहा ।
घुसृणमलयजातैश्चंदनैः शीतगंधै, भवजलनिधिमध्ये दुःखदो वाडवाग्निः।
तदुपशमनिमित्तं बद्धकक्षैर्निमज्जद्-भ्रमरयुवभिरीडत् सांद्रसार्द्रप्रवाहैः ॥१०॥ भाषा- शुचि गन्ध लाय मनहारी, भवताप शमन कर्तारी ।
गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाह
शशांकस्पर्द्धद्भिः कमलजननैरक्षतपदाधिरूढः श्रामण्यं शुचिसरलताद्यैर्गुणवरैः ।
हसद्भिः साम्राज्याधिपतिचमनाहैः सुरभिभिर्जिनार्चाघ्रिप्रांची विपुलतरपुंजैः परियजे ||११|| भाषा- शशिसम शुचि अक्षत लाए, अक्षयगुणहित हुलसाए।
गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
दुरंतमोहानलदीप्यदंशु कामेन नष्टीकृतमाशुविश्वं ।
तद्वाणराजीशमनाय पुष्पैर्यजामि कल्पद्रुमसंगतैर्वा ।।१२।। भाषा- शुभ कल्पद्रुमन सुमना ले, जग वशकर काम नशाले।
गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई ।। ॐ हीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
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[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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