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श्रमविना श्रमजलरहित पावन अमल ज्योतिस्वरूपजी । शरणागतनिकी अशुचिता हरि, करत विमल अनूपजी ॥ ऐसे प्रभु की शांति मुद्रा को न्हवन जलतें करें ।
'जस' भक्तिवश मन उक्ति तैं हम भानु ढिग दीपक धरै ।।५।। तुमतौ सहज पवित्र यही निश्चय भयो । तुम पवित्रत हेत नहीं मज्जन ठयो । मैं मलीन रागादिक मलतै रह्यो । महामलिन तन में वसु विधिवश दुख सह्यो ।
बीत्यो अनन्तो काल यह मेरी अशुचिता ना गई । तिस अशुचिताहर एक तुमही भरहु बाँछा चित ठई । अब अष्ट कर्म विनाश सह मल रोषरागादिक हरौ ।
तनरूप कारागेह सै उद्धार शिववासा करौ ॥६।। मैं जानत तुम अष्टकर्म हनि शिवे गये | आवागमन विमुक्त रागवर्जित भये ।। पर तथापि मेरो मनोरथ पूरत सही । नय प्रमानतें जानि महा साता लही ||
पापाचरण तजि न्हवन करता चित्त मैं ऐसे धरूँ । साक्षात श्री अरहंत का मानों न्हवन परसन करूँ ॥
(यहाँ
पर
(यहाँ पर जलाभिषेक करें) ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नसि शुभबंध तैं ।
विधि अशुभ नसि शुभबंधतै वै शर्म सब विधि तासतें ॥७॥ पावन मेरे नयन भये तुम दरसते । पावन पानि भये तुम चरननि परसते ॥ पावन मन है गयो तिहारे ध्यानौं । पावन रसना मानी तुम गुण गानतें ॥
पावन भई परजाय मेरी, भयौ मैं पूरणधनी । मैं शक्ति पूर्वक भक्ति कीनी, पूर्ण भक्ति नहीं बनी ॥ धनि-धन्य ते बड़भागि भवि तिन नीव शिवधर की धरी ।
वर क्षीरसागर आदि जल मणिकुंभभरि भक्ती करी ॥८॥ विघनसघन वन दाहन-दहन प्रचंड हो । मोह महा तम दलन प्रबल मारतण्ड हो । ब्रह्मा विष्णु महेश आदि संज्ञा धरो । जग विजयी जमराज नाश ताको करो ॥
आनंद कारण दुखनिवारण, परम मंगलमय सही । मोसो पतित नहिं और तुमसो, पतिततार सुन्यौ नहीं । चिंतामणी पारस कल्पतरु, एकभव सुखकार ही । तुम भक्तिनौका जे चढ़े ते, भये भवदधि पार ही ॥९॥
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[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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