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________________ सिद्धक्षेत्र रचना व सिद्ध प्रतिमा निर्वाण भक्ति हेतु भगवान् का ध्यानयोग उनके निर्वाण स्थान सम्मेदशिखरजी, कैलाशपर्वत, गिरनार, पावापुरी या चम्पापुरी में से जहाँ से मोक्ष हुआ हो, उस पर्वत या स्थान की रचना प्रतिष्ठा वेदी पर करना चाहिये । ध्यान रहे हमारे विधिनायक या मूलनायक अरहंत परमेष्ठी हैं। जिन मन्दिरों में विराजमान चिह्नवाली जितनी प्रतिमाएँ हैं वे सब अरहंत परमेष्ठी की हैं । सिद्ध परमेष्ठी की प्रतिमा के सम्बन्ध में जयसेन प्रतिष्ठा पाठ व अन्य में लिखा है - सिद्धेश्वराणां प्रतिमाऽपियोज्या, तत्प्रातिहार्यादिविना तथैव। आचार्य सत्पाठकसाधु सिद्धक्षेत्रादिकानामपि भाववृद्ध्यै ॥१८१॥ (जयसेन प्रतिष्ठा, पृष्ठ ४४) सिद्ध भगवान् की प्रतिमा, अर्हन्त प्रतिमा के समान ही निर्माण कराना चाहिये, किन्तु उसमें प्रातिहार्य आदि (चिन्ह) नहीं होते । शेष आचार्य आदि की प्रतिमा यथायोग्य भाव वृद्धि के लिए निर्माण करावे। सिद्ध प्रतिमा सांगोपांग होने से ही नेत्रोन्मीलन आदि विधि हो सकती है। पोलाकार प्रतिमा सिद्ध का स्वरूप समझने के लिए है। सर्वत्र मन्दिरों में ऐसी पोलाकार प्रतिमाएँ भी उपलब्ध होती हैं । सिद्ध प्रतिमा में चिन्ह के स्थान पर 'सिद्ध प्रतिमा' खुदवा देना चाहिये, सिद्ध प्रतिमा की प्रतिष्ठा विधि आगे पृथक् ही बताई गई है। यों सिद्धपूजा सिद्धयन्त्र के माध्यम से होती है। ___ निर्वाण कल्याणक में सामान्य रूप से निर्वाण-भक्ति का पाठ करके समझाने को प्रदर्शन किया जाता है, किन्तु अग्नि संस्कार का प्रदर्शन नहीं करना चाहिये । बाकी मन्त्र संस्कार भी नहीं होता है क्योंकि हमें प्रतिष्ठेय प्रतिमाओं को अर्हन्त रूप में विराजमान करना है। प्रतिष्ठा हेतु गुरु आज्ञालंभन व प्रतिष्ठाचार्य से निवेदन जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के अनुसार आचार्य निमंत्रण नहीं होता है। वहाँ श्री दिगम्बर गुरु का प्रतिष्ठा महोत्सव में होना आवश्यक बताया है। प्रातः यज्ञनायक आदि उनके समीप जाकर उनकी पूजा कर उनसे प्रार्थना करें कि हे अकारण बंधो! पूर्वोपार्जित पुण्य से हमने यह आर्यदेश, मनुष्य भव, उत्तमकुल और उच्चगोत्र प्राप्त किया है, व हमने न्यायोपार्जित धन द्वारा जिनेन्द्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव करने का विचार किया है । इस चंचल लक्ष्मी और अनित्य शरीर, कुटुम्ब आदि को जानकर इस संकल्प की पूर्ति हेतु आपका आशीर्वाद चाहते हैं । तब गुरुदेव उनको व्रत ग्रहण करावें, जिसमें ब्रह्मचर्य एवं कषाय त्याग, पंक्ति भोजन त्याग आदि प्रतिष्ठा हेतु सामयिक नियम करावें । इसी अवसर पर प्रतिष्ठा कराने वाले गृहस्थ श्रोत्रिय (पृष्ठ ६२, श्लोक ५५) जिन्हें हम प्रतिष्ठाचार्य बनावें, उनसे भी प्रतिष्ठाचार्य पद की स्वीकृति के लिए निवेदन करें । वे इन्द्र-प्रतिष्ठा, जिसके अन्तर्गत नांदी विधान है, करावें । यहाँ प्रतिष्ठाचार्य को भेंट दी जाना चाहिये। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२७ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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