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मधु शुक्ला पूरणमासी, पद्मप्रभु तत्त्व अभ्यासी ।
केवल ले तत्त्व प्रकाशा, हम पूजत सम सुख भाशा ॥६॥ ॐ हीं चैत्रशुक्ला पूर्णमास्यां श्रीपापभुजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्दपामीति स्वाहा ।
छठि फाल्गुन की अंधयारी, चउ घाती कर्म निवारी ।
निर्मल निज ज्ञान उपाया, धन धन सुपार्श्व जिनराया ॥७॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाष्ठयां श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
फाल्गुन वदि नौमि सुहाई, चंद्रप्रभ आतम ध्याई ।
हन घाती केवल पाया, हम पूजत सुख उपजाया ॥८॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा नवम्यां श्रीचंद्रप्रभुजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक सुदि दुतिया जानो, श्री पुष्पदंत भगवानो ।
रज हर केवल दरशानो, हम पूजत पाप विलानो ॥९॥ ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ला द्वितीयायां श्रीपुष्पदंतजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्दपामीति स्वाहप
चौदसि वदि पौष सुहानी, शीतलप्रभु केवल ज्ञानी ।
भव का संताप हटाया, समता सागर प्रगटाया ॥१०॥ ॐ ही पौष कृष्णा चतुर्दश्यां श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्दपानीति स्वाहा ।
वदि माघ अमावसि जानो, श्रेयांस ज्ञान उपजानो ।
सब जग में श्रेय कराया, हम पूजत मंगल पाया ॥११॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णा अमावस्यां श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
शुभ दुतिया माघ सुदीको, पायो केवल लब्धीको ।
. श्री वासुपूज्य भवितारी, हम पूजत अष्ट प्रकारी ॥१२॥ ॐ हीं माघशुक्लाद्वितीयायां श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा ।
छठि माघ वदी हत घाती, केवल लब्धी सुख लाती ।
पाई श्री विमल जिनेशा, हम पूजत कटत कलेशा ॥१३॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णाष्ठयां श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चैत अमावस गाई, जिन केवलज्ञान उपाई ।
पूजू अनंत जिन चरणा, जो है अशरण के शरणा ॥१४॥ ॐ हीं चैत्रकृष्णां अमावस्यां श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
मासांत पौष दिन भारी, श्री धर्मनाथ हितकारी ।
पायो केवल सद्बोधं, हम पूजें छोड़ कुबोधं ॥१५|| ॐ ही पौषपूर्णम्यां श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यन् निर्दपामीति स्वाहा ।
सुदि पूस इकादसि जानी, श्री शांतिनाथ सुखदानी ।
लहि केवल धर्म प्रचारा, पूजूं मैं अघ हरतारा ॥१६॥ ॐ ही पौषशुक्ला एकादश्यां श्री शांतिनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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