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________________ वदि चैत्र तृतीया स्वामी, श्री कुंथुनाथ गुण धामी । निर्मल केवल उपजायो, हम पूजत ज्ञान बढ़ायो ।१७।। ॐ हीं चैत्र कृष्णा तृतीयायां श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । कार्तिक सुदी बारस जानो, लहि केवल ज्ञान प्रमाणो । परतत्त्व निजत्त्व प्रकाशा, अरनाथ जजों हत आशा ||१८|| ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ला द्वादश्यां श्रीअरनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । वदि पूष द्वितीया जाना,श्री मल्लिनाथ भगवाना । हत घाती केवल पाए, हम पूजत ध्यान लगाए ॥१९।। ॐ ही पौषकृष्णाद्वितीयायां श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अय॑म् निर्वपानीति स्वाहा । वैशाख वदी नौमीको, मुनिसुव्रत जिन केवलको । लहि वीर्य अनंत सम्हारा, पूजूं मैं सुख करतारा ॥२०॥ ॐ हीं वैशाखकृष्णा नवम्यां श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । अगहन सुदि ग्यारस आए, नमिनाथ ध्यान लौ लाए । पाया केवल सुखदाई, हम पूजत चित हरषाई ॥२१॥ ॐ हीं अगहनशुक्ला एकादश्यां श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । पडिवा शुभ क्वार सुदी को, श्री नेमनाथ जिवजीको । इच्छो केवल सत ज्ञानं, हम पूजत ही दुख हानं ॥२२॥ ॐ ह्रीं आश्विनशुक्ला प्रतिपदायां श्रीनेमनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । तिथि चैत्र चतुर्थी श्यामा, श्री पार्श्वप्रभू गुण धामा । केवल लहि तत्त्व प्रकाशा, हम पूजत कर शिव आशा ॥२३॥ ॐ हीं चैत्रकृष्णाचतुर्थी श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपानीति स्वाहा । दशमी वैशाख सुदीको, श्री वर्धमान जिनजीको । उपजो केवल सुखदाई, हम पूजत विघ्न नशाई ॥२४॥ ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला दशम्यां श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला सृग्विणी छन्द-स्तुति जय ऋषभनाथजी ज्ञान के सागरा, घातिया घातकर आप केवल बरा । कर्मबन्धनमई सांकला तोड़कर, आपका स्वाद ले स्वाद पर छोड़कर |॥१॥ धन्य तू धन्य तू धन्य तू नाथजी, सर्व साधू नमें तोहिको माथजी । दर्श तेरा करें ताप मिट जात है, मर्म भाजें सभी पाप हट जात है ।।२।। धन्य पुरुषार्थ तेरा महा अद्भुतं, मोहसा शत्रु मारा त्रिघाती हतं । जीत त्रैलोकको सर्वदर्शी भए, कर्म सेना हती दुर्ग चेतन लए ।।३।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [२०१ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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