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क्षीर मोदकादि शुद्ध तुर्त ही बनाइये, भूखरोग नाश हेतु चर्ण में चढ़ाइये ।
नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके ।। ॐ हीं सपमादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेन्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपानीति स्वाहा।
दीप धार रत्नमय प्रकाशता महान है, मोह अंधकार हार होत स्वच्छ ज्ञान है ।
नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके ।। ॐ हीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेश्यो मोहअन्धकारविनाशनाथ दीपं निर्वपानीति स्वाहा ।
धूप गंध सार लाय धूपदान खेइये, कर्म आठको जलाय आप आप वेइये ।
नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके । ॐ हीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
लौंग औ बदाम आम्र आदि पक्क फल लिये, सु मुक्तिधाम पायके स्व आत्म अमृत पिये।
नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके ।। ॐ ह्रीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेन्यो मोक्षफलप्राप्ताय फलं निर्वपानीति स्वाहा ।
तोय गंध अक्षतं सु पुष्प चारु चरु धरे, दीप धूप फल मिलाय अर्घ्य देय सुख करे ।
नाथ चौविसों महान् वर्तमान कालके, बोध उत्सवं करूं प्रमाद सर्व टालके ।। ॐ ह्रीं ऋषभादि महावीरपर्यंत चतुर्विशतिजिनेन्द्रेश्यो अनर्घ्यपद प्राप्ताथ अर्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
छंद चाली एकादशि फागुन वदिकी, मरुदेवी माता जिनकी ।
हत घाती कैवल पायो, पूजत हम चित उमगायो ॥१॥ ॐ हीं फाल्गुनकृष्णा एकादश्यां श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
एकादशि पूष सुदीको, अजितेश हतो घातीको ।
निर्मल निज ज्ञान उपाये, हम पूजत सम सुख पाये ।।२।। ॐ हीं पौषशुक्ला एकादश्यां श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
कार्तिक वदी चौथ सुहाई, संभव केवल निधि पाई ।
भविजीवन बोध दियो है, मिथ्यामत नाश कियो है ।।३।। ॐ हीं कार्तिक कृष्णा चतुर्थां श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्दपानीति स्वाहा ।
चौदशि शुभ पौष सुदीको, अभिनंदन हन घातीको ।
केवल पा धर्म प्रचारा, पूजू चरणा हितकारा ॥४|| ॐ ही पौषशुक्ला चतुर्दश्यां श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्य निर्वपानीति स्वाह।
एकादशि चैत सुदीको, जिन सुमति ज्ञान लब्धीको ।
पाकर भविजीव उधारे, हम पूजत भव हरतारे ॥५|| ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला एकादश्यां श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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