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आर्द्रा, शतभिषा ऽश्लेषा, विशाखा, भरणीद्वयम् । त्याज्या च द्वादशी रिक्ता, षष्ठी चन्द्रक्षयोऽष्टमी ।। प्रतिपच्च तिथिर्वारो, त्याज्यौ शनिकुजौ तथा । देव मूर्ति प्रतिष्ठायां, स्थिर लग्नोत्तरायणे ।।
योग विशेष को छोड़कर (सामान्य रूप से) आर्द्रा, शतभिषा, आश्लेषा, विशाखा, भरणी, कृत्तिका नक्षत्र और १२, ४, ९, १४, ३०, ६, २, ८, १ तिथि और शनि, मंगल ये प्रतिष्ठा में त्याज्य हैं । वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ तथा उत्तरायण सूर्य में देव प्रतिष्ठा करें।
(शीघ्र बोध ४१-४२) गीर्वाणांबु प्रतिष्ठा परिणय दहनाधान गेह प्रवेशाश्चौलंराज्याभिषेको व्रतमपि शुभदं नैव याम्यायने स्यात् ।। नो वा बाल्यास्तबार्द्ध सुरगुरुसितयो नैव केतूदये स्यात् ।
न्यूने मासेऽधिके वा नहि च सुरगुरौ च सिंह नक्रस्थिते वा ।। दक्षिणायन में प्रतिष्ठा नहीं होती, गुरु, शुक्र के बाल्य, वृद्ध, अस्त में तथा क्षयमास, मलमास में शुभ कार्य नहीं होते।
(वृहदवकहडाचक्रम् ५०-५१) अमृत सिद्धि योग चक्र रवि सोम मंगल बुध
शुक्र शनि मृग. अश्वि . उत्तरात्रय
वि.कृ. पुन. पुष्य रो. श. पुष्य
रो.श्र.
गुरु
अनु.
श्र.
रे.
गुरु
सर्वार्थ सिद्धि योग रवि सोम मंगल बुध
शुक्र शनि हस्त श्रवण अश्विनी रोहिणी रेवती रेवती श्रवण मूल
रोहिणी उ.भा. अनुराधा अनुराधा अनुराधा रोहिणी उत्तरात्रय मृगशिर कृत्तिका हस्त अश्विनी अश्विनी स्वाति पुष्य पुष्य आश्लेषा कृत्तिका पुनर्वसु पुनर्वसु अश्विनी अनुराधा
मृगशिर पुष्य
श्रवण उक्त दोनों योगों को मुहूर्त हेतु देख लेना चाहिये । रवि से शनि तक क्रमशः भरणी, चित्रा, उत्तराषाढ़ा, धनिष्ठा, उत्तराफाल्गुनी, ज्येष्ठा, रेवती त्याज्य है।
त्याज्य सूर्यदग्धातिथि धनु मीन में २, वृष-कुंभ में ४, मेष-कर्क में ६, मिथुन-कन्या में ८, सिंह-वृश्चिक में १०, तुला-मकर में १२ तिथि।
[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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