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त्याज्य चन्द्रदग्धातिथि कुंभ-धनु में २, मेष-मिथुन में ४, तुला-सिंह में ६, मकर-मीन में ८, वृष-कर्क में १०, वृश्चिककन्या में १२ । चालू पंचांग के अनुसार उक्त मुहूर्त देखा जाता है । जैन ज्योतिष की दृष्टि से जो तिथि सूर्योदय से ६ घड़ी या उससे अधिक होती है वही मान्य होती है। पंचांग की क्षय तिथि ६ घड़ी से ज्यादा होने पर जैन ज्योतिष में पूर्ण मानी जाती है। पंचांग में दो तिथि होने पर प्रथम मानना चाहिये। ___ चौबीस तीर्थंकरों की पंचकल्याणक तिथि में से कोई होने पर उक्त मुहूर्तों के साथ सोने में सुहागा समान होती है।
उत्पात-मृत्यु-काण-तिथि-योग-चक्र फल रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि उत्पात पू.षा.
पुष्य उ.फा. मृत्यु __ अनु. उ.षा.
अश्वि मृग. आश्ले. ह. काण अश्विनी पू.षा.
आर्द्रा मघा चि. सिद्धि
श्र. उ.षा कृ. पुन. पू.फा. स्वा.
वि.
ध.
शं.
(वसुनंदि प्रतिष्ठा पाठ) उक्त मुहूर्त सामान्य रूप में हैं, परन्तु पंचांग द्वारा इसमें प्रतिष्ठाकारक, प्रतिष्ठाचार्य व प्रतिमा नाम से भी चन्द्रमा देखा जाता है जो उनकी राशि से ४, ८ व १२ न हो । यह देखकर उस प्रतिष्ठा मुहूर्त में प्रतिमा विराजमान की जाती है। इसमें कुछ योग भी ज्ञातव्य हैं।
मंडप मुहूर्त __ मृगशिर, पुनर्वसु, पुष्य, अनुराधा, श्रवण, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रों में सोम, बुध, गुरु, शुक्रवार को २, ५, ७, ११, १२, १३ तिथियों में शुभ है।
प्रतिष्ठा में योग विशेष __ राजयोग- मंगल, बुध, शुक्र, रवि में से किसी वार को भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वा फाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा, उत्तरा भाद्रपद इसमें से कोई नक्षत्र हो तथा २, ७, ३, पूनम में से कोई तिथि हो, तो राजयोग शुभ होता है।
पंचकयोग- धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती नक्षत्र को पंचक कहते हैं। इनमें मृतक संबंधी दोष है किन्तु प्रतिष्ठा में दोष नहीं।
कालमुखी योग- चौथ को तीनों उत्तरा, पंचमी को मघा, नवमी को कृत्तिका, अष्टमी को रोहिणी और तीज को अनुराधा नक्षत्र हो तो कालमुखी योग अशुभ होता है। [प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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