SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्राणी- हम तो भगवान् की भक्ति को ही सम्यग्दर्शन समझती हैं हमें उनकी मूर्ति की पूजा में भी अधिक आनन्द आता है। १३. ईशान इन्द्र- बाहर सच्ची शक्ति और पूजा भी वही करता है जिसे अपने हृदय के भीतर के परमात्मा के प्रति श्रद्धा हो चुकी है। इन्द्राणी- क्या हमारी यह बाहर की भक्ति व पूजा सार्थक और सफल नहीं मानी जायेगी ? १. सनतकुमार इन्द्र- यह पंचकल्याणक पूजा प्रतिष्ठा भी उन्हीं परमात्मा की है, जिन्होंने आत्मा में स्वरूप की अनुभूति या साक्षात्कार कर लिया है। इन्द्राणी- इसका मतलब यह हुआ कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मपना विद्यमान है, उसे मोहवश वह भूले हुए है। २. महेन्द्र इन्द्र- जब तक मोहरूपी अंधकार है, तब तक कोई भी संसारी प्राणी अपनी देह में रहने वाली चैतन्य शक्ति का विकास नहीं कर पाता। इन्द्राणी- हमारा जीवन भोग-विलासमय होने से आत्मा दिव्यज्योति का प्रकाश प्राप्त नहीं कर सकती। ३. ब्रह्म इन्द्र- आत्मज्योति के दर्शन का नाम ही सम्यग्दर्शन है ? जो सप्तम नरक तक में हो सकता है। नारी पर्याय में भी वह प्राप्त होता है। इन्द्राणी-इसीलिए भगवान् के पंचकल्याणक को मनाना सम्यग्दर्शन का मुख्य साधन माना गया है। ४. लांतव इन्द्र- जब सम्यग्दर्शन का प्रमुख साधन जिनेन्द्र पूजा-भक्ति है तो हमें श्रद्धापूर्वक मनाना चाहिये। इन्द्राणी- जिनेन्द्र पूजा सांसारिक भोगों में लीन लोगों के लिए सबसे अधिक सुगम है। ५. महाशुक्र इन्द्र- अन्य सब शुभ कार्य हम लोगों के लिए बहुत कठिन हैं अतः यथाशक्ति उल्लासर्पूवक जिनेन्द्र भक्ति में चित्त लगाना चाहिये। इन्द्राणी- अकेले जिनेन्द्र-भक्ति ही जीवों को संसार की समस्त दुर्गतियों से बचाकर सुगति की ओर ले जाने में समर्थ है। ६. सहस्रार इन्द्र- पूर्व जन्मों में उपार्जित पाप कर्मों का नाश भी जिनेन्द्र पूजा-भक्ति से ही होता है। वर्तमान विपत्तियाँ भी इसी से दूर होती हैं। इन्द्राणी- शुद्ध जिनेन्द्र भक्ति संसार रूपी जाल को छिन्न-भिन्न कर अनंत सुख का स्थान मुक्ति को प्राप्त कराती है। ७. आनत इन्द्र- अरहंत परमात्मा की पूजा-भक्ति का साक्षात् समागम नहीं मिलने पर उनकी वीतराग प्रतिमा की पूजा भी वैसा ही फल देती है। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [१७१ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy