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________________ इन्द्राणी- जिन प्रतिमा जिनेन्द्रदेव के आदर्श का प्रतीक है, अतः प्रतिदिन शुभ भावों से प्रतिमा की भक्ति, साक्षात् जिनेन्द्रदेव की भक्ति मानी जाती है। ८. प्राणत इन्द्र- जिन जीवों ने पूर्व भवों में वीतराग प्रभु की प्रतिमा की शुद्ध भाव और द्रव्य से उपासना की, वे ही आगे चलकर त्रैलोक्य पूज्य तीर्थंकर हुए हैं। इन्द्राणी- जिनेन्द्र पूजा से नारी-पर्याय भेदकर नारी नर-पर्याय को प्राप्त होती है। ९. आरण इन्द्र- जो प्रतिमा में लोकोपकारी तीर्थंकरों की स्थापना कर विधिपूर्वक उनकी पूजा करते हैं, वे तीर्थंकर पद को पाकर संसार के समक्ष मोक्ष का मार्ग प्रस्तुत करते हैं। __इन्द्राणी- वास्तव में इस संसार में अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु परमेष्ठी के सिवाय जीव का कोई अन्य शरण नहीं है। १०. अच्युत इन्द्र- अन्य सर्व की शरण को त्यागकर पंचपरमेष्ठी का शरण ग्रहण करने से ही शांति प्राप्त होती है, परन्तु इससे आगे बढ़ने पर अपने आत्मा की ही शरण करना पड़ता है। इन्द्राणी- हम देव पर्याय में हैं और कहा जाता है कि हम पुण्यवान् और सुखी हैं, परन्तु हम विषय चाह की दाह से जल रहे हैं, इसे हम स्वयं जान रहे हैं। सौधर्म- आइये, सर्वदेवगण भगवान् आदिनाथ के जन्म कल्याणक हेतु मध्यलोक में चलें । (परदा लगावें) अयोध्या में इन्द्रागमन मंडप (अयोध्या) में आकर इन्द्रों का हाथी पर बैठे-बैठे तीन या एक बार प्रदक्षिणा देना, तब तक देवियों द्वारा नृत्य। मंडप के सामने उतरकर जय जयकार करते हुए वेदी पर सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी का आना, इन्द्र का इन्द्राणी के प्रति देवी जाहु प्रसूतिघर, लावो तीर्थ कुमार । माता कष्ट न होय कछु, राखो यही विचार । परदे के भीतर इन्द्राणी का विनय सहित मंजूषा के पास मायामयी शिशु रखकर तीर्थंकर मूर्ति बाहर लाना और इन्द्र को सौंपना । इन्द्र का सहस्र नेत्र से दर्शन कर हाथी पर विराजमान करना, मेरू पर शोभायात्रा सहित जाना। ऐरावत- आभियोग्य जाति का देव । एक लाख योजन का उन्नत । १०० मुख ४८ दंत व उन पर सरोवर /००x१२५ कमलिनी पत्येक पर गणा २५ कमल व उन पर १०८ पत्र प्रत्येक पत्र पर अप्सरायें नृत्य करती हईं कुल अप्सरायें ६,७५,००,०००। प्रथम ही पांडक वन में पांडक शिला के ऊपर ईशान कोण में पूर्व मुख प्रभु को विराजमान करें । सौधर्म भगवान् को लेते हैं | ईशान छत्र लगाते हैं । सनतकुमार व महेन्द्र चमर ढोरते हैं। १७२] [ प्रतिष्ठा-प्रदीप] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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