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वर्तमान में गृहस्थों के घरों में ही शौचालय, लघुशंका का स्थान एवं स्नानगृह होते हैं। प्रायः शुद्ध एवं पवित्र स्थान का अभाव होने से गृह चैत्यालय रखना लाभप्रद नहीं है। जिनके मकान बड़े और निवास स्थान से पृथक् चैत्यालय निर्माण की सुविधा है, वहाँ उक्त प्रमाण से बड़ी प्रतिमा भी स्थापित कर सकते हैं । चैत्यालय से घर के बच्चों और वृद्ध व्यक्तियों को जिनदर्शन का लाभ मिलता है । परन्तु जो चैत्यालय के भार को उठाने में समर्थ हों और निर्व्यसनी हों, उन्हें ही यह जिम्मेदारी लेना चाहिये । आजकल चोरी की घटनायें अधिक होने से चैत्यालय व मन्दिर में सुवर्ण व रजत की मूर्ति या यन्त्र आदि सामान एकत्रित करना उचित नहीं है । मन्दिर व मानस्तम्भ प्रतिष्ठा हेतु उनकी संस्कृत पूजा भी है। उनका अभिषेक सामने बड़ा दर्पण रखकर उसमें उनके प्रतिबिम्ब का किया जावे तथा ८१ कलशों से उनके मन्त्र बोलकर शुद्धि करें।
प्रतिमा निर्माण जहाँ प्रतिमा निर्माण हेतु पाषाण पसन्द किया हो, वहाँ विनायक यंत्र की पूजा कर पाषाण को - ॐ ही अर्ह असिआउसा जिन प्रतिमा निर्माणार्थं शुद्ध जलेन पाषाण शुद्धिं करोमि, इस मन्त्र से ९ बार शुद्धि करें । वहाँ १०८ लवंग पाषाण पर रखते हुए णमोकार मन्त्र की एक माला जप लेवें। वहीं स्वस्तिक कर देवें। प्रतिमा तैयार मिले तो निम्न प्रकार प्रमाण से उसकी जाँच करा लेवें
पद्य संस्थान सुन्दर मनोहर रूपमूर्ध्वप्रालंबितं ह्यवसनं कमलासनं च । नान्यासनेन परिकल्पितमीशबिंबमर्हाविधौ प्रथितमार्यमतिप्रपन्नैः ॥१५१॥ बृद्धत्व बाल्यरहितांगमुपेतशान्तिं श्रीवृक्षभूषिहृदयं नखकेशहीनम् । सद्धातुचित्रदृषदां समसूत्रभागं वैराग्यभूषितगुणं तपसि प्रशक्तम् ॥१५२।।
(जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ - ३८) सांगोपांग, सुन्दर, मनोहर, कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन, दिगम्बर, युवावस्था, शान्तिभावयुक्त, हृदय पर श्रीवत्स चिन्ह सहित, नख-केशहीन, पाषाण या अन्य धातु द्वारा रचित, समचतुरस्त्रसंस्थान एवं वैराग्यमय प्रतिमा पूज्य होती है।
उक्त लक्षणों में अर्हन्त प्रतिमा के अष्ट प्रातिहार्य और तीर्थंकर का चिन्ह होना चाहिये । सिद्ध प्रतिमा कराना हो तो अर्हन्त प्रतिमा के समान ही सांगोपांग होना चाहिये केवल प्रातिहार्य और चिह्न न होकर उसके नीचे सिद्ध प्रतिमा खुदवा देना चाहिये।
सिद्धेश्वराणां प्रतिमापि योज्या । सत्प्रातिहार्यादि विना तथैव ।।
(जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, पृष्ठ-१८१)
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[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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