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________________ ओम् में अ, उ और म ये तीन अक्षर हैं। संस्कृत व्याकरण से अ और उ का ओ हो जाता है और म् का विकल्प रूप से अनुस्वार होकर ओं बनता है । उक्त तीनों अक्षरों में क्रमशः अज (ब्रह्म), उमेश (विष्णु) और महेश- ये तीनों सृष्टि, स्थिति और प्रलय के प्रतीक हैं, जो इसी ओं रूप परमात्मा में समाविष्ट हैं । ओं के यही अक्षर क्रम से अव्यय, उत्पाद और मध्य द्वारा व्यय, उत्पाद एवं ध्रौव्य से अनित्यनित्यात्मक पर्याय द्रव्य गुण के लक्षण सिद्ध होते हैं। विश्व रचना में लोक के अधो, ऊर्ध्व एवं मध्य ये तीन भेद इसी ओम् के अन्तर्गत हैं। क्योंकि ओम् मुक्ति (परमात्मा) रूप है, अतः उसका मार्ग, अवलोकन (सम्यग्दर्शन), उद्योतन (सम्यग्ज्ञान) और मौन (सम्यक्चारित्र); ये रत्नत्रय मिलकर माना जाता है। भगवान् ऋषभदेव (वैदिक मतानुसार अष्टम अवतार) से भगवान् महावीर तक तीर्थंकरों से सर्वज्ञ पद प्राप्त होने पर जो उनकी उपदेश रूप दिव्यध्वनि खिरी वह ओंकारात्मक थी, जिसमें संपूर्ण (१८ महाभाषा एवं ७०० लघभाषा) भाषायें गर्भित थीं और प्रत्येक भाषाभाषी श्रोता को अपनी भाषा में सुनाई देती थी। ओं यह वह चमत्कारपूर्ण मन्त्र है जिसे प्लुत (त्रिमात्रिक) रूप से उपांशु (अत्यन्त मंद उच्चारण) या मानस जपते रहने पर अन्तःकरण व समस्त शरीर में व्याप्त होकर भीतर की चंचलता और विकार दूर होते हैं तथा सर्वसिद्धियों के साथ परमानन्द रूप परमात्मा भाव की अनुभूति होती है। __ हम देखते हैं कि ओं के स्थान में ॐ का प्रचार अधिक है। इसका तात्पर्य भी महत्त्वपूर्ण है। यह (३) तीन अंक अनेकात्मक व्यवहार का सूचक है। उसके आगे . बिन्दु भेद व्यवहार का निषेधक, अभेदनिश्चय का द्योतक है। इन दोनों के मध्य में जो रेखा है, वह उक्त दोनों को मिलाकर सापेक्षता या समन्वय की सूचक है । सांख्य, वैशेषिक, मीमांसक, बौद्ध आदि विभिन्न भारतीय दर्शनों में नित्य-अनित्य, भेदअभेद, एक-अनेक आदि परस्पर विरोधी वादों की मान्यताओं का समन्वय इसी मध्य रेखा से, जिसे अनेकान्त कहते हैं, होता है। ॐ के ऊपर अर्धचन्द्रकार उक्त (ऊ) व्यवहार निश्चयात्मक सविकल्पक विषयों से ऊपर उठकर निर्विकल्पक आत्मानुभूति का बोधक है । उसके भी बिन्दु इन समस्त ज्ञान, साधना और अनुभूति के अंतिम फलस्वरूप मुक्ति का ज्ञान कराती है। कठोपनिषद् का यह प्रमाण रूप विशिष्ट पद्य ज्ञातव्य है - सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति, तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति । यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति, तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ।। जिस पद को वेद मानते हैं, संपूर्ण साधनायें - जिसके लिए हैं और जिसकी कामना हेतु ब्रह्मचर्य रूप साधन का आचरण किया जाता है, वह पद समुच्चरूप में ओं ही है। ज्ञानार्णव में भर्तृहरि के भ्राता आचार्य शुभचन्द्र ने ओं को प्रणव (प्रपंच रहित या प्रकृष्ट रूप से २३०] [प्रतिष्ठा-प्रदीप] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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