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________________ आचार्य - पीत (शिष्यों के प्रति वात्सल्य का प्रतीक) उपाध्याय - हरित (प्रेम-विश्वास-आप्तता का प्रतीक) साधु - नील (साधना में लीन होने का प्रतीक, मुक्ति की ओर कदम बढ़ाना)। नोट- ये पाँच अणुव्रत के भी क्रमशः प्रतीक हैं। स्फटिकं श्वेतरक्तं च पीत श्याम निभं तथा । एतत्पंच परमेष्ठि पंचवर्ण यथाक्रमम् ॥ मण्डल पूजा विधान चौबीस महाराज, पञ्चपरमेष्ठी या भक्तामर मण्डल विधान में से कोई एक विधान याग मण्डल से पहले कर लेना चाहिये । इनमें से जिस मण्डल को करना है, उसका मण्डल भी तख्त पर तैयार करा लेवें। नोट- जो प्रतिष्ठाचार्य केवल मण्डल विधान अष्टाह्निका में सिद्धचक्र विधान एवं अन्य समय में इन्द्र ध्वज विधान, समवशरण, तेरहद्वीप आदि करावें । उनमें भी शान्ति जप, अभिषेक, शान्तिधारा, विधान पूजा प्रतिदिन करावें तथा विधान पूर्ण होने पर अभिषेक, शान्तियज्ञ करावें । जल यात्रा व वेदी शोभायात्रा भी चाहे तो करावें । प्रत्येक मण्डल के शान्ति जप पृथक् होते हैं। सूचना- यह ध्यान रहे कि मण्डलजी पर प्रतिमा, यंत्र व स्थापना स्थापित न की जावे । अधिक दिनों तक मण्डल पर गोले भी न चढ़ाये जावें । वह स्थान कोई पवित्र नहीं है । प्रतिदिन स्थापना व पूजा पूर्ण की जावें क्योंकि मण्डल समुच्चय अर्घ्य प्रतिदिन बोले जाते हैं। विधान तो उसका विस्तार है। अभिषेक व शान्तिधारा का उद्देश्य अर्हत् प्रतिमा का अभिषेक यहाँ दिये जा रहे हिन्दी या संस्कृत अभिषेक पाठ बोल कर ही करें । पंच मंगल में जन्म के मंगल का पाठ बोलकर भगवान् के जन्म के समय ही किया जाता है। क्योंकि उसमें 'पुनि श्रृंगार प्रमुख आचार सबै करे' वाली क्रिया की जाती है। वीतराग होने के बाद नीचे की सराग संबंधी क्रिया नहीं होती। अहंतादि पंचपरमेष्ठी का अभिषेक नहीं होता। किन्तु उनकी प्रतिमा का होता है, इस भेद को भी जानना चाहिये । अभिषेक किसी घटना का अनुकरण नहीं है, किन्तु पूजा का अंग है । शान्ति-धारा यन्त्र पर की जाती है, प्रतिमा पर नहीं । क्योंकि यह वीतराग प्रतिमा निष्काम आराधना का पाठ पढ़ाती है, जबकि शान्ति-धारा में कामनाएँ भरी हैं। गृहस्थ जीवन के कष्टों का विचार कर अन्यत्र भटकने के बजाय यहीं अपनी भावना पूर्ण कर लेवें। वर्तमान समय में चाँदी की प्रतिमा व यन्त्र आदि चोरी जाने व अविनय के भय से मन्दिर में खुले रूप में नहीं रखना चाहिये। यहाँ संस्कृत अभिषेक पाठ (आचार्य माघनंदि) का भाव जानने हेतु हिन्दी अभिषेक का पाठ दे दिया गया है। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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