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________________ सातवें वलय में स्थापित उपाध्याय परमेष्ठी के २५ गुणों की पूजा आचारांगं प्रथमं सागारमुनीश चरणभेदकथं । अष्टादशसहस्रपदं यजामि सर्वोपकार सिद्धयर्थं ॥ १६८ ॥ द्रुतिविलम्बित छन्द भाषा - प्रथम अंग कथत आचार को, सहस अष्टादश पद धारतो । पढ़त साधु सु अन्य पढ़ावते, जजूं पाठक को अति चावसे ॥ ॐ ह्रीं अष्टादश सहस्रपदकाचारांगज्ञात्रे उपाध्यायपरमेष्ठीभ्यो अर्ध्यम् निर्वपामीति स्वाहा । सूत्रकृतांग द्वितीयं षट्त्रिंशत्सहस्रपदकृतमहितं । स्वपरसमयविधानं पाठकपठितं यजामि पूजा || १६९ || भाषा - द्वितीय सूत्रकृतांग विचारते, स्वपर तत्त्व सु निश्चय लावते । पद छत्तीस हजार विशाल हैं, जजूं पाठक शिष्य दयालु हैं ॥ ॐ ह्रीं षट्त्रिंशत्सहस्रपदसंयुक्त कृतांगज्ञाता उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा | स्थानांग द्विकचत्वारिंशत्पदकं षडर्थदशसरणेः । एकादिसुभेदयुजः कथंकं परिपूजये वसुभिः || १७० || भाषा - तृतीय अंग स्थान छः द्रव्यको, पद हजार बियालिस धारतो । एक द्वै त्रय भेद बखानता, जजूं पाठक तत्त्व पिछानता ॥ ॐ ह्रीं द्विचत्वारिंशत्पदसंयुक्तस्थानांगज्ञाता उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । समवायांग लक्षैकं चतुरितषष्ठीसहस्रपदविशदं । द्रव्यादिचतुष्टयेन तु साम्योक्तिर्यत्र पूजये विधिना ॥ १७९॥ भाषा- द्रव्य क्षेत्र समय अर भावसे, साम्य झलकावे विस्तार से । लख सहस चौसठ पद धारता, ज्जूं पाठक तत्त्व विचारता || ॐ ह्रीं एकलक्षचतुःषष्ठि पदन्याससहस्रसमवायांगज्ञाता उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । व्याख्याप्रज्ञप्त्यंगं द्विलक्षसहिताष्टविंशतिसहस्रपदं । गणधर कृतषष्टिसहस्रप्रश्नोक्तिर्यत्र पूज्यते महसा ||१७२ || भाषा - प्रश्न साठ हजार बखानता, सहस अठविंशति पद धारता । द्विलख और विशद परकाशता, जजूं पाठक ध्यान सम्हारता ॥ ॐ ह्रीं द्विलक्षाष्टविंशतिसहस्रपदरंजितव्याख्याप्रज्ञप्त्यंगज्ञाता उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्व. स्वाहा । ज्ञातृधर्म कथांगं शरलक्षसषट्कपंचाशत् । पदसहितं वृषचर्चाप्रश्नोत्तरपूजितं महये || १७३ || भाषा - धर्म चर्चा प्रश्नोत्तर करे, पाँच लाख सहस छप्पन धरे । पद सु मध्यम ज्ञान बढ़ावता, जजूं पाठक आतम ध्यावता ॥ ॐ ह्रीं पंचलक्षषट्पंचाशत्सहापदरंजितव्यारव्याप्रज्ञप्त्यंगज्ञाता उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यम् निर्व. स्वाहा । [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] ८४ ] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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