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भाषा- करें वन्दना सिद्ध अरहन्तदेवा, मगन तिन गुणों में रहें सार लेवा ।
उन्हीं सा निजातम जु अपने विचारें, जजू मैं गुरु को धरम ध्यान धारें । ॐ हीं वन्दनावश्यकनिरतिचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
तेषां गुणानां स्तवनं मुनींद्रा वचोभिरुद्भूतमनोमलाकैः ।
कुर्वंति चावश्यकमेव यस्मात् पुष्पांजलिं तत्पुरतः क्षिपामि ॥१६३।। भाषा- करें संस्तवं सिद्ध अरहन्तदेवा, करें गानगुणका लहें ज्ञान मेवा ।
करे निर्मलं भाव को पाप नाशें, जजूं मैं गुरु को सु समता प्रकाशे || ॐ ह्रीं स्तवनावश्यकसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽयम् निर्वपामीति स्वाहा ।
मलोत्सृजादौ क्वचनाप्तदोषं प्रतिक्रमेणापनुदंति वृद्धं ।
साधुं समुद्दिश्य निशादिवीर्यदोषान् जहत्यर्चनया धिनोमि ॥१६४।। भाषा- लगे दोष तन मन वचनके फिरनसे, कहें गुरु समीपे परम शुद्ध मन से ।
करे प्रतिक्रमण अर लहें दण्ड सुख से, जजूं मैं गुरु को छुटूं सर्व दुःख से ॥ ॐ ह्रीं प्रतिक्रमणावश्यकनिरताचार्य परमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
स्वो नाम चात्माऽध्ययते यदर्थः स्वाध्याययुक्तो निजभानुबुद्धः ।
श्रुतस्य चिन्ताऽपि तदर्थबुद्धिस्तामाश्रये स्वाभिमतार्थसिद्ध्यै ॥१६५।। भाषा- करें भावना आत्म की ज्ञान ध्यावै, पढ़े शास्त्र रुचि से सुबोध बढ़ावे।
यही ज्ञान सेवा करम मल छुड़ावे, जजूं मैं गुरु को अबोधं हटावे ।। ॐ ह्रीं स्वाध्यायावश्यककर्मनिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
भुजप्रलंबा दिविधिज्ञतायाः पौरस्त्यमाप्याधिगमं वहंतः ।
व्युत्सर्गमात्रा वशिनः कृतार्था अस्मिन् मखे यांतु विधिज्ञपूजां ।।१६६।। भाषा- तजें सब ममत्वं शरीरादि सेती, खड़े आत्म ध्यावें घुटे कर्म रेती ।
__ लहैं ज्ञानभेदं सु व्युत्सर्ग धारें, जजूं मैं गुरु को स्व अनुभव विचारें ।। ॐ ही ट्युत्सर्गावश्यकनिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
गुणोद्देशा देषा प्रणिधिवशतोऽनंतगुणिनां । कृता ह्याचार्याणामपचितिरियं भावबहुला । समस्तान् संस्मृत्य श्रमणमुकुटानर्घमलघु । प्रपूर्तं संदृब्धं मम मखविधिं पूरयतु वै ।।१६७||
भाषा दोहा गुण अनन्त धारी गुरु, शिवमग चालन हार ।
संघ सकल रक्षा करें, यज्ञ विघ्न हरताल ॥ ॐ हीं अस्मिन्प्रतिष्ठोद्यापने पूजाहमुख्यषष्ठवलयोहमुदित आचार्यपरमेष्ठिभ्यस्तद्गुणेभ्यश्च पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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