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________________ भाषा- नयप्रमाण सुन्यास विचारता, लाख पद चौरासी धारता । पूर्व प्रत्याहार जु नाम है, जजू पाठक रमताराम है ॥ ॐ ह्रीं प्रत्याहारपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । विद्यानुवादभुवि चन्द्रसुकोटिकाष्ठालक्षाः पदा यदधिमंत्रविधिप्रकारः । संरोहिणीप्रभृतिदीर्घविदां प्रसंगस्तं पूजये गुरुमुखांबुजकोशजातं ॥१८८॥ भाषा- मंत्र विद्याविधिको साधता, लक्ष दशकोटि पद धारता । पूर्व है अनुवाद सुज्ञानका, जजू पाठक सन्मति दायका | ॐ ह्रीं विद्यानुवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिने अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । कल्याणवादमननश्रुतमंगमुख्यं षड्विंशतिप्रमितकोटिपदं समर्चे । यत्रास्ति तीर्थकरकामबलत्रिखंडिजन्मोत्सवाप्तिविधिरुत्तमभावना च ॥१८९।। भाषा- पुरुष वेशठ आदि महानका, कथत वृत्त सकल कल्याणका । कोटि छव्विस पदको धारता, जजू पाठक अघ सब टारता । ॐ ह्रीं कल्याणवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । प्राणप्रवादमभिवादयतां नराणां विश्वप्रमाणमितकोटिपदाभियुक्तं । काऽऽर्तिर्भवेन्निरयघोरभवस्य चायुर्वेदादिसुस्वरभृतंपरिपूजयामि ॥१९०॥ भाषा- कथत भेद सुवैद्यक शास्त्रका, कोटि तेरह पदका धारका । पूर्व नाम सुप्रमाण प्रवाद है, जजू पाठक सुर नत पाद है ॥ ॐ ही प्राणप्रवादपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । क्रियाविशालं नवकोटिपधैर्युक्तं सुसंगीतकलाविशिष्टं । छन्दोगणाद्याननुभावयंतमध्यापकानत्र विधौ यजामि ॥१९१॥ भाषा- कथत छन्दकला संगीतको, कोटि नव पद मध्यम रीतको । पूर्व नाम सुक्रिया विशाल है, जजू पाठक दीनदयाल है । ॐ ह्रीं क्रियाविशालपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्वपामीति स्वाहा । त्रैलोक्यविंदौ शिवतत्वचिंता साद्धी सुकोटी द्विदशप्रमाणाः । पदास्त्रिलोकीस्थितिसद्विधानमत्रार्चये भ्रांतिविनाशनाय ॥१९२।। भाषा- तीन लोक विधान विचारता, कोटी अर्द्ध द्वादश धारता । पूर्वबिन्दु त्रिलोक विशाल है, जजू पाठक करत निहाल है । ॐ ह्रीं त्रैलोक्यबिन्दुपूर्वधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽय॑म् निर्दपामीति स्वाहा । इत्थं श्रीश्रुतदेवतां जिनवरांभोध्युद्गतामृद्धिभृन्मुख्यैपॅथनिबंधनाक्षरकृतामालोकयंती त्रयं । लोकानां तदवाप्तिपाठनधियोपाध्यायशुद्धात्मनः कृत्वाराधनसद्विधिं धृतमहाLणार्चये भक्तितः ॥१९३।। भाषा- दोहा-अंग इकादश पूर्वदश, चार सुज्ञायक साध । __ जजू गुरुके चरण दो, यजन सु अव्याबाध ।। ॐ हीं अस्मिन् बिम्बप्रतिष्ठोत्सव सद्विधानेमुख्यपूजाहसप्तमवलयोटमुदित द्वादशांग श्रुतदेवताभ्यस्तदाराधकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यश्च पूर्णाऽय॑म् निर्वपामीति।। [प्रतिष्ठा-प्रदीप] [८ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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