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________________ (२) द्वारस्याष्टांग हीनः स्यात् स पीठः प्रतिमोच्छ्रयः । त्रिभागो भवेत् पीठं द्वौ भागौ प्रतिमोच्छ्रयः || मंदिर द्वार के आठ भागों में से ऊपर के आठवें भाग को छोड़ कर शेष सात भाग प्रमाण प्रतिमा (पीठिका सहित) की ऊँचाई होवे । सात भाग को तीन भाग में करके उनमें से एक भाग की पीठिका और दो भाग की प्रतिमा की ऊँचाई करें। यह खड्गासन प्रतिमा की है । पद्मासन हो तो दो भाग की पीठिका और एक भाग की मूर्ति बनवावें । (व.प्र.प्र.) अतीताब्दशतं यत्स्यात् यच्च स्थापित मुत्तमैः । तद्व्यंगमपि पूज्यं स्याद्विम्वं तन्निष्फलं न हि ॥ १०८ ॥ जिसको १०० वर्ष व्यतीत हो गये हैं, ऐसी सातिशय प्रतिमा किसी महान् पुरुष के द्वारा स्थापित की गयी हो, तो वह विकलांग भी पूज्य है । किसी के हाथ से प्रतिमा खंडित हो जावे तो ११० माला ॐ ह्रीं अर्हं अ सि आ उ सा सर्वशांति कुरु कुरु स्वाहा इस मन्त्र की जप कर चौसठ ऋद्धि विधान की पूजा करें । शक्ति देखकर उपवास व एकाशन करावें तथा उसी नाम की दूसरी प्रतिमा का १०८ कलशों से अभिषेक करें । खंडित प्रतिमा को गहरे जल में छोड़ें | I प्रतिमा चोर ले जावें और मिल जावे तो पंचपरमेष्ठी या चौबीस महाराज मंडल की पूजा करें । ११० माला उक्त शांति मन्त्र की जपें । अभिषेक मन्त्र से १०८ बार अभिषेक कर विराजमान करें । (ज्ञानानंद श्रावकाचार - ९७) प्रतिमाजी की प्रतिष्ठा हुआ पाछे प्रतिमाजी के टांची लगावें नाहीं । दिगम्बर जैन मूर्ति प्राप्ति के कुछ स्थल १. नाटा मूर्तिकला केन्द्र, खजाने का रास्ता, जयपुर-१ २. इन्द्र मूर्तिकला केन्द्र, खजाने का रास्ता, तीसरा चौराहा, जयपुर- १ ३. मुरली मूर्तिकला केन्द्र, खजाने का रास्ता, जयपुर- १ व्रतादि जैनतिथि की मान्यता अतस्तद्वयं निर्मलसमं बहुभिः कुलाद्रिमत माहत मित्यत - अनवच्छिन्न पारंपर्यात् तदुपदेशक बहुसूरि वाक्यच्च सर्व जन सुप्रसिद्धत्वात् रस (६) घटीमतं श्रेष्ठमन्यत् कल्पनोपेतं मतं सेन- नन्दि- देवा उपेक्षन्तेऽनाद्रियन्तेऽतः कुन्दकुन्दाद्युपदेशात् रस (६) घटिका ग्राह्या कार्याइत्यर्थः । आचार्य सिंहनंदि, व्रततिथि निर्णय पृष्ठ ७२; इस मत के द्वारा समर्थित निर्दोष परम्परा से प्राप्त तथा इस निर्दोष परम्परा के उपदेशक आचार्यों के वचनों से एवं सभी मनुष्यों में प्रसिद्ध होने से छः घटी प्रमाण तिथि का प्रमाण माना गया है । अन्य जो तिथि का मान कहा गया है, वह कल्पना मात्र है, समीचीन नहीं है । इसलिए इसकी सेनगण, नन्दिगण और देवगण 'आचार्य उपेक्षा अर्थात् अनादर करते हैं, अतएव I २३२ ] [ प्रतिष्ठा-प्रदीप ] Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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