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कोई भी अक्षर मन्त्र रहित नहीं है, कोई वृक्ष का अवयव औषध रहित नहीं है और कोई व्यक्ति योग्यता रहित नहीं है | इनकी योजना करके इन्हें लाभप्रद बनाने वाला ही दुर्लभ है। वर्ण और पदों में मन्त्र शक्ति एवं अतिशय का होना प्रयोक्ता, उसके भाव, उसके क्षेत्र और काल पर निर्भर है ।
अमंत्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम् । अयोग्यः पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभः ||
‘ॐ, ऐं, श्रीं, क्लीं, ह्रीं, क्षीं, हूं, ह्रौं' आदि बीज मन्त्र अपना पृथक्-पृथक् महत्व रखते हैं । मन्त्र की सफलता शुद्ध उच्चारण, श्रद्धा, जप के नियम, द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि पर निर्भर है ।
वैज्ञानिकों ने शब्द शक्ति के चमत्कार का परीक्षण किया है उसके अनेक उदाहरण हैं । वीणावादन से सर्प, हाथी आदि मोहित हो जाते हैं ।
ओं: = अ अरहंत का, अ अशरीर (सिद्ध) का, आ+आ आचार्य का मिलाकर, आ + उ उपाध्याय का, संधि होने पर, ओ+म् मुनि का = ओम् । म् का अनुस्वार होने पर ओं बनता है । यह पंच परमेष्ठी वाचक है ।
ओंकार दुःख रूपी अग्नि की ज्वाला की शान्ति के लिए नूतन मेघ, समस्त श्रुत के प्रकाश हेतु दीपक और पुण्य रूप है । हे साधक ! इस प्रणव (ओं) का स्मरण कर । ( ज्ञानार्णव ३६-३१)
स्मर-दुःखानल-ज्वाला प्रशांतैर्नव नीरदम् ।
प्रणव वाङ्मय ज्ञाने प्रदीपं पुण्य शासनम् ॥
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यहाँ बिंदु संयुक्त ओंकार पद
उसकी प्रभावकता, अनन्तशक्ति सम्पन्नता अथवा कारण
परमात्मत्व का बोध होता है । ॐ प्रेस ओर पुस्तकों में ऐसा प्रचलित है। इसके उकारव्यवहार और '०' बिन्दु निश्चय तथा - बीच की लकीर दोनों की सापेक्षता का ज्ञान कराते हुए ऊपर की चन्द्रकला, आत्मानुभूति का जो व्यवहार निश्चय से ऊपर है, बोध कराती है। विकार की शून्यता का शून्य है। इसी प्रकार ह्रीं (माया बीज) हं, ह्रौं आदि मन्त्रों का महान् फल ज्ञानार्णव आदि में बताया गया है । विद्यानुवाद पूर्व में इनका विशेष वर्णन है । प्रतिष्ठा ग्रन्थ में महामन्त्र णमोकार मन्त्र के जप का उल्लेख किया गया है । समस्त मन्त्रों में यह अलौकिक माना गया है। श्रद्धा एवं निष्काम रूप में इसे जपने पर ऐसी कोई ऋद्धि-सिद्धि नहीं, जो इसके द्वारा प्राप्त न हो सके ।
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ओंकारं बिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ओंकाराय नमोनमः ॥
१. णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं । (इस मन्त्र में ५ पद, ४ विराम और समस्त वर्ण ३५ हैं )
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[ प्रतिष्ठा-प्रदीप ]
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