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जैसी मान्यता हो, उनमें हस्तक्षेप न करते हुए सामाजिक शांति और धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखना चाहिये। 'विद्यते न हि कश्चिदुपायः सर्वलोक परितोषकरो यः।' की नीति का स्मरण कर हृदय में उपगूहन और वात्सल्य को स्थान देना चाहिये।
मुझे जैन मुहूर्तों का ज्ञान संस्कृत साहित्य के प्रकांड विद्वान् श्री पं. भूरामलजी शास्त्री (परम पूज्य आचार्य विद्यासागरजी महाराज के गुरु स्व. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज) से प्राप्त हुआ। सन् १९५३ में मोदी नगर (दिल्ली) पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में वे मेरे मार्गदर्शक थे। यह प्रतिष्ठा श्री लाला रघुवीरसिंहजी एवं उनके सुपुत्र श्री लाला प्रेमचन्दजी, कैलाशचन्दजी, शांतिस्वरूपजी, जैना वॉच कंपनी द्वारा कराई गई थी। यह प्रतिष्ठा आचार्य श्री नमिसागरजी महाराज के शुभाशीर्वाद से हुई थी।
ध्यान देने योग्य- बिंब प्रतिष्ठा में दि मुनिराज अनिवार्य रूप से रहते हैं। केवलज्ञान कल्याणक के स्वस्त्ययन, श्री मुखोद्घाटन, नेत्रोन्मीलन, प्राण-प्रतिष्ठा, सूरिमंत्र, केवलज्ञान- ये ६ मंत्र उनके द्वारा कराये जाते हैं। सूरि (दि. मुनि-आचार्य) द्वारा दिये गये मंत्र सूरिमंत्र कहलाते हैं। इसके प्रमाण वसुनंदि प्रति.-श्लोक ८, आचार्य जयसेन प्रति. पद्य २४९, आशाधर प्रति.-पद्य ११७, प्रतिष्ठा तिलक पृष्ठ ३६ में देखिये, गृहस्थ सूरिमंत्र देवें तो प्रतिष्ठा निर्दोष नहीं मानी जावेगी।
वर्तमान में संस्कृत यागमंडल आदि के स्थान पर केवल हिंदी में कराने से इसकी मन्त्र रूपता का महत्त्व समाप्त हो गया है। प्रतिष्ठायें जबकि उत्तरायण सूर्य में (१४ जनवरी के पश्चात्) ही कराई जाती है, अभी दक्षिणायन (मंगसिर पौष) में देखकर आश्चर्य होता है। शुक्र एवं गुरु अस्त में भी प्रतिष्ठायें होने लगी हैं। यह सब प्रतिष्ठाशास्त्र के मुहूर्तों का उल्लंघन समाज एवं जनता को संकट में डालने के उपाय हैं। बिना आवश्यकता प्रतिष्ठायें बोली द्वारा धन एकत्रित करने हेतु कराई जा रही हैं, जबकि तीर्थों पर जीर्णोद्धार की अत्यन्त आवश्यकता है। उधर हमारा ध्यान नहीं। आगम में विधिपूर्वक प्रतिष्ठा को मित्र के समान और विधि रहित प्रतिष्ठा को शत्रु के समान माना है।
हमारे यहाँ जैन पूजा-प्रतिष्ठा विधान-प्रवचन आदि में निपुण विद्वानों की कमी है, जिनका तैयार होना आवश्यक है। मेरा निवेदन है कि प्रतिष्ठाचार्यों के प्रति समाज का आदरभाव बना रहे इस हेतु शास्त्रानुकूल विधि के साथ श्रद्धा, संयम और संतोष रखकर कर्तव्य दृष्टि से प्रतिष्ठा कराते रहना चाहिये। मैं चाहता हूँ कि प्रतिष्ठा संबंधी अधिक व्यय न होकर 'प्रतिष्ठा तिलक' के मतानुसार संक्षिप्त प्रतिष्ठा विधि का प्रचार हो, जिसे तृतीय भाग में मैंने लिखायी है। ऐसी प्रतिष्ठायें करीब १० हो चुकी हैं।
इस प्रतिष्ठा ग्रंथ की दूसरी बार शुद्ध कापी तैयार करने में व संपूर्ण प्रकाशन में श्री गुलाबचन्दजी बाकलीवाल की विशेष सहायता प्राप्त हई है तथा श्री अरविन्दकुमारजी. व्यवस्थापक श्री कन्दकुन्द ज्ञानपीठ एवं टाइप सेटिंग में श्री ओमप्रकाशजी जैन का सहयोग मिला है।
जैन संस्कार विधि (पंचम संस्करण) एवं नैतिक शिक्षा १ से ७ भाग अनेक बार प्रकाशन के पश्चात् इस ग्रन्थ के द्वितीय संस्करण हेतु प्रसिद्ध समाजसेवी आदरणीय पद्मश्री बाबलालजी पाटोदी ने श्री वीर निर्वाण ग्रंथ प्रकाशन समिति एवं श्रमण संस्कृति विद्यावर्द्धन ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा स्वीकृति प्रदान करायी है। वर्तमान दिगम्बर जैन समाज के अध्यक्ष श्री हीरालालजी झांझरी, नईदुनिया प्रिन्टरी तथा एस.के. झा मैनेजर ने प्रकाशन संबंधी सुविधा प्रदान की है, एतदर्थ उक्त महानुभावों का मैं आभार मानता हूँ। प्रबुद्ध एवं अनुभवी पाठकों से अपनी अल्पज्ञता के कारण इसमें जो भी त्रुटियाँ हैं, उनकी क्षमा चाहता हूँ।
नायूलाल
(ग्यारह)
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