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________________ प्रतिष्ठा प्रदीप प्रस्तावना जिन बिंब प्रतिष्ठा का उद्देश्य मिथ्यात्व का नाश और अपने धन का सदुपयोग है। आचार्य जयसेन के प्रतिष्ठा पाठ का यह पद्य उल्लेखनीय है:-- "अस्मिन् महे राज्य सुभिक्ष संपदाद्यो हि हेतुः कथितो मुनीन्द्रैः” जिनेन्द्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा द्वारा राज्य में सुख, शान्ति और सुभिक्ष की प्राप्ति आचार्यों ने बताई है। इसी शुभकामना से प्रतिष्ठा की जाती है। प्रतिदिन की पूजा के शान्तिपाठ में हम यही भावना भाते हैं- "क्षेमं सर्व प्रजानाम" समस्त प्रजाजनों का कल्याण हो। तीर्थकर पद भी जगत्कल्याण की भावना से ही प्राप्त होता है। धातु व पाषाण की सर्वांग सुन्दर मूर्ति में मन्त्रों द्वारा गुणों का आरोपण करने पर पूज्यता का भाव उत्पन्न होता है। मूर्ति वीतरागता का आदर्श होना चाहिये। प्रतिष्ठेय मूर्ति में व्यक्ति विशेष का आकार या स्टेच्यु नहीं होता। प्रतिष्ठित मूर्ति के माध्यम से भक्तजन वीतराग विज्ञानता को प्राप्त सच्चे देव की स्तुति पूजा कर सकते हैं। हम जितनी भी प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के दर्शन करते हैं, उनका आकार व स्वरूप सामान्य अर्हन्त सिद्ध अवस्था का पाते हैं। मन्त्रों द्वारा प्रतिष्ठा के समय उनमें तीर्थंकर विशेष या अन्य विशिष्टता की स्थापना कर देते हैं। प्रतिष्ठा पाठ में इसका उल्लेख है कि जिन तीर्थंकरों की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जाती है उनके माता, पिता, वंश, जन्म-नगरी, चिन्ह आदि आवश्यक रहते हैं। अन्यथा उनकी प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती, क्योंकि उनके नामादि के उल्लेख का मन्त्र प्रतिष्ठा पाठ में विद्यमान है। वर्तमान जैन पूजा पद्धति अत्यन्त प्राचीन है। आचार्य कुन्दकुन्द के दशभक्ति पाठ में अष्ट द्रव्य का उल्लेख है १. दिव्वेण ण्हाणेण - जलाभिषेक २. दिव्वेण गंधेण - चन्दन ३. दिव्वेण अक्खेण - अखण्ड अक्षत ४. दिव्वेण पुप्फेण - पुष्प ५. दिव्वेण-चुण्णेण - मोदकादि खाद्य चूर्णेन (पतंजलिभाष्य २६-४-२३ एवं अभिकोश) ६. दिव्वेण दीवेण - दीपक ७. दिव्वेण धूवेण - सुगंध धूप ८. दिव्वेण वासेण - तीर्थंकर पूजायाः माहात्म्य प्रदर्शने-फल (६ अभिधानराजेन्द्र कोश ११-५) पूजा स्थापना निक्षेप का उदाहरण है। जिनमन्दिर या वेदी, समवसरण व गंध कुटी का रूप है। जल पदुमद्रह, क्षीर समुद्र या महागंगा आदि का माना जाता है। केशर से मिश्रित जल में बावन चंदन का, अखण्ड चावलों में मुक्ताफल का, केशर से रंगे चाँवलों में* विविध पुष्पों का, सफेद गिरी खण्डों में विविध व्यंजन रूप नैवेद्य का, पीत गिरी खण्डों में रत्नदीपक का तथा बादाम व लोंग आदि में विविध फलों का संकल्प (स्थापना) कर पूजा की जाती है। जो स्थापना सत्य के अन्तर्गत मानी जाती है और अहिंसापूर्ण क्रियाकाण्ड का सूचक है। सुवर्ण रूक्मोपचितानि युक्त्या संरोपितानीष्ट मनोहराणि। सुवर्ण चाँदी के उपचार करि अर युक्ति करि आरोपित केशर करि रंगे।। (जयसेन प्रतिष्ठा० २४) (नौ) Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002630
Book TitlePratishtha Pradip Digambar Pratishtha Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1988
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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