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गाढोत्कृष्टसुसंहनस्य जनपस्यास्येति संरुढितः 1
क्लृप्तं तच्छुचि नाम तत्फल गणैः संपूजयाम्यादरात् ॥ ॐ ह्रीं प्रायश्चित्तविनयवैय्यावृत्यस्वाध्यायय्युत्सर्गध्यान षट्प्रकारान्तरंगतपो निष्ठाय जिनाय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा |
यहाँ ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रः असिआउसा श्रीं हैं ममेष्टं शुभं कुरु कुरु अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स क्ष पं वं क्षिं स्वाहा ।
इस बोधि समाधि मन्त्र की बोधि समाधि यंत्र पर २७ बार जलधारा देवें ।
ॐ ह्रीं अप्रमत्तगुणस्थानरूढाय जिनायार्घ्यम् ।
ॐ ह्रीं अपूर्वकरण गुणस्थानारूढ़ जिनायार्घ्यम् ।
ॐ ह्रीं अनिवृत्तिकरण गुणस्थानरूढाय जिनायार्घ्यम् । ॐ ह्रीं सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानरूढाय जिनायार्घ्यम् । ॐ ह्रीं क्षीणकषाय गुणस्थानरूढाय जिनायार्घ्यम् । ॐ ह्रीं यथाख्यातचारित्रधारकाय जिनायार्घ्यम् | ॐ ह्रीं मोहनीयज्ञानदर्शनावणांतराय निर्णाशकाय जिनायार्घ्यम् । तिलक दानविधि
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पिंगा - प्रियंगु फलदध्यमृतप्रदूर्वा - सिद्धार्थका हिममहागुरुरत्नसिक्तं तीर्थाम्बुकानकघटोद्धृतदुग्धधारा- सम्पन्नमाशु विदधीत निजाभिषिक्त्यै ॥ स्नात्वा कुसुंभवसनाधृत हेमभूषा, सन्मौक्तिकोद्धृत चतुष्कविराजमाना । मन्त्रं ह्यनादिनिधनं परिजप्य शुद्धा, यष्टी सुचंदनरसं परिषेचयेत्तु ॥ भत्रँचलाक्तवसनायुगकोणभासि, दीपावलीद्युति विशालिशिलोपरिष्टात् । संघृष्य चन्दनमनर्थ समूहनष्ट्यै, भाले विधातु सवितः कृत मण्डितस्य ॥
(जयसेन प्रतिष्ठा, पृ. २७८ )
प्रतिष्ठोत्सव चबूतरे पर यज्ञनायक व उनकी पत्नी शिला - लोढी से सरसों, चंदन, अगुरु, घृत, दूध, जल मिलाकर घिसे और एक कटोरी में भरकर, दीपक जलाकर ९ बार णमोकार मन्त्र पढ़कर यज्ञनायक सपत्नीक प्रतिष्ठाचार्य को उससे तिलक करें । आचार्य चारित्र भक्ति पढ़े । पश्चात -
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असि आ उ सा एहि संवौषट् ।
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असि आ उ सा अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रां ह्रीं हूं हौः हः अ सि आ उ सा अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
इन मन्त्रों से जिन प्रतिमाओं का आह्वानन आदि करें ।
ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं असि आ उ सा अप्रतिहत शक्तिर्भवतु ह्रीं स्वाहा ।
इस मन्त्रको १०८ बार जप कर सुवर्ण शलाका से प्रतिमाओं की नाभि में (हं) बीज स्थापित करें ।
[ प्रतिष्ठा-प्रदीप ]
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