Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: पावयण जिग्गथप सच्च. अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ जो उ० ज्वमिज्जन राणायरं वद श्री अ.भा.सुधा इसयय संघ जोधपुर सुधर्म जैन संस्था थितं संघ जोधपुर स्कृति रक्षाक सा CO0002 PROIN 000७ घाखिलभ शाखा कार्यालय सुधर्मजैन संस्कृति सुधर्म जैन संस्कृति दलीय सुधर्म जनेहरू गेट बाहर, ब्यावर (राजस्थान) संस्कृति रक्षक भारतीय सुधर्म जैन र जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सधर्म जल: (01462) 251216, 257699, 2503284 अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल संघ अनि अखिल भारत क्षक संघ अनि DANCE KOXXKOXXCC अखिल भारतीय क्षक संघ अनि अखिल भारतीय क्षक संघ अनि सुतकृतिरक्षकसमाजाखलभारतीयसुचनजारमा अखिल भारतीय क्षक संघ अ सामंजनसंस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्क अखिल भारतीय क्षक संघ अनि नी अखिल भारतीय क्षक संघ अ अखिल भारतीय टक्षक संघ अनि रतीय अखिल भारतीय रक्षक संघ अ सर अखिल भारतीय एक्षक संघ अनि दीय सधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधन स्कृति अखिल भारती क्षक संघ अनि तीय सुधर्मजन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधमन संस्कृति अखिल भारतीय क्षक संघ अनि तीय सुधर्म भन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृतिस्वाXअखिलभारतीर एक्षक संघ अनि पायसंधर्मजैन संक -भा-सुधर्म जैन संस्कृति अखिल भारती क्षक संघ अनि निीय सुधर्म जन संस् अखिल भारतीय क्षक संघ अध नीयसुधर्मजैन संस्था - भारत सुधर्म जैन संस्कृति र अखिल भारतीय क्षक संघ अनि तीय सुधर्म जैन संस्कृति भारत सुधर्म जैन संस्कृतिरक्षा अखिल भारतीय क्षक संघ अनि नीयसुधर्मजन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति अखिल भारती क्षक संघ अनि नव्या सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति अखिल भारती क्षक संघ अनि यसुधर्मजेन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृतिक II अखिल भारती क्षक संघ अनि सधजनसंस्कतिकसंघ अखिलभायरमन संस्कार अखिल भारती क्षिक संघ काठन एवाववचन अखिल भारती क्षक संघ अपिल कति रक्षक संघ खि यसुधर्मजनास अखिल भारती दक्षक संघ अनि अखिल भारती क्षक संघ अDXXBKDXXKOXXKOKा अखिल भारती क्षक संघ अनि GOOअखिल भारती क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारती क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारती क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षआवरण सौजन्य तीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारती क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारती क्षक संघ अखिलभारतीय क्षक संघ अखिल भारतीयावद्या बाल मडली सोसायटीजोक्षक संघ अखिल भारती रक्षक संघ अखिल भारती क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ आखल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारती क्षक संघ ओखल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षर्क संचाखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारती ाियी मार्म जैन संस्कति रक्षक संघ अखिल भारतीय सधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारती प्रज्ञापना सूत्र भाग १ deu0GC Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************************************* श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्नमाला का १०१ वाँ रत्न - प्रज्ञापना सूत्र भाग-१ (पद १-३) (शुद्ध मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) 米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米 सम्पादक 米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米 नेमीचन्द बांठिया पारसमल चण्डालिया प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन ' संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शिखा नेहगद के बाहर ब्यावर ३०५ १०१, O: (01462)251216, 257699 Fax No. 250328 ************************************** For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, बम्बई प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर 0 2626145 २. शाखा-अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर 8251216 ३. महाराष्ट्र शाखा-माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं० 2217, बम्बई-2 ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १० स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक) - 252097 ६. श्री एच. आर. डोशी जी-३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली:६0 23233521 ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद 85461234 ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा ६. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा 8236108 १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ' ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 2,25357775 १३. श्री संतोषकुमार बोथरा वर्द्धमान स्वर्ण अलंकार ३६४, शॉपिंग सेन्टर, कोटा 2360950 मूल्य : ४०-०० तृतीय आवृत्ति वीर संवत् २५३३ १००० विक्रम संवत् २०६४ अक्टूबर २००७ मुद्रक - स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर , 2423295 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यह संसार अनादिकाल से है और अनंतकाल तक रहेगा इसीलिए संसार को अनादि अनंत कहा जाता है। इसी प्रकार जैन धर्म के संबंध में भी समझना चाहिए। जैन धर्म भी अनादि काल से है और अनंत काल तक रहेगा। हाँ भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में काल का परिवर्तन होता रहता है, अतएव इन क्षेत्रों में समय समय पर धर्म का विच्छेद हो जाता है, पर महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा जैन धर्म लोक की भांति अनादि अनंत एवं शाश्वत हैं। भरत क्षेत्र ऐरावत क्षेत्र में प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में २४-२४ तीर्थंकर होते हैं । तीर्थंकर भगवंतों के लिए विशेषण आता है, "आइच्चेसु अहियं पयासयरा' यानी सूर्य की भांति उनका व्यक्तित्व तेजस्वी होता है वे अपनी ज्ञान रश्मियों से विश्व की आत्माओं को अलौकिक करते हैं । वे साक्षात् ज्ञाता द्रष्टा होते हैं । प्रत्येक तीर्थंकर केवलज्ञान केवलदर्शन होने के बाद चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं और वाणी की वागरणा करते हैं। उनकी प्रथम देशना में ही जितने गणधर होने होते हैं उतने हो जाते हैं। तीर्थंकर प्रभु द्वारा बरसाई गई कुसुम रूप वाणी को गणधर भगवंत सूत्र रूप में गुथित करते हैं जो द्वादशांगी के रूप में पाट परंपरा से आगे से आगे प्रवाहित होती रहती है। जैन आगम साहित्य जो वर्तमान में उपलब्ध है, उसके वर्गीकरण पर यदि विचार किया जाय तो वह चार रूप में विद्यमान है - अंग सूत्र, उपांग सूत्र, मूल सूत्र और छेद सूत्र । अंग सूत्र जिसमें दृष्टिवाद जो कि दो पाट तक ही चलता है उसके बाद उसका विच्छेद हो जाता है, इसको छोड़ कर शेष ग्यारह आगमों का (१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानाङ्ग ४. समवायाङ्ग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ६. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ७. उपासकदशाङ्ग ८. अन्तकृतदशाङ्ग ९. अणुत्तरौपपातिकदशा १० प्रश्नव्याकरण ११. विपाक सूत्र ) अंग सूत्रों में समावेश माना गया है। इनके रचयिता गणधर भगवंत ही होते हैं। इसके अलावा बारह उपांग (१. औपपातिक २. राजप्रश्नीय ३. जीवाभिगम ४. प्रज्ञापना ५. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ६. चन्द्र प्रज्ञप्ति ७. सूर्य प्रज्ञप्ति ८. निरयावलिका ९. कल्पावतंसिया १०. पुष्पिका ११. पुष्प चूलिका १२. वष्णिदशा) चार मूल (१. उत्तराध्ययन २. दशवैकालिक ३. नंदी सूत्र ४. अनुयोग द्वार) चार छेद (१. दशाश्रुतस्कन्ध २. वृहत्कल्प ३. व्यवहार सूत्र ४. निशीथ सूत्र ) और आवश्यक सूत्र । जिनके रचयिता दस पूर्व या इनसे अधिक के ज्ञाता विभिन्न स्थविर भगवंत हैं । प्रस्तुत पन्नवणा यानी प्रज्ञापना सूत्र जैन आगम साहित्य का चौथा उपांग है। संपूर्ण आगम साहित्य में भगवती और प्रज्ञापना सूत्र का विशेष स्थान है । अंग शास्त्रों में जो स्थान पंचम अंग भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र का है वही स्थान उपांग सूत्रों में प्रज्ञापना सूत्र का है। जिस प्रकार पंचम अंग शास्त्र व्याख्याप्रज्ञप्ति के लिए भगवती विशेषण प्रयुक्त हुआ है उसी प्रकार पत्रवणा उपांग सूत्र के लिए For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] प्रत्येक पद की समाप्ति पर 'पण्णवणाए भगवईए' कह कर पन्नवणा के लिए "भगवती " विशेषण प्रयुक्त किया गया है। यह विशेषण इस शास्त्र की महत्ता का सूचक है। इतना ही नहीं अनेक आगम पाठों को "जाव" आदि शब्दों से संक्षिप्त कर पन्त्रवणा देखने का संकेत किया है। समवायांग सूत्र के जीव अजीव राशि विभाग में प्रज्ञापना के पहले, छठे, सतरहवें, इक्कीसवें, अट्ठाइसवें, तेतीसवें और पैतीसवें पद देखने की भलावण दी है तो भगवती सूत्र पनवणा सूत्र के मात्र सत्ताईसवें और इकतीसवें पदों को छोड़कर शेष ३४ पदों की स्थान-स्थान पर विषयपूर्ति कर लेने की भलामण दी गई है। जीवाभिगम सूत्र में प्रथम प्रज्ञापना, दूसरा स्थान, चौथा स्थिति, छठा व्युत्क्रांति तथा अठारहवें कायस्थिति पद की भलावण दी है। विभिन्न आगम साहित्य में पाठों को संक्षिप्त कर इसकी भलावण देने का मुख्य कारण यह है कि प्रज्ञापना सूत्र में जिन विषयों की चर्चा की गयी है उन विषयों का इसमें विस्तृत एवं सांगोपांग वर्णन है। इस सूत्र में मुख्यता द्रव्यानुयोग की है। कुछ गणितानुयोग व प्रसंगोपात इतिहास आदि के विषय भी इसमें सम्मिलित है । 'प्रज्ञा' शब्द का प्रयोग विभिन्न ग्रंथों में विभिन्न स्थलों पर हुआ है। जहाँ इसका अर्थ प्रसंगोपात किया गया है। कोषकारों ने प्रज्ञा को बुद्धि कहा है और इसे बुद्धि का पर्यायवाची माना है जबकि आगमकार महर्षि बहिरंग ज्ञान के अर्थ में बुद्धि का प्रयोग करते हैं एवं अंतरंग चेतना शक्ति को जागृत करने वाले ज्ञान को "प्रज्ञा" के अंतर्गत लिया है। वास्तव में यही अर्थ प्रासंगिक एवं सार्थक है । क्योंकि इसमें समाहित सभी विषय जीव की आन्तरिक और बाह्य प्रज्ञा को सूचित करने वाले हैं। चूंकि प्रज्ञापना सूत्र में जीव अजीव आदि का स्वरूप, इनके रहने के स्थान आदि का व्यवस्थित क्रम से सविस्तार वर्णन है एवं इसके प्रथम पद का नाम प्रज्ञापना होने से इसका नाम 'प्रज्ञापना सूत्र' उपयुक्त एवं सार्थक है। जैसा कि ऊपर बतलाया गया कि इस सूत्र में प्रधानता द्रव्यानुयोग की है और द्रव्यानुयोग का विषय अन्य अनुयोगों की अपेक्षा काफी कठिन, गहन एवं दुरुह है इसलिए इस सूत्र की सम्यक् जानकारी विशेष प्रज्ञा संपन्न व्यक्तित्व के गुरु भगवन्तों के सान्निध्य से ही संभव है। प्रज्ञापना सूत्र के रचयिता कालकाचार्य (श्यामाचार्य) माने जाते हैं । इतिहास में तीन कालकाचार्य प्रसिद्ध हैं १. प्रथम कालकाचार्य जो निगोद व्याख्याता के रूप में प्रसिद्ध है जिनका जन्म वीर नि० सं० २८० दीक्षा वीर निवार्ण सं० ३०० युग प्रधान आचार्य के रूप में वीर नि० सं० ३३५ एवं कालधर्म वीर नि० सं० ३७६ में होने का उल्लेख मिलता है। दूसरे गर्दभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य का समय वीर नि० सं० ४५३ के आसपास का है एवं तीसरे कालकाचार्य जिन्होंने संवत्सरी पंचमी के स्थान पर चतुर्थी को मनायी उनका समय वीर निवार्ण सं० ९९३ के आसपास है । तीनों कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य जो श्यामाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं अपने युग के महान् प्रभावक आचार्य हुए। वे ही प्रज्ञापना सूत्र के रचयिता होने चाहिए। इसके आधार से प्रज्ञापना सूत्र का रचना काल वीर नि० सं० ३३५ से ३७६ के बीच का ठहरता है 1 - ************ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] ** * * *** *************************************-*-* -*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*----*-* -**-*-*-*-* स्थानकवासी परंपरा में उन्हीं शास्त्रों को आगम रूप में मान्य किया है जो लगभग दस पूर्वी या उससे ऊपर वालों की रचना हो। नंदी सूत्र में वर्णित अंग बाह्य कालिक और उत्कालिक सूत्रों का जो क्रम दिया गया है उसका आधार यदि रचनाकाल माना जाय तो प्रज्ञापना सूत्र की रचना दशवैकालिक, औपपातिक, रायपसेणइ तथा जीवाभिगम सूत्र के बाद एवं नंदी, अनुयोग द्वार के पूर्व हुई है। अनुयोगद्वार के कर्ता आर्यरक्षित थे। उनके पूर्व का काल आर्य स्थूलिभद्र तक का काल दश पूर्वधरों का काल रहा है। यह बात इतिहास से सिद्ध है। आर्य श्यामाचार्य इसके मध्य होने वाले युगप्रधान आचार्य हुए। इससे निश्चित हो जाता है कि प्रज्ञापना दशपूर्वधर आर्य श्यामाचार्य की रचना है। प्रज्ञापना सूत्र उपांग सूत्रों में सबसे बड़ा उत्कालिक सूत्र है। इसकी विषय सामग्री ३६ प्रकरणों में विभक्त है जिन्हें 'पद' के नाम से संबोधित किया गया है। वे इस प्रकार हैं - १. प्रज्ञापना पद २. स्थान पद ३. अल्पाबहुत्व ४. स्थिति पद ५. पर्याय पद ६. व्युत्क्रांति पद ७. उच्छ्वास पद ८. संज्ञा पद ९. योनि पद १०. चरम पद ११. भाषा पद १२. शरीर पद १३. परिणाम पद १४. कषाय पद १५. इन्द्रिय पद १६. प्रयोग पद १७. लेश्या पद १८. कायस्थिति पद १९. सम्यक्त्व पद २०. अंतक्रिया पद २१. अवगाहना संस्थान पद २२. क्रिया पद २३. कर्मप्रकृति पद २४. कर्मबंध पद २५. कर्म वेद पद २६. कर्मवेद बंध पद २७. कर्मवेद वेद पद २८. आहार पद २९. उपयोग पद ३०. पश्यत्ता पद ३१. संज्ञी पद ३२. संयत पद ३३. अवधि पद ३४. परिचारणा पद ३५. वेदना पद ३६. समदघात पद। ____ आदरणीय रतनलालजी सा. डोशी के समय से ही इस विशिष्ट सूत्रराज के निकालने की संघ की योजना किसी न किसी कठिनाई के उपस्थित होते रहने पर इस सत्रराज का प्रकाशन न हो सका। चिरकाल के बाद अब इसका प्रकाशन संभव हुआ है। संघ का यह नूतन प्रकाशन है। इसके हिन्दी अनुवाद का प्रमुख आधार आचार्यमलयगिरि की संस्कृत टीका एवं मूल पाठ के लिए संघ द्वारा प्रकाशित सुत्तागमे एवं जंबूविजय जी की प्रति का सहारा लिया गया है। टीका का हिन्दी अनुवाद श्रीमान् पारसमलजी चण्डालिया ने किया। इसके बाद उस अनुवाद को मैंने देखा। तत्पश्चात् श्रीमान् हीराचन्द जी पींचा, इसे पंडित रत्न श्री घेवरचन्दजी म. सा. "वीरपुत्र" को पन्द्रहवें पद तक ही सुना पाये कि पं. र. श्री वीरपुत्र जी म. सा. का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद हमारे अनुनय विनय पर पूज्य श्रुतधर जी म. सा. ने पूज्य पंडित रत्न श्री लक्ष्मीमुनि जी म. सा. को सुनने की आज्ञा फरमाई तदनुसार सेवाभावी श्रावक रत्न श्री प्रकाशचन्दजी सा. चपलोत सनवाड़ निवासी ने सनवाड़ चातुर्मास में म. सा. को सुनाया। पूज्य गुरु भगवन्तों ने जहाँ भी आवश्यकता समझी संशोधन कराने की महती कृपा की। अतएव संघ पूज्य गुरु भगवन्तों एवं श्रीमान् हीराचन्दजी पींचा तथा श्रावक रत्न श्री प्रकाशचन्दजी चपलोत का हृदय से आभार व्यक्त करता है। अवलोकित प्रति का पुनः प्रेस कॉपी तैयार करने से पूर्व हमारे द्वारा अवलोकन किया गया। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र के प्रकाशन में हमारे द्वारा पूर्ण सतर्कता एवं सावधानी बरती गयी फिर भी For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] *********-*-*-00-00-*-*-*-*-*-*-********************-*-100-52-*-*-* -*-*-*-*****************- *-*-*-*-****** ****** सुगमता आगम अनुवाद का विशेष अनुभव नहीं होने से भूलों का रहना स्वाभाविक है। अतएव तत्त्वज्ञ मनीषियों से निवेदन है कि इस प्रकाशन में यदि कोई भी त्रुटि दृष्टिगोचर हो तो हमें सूचित करने की महती कृपा करावें। प्रस्तुत सूत्र पर विवेचन एवं व्याख्या बहुत विस्तृत होने से इसका कलेवर इतना बढ़ गया कि सामग्री लगभग १६०० पृष्ठ तक पहुँच गयी। पाठक बंधु इस विशद सूत्र का से अध्ययन कर सके इसके लिए इस सूत्रराज को चार भागों में प्रकाशित किया जा रहा है। प्रथम भाग में १ से ३ पद का, दूसरे भाग में ४ से १२ पद का, तीसरे भाग में १३ से २१ पद का और चौथे भाग में २२ से ३६ पद का समावेश है। संघ का आगम प्रकाशन का कार्य पूर्ण हो चुका है। इस आगम प्रकाशन के कार्य में धर्म प्राण समाज रत्न तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री जशवंतलाल भाई शाह एवं श्राविका रत्न श्रीमती मंगला बहन शाह, बम्बई की गहन रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा जितने भी आगम प्रकाशित हुए हैं वे अर्द्ध मूल्य में ही बिक्री के लिए पाठकों को उपलब्ध हों। इसके लिए उन्होंने सम्पूर्ण आर्थिक सहयोग प्रदान करने की आज्ञा प्रदान की है। तदनुसार प्रस्तुत आगम पाठकों को उपलब्ध कराया जा रहा है, संघ एवं पाठक वर्ग आपके इस सहयोग के लिए आभारी हैं। आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना आराधना में बीतता है। प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, पर आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की बात है। आपकी धर्म सहायिका श्रीमती मंगलाबहन शाह एवं पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिह्नों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हों एवं शासन की प्रभावना करते रहें। प्रज्ञापना सूत्र की प्रथम आवृत्ति का जून २००२ में एवं द्वितीय आवृत्ति का नवम्बर २००६ में प्रकाशन किया गया जो अल्प समय में ही अप्राप्त हो गयी। अब इसकी तृतीय आवृत्ति का प्रकाशन किया जा रहा है। आए दिन कागज एवं मुद्रण सामग्री के मूल्यों में निरंतर वृद्धि हो रही है। इस प्रकाशन में जो कागज काम में लिया गया वह उत्तम किस्म का मेपलिथो है। बाईडिंग पक्की तथा सेक्शन है। बावजूद इसके आदरणीय शाह परिवार के आर्थिक सहयोग के कारण इसके प्रत्येक भाग का मूल्य मात्र ४०) ही रखा गया है, जो अन्यत्र से प्रकाशित आगमों से बहुत अल्प है। सुज्ञ पाठक बंधु संघ के इस नूतन प्रकाशन का अधिक से अधिक लाभ उठावें। इसी शुभ भावना के साथ! ब्यावर (राज.) संघ सेवक दिनांकः १५-१०-२००७ नेमीचन्द बांठिया For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये। आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय काल मर्यादा १. बड़ा तारा टूटे तो२. दिशा-दाह * ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो४. अकाल में बिजली चमके तो५. बिजली कड़के तो६. शुक्ल पक्ष की १, २,३ की रात७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो८-६. काली और सफेद ●अर१०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, एक.प्रहर जब तक रहे दो प्रहर एक प्रहर आठ प्रहर प्रहर रात्रि तक जब तक दिखाई दे जब तक रहे जब तक रहे ये तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो। मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो। मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक। तब तक सौ हाथ से कम दूर हो, तो। १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे१५. श्मशान भूमि * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा-दाह है। For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. चन्द्र ग्रहण खंड ग्रहण में ८ प्रहर, पूर्ण हो तो १२ प्रहर (चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १७. सूर्य ग्रहण खंड ग्रहण में १२ प्रहर, पूर्ण हो तो १६ प्रहर (सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १८. राजा का अवसान होने पर, जब तक नया राजा घोषित न हो । १६. युद्ध स्थान के निकट जब तक युद्ध चले २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, जब तक पड़ा रहे. (सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य के लिए १०० हाथ। उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता। उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो यदि दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता।) २१-२४. आषाढ़, आश्विन, ____ कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा दिन रात २५-२८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा- . दिन रात २६-३२. प्रातः, मध्याह्न, संध्या और अर्द्ध रात्रिइन चार सन्धिकालों में १-१ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा सामायिक, पौषध में दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए। नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है। अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है।' For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका प्रज्ञापना सूत्र क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या १. प्रस्तावना १|१३. चतुरिन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ९१ २. मंगलाचरण ८/१४. पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ३. प्रज्ञापना का विषय १४ १. नैरयिक जीव २. तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव प्रथम प्रज्ञापना पद . १७-१५ ३. मनुष्य जीव ११० ४. अजीव प्रज्ञापना ४. देव जीव १४५ ५. अरूपी अजीव प्रज्ञापना दूसरा स्थान पद १५१-२७० ६. रूपी अजीव प्रज्ञापना ७. जीव प्रज्ञापना ३९ | १. पृथ्वीकाय-स्थान १५१ असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना ४० २. अपकाय-स्थान १५६ ९. संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना ४५/३. तेजस्काय-स्थान १५९ १०. एकेन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना ४५/४. वायुकाय-स्थान १६५ १. पृथ्वीकायिक जीव प्रज्ञापना ४६/५. वनस्पतिकाय-स्थान १६७ २. अपकायिक जीव प्रज्ञापना ५२ ६. बेइन्द्रिय-स्थान १६९ ३. तेजस्कायिक जीव प्रज्ञापना ५३ |७. तेइन्द्रिय-स्थान १७० ४. वायुकायिक जीव प्रज्ञापना ५७/८. चउरिन्द्रिय-स्थान १७१ ५. वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ५८/९. पंचेन्द्रिय-स्थान १७२ ११. बेइन्द्रिय जीव प्रज्ञापना १. नैरयिक स्थान १७३ १२. तेइन्द्रिय जीव प्रज्ञापना २. पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक स्थान १८६ For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [10] ******* -*-* ** * * *********** पृष्ठ संख्या ३३२ क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या क्रमांक विषय ३. मनुष्य स्थान १८७|११. दर्शन द्वार ४. भवनवासी देव स्थान १८९/१२. संयत द्वार ५. वाणव्यंतर देवों के स्थान २१३ | १३. उपयोग द्वार ६. ज्योतिषी देवों के स्थान २२३ १४. आहार द्वार ७. वैमानिक देवों के स्थान २३० १५. भाषक द्वार १०. सिद्धों के स्थान २५५ १६. परित्त द्वार १७. पर्याप्त द्वार तीसरा बहुवक्तव्यता पद २७१ |१८. सूक्ष्म द्वार १. दिशा द्वार २७३ १९ संज्ञी द्वार २. गति द्वार |२०. भवसिद्धिक द्वार ३. इन्द्रिय द्वार २९० २१. अस्तिकाय द्वार ४. काय द्वार २९५ २२. चरम द्वार ५. योग द्वार ३२४ | २३. जीव द्वार ६. वेद द्वार ३२५ २४. क्षेत्र द्वार ७. कषाय द्वार ३२६ २५. बंध द्वार ८. लेश्या द्वार २६. पुद्गल द्वार ९. सम्यक्त्व द्वार ३२९ / २७. महादंडक द्वार १०. ज्ञान द्वार ३३० ३३४ ३३५ ३३६ ३३७ ३३८ ३३९ ३४० २८८ ३४१ ३४२ ३४९ ३५१ ३५२ ३७४ ३२७ ३७७ ३८९ **** For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५-०० ३५-०० श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ के महत्त्वपूर्ण प्रकाशन आगम बत्तीसी अंग सूत्र कं. नाम आगम मूल्य 1. आचारांग सूत्र भाग-१-२ ५५-०० १. सूयगडांग सूत्र भाग-१,२ ६०-०० १. स्थानांग सूत्र भाग-१,२ ६०-०० १. समवायांग सूत्र ४०-०० .. भगवती सूत्र भाग १-७ ३००-०० . ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र भाग-१, २ ८०-०० 1. उपासकदशांग सूत्र २०-०० '. अन्तकृतदशा सूत्र • अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र १५-०० ०. प्रश्नव्याकरण सूत्र १. विपाक सूत्र ३०-०० उपांग सूत्र . उववाइय सुत्त २५-०० , राजप्रश्नीय सूत्र २५-०० जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग-१,२ ८०-०० प्रज्ञापना सूत्र भाग-१,२,३,४ .. १६०-०० जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ५०-०० •७. चन्द्रप्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति २०-०० .१२. निरयावलिका (कल्पिका, कल्पवतंसिका, २०-०० पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा) मूल सूत्र दशवैकालिक सूत्र ३०-०० उत्तराध्ययन सूत्र भाग-१,२ ८०-०० नंदी सूत्र . अनुयोगद्वार सूत्र ५०-०० - छेद सूत्र ३. त्रीणिछेदसुत्ताणि सूत्र (दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार) ५०-०० निशीथ सूत्र ५०-०० आवश्यक सूत्र ३०-०० २५-०० For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PPERF १०-०० .. . 1 ४५-०० १०-०० १०-०० । " । आगम बत्तीसी के अलावा संघ के प्रकाशन । क्रं. नाम मूल्य | क्रं. नाम १. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ १४-००/५१. जिनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ४०-०० | ५२. बड़ी साधु वंदना ३. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग ३ . ३०-००५३. तीर्थकर पद प्राप्ति के उपाय ४. अंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ८०-०० | ५४. स्वाध्याय सुधा . ५. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ ३५-००/५५. आनुपूर्वी ६. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ४०-०० | ५६. सुखविपाक सूत्र ७. अनंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ८०-००५७. भक्तामर स्तोत्र ८. अनुत्तरोववाइय सूत्र ३-५०/५८. जैन स्तुति ६. आयारो | ५६. सिद्ध स्तुति १०. सूयगडो ६-००/६०. संसार तरणिका ११. उत्तरज्झयणाणि (गुटका) ६१. आलोचना पंचक १२. दसवेयालिय सुत्तं (गुटका) ५-०० ६२. विनयचन्द चौबीसी १३. णंदी सुत्तं (गुटका) अप्राप्य ६३. भवनाशिनी भावना १४. चउछेयसुत्ताई १५-०० ६४. स्तवन तरंगिणी १५. अंतगडदसा सूत्र ६५. सामायिक सूत्र १६-१८.उत्तराध्ययन सूत्र भाग १,२ ६६. सार्थ सामायिक सूत्र १६. आवश्यक सूत्र (सार्थ) ६७. प्रतिक्रमण सूत्र २०. दशवैकालिक सूत्र १५-०० ६५. जैन सिद्धांत परिचय २१. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग १ . ६९. जैन सिद्धांत प्रवेशिका २२. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग २ |७०. जैन सिद्धांत. प्रथमा २३. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ३ १०-०० ७१. जैन सिद्धांत कोविद २४. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ४ १०-०० ७२. जैन सिद्धांत प्रवीण २५. जैन सिद्धांत थोक संग्रह संयुक्त १५-०० ७३. तीर्थंकरों का लेखा २६. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग १ ७४. जीव-धड़ा ८-०० २७. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग २ १०-०० ७५. १०२ बोल का बासठिया २८. पनवणा सूत्र के थोकड़े भाग ३ ७६. लघुदण्डक १०-०० २६-३१. तीर्थंकर चरित्र भाग १,२,३ ७७. महादण्डक १४०-०० ३२. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग १ ७८. तेतीस बोल ३५-०० ३३. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग २ ७६. गुणस्थान स्वरूप ३०-०० ३४-३६. समर्थ समाधान भाग १,२,३ ६०-०० ५०. गति-आगति ८१. कर्म-प्रकृति ३७. सम्यक्त्व विमर्श १५-०० ८२. समिति-गुप्ति ३८. आत्म साधना संग्रह २०-०० ८३. समकित के ६७ बोल ३६. आत्म शुद्धि का मूल तत्वत्रयी २०-०० ५४. पच्चीस बोल ४०. नवतत्वों का स्वरूप १५-०० ८५. नव-तत्त्व ४१. अगार-धर्म १०-०० ८६. सामायिक संस्कार बोध ४२. Saarth Saamaayik Sootra ८७. मुखवस्त्रिका सिद्धि ४३. तत्त्व-पृच्छा १०-०० ८८. विद्युत् सचित्त तेऊकाय है ४४. तेतली-पुत्र ५०-०० ८९. धर्म का प्राण यतना ४५. शिविर व्याख्यान १२-०० ६०. सामण्ण सहिधम्मो ४६. जैन स्वाध्याय माला १८-०० ६१. मंगल प्रभातिका ४७. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग १ २२-०० ६२. कुगुरु गुर्वाभास स्वरूप ४८. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग २ ६३. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ५ ४६. सुधर्म चरित्र संग्रह १४. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ६ ५०. लोकाशाह मत समर्थन १०-००६५. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ७ । । । ? । । । 2 । । । अप्राप्य Par १८.०० ? - १०-०० २०. For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीररस के श्रीमदार्यश्यामाचार्य विरचित प्रज्ञापना सत्र (मूल पाठ, शब्दार्थ, भावार्थ और विवेचन सहित) प्रस्तावना __ अनादि काल से कालचक्र चलता आ रहा है। उसका एक चक्र का समय बीस कोड़ाकोड़ी सांगरोपम का होता है। उसके दो विभाग होते हैं-उत्सर्पिणीकाल और अवसर्पिणीकाल। उत्सर्पिणी काल दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है और इसी तरह अवसर्पिणी काल भी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल में तरेसट-तरेसट (६३-६३) श्लाघ्य (शलाका) पुरुष होते हैं। यथा - चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव। तीर्थङ्कर राजपाट आदि ऋद्धि सम्पदा को छोड़ कर दीक्षित होते हैं। दीक्षा लेकर तप संयम के द्वारा घाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका रूप चतुर्विध श्रमण संघ की स्थापना करते हैं। जिस तीर्थंकर के जितने गणधर होने होते हैं, उतने गणधर प्रथम देशना में हो जाते हैं। फिर तीर्थंकर भगवान् अर्थ रूप से द्वादशाङ्ग की प्ररूपणा करते हैं और गणधर उस अर्थ को सूत्र रूप में गून्थन करते हैं - यथा - अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा णिउणं। सासणस्स हियट्ठयाए, तेण तित्थं पवत्तइ॥ अर्थ - तीर्थंकर भगवान् अर्थ फरमाते हैं और गणधर भगवान् शासन के हित के लिए सूत्र रूप से उसे गून्थन करते हैं। जिससे तीर्थङ्कर का शासन चलता रहता है। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ********************* * * * * * * * * * * प्रज्ञापना सूत्र *********************************************** जिस प्रकार पञ्चास्तिकाय (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय) भूतकाल में थी, वर्तमान काल में है और भविष्यत् काल में भी रहेगी। इसी तरह यह द्वादशाङ्ग वाणी भूतकाल में थी वर्तमान में है और भविष्यत् काल में भी रहेगी। अतएव यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। द्वादशाङ्ग का अर्थ है बारह अङ्ग सूत्र । उनके नाम इस प्रकार है - आचाराङ्ग, सूयगडाङ्ग, ठाणाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवती (व्याख्या प्रज्ञप्ति), ज्ञाता धर्म कथा, उपासकदशाङ्ग, अन्तगड़दशाङ्ग अनुत्तरोववाई, प्रश्नव्याकरण, विपाक सूत्र, दृष्टिवाद । इन बारह अङ्गों में दृष्टिवाद बहुत विशाल है अथवा यों कहना चाहिए कि दृष्टिवाद ज्ञान का खजाना है अथाह और अपार सागर है। उसके पांच भेद किये गये हैं यथा - परिकर्म, सूत्र, पूर्व, अनुयोग, चूला। इनमें पूर्वों के चौदह भेद किये गये हैं । पूर्व शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गयी है कि तीर्थङ्कर भगवान् सबसे पहले पूर्वों का कथन करते हैं । इसीलिये इनको पूर्व ( सबसे पहले) शब्द से कहा जा है। चौदह पूर्वों का ज्ञान बहुत विशाल है। परन्तु शिष्यों को अध्ययन कराने की अपेक्षा से आचाराङ्ग का पहला क्रम दिया गया है। इस पांचवे आरे में न पूर्वों का ज्ञान विद्यमान है और न ही दृष्टिवाद का ज्ञान है । अर्थात् सम्पूर्ण दृष्टिवाद का विच्छेद हो चुका है। अब तो ग्यारह अङ्ग सूत्र ही उपलब्ध होते हैं। इन ग्यारह अङ्गों में व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का महत्त्व बहुत है । यह विशाल भी है । द्रव्यानुयोग के ज्ञान का भण्डार है इसीलिए व्याख्याप्रज्ञप्ति की महत्ता बताने के लिए इसके लिए " भगवती" विशेषण लगाया है। जिसका अर्थ है सम्पूर्ण ऐश्वर्य से सम्पन्न। यह शब्द इतना प्रचलित हुआ कि व्याख्याप्रज्ञप्ति यह नाम गौण होकर व्यवहार में "भगवती" नाम ही प्रचलित हो गया। अङ्गों की तरह उपाङ्गों की संख्या भी बारह है । उनके नाम इस प्रकार है- उववाई, रायपसेणी, जीवाजीवाभिगम, पणवणा, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, निरयावलिया, कप्पवडंसिया, पुष्फिया, पुप्फचूलिया और वहिदसा सूत्र । जिस प्रकार ग्यारह अङ्गों में भगवती सूत्र का महत्त्वपूर्ण प्रथम स्थान है, इसी प्रकार बारह उपाङ्गों में " पण्णवणा" सूत्र का भी महत्त्वपूर्ण प्रथम स्थान है क्योंकि भगवती सूत्र की तरह इसमें भी द्रव्यानुयोग का वर्णन है। यहाँ पर सहज ही यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि क्या भगवती सूत्र की तरह पण्णवणा सूत्र भी तीर्थंकर भगवान् की पाणी है ? इसका समाधान यह है कि किसी अपेक्षा पण्णवणा सूत्र भी तीर्थङ्कर भगवन्तों की ही वाणी है क्योंकि इसकी आगे तीसरी गाथा में शब्द दिया है - "दिट्ठिवायणीसन्दं" For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - प्रस्तावना ३ ************************************************************************************ इसका अर्थ किया है - 'दृष्टिवादस्य-द्वादशाङ्गस्य निष्यन्द इव दृष्टिवादनिष्यन्दः।' अर्थात् दृष्टिवाद का निष्यन्द (रस, निचोड़, सार) भूत यह पण्णवणा सूत्र है। इसका अर्थ यह हुआ कि पण्णवणा सूत्र दृष्टिवाद से उद्धृत किया गया है। इस अपेक्षा से यह पण्णवणा सूत्र तीर्थंकर भगवन्तों की ही वाणी कही जा सकती है। प्रश्न - इस पण्णवणा सूत्र को किस महापुरुष ने उद्धृत किया है ? उत्तर - इस प्रश्न का समाधान इन दो गाथाओं में किया गया है - वायगवर वंसाओ तेईसइमेण धीर परिसेणं।। दुद्धरधरेण मुणिणा पुव्वसुयसमिद्ध बुद्धीण॥१॥ सुयसागरा विणेऊण जेण सुयरयणमुत्तमं दिण्णं। सीसगणस्स भगवओ तस्स णमो अजसामस्स ॥२॥ अर्थ - यद्यपि टीकाकार ने इन दो गाथाओं को अन्य कर्तृक (श्यामाचार्य से भिन्न किसी अन्य किसी महापुरुष के द्वारा बनाई हुई) माना है। तथापि इन दो गाथाओं का अर्थ आचार्य हरिभद्र और आचार्य मलयगिरि ने भी इस प्रकार किया है - दुर्धर (मुश्किलता से धारण करने योग्य) अर्थों को एवं पांच महाव्रतों को धारण करने वाले धैर्यवान्, पूर्वश्रुत से समृद्ध, बुद्धिमान वाचक वंश के अन्तर्गत तेईसवें धीर पुरुष ने श्रुतसागर से अर्थात् पूर्वो से उद्धृत करके शिष्यगण को दिया। उस भगवान् आर्य श्यामाचार्य के लिए नमस्कार हो। इस गाथा में आर्य श्यामाचार्य को नमस्कार किया गया है, इससे यह स्पष्ट होता है कि ये दोनों गाथाएँ दूसरे किसी व्यक्ति ने बनाई हुई है, श्यामाचार्य की नहीं। परन्तु इन गाथाओं पर से यह स्पष्ट होता है कि यह पण्णवणा सूत्र पूर्वो से उद्धृत है और इसके उद्धारकर्ता श्यामाचार्य हैं। पूज्य श्यामाचार्य के विषय में स्थानकवासी सम्प्रदाय के महान् आचार्य श्री पूज्य हस्तीमल जी म. सा. के द्वारा सम्पादित "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" भाग २ पृष्ठ ४९६ में इस प्रकार उल्लेख मिलता है। यथा इतिहास के विशेषज्ञ मुनि कल्याणविजयजी ने भी आर्य श्याम को ही प्रथम कालकाचार्य माना है। "रत्नसंचय प्रकरण' के एतद्विषयक उल्लेख पर टिप्पण करते हुए मुनिजी ने लिखा है - "जहाँ तक हमने देखा है श्यामाचार्य नामक प्रथम कालकाचार्य का सत्ताकाल सर्वत्र वीर निर्वाण संवत् २८० में जन्म, ३०० में दीक्षा, ३३५ में युगप्रधानपद और ३७६ में स्वर्गगमन लिखा है।" पण्णवणा सूत्र के प्रारम्भ में आर्य श्याम की स्तुतिपरक उपरोक्त दो गाथाओं में श्यामाचार्य को वाचक वंश का २३ वाँ पुरुष बताया गया है। पर पट्टक्रमानुसार यह संख्या मेल नहीं खाती है क्योंकि आर्य सुधर्मा से आर्य श्याम पट्टपरम्परा में १२ वें आचार्य होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***** प्रज्ञापना सूत्र ***********************米米米米米米米米米* ऊपर की एक पहली गाथा में श्यामाचार्य को २३ वें पाट पर बताया गया है वह लिपी प्रमाद संभव है टीका में भी इसी का अनुसरण करते हुए इनको २३वें पाट पर बता दिया है। किन्तु वह उचित नहीं लगता है क्योंकि प्राचीन गाथा में (रत्न संचय प्रकरण पत्र ३२ गाथा ५५ ) बताया है कि "सिरिवीरा ओगएसु, पणतीससहिएसु तिसयवरिसेसु । "" पढमो कालगसूरि, जाओ सामज्जणामुत्ति ॥ ५५ ॥ उपरोक्त गाथा में प्रज्ञापना सूत्रकर्ता श्री श्यामाचार्य अपर नाम निगोद व्याख्याता कालकसुरि का समय वीर निर्वाण संवत् ३३५ बताया गया है। यद्यपि पट्टावलियों ने निगोद व्याख्याता कालकाचार्य को १२वें पट्ट पर माना है परन्तु आगम के अनुसार स्थानांग सूत्र ठाणा ३ उद्देश्क ४ में तथा कल्पसूत्र में भगवान् महावीर स्वामी की युगान्तरकृत भूमि बताते हुए तीसरे पुरुष युग तक मोक्ष जाना बताया है अर्थात् भगवान् प्रथम पुरुष युग में, सुधर्मा स्वामी दूसरे पुरुष युग में तथा जम्बू स्वामी तीसरे पुरुष युग रूप में मोक्ष पधारे। इस प्रकार तीन पाट तक मोक्ष जाने का वर्णन है। माथुरीयुग प्रधान पट्टावली में श्यामाचार्य को तेरहवें (भगवान् से चौदहवें ) एवं वालभी युगप्रधान . पट्टावली में १२वें पट्टधर कालकाचार्य के नाम से होना बताया है। भगवान् सहित १३वें पट्टधर मानना ही आग़म दृष्टि से उचित है । नन्दी सूत्र के श्रुतज्ञान के वर्णन में बताया है कि "दस पूर्वी एवं इससे अधिक ज्ञान वालों की रचना ही सम्यक् श्रुत (आगम) रूप में मानी जाती है।" यदि श्यामाचार्य को २३वें पाट पर माना जायेगा तो ये (श्यामाचार्य) आर्य रक्षित से भी बाद में होने से साढ़े नवपूर्वी से भी कम होंगे। उपलब्ध ३२ आगमों में सबसे अर्वाचीन (अन्तिम) अनुयोग द्वार को आर्यरक्षित की रचना माना जाता है शेष सभी आगमों का रचनाकाल विक्रम पूर्व माना गया है अतः प्रज्ञापना सूत्र की रचना बहुत पहले होने से रचनाकार श्यामाचार्य को १३वें पट्ट पर मानना ही उचित लगता है । प्रज्ञापना सूत्र के प्रारम्भ में दी गई इन दो गाथाओं को अन्यकर्तृक तो माना ही जाता है। कुछ भी हो, श्यामाचार्य को २३वें पट्टधर मानने में अनेक उलझने आती हैं । अतः 'तेरसइमेणं' की जगह 'तेवीसइमेण' पाठ लिपी प्रमाद से हो गया हो, ऐसा संभव है। अतः अनेक दृष्टियों से विचार करने पर श्यामाचार्य को १३वें पट्टधर मानना ही उचित लगता है। निश्चय तो ज्ञानी गम्य ही है। वाचनाचार्य आर्य श्याम के परिचय में ऊपर यह बताया जा चुका है कि आर्य स्वाति के पश्चात् तेरहवें वाचनाचार्य के पद पर तथा आर्य गुणसुन्दर के पश्चात् बारहवें युग प्रधानाचार्य के पद पर आर्य श्याम को नियुक्त किया गया। वीर निर्वाण संवत् ३३५ से ३७६ तक इन दोनों महत्त्वपूर्ण पदों पर निरन्तर ४१ वर्ष तक रह कर आर्य श्याम ने शासन की महती सेवा की। श्याम का अर्थ कृष्ण (काला) होता है। इसलिए श्यामाचार्य का दूसरा नाम कालकाचार्य भी है। For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - प्रस्तावना * - *-*-*-* ***********.. *-*-*-*-*-*-*-************************* ********* ********* * कालकाचार्य नाम के आचार्य चार हुए हैं। पण्णवणा सूत्र का पूर्वो से उद्धार करने वाले यह प्रथम . कालकाचार्य हैं। ये दस पूर्वी थे। प्रथम कालकाचार्य के लगभग एक शताब्दी पश्चात् वीर निर्वाण की पांचवी शताब्दी में द्वितीय कालकाचार्य हुए। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका, बृहत्कल्प भाष्य और निशीथ चूर्णि के आधार पर उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - धारावास के राजा वैरसिंह और सुरसुन्दरी राणी के पुत्र का नाम कालक और पुत्री का नाम सरस्वती था। दोनों भाई बहनों में सात्विक प्रगाढ़ स्नेह था। एक समय इन दोनों ने जैन मुनि का धर्मोपदेश सुना। वैराग्य जागृत हुआ और दोनों भाई बहनों ने दीक्षा अङ्गीकार कर ली। किसी समय आर्य कालक अपने श्रमण संघ के साथ विहार करते हुए उज्जयिनी पधारे। नगर के बाहर उद्यान में ठहरे। उनके दर्शन करने के लिए दूसरी साध्वियों के साथ साध्वी सरस्वती भी आयी। सरस्वती गुणों से भी सरस्वती के समान थी और रूप सौंदर्य में भी अनुपम थी। उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल ने उसे मार्ग में जाते हुए देखा। उसके अनुपम रूप लावण्य पर मुग्ध होकर गर्दभिल्ल ने अपने राज पुरुषों द्वारा साध्वी सरस्वती का बलात् अपहरण करवा कर उसे अपने अन्त:पुर में पहुँचा दिया। जब आर्य कालक को इस घटना का पता चला तो वे बहुत दुःखी हुए। राजा गर्दभिल्ल को समझाने का यथा शक्य प्रयत्न किया परन्तु कामान्ध राजा ने साध्वी सरस्वती को पुनः नहीं लौटाया। उससे क्षुब्ध होकर आर्य कालक ने दूसरे राजाओं की सहायता लेकर गर्दभिल्ल राजा को राज्यच्युत करवा कर साध्वी सरस्वती को उससे मुक्त करवाया। साध्वी सरस्वती अपने शील धर्म में अखण्डित रही। फिर आर्य कालक ने और सरस्वती ने पुन: नई दीक्षा धारण की। इसका समय वीर निर्वाण संवत् ४५३ होने का उल्लेख मिलता है। अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए आर्य कालक उज्जयिनी (भडोच) पधारे और वहाँ चातुर्मास किया। उस समय वहाँ बालमित्र नाम का राजा राज्य करता था। राजा की प्रतिकूलता के कारण चातुर्मास में ही विहार करना पड़ा। विहार कर के प्रतिष्ठानपुर पधारे। वहाँ का राजा सातवाहन जैन धर्मावलम्बी और परम श्रद्धालु श्रावक था। इसलिए कालकाचार्य का बड़े आदर सत्कार और उल्हास से साथ नगर प्रवेश करवाया। जब भाद्रपद शुक्ला पंचमी का दिन आने वाला था तब राजा ने निवेदन किया कि - हे भगवन् ! पंचमी के दिन पूर्व परम्परानुसार मुझे इन्द्र महोत्सव में सम्मिलित होना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में यदि पंचमी के दिन पर्वाराधन किया जायेगा तो मैं साधु वन्दन, धर्म श्रवण और सम्यक् पर्वाराधन से वंचित रह जाऊँगा। अतः भादवा सुदी छठ के दिन संवत्सरी की जाय तो ठीक रहेगा। तब आचार्य श्री ने कहा कि पर्व तिथि का अतिक्रमण तो नहीं हो सकता। तब राजा सातवाहन ने कहा कि ऐसी दशा में एक दिन पहले भादवा सुदी चतुर्थी को पर्वाराधन कर लिया जाय तो क्या हानि है ? राजा की बात को स्वीकार करके आर्य कालकाचार्य ने कहा कि ठीक है ऐसा हो सकता है। इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ******************* प्रज्ञापना सूत्र प्रभावक आचार्य होने के कारण कालकाचार्य ने देश काल आदि की परिस्थिति को देखते हुए, भादवा सुदी चतुर्थी को संवत्सरी पर्व मना लिया। परन्तु आगमानुसार समवायाङ्ग सूत्र के सित्तरवें समवाय में तथा निशीथ सूत्र के दसवें उद्देशक में बताया गया है कि संवत्सरी पर्व भादवा सुदी पंचमी को ही आता है । कालकाचार्य के ऊपर के उल्लेख से ऐसा सम्भावित होता है कि दूसरी संवत्सरी आने के पहले ही ये द्वितीय कालकाचार्य स्वर्गवासी हो चुके थे । अन्यथा वे दूसरे वर्ष की संवत्सरी आगमानुसार भादवा सुदी पंचमी को ही करते परन्तु ऐसा नहीं हो सका। पीछे उनके अनुयायियों ने इस बात को आग्रह पूर्वक पकड़ लिया और चतुर्थी को ही संवत्सरी मनाने लगे। जो आज तक भी करते आ रहे हैं । इन कालकाचार्य का परिचय इस प्रकार दिया जाता है कि पंचमी के स्थान पर चतुर्थी को संवत्सरी करने वाले कालकाचार्य तथा गर्दभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य । तीसरे कालकाचार्य का परिचय मिलता नहीं है। चतुर्थ कालकाचार्य के विषय में इतिहास में इस प्रकार परिचय दिया है - छब्बीसवें युगप्रधानाचार्य आर्य भूतदिन के पश्चात् आर्य कालक सत्ताईसवें युगप्रधान आचार्य हुए। नागार्जुन की परम्परा में आगे. चलकर आर्य कालक हुए । उनका जन्म वीर निर्वाण संवत ९११ में दीक्षा ९२३ में, युगप्रधान पद ९८३ में और स्वर्गवास ९९४ में माना जाता है। श्वेताम्बर परम्परा में यही आचार्य कालक चतुर्थ कालकाचार्य के रूप में विख्यात है। वल्लभीपुर (गुजरात) में आगम की अन्तिम वांचना हुई । उसमें आचार्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना के प्रतिनिधि आचार्य देवद्धिगणी क्षमा श्रमण थे। उसी प्रकार आचार्य नागार्जुन की वल्लभी आगम वांचना के प्रतिनिधि कालक सूरि (चतुर्थ कालकाचार्य) थे । वल्लभीपुर में वीर निर्वाण संवत् ९८० में हुई । अन्तिम आगम वांचना में इन दोनों आचार्यों ने मिलकर दोनों वाचनाओं के पाठों को मिलाने के पश्चात् जो एक पाठ निश्चित किया उसी रूप में आज आगम विद्यमान हैं।. श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्पप्रदाय में थोड़े वर्षों पहले श्री पुण्यविजयजी म. सा. हुए थे जिनका स्वर्गवास मुम्बई में विक्रम संवत् २०२७ में हुआ था । ये मुनिराज महान् विद्वान् आगम मनीषी आगम प्रभाकर और श्रुतसेवी थे। करीब चालीस वर्ष तक आगमों के मूल पाठ का सम्पादन एवं संशोधन किया था। उनके द्वारा सम्पादित "पण्णवणा सूत्र " जैन आगम ग्रन्थमाला महावीर जैन विद्यालय ऑगस्ट क्रान्तिमार्ग बम्बई द्वारा प्रकाशित हुआ है। उसमें प्रस्तावना में तथा "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" में लिखा है कि- एक वक्त शक्रेन्द्र महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर भगवान् श्री सीमन्धर स्वामी के मुखारविन्द से निगोद की व्याख्या सुन रहा था। तब उसने भगवान् से प्रश्न किया था कि इस प्रकार निगोद की व्याख्या करने वाला कोई आचार्य भरत क्षेत्र में भी है ? तब उत्तर में सीमन्धर स्वामी ने फरमाया कि For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - प्रस्तावना ***************** ********************** ******* **** *-*-42400 **** *** श्यामाचार्य (कालकाचार्य) इस प्रकार की निगोद की व्याख्या करने वाले हैं। यह सुनकर इन्द्र (शकेन्द्र) भरत क्षेत्र में आया और श्यामाचार्य के मुख से निगोद की व्याख्या सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। मुनि पुण्यविजयजी ने आचार्य श्यामाचार्य के विषय में लिखा है कि पण्णवणा सूत्र के मूल पाठ में किसी भी स्थान पर उसके कर्ता (रचयिता-उद्धर्ता) का कुछ भी निर्देश नहीं किया है। परन्तु उसके प्रारम्भ में मंगलाचरण के बाद दो गाथाएँ दी गयी हैं। जिनकी व्याख्या आचार्य हरिभद्र और आचार्य मलयगिरि ने भी की है। तथापि इन दोनों गाथाओं को प्रक्षिप्त (अन्य कर्तृक) माना है। उन गाथाओं में आर्य श्यामाचार्य को इस पण्णवणा सूत्र का कर्ता माना है और इतना ऊँचा स्थान दिया है कि श्यामाचार्य को कई जगह "भगवान्' शब्द से उल्लिखित किया है। नन्दीसूत्र की पट्टावली में "वंदिमो हारियं च सामजं" अर्थात् हारित गोत्रीय श्यामाचार्य को हम वन्दना करते हैं। पट्टावलियों पर से कालकाचार्य तीन हुए हैं ऐसा सिद्ध होता है। खरतर गच्छ की धर्म सागरीय पट्टावली में लिखा है- "आद्यः प्रज्ञापनाकृत् इन्द्रस्य अग्रे निगोदविचारवक्ता श्यामाचार्यापरनामा। स तु वीरात् ३७६ वर्षेर्जातः" । अर्थात् - इन्द्र के सामने निगोद की व्याख्या करने वाले कालकाचार्य (जिनका दूसरा नाम श्यामाचार्य है) वे प्रज्ञापना सूत्र के करने वाले हैं और वे प्रथम कालकाचार्य हैं। वे वीर निर्वाण संवत् ३७६ में स्वर्गवासी हुए थे। उपरोक्त सब प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि पण्णवणा सूत्र के उद्धर्ता (रचयिता) प्रथम कालकाचार्य (श्यामाचार्य) ही हैं। बारह उपांग सूत्रों में जीवाजीवाभिगम सूत्र के बाद पण्णवणा (प्रज्ञापना) सूत्र आता है। अंग सूत्रों में चौथे अंग सूत्र समवायांग का यह उपांग है। समवायांग सूत्र में जीव, अजीव, स्व समय, परसमय, लोक अलोक आदि विषयों का वर्णन किया गया है। एक एक पदार्थ की वृद्धि करते हुए सौ पदार्थों तक का वर्णन समवायांग सूत्र में है। इन्हीं विषयों का वर्णन प्रज्ञापना सूत्र में विशेष रूप से किया गया है। इसमें ३६ पद हैं। एक एक पद में एक-एक विषय का वर्णन है। आगमों में चार प्रकार के अनुयोगों का निरूपण किया गया है- १. द्रव्यानुयोग २. गणितानुयोग ३. चरणकरणानुयोग और ४. धर्मकथानुयोग। द्रव्यानुयोग में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्य आदि का वर्णन आता है। गणितानुयोग में मनुष्य, तिर्यंच, देव, नारक आदि की गिनती आदि का वर्णन होता है। चरणकरणानुयोग में चारित्र संबंधी और धर्मकथानुयोग में कथा द्वारा धर्म के उपदेश आदि का वर्णन आता है। प्रज्ञापना सूत्र में मुख्य रूप से द्रव्यानुयोग का वर्णन है। इसके सिवाय कहीं कहीं पर चरणकरणानुयोग और गणितानुयोग का विषय भी आया है। प्रथम पद का वर्णन प्रारंभ करने से पूर्व सूत्रकार मंगलाचरण करते हैं - For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ * * * * * * * **** प्रज्ञापना सूत्र मंगलाचरण ववगय जर-मरण - भए सिद्धे अभिवंदिऊण तिविहेण । वंदामि जिणवरिंदं तेलोक्क गुरुं महावीरं ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ - ववगयजर-मरण भए जरा, मरण और भय से रहित, अभिवंदिऊण अभिवंदन (नमस्कार) करके, जिणवरिंदं - जिनवरेन्द्र ( तीर्थंकर) को, तेलोक्क गुरुं - त्रैलोक्य (तीन लोक) के गुरु को। भावार्थ - जिनके जरा, मरण और भय नष्ट हो चुके हैं ऐसे सिद्धों को त्रिविध योग-मन, वचनं और काया से नमस्कार करके तीन लोक के गुरु, जिनेश्वर भगवंतों में श्रेष्ठ ऐसे भगवान् श्री महावीर स्वामी को वन्दना करता हूँ । ************** विवेचन - यह प्रज्ञापना सूत्र सम्यग् ज्ञान का कारण होने से और परंपरा से मोक्ष पद का साधन होने से श्रेय रूप है। इसलिए इसमें विघ्न न आवे अतः विघ्न समूह की शान्ति के लिये और शास्त्र मंगल रूप है यह शिष्य को बताने के लिए स्वतः मंगल रूप होते हुए भी शास्त्र के आदि (प्रारंभ), में, मध्य में और अन्त में मंगल करना चाहिए। उसमें आदि मंगल ( प्रारम्भिक मंगल) शास्त्र के अर्थ को निर्विघ्न रूप से पार पाने के लिये है । मध्य मंगल ग्रहण किये हुए शास्त्रार्थ को स्थिर करने के लिए है। और अन्त मंगल शिष्य प्रशिष्य आदि की परम्परा का विच्छेद न हो इसलिये किया जाता है । ववगयजरमरणभए.....इस गाथा से 'आदि मंगल' कहा है क्योंकि इष्ट देव की स्तुति परम मंगल रूप है। उपयोग पद में 'कइविहेणं भंते! उवओगे पण्णत्ते ? - 'हे भगवन् ! उपयोग कितने प्रकार का कहा है- इत्यादि रूप से मध्य मंगल कहा है। क्योंकि उपयोग ज्ञान स्वरूप है और ज्ञान कर्म क्षय का प्रधान कारण होने से मंगल स्वरूप है। 'ज्ञान कर्म क्षय का प्रधान कारण है' यह बात असिद्ध है ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस संबंध में आगम में स्पष्ट कहा है - "जं अण्णाणी कम्मं खवेइ, बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥" अर्थ अज्ञानी जिन कर्मों को करोड़ों वर्ष में क्षय करता है उसे तीन गुप्ति वाला ज्ञानी श्वासोच्छ्वास मात्र में क्षय कर देता है। अंत में समुद्घात पद में केवली समुद्घात समाप्त होने के बाद सिद्धाधिकार की इस गाथा से अंतिम मंगल कहा है - For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - प्रस्तावना *****************************************************eke-leftited400*******-*-10-41-4-4- 12-** **** "णिच्छिण्णसव्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधण विमुक्का।. सासयमव्वाबाहं चिटुंति सुही सुहं पत्ता॥" - सभी दुःखों का अन्त करने वाले, जन्म, जरा और मरण बंधन से मुक्त अव्याबाध सुख को प्राप्त कर स्वाभाविक सुख वाले सिद्ध शाश्वत काल पर्यंत रहते हैं। जिन्होंने सित यानी बांधे हुए आठ कर्मों को जाज्वल्यमान शुक्लध्यान रूपी अग्नि से ध्यात यानी भस्म (नष्ट) कर डाला है वे सिद्ध हैं तथा जहाँ से लौट कर पुनः यहाँ नहीं आना है ऐसे मोक्ष स्थान को प्राप्त जीव सिद्ध कहलाते हैं एवं जो कृतकृत्य हो चुके हैं वे सिद्ध हैं। अथवा षिधू (शास्त्रे माङ्गल्ये च) धातु शासन और मांगल्य अर्थक होने से इसके दो अर्थ निकलते हैं - जो शास्ता हो चुके हैं जिन्होंने शासन-उपदेश किया है अथवा जिन्होंने मंगलरूपता का अनुभव किया है वे सिद्ध हैं। वे सिद्ध-नित्य हैं क्योंकि उनकी स्थिति अनन्त हैं अथवा भव्य जीवों के लिये उनके गुण जाने हुए होने से जो सिद्ध-प्रसिद्ध है। कहा है कि - ध्मातं सितं येन पुराणकर्म , यो वा गतो निर्वृति सौधमूनि। ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे॥ - जिन्होंने प्राचीन कर्मों को नष्ट कर दिया है जो निर्वाण रूप महल के शिखर पर विराजमान है प्रसिद्ध उपदेष्टा और कृतकृत्य हो चुके ऐसे सिद्ध मेरे लिये मंगलकारी होवें। नाम आदि के भेद से सिद्ध अनेक प्रकार के हैं। अतः सिद्ध का बोध कराने के लिए विशेषण दिया है - ववगय जरा मरण भए (व्यपगत जरा मरण भयान्) - जो जरा मरण और भय से सदा के लिए मुक्त हो चुके हैं। जरा अर्थात् वय की हानि (वृद्धावस्था), मरण अर्थात् प्राणों का त्याग और भय अर्थात् १. इहलोक भय २. परलोक भय ३. आदान भय ४. अकस्मात् भय ५. आजीविका भय ६. मरण भय और ७. अपयश भय। ___ जिणवरिदं (जिनवरेन्द्रम्) - रागादि शत्रुओं को जीतने वाले "जिन" कहलाते हैं। वे चार प्रकार के हैं - १. श्रुत जिन २. अवधि जिन ३. मन:पर्यव जिन और ४. केवली जिन। यहाँ केवली जिन का ग्रहण करने के लिये 'वर' शब्द का प्रयोग किया गया है। जिनों में जो पदार्थ के भूत, भविष्यत् और वर्तमान स्वभाव के जानने वाले केवलज्ञान से युक्त होने के कारण वर यानी श्रेष्ठ हैं। सामान्य केवली भी जिनवर होते हैं अतः तीर्थंकरत्व सूचक पद बतलाने के लिये 'जिनवर' के साथ 'इन्द्र' विशेषण लगाया है। जिसका अर्थ होता है-जिनवरों के इन्द्र (जिनवरेन्द्र)। अर्थात् अत्यंत गुण समुदाय रूप तीर्थंकर नाम कर्म के उदय वाले तीर्थंकर। For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना सूत्र *-*-*-*-*-*-*-******************** तेलोक्कगुरुं (त्रैलोक्य गुरु) - तीन लोक के गुरु। गृ निगरणे क्रयादि - गृणाति उपदिशति शास्त्रस्स यथावस्थितं अर्थं यः स गुरुः । गुरु शब्द में दो अक्षर हैं। इन दोनों अक्षरों का अलग-अलग अर्थ इस प्रकार किया गया है। गु शब्दस्त्वन्धकारः स्यात्, रु शब्दस्तन्निरोधकः। अन्धकार निरोधित्वात्, गुरुरित्यभिधीयते॥ अर्थ - 'गु' अक्षर अन्धकार का वाचक है। 'रु' अक्षर का अर्थ है रोकने वाला। आशय यह है कि जो अज्ञान रूपी अन्धकार को रोके (नष्ट करे) उसको गुरु कहते हैं। भगवान् अधोलोक निवासी भवनपति देवों को, तिर्यग् लोक निवासी व्यन्तर, नर, पशु, विद्याधर और ज्योतिषीदेवों को तथा ऊर्ध्वलोक निवासी वैमानिक देवों को धर्म का उपदेश करते हैं अत: वे तीन लोक के गुरु हैं। ___महावीर - जो महान् वीर हो वह महावीर है। यहाँ "शूरवीर विक्रान्तौ" इस धातु से पराक्रम अर्थ में "वीर" शब्द बना है। भगवान् का महावीर नाम यादृच्छिक नहीं किन्तु गुणनिष्पन्न सार्थक है। जो नाम देवों और दानवों द्वारा परीषह और उपसर्गों को जीतने में यथार्थ और असाधारण वीरता को देख कर दिया गया है। कहा है कि - भय और भय के कारणों में अचल तथा परीषह उपसर्ग सहन करने में समर्थ होने के कारण देवों ने 'महावीर' ऐसा नामकरण किया है। ' आचाराङ्ग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन का पाठ इस प्रकार है - समणे भगवं महावीरे कासवगोत्ते तस्स णं इमे तिण्णि णाम धेजा एवमाहिजंति, अम्मापिउसंतिए "वद्धमाणे" सहसम्मइए"समणे" भीमभयभेरवं उरालं अचले परिसहं सहइ त्ति कट्ट देवेहिं से णामं कयं "समणे भगवं महावीरे"। अर्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी काश्यप गोत्रीय थे। उनके तीन नाम थे। वे इस प्रकार हैं - माता-पिता का दिया हुआ नाम 'वर्धमान'। सहज सन्मति के कारण 'समणे' (श्रमण या सन्मति)। भयङ्कर और भयोत्पादक परीषह उपसर्गों को अडोल (अचल-निश्चल) रह कर सहन किये इसलिए देवों ने यह नाम दिया - 'श्रमण भगवान् महावीर'। ____ यहाँ भगवान् महावीर के लिये प्रयुक्त जिनवरेन्द्र' विशेषण से ज्ञानातिशय और पूजातिशय, त्रैलोक्यगुरु विशेषण से वचनातिशय और महावीर शब्द से अपायापगमातिशय प्रकट होता है। इन चारों अतिशयों में शेष अतिशय उपलक्षण सूचक है। क्योंकि अन्य अतिशय इन चार अतिशयों के बिना नहीं होते हैं अतः चौतीश अतिशय युक्त भगवान् महावीर स्वामी को वंदन करता हूँ। यह समझना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - प्रस्तावना ११ ** ** ******************************************* *** ********** *** **** शंका - ऋषभदेव आदि अन्य तीर्थंकरों को वंदना नहीं करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को ही वन्दन क्यों किया गया है ? - समाधान - भगवान् महावीर स्वामी वर्तमान धर्म तीर्थ के अधिपति (तीर्थाधिपति) होने से आसन्न (निकट) उपकारी है। अतः ऋषभदेव आदि अन्य तीर्थंकरों को वंदन नहीं करके प्रभु महावीर स्वामी को वंदन किया गया है। सुयरयणणिहाणं जिणवरेणं भवियजणणिव्वइकरेणं। उवदंसिया भगवया पण्णवणा सव्व भावाणं ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - सुयरयणणिहाणं - श्रुतरत्न निधान, भवियजणं णिव्वुइकरेणं - भव्य जननिवृत्तिकर-भव्य जीवों के लिये निर्वाण (मोक्ष) का कारण, उवदंसिया - उपदिष्ट की है, पण्णवयाप्रज्ञापना, सव्वभावाणं - सर्व भावों की। भावार्थ - भव्यजनों के लिए मोक्ष या उसके कारण रूप रत्नत्रयी का उपदेश देने वाले सामान्य केवलियों में श्रेष्ठ ऐसे भगवान् महावीर स्वामी ने श्रुतरत्नों के निधान भूत ऐसी सर्व भावों वाली प्रज्ञापना बतायी है। विवेचन - छद्मस्थ और क्षीण मोह जिन की अपेक्षा सामान्य केवली भी जिनवर कहलाते हैं। अतः तीर्थंकरत्व का बोध कराने के लिए भगवया (भगवता) विशेषण दिया है। भग' शब्द का अर्थ बतलाते हुए कहा है कि ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयलस्य, षण्णां भग इतीङ्गना॥ - समग्र ऐश्वर्य, रूप, यश, संयम, लक्ष्मी, धर्म और धर्म में पुरुषार्थ यह छह भंग की संज्ञा है। इन छह बातों का स्वामी भगवान् कहलाता है। तीन लोक के अधिपति होने से अन्य प्राणियों की अपेक्षा तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी समग्र ऐश्वर्यादि सम्पन्न हैं। ____भवियजणणिव्युइकरेणं - भव्य जन निवृत्तिकर - तथाविध अनादि पारिणामिक भाव के कारण जो सिद्धि गमन योग्य हो वह 'भव्य' कहलाता है। ऐसे भव्यजनों को जो निर्वृत्ति-निर्वाण, शांति या निर्वाण के कारण भूत सम्यग्-दर्शन आदि प्रदान करने वाले। शंका - भगवान् भव्य जीवों को ही सम्यग्-दर्शन आदि देते हैं। अभव्य जीवों के लिए क्यों नहीं? क्या यह भगवान् का पक्षपात नहीं है? For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रज्ञापना सूत्र 谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢懒谢谢帝彩密宗彩**我知 ******常常常來常常懒索谢谢常常案宗常案**来来来来来来来樂術樂常常楽楽楽楽沿******* समाधान भगवान् तो भव्य अभव्य के भेद बिना सभी को समान रूप से उपदेश प्रदान करते हैं। परन्तु स्वभाव से ही जैसे सूर्य का प्रकाश उल्लू के लिए उपकारक नहीं होता। उसी प्रकार भगवान् का उपदेश अभव्यों के लिए उपकारक नहीं होता है। भव्यों के लिए ही उपकारी होता । इसलिए 'भव्यजननिवृत्तिकर' ऐसा विशेषण भगवान् के लिए दिया गया है। उवदंसिया- 'उपदर्शिता' - उप-समीप से श्रोताओं को जल्दी से यथावस्थित तत्त्व का बोध हो तदनुसार स्पष्ट वचनों से दर्शिता - उपदेश किया है। पण्णवणा- प्रज्ञापना- प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते जीवाजीवादयो भावा अनया शब्दसंहत्या इति प्रज्ञापना जिस शब्द समूह से जीव अजीव आदि भाव की प्ररूपणा की जाती है वह प्रज्ञापना है | यह प्रज्ञापना श्रुत रत्नों की निधान है । रत्न दो प्रकार के हैं रत्न तात्त्विक नहीं होने से यहाँ भाव रत्नों का अधिकार है। १. द्रव्य रत्न और २. भाव रत्न । द्रव्य किसकी प्रज्ञापना है ? इसके उत्तर में बताया है- सर्व भावों की प्रज्ञापना है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सर्व भाव-तत्त्व हैं। प्रज्ञापना के ३६ पदों में पहले प्रज्ञापना पद में, तीसरे बहुवक्तव्यता पद में, पांचवें विशेष पद में, दसवें चरम पद में और तेरहवें परिणाम पद में जीव और अजीव की प्रज्ञापना है । सोलहवें प्रयोगपद में और २२ वें क्रिया पद में आस्रव की, २३ वें कर्म प्रकृति पद में बंध की, ३६ वें समुद्घात पद में केवली समुद्घात की प्ररूपणा प्रसंग से संवर, निर्जरा और मोक्ष की तथा शेष स्थान आदि पद में कोई कोई भाव की प्रज्ञापना की गयी है अथवा द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव रूप सर्व भावों की प्रज्ञापना है। क्योंकि इसके अलावा अन्य कोई भी वस्तु प्रज्ञापनीय (प्ररूपणा करने योग्य) नहीं है। उसमें पहले प्रज्ञापना पद में जीव और अजीव द्रव्य की, दूसरे स्थान पद में जीव के आधार भूत क्षेत्र की, चौथे स्थिति पद में नैरयिकादि की स्थिति का निरूपण किया हुआ होने से काल की और बाकी के पदों में संख्या, ज्ञानादि पर्याय व्युत्क्रान्ति र उच्छ्वास आदि भावों की प्रज्ञापना की गयी है। - - (वायगवरवंसाओ, तेवीसइमेण धीर पुरिसेणं । दुद्धरधरेण मुणिणा, पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीण ॥ ३ ॥ सुयसागरा विणेऊण, जेण सुयरयणमुत्तमं दिण्णं । सीसगणस्स भगवओ, तस्स णमो अज्जसामस्स ॥ ४ ॥ ) कठिन शब्दार्थ - वायगवरवंसाओ श्रेष्ठ वाचक वंश में, दुद्धरधरेण दुर्धर महाव्रतों को धारण - - For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********************** प्रथम प्रज्ञापना पद प्रस्तावना - करने वाले, पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीण - पूर्व श्रुत से जिसकी बुद्धि समृद्ध हुई है, सुयरयणं श्रुत रत्न, उत्तमं - उत्तम, सीसगणस्स शिष्य गण को, अज्ज सामस्स- आर्य श्यामाचार्य को । * * * * * * * ******* " भावार्थ - श्रेष्ठ वाचक वंश में तेवीसवें धीर पुरुष, दुर्धर - प्राणातिपात विरमण आदि महाव्रतों क धारण करने वाले, पूर्वश्रुत से जिनकी बुद्धि समृद्ध हुई ऐसे मुनि जिन्होंने श्रुतसागर से बीन (चुन) कर प्रधान श्रुत रत्न शिष्य गण को दिये, ऐसे भगवान् आर्य श्यामाचार्य को नमस्कार हो । १३ - विवेचन - इन दोनों गाथाओं का आगे की गाथा अज्झयणमिणं चित्तं ..... के साथ सम्बन्ध है जिन्होंने इस प्रज्ञापना का प्राणियों के उपकार के लिये श्रुतसागर से उद्धार किया है वे आर्य श्यामाचार्य भी नजदीक के उपकारी है अतः हमारे लिए नमस्कार करने योग्य है। इसलिये नमस्कार से संबंधित होने के कारण बीच में अन्य आचार्यों द्वारा रचित ये दो गाथाएँ दी है। • आर्य श्यामाचार्य श्रेष्ठ वाचक वंश में हुए और सुधर्मा स्वामी से प्रारंभ कर तेवीसवें पट्टधर हैं । वे बुद्धि से शोभित होने से धीर पुरुष हैं। जगत् की त्रिकालावस्था का मनन करे वह मुनि यानी जो विशिष्ट ज्ञान युक्त है तथा जिनकी बुद्धि पूर्व के ज्ञान से समृद्ध-वृद्धि पायी हुई है। श्रुत भी अपार होने से और ज्ञानादि रत्न युक्त होने से सागर समान है। ऐसे श्रुतसागर से चुन कर प्रज्ञापना रूप उत्तमप्रधान श्रुतरत्न शिष्यों को दिये हैं ऐसे आर्य श्यामाचार्य को नमस्कार हो । अज्झयणमिणं चित्तं सुयरयणं दिट्ठिवायणीसंदं । जह वण्णियं भगवया, अहमवि तह वण्णइस्सामि ॥ ५ ॥ कठिन शब्दार्थ- सुयरयणं श्रुत रत्न, दिट्ठिवायणीसंदं दृष्टिवाद निःश्यन्द (निष्कर्ष - निचोड़) । - दृष्टिवाद नामक बारहवें अङ्ग के निचोड़ रूप (निष्कर्ष रूप- सारभूत) तथा चित्रविचित्र अर्थात् विविधता युक्त, श्रुतों में रत्न के समान इस प्रज्ञापना रूप अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जिस प्रकार वर्णन किया है, उसी प्रकार मैं ( आर्य श्याम) भी वर्णन करूँगा। अपनी बुद्धि के अनुसार नहीं । प्रश्न - आर्य श्यामाचार्य तो छद्मस्थ हैं। वे केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी की तरह वर्णन करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? For Personal & Private Use Only उत्तर - सर्वज्ञ सर्वदर्शी' केवली भगवान् महावीर स्वामी ने तो इसका वर्णन विस्तार पूर्वक किया है किन्तु आर्य श्यामाचार्य कहते हैं कि मैं तो सामान्य रूप से पदार्थों का कथन करूँगा । इस कथन से उपरोक्त प्रश्न का समाधान हो जाता है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रज्ञापना सूत्र प्रज्ञापना का विषय पण्णवणा १ ठाणाई २ बहुवत्तव्वं ३ ठिई ४ विसेसा य ५ । वक्कंती ६ ऊसासो ७ सण्णा ८ जोणी य ९ चरिमाई १० ॥ ६ ॥ भासा ११ सरीर १२ परिणाम १३ कसाय १४ इंदिए १५ पओगे य १६ । लेसा १७ कायठिई या १८ सम्मत्ते १९ अंतकिरिया य २० ॥ ७ ॥ ओगाहणसंठाणा २१ किरिया २२ कम्म इयावरे २३ । (कम्मस्स) बंधए २४ ( कम्मस्स) वेदे वेदस्स २५ बंधए २६ वेयवेयए २७ ॥ ८ ॥ आहारे २८ उवओगे २९ पासणया ३० सण्णी ३१ संजमे चेव ३२ । ओही ३३ पवियारण ३४ वेयणा य तत्तो ३५ समुग्धाए ३६ ॥ ९ ॥ भावार्थ - प्रज्ञापना सूत्र में छत्तीस पद हैं। वे इस प्रकार हैं १. प्रज्ञापना २. स्थान ३. वक्तव्यता ४. स्थिति ५. विशेष ६. व्युत्क्रांति ७. उच्छ्वास ८. संज्ञा ९. योनि १०. चरम ॥ ६ ॥ ११ भाषा १२ शरीर १३ परिणाम १४ कषाय १५ इन्द्रिय १६ प्रयोग १७ लेश्या १८ कार्यस्थिति १९ सम्यक्त्व और २० अन्तक्रिया ॥ ७ ॥ २१ अवगाहना संस्थान २२ क्रिया २३ कर्म २४ कर्म बन्धक २५ कर्म वेदक २६ वेद बन्धक २७ वेद वेदक ॥ ८ ॥ २८ आहार २९ उपयोग ३० पश्यत्ता- दर्शनता ३१ संज्ञा ३२ संयम ३३ अवधि ३४ प्रविचारणा ३५ वेदना और ३६ समुद्घात ॥ ९ ॥ ये छत्तीस पद हैं। ✿✿✿✿ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं पण्णवणा पदं प्रथम प्रज्ञापना पद से किं तं पण्णवणा ? पण्णवणा दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - जीव पण्णवणा य अजीव पण्णवणा य॥१॥ . कठिन शब्दार्थ - जीव पण्णवणा - जीव प्रज्ञापना, अजीव पण्णवणा - अजीव प्रज्ञापना। भावार्थ - प्रश्न - प्रज्ञापना क्या है? अथवा प्रज्ञापना कितने प्रकार की है ? उत्तर - प्रज्ञापना दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है - १. जीव प्रज्ञापना और २. अजीव प्रज्ञापना। विवेचन - प्रश्न - प्रज्ञापना किसे कहते हैं ? उत्तर - टीकाकार ने प्रज्ञापना शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है - "प्रकर्पण निःशेष कुतीर्थि तीर्थकरासाध्येन यथावस्थित स्वरूपनिरुपण लक्षणेन ज्ञाप्यन्ते-शिष्यबुद्धावारोप्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्था अनयेति प्रज्ञापना।" ___ अर्थ - अन्य मतावलम्बियों के माने हुए धर्म प्रवर्तक, जिन पदार्थों का सम्यक् प्रकार से निरूपण नहीं कर सकते हैं, ऐसे जीव, अजीव आदि पदार्थों का यथावस्थित प्ररूपणा निरूपणा करके शिष्य के बुद्धि में अच्छी तरह से आरोपित किये जाते हैं उसको प्रज्ञापना कहते हैं। जो प्राणों को धारण करे वह जीव है। प्राण दो प्रकार के हैं - द्रव्य प्राण और भाव प्राण। इन्द्रिय आदि द्रव्य प्राण हैं और ज्ञानादि भाव प्राण है। द्रव्य प्राणों के संबंध से नैरयिक आदि संसारी जीव हैं। केवल भाव प्राणों से सर्व प्रकार के कर्मकलंक से मुक्त सिद्ध जीव हैं। जीवों की प्रज्ञापना-प्ररूपणा जीव प्रज्ञापना कहलाती है। जीव से विपरीत जड़ स्वरूप वाला अजीव होता है। जो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय-काल रूप है। प्रज्ञापना के दो भेद बताए गये हैं। उनमें पहला भेद जीव प्रज्ञापना है और दूसरा भेद अजीव प्रज्ञापना है। इस क्रमानुसार पहले जीव प्रज्ञापना की व्याख्या आनी चाहिए किन्तु "सूची कटाह न्यायेन" प्रथम सूची कर्तव्या अल्प समय साध्यत्वात् कटाह पश्चात् कर्तव्य बहु (चिर) समय साध्यत्वात्" । अर्थ - किसी लूहार के पास दो व्यक्ति पहुंचे। एक को कटाई (कढाह-कढ़ाई) बनवाना था और दूसरे को सूई बनवानी थी। यद्यपि कटाह वाला पहले पहुँचा है और सूई वाला पीछे, परन्तु सूई For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रज्ञापना सूत्र ******************** *************** ***** * * * ****************** **** ** बनाने में थोड़ा समय लगता है और कटाह बनाने में अधिक समय लगता है। इसलिये वह पहले सूई बना देता है और कटाह पीछे। इसको "सूची कटाह न्याय'' कहते हैं। इस न्याय के अनुसार अजीव प्ररूपणा की वक्तव्यता अल्प है इसलिए पहले अजीव प्ररूपणा का प्रतिपादन किया जाता है। प्रश्न - ज्ञातव्य वीर्य किसे कहते हैं ? उत्तर - वीर्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है 'विशेषेण ईयेते चेष्ट्यते अनेन इति वीर्यम् अथवा विशेषेण ईर्यति प्रवर्त्तयति आत्मानं तासु तासु क्रियासु इति वीर्यम्।' अर्थ - जिसके द्वारा चेष्टा की जाय उसे वीर्य कहते हैं अथवा जीव को उन उन क्रियाओं में विशेष रूप में प्रेरित करे उसे वीर्य कहते हैं। प्रश्न - वीर्य जीव में होता है या अजीव में ? उत्तर - वीर्य जीवों में होता है अजीवों में नहीं। संसारी जीवों में दस द्रव्य प्राणों में से यथा योग्य प्राण होते हैं। अपने अपने क्षयोपशमानुसार यथा . योग्य भाव प्राण भी होते हैं। सिद्ध भगवन्तों में द्रव्य प्राण नहीं होते हैं किन्तु चार भाव प्राण होते हैं वे ये हैं - अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख और अनन्त आत्मिक शक्ति। कुछ लोगों की मान्यता है कि सिद्धों में अनन्त वीर्य होता है किन्तु यह मान्यता आगमानुकूल नहीं है क्योंकि भगवती सूत्र शतक एक उद्देशक आठ के मूल पाठ में गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान ने फरमाया है "जीवा णं भंते! किं सवीरिया अवीरिया? गोयमा! सवीरिया वि अवीरिया वि। से केणटेणं? गोयमा! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - संसारसमावण्णगा य, असंसारसमावण्णगा य। तत्थ णं जे ते असंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अवीरिया।" अर्थ - हे गौतम! जीवों के दो भेद हैं संसारी और असंसारी। जो असंसारी हैं वे सिद्ध हैं। सिद्ध भगवन्त अवीर्य हैं। वीर्य का अर्थ बतलाया गया है कि जीव को किसी प्रकार की चेष्टा में प्रवृत्त करना। सिद्ध भगवन्त कृतकृत्य हो चुके हैं। उनको कोई भी काम करना बाकी नहीं रहा है। इसलिए किसी प्रकार की चेष्टा हलन चलन आदि क्रिया नहीं करते हैं क्योंकि सिद्ध अक्रिय (किसी प्रकार की क्रिया न करने वाले) हैं। अतः सिद्ध भगवन्तों में अनन्त वीर्य नहीं कहना चाहिए किन्तु अनन्तराय (अनन्त आत्मिक शक्ति) कहनी चाहिए। प्रश्न - द्रव्य प्राण कितने हैं ? उत्तर - द्रव्य प्राण दस हैं। वे इस प्रकार हैं - पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च। उच्छ्वास निःश्वास मथान्यदायुः। For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद अजीव प्रज्ञापना प्राणाः दशैते भगवद्भिरुक्ताः । तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ - जिनसे प्राणी जीवित रहे उन्हें प्राण कहते हैं । वे दस हैं १. स्पर्शनेन्द्रिय बलप्राण २. रसनेन्द्रिय बलप्राण ३. घ्राणेन्द्रिय बल प्राण ४. चक्षुरिन्द्रिय बलप्राण ५. श्रोत्रेन्द्रिय बलप्राण ६. कायबल प्राण ७. वचन बलप्राण ८. मन बलप्राण ९. श्वासोच्छ्वास बलप्राण १०. आयुष्य बलप्राण । इन दस प्राणों में से किसी प्राण का विनाश करना हिंसा है। जैन शास्त्रों में हिंसा के लिए प्रायः प्राणातिपात शब्द का ही प्रयोग होता है। इसका अभिप्राय यही है कि इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण का अतिपात (विनाश) करना ही हिंसा है। एकेन्द्रिय जीवों में चार प्राण होते हैं - स्पर्शनेन्द्रिय बलप्राण, काय बलप्राण, श्वासोच्छ्वास बलप्राण और आयुष्य बलप्राण । द्वीन्द्रिय में छह प्राण होते हैं - चार पूर्वोक्त तथा रसनेन्द्रिय और वचन बल प्राण। त्रीन्द्रिय में सात प्राणं होते हैं- छह पूर्वोक्त और घ्राणेन्द्रिय । चतुरिन्द्रिय में आठ प्राण होते हैं पूर्वोक्त सात और चक्षुरिन्द्रिय। असंज्ञी पंचेन्द्रिय में नौ प्राण होते हैं- पूर्वोक्त आठ और श्रोत्रेन्द्रिय । सन्नी पंचेन्द्रिय में दस प्राण होते हैं- पूर्वोक्त नौ और मन बलप्राण । - १७ अजीव प्रज्ञापना से किं तं अजीव पण्णवणा? अजीव पण्णवणा दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - रूवी अजीव पण्णवणा य, अरूवी अजीव पण्णवणा य ॥ २ ॥ - ********** भावार्थ - प्रश्न- अजीव प्रज्ञापना क्या है ? अथवा अजीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही है ? प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है- १. रूपी अजीव प्रज्ञापना उत्तर - अजीव प्रज्ञापना और २. अरूपी अजीव प्रज्ञापना । विवेचन-. जिसमें रूप हो वे रूपी कहलाते हैं । यहाँ रूप के उपलक्षण से गंध आदि का ग्रहण भी समझ लेना चाहिये। गंधादि के सिवाय रूप का अस्तित्त्व असंभव है । प्रत्येक परमाणु में रूप, रस, गंध और स्पर्श होता है। कहा है कि - कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एक रस वर्ण गंधो, द्विस्पर्शः कार्य लिंगश्च ॥ द्वि प्रदेशी से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कंध तक सभी पौद्गलिक कार्य है। सभी का कारण परमाणु है परन्तु परमाणु का कारण कोई नहीं है। वह सूक्ष्म और पर्याय की अपेक्षा अनित्य होते हुए भी द्रव्यार्थ की अपेक्षा नित्य है। परमाणु एक रस, एक वर्ण, एक गंध और दो स्पर्श वाला होता है। स्पर्श आठ होते हैं यथा शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, गुरु, (भारी), लघु (हलका), कर्कश (खुरदरा - कठोर ), मृदु For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रज्ञापना सूत्र *********** * ********** ************************ ****************** ************** (कोमल-सुहाला)। इन आठ. में चार स्पर्श स्वाभाविक हैं यथा - शीत (ठण्डा), उष्ण (गरम), रूक्ष (रूखा), स्निग्ध (चीकना), बाकी के चार स्पर्श स्वाभाविक नहीं हैं किन्तु दूसरों के संयोग से बनते हैं। परमाणु में चार स्वाभाविक स्पर्शों में से दो अविरोधी स्पर्श पाये जाते हैं यथा - शीत और रूक्ष अथवा शीत और स्निग्ध। इसी प्रकार उष्ण और रूक्ष अथवा उष्ण और स्निग्ध। रूपादि का परस्पर नियत संबंध है अतः जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पाये जाते हों वह रूपी है। ऐसे रूपी अजीव की प्रज्ञापना-प्ररूपणा रूपी अजीव प्रज्ञापना है। अर्थात् पुद्गल स्वरूप अजीव की प्रज्ञापना यह भावार्थ है। क्योंकि पुद्गल ही रूपादि वाला होता है। रूपी के अलावा धर्मास्तिकाय आदि अरूपी अजीव है। अरूपी अजीव की प्रज्ञापना अरूपी अजीव प्रज्ञापना कहलाती है। सूची कटाह न्याय से अल्प वक्तव्यता होने से सूत्रकार पहले अरूंपी अजीव की प्रज्ञापना बतलाते हैं - ___ अरूपी अजीव प्रज्ञापना से किं तं अरूवी अजीव पण्णवणा ? अरूवी अजीव पण्णवणा दसविहा पण्णत्ता तंजहा-धम्मत्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पयेसा ( पदेसा) अधम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थिकायस्स पयेसा (पदेसा), आगासत्थिकाए, आगासस्थिकायस्स देसे, आगासत्थिकायस्स पयेसा (पदेसा), अद्धा समए। सेत्तं अरूवी अजीव पण्णवणा॥३॥ कठिन शब्दार्थ - धम्मत्थिकाए - धर्मास्तिकाय, देसे - देश, पयेसा (पदेसा) - प्रदेश, अधम्मत्थिकाए-अधर्मास्तिकाय, आगासस्थिकाए-आकाशास्तिकाय, अद्धा समए-अद्धा समय (काल)। भावार्थ - प्रश्न - अरूपी अजीव प्रज्ञापना क्या है ? अथवा अरूपी अजीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गयी है ? उत्तर - अरूपी अजीव प्रज्ञापना दस प्रकार की कही गयी है - १. धर्मास्तिकाय २. धर्मास्तिकाय का देश ३. धर्मास्तिकाय का प्रदेश ४. अधर्मास्तिकाय ५. अधर्मास्तिकाय का देश ६. अधर्मास्तिकाय का प्रदेश ७. आकाशास्तिकाय ८. आकाशास्तिकाय का देश ९. आकाशास्तिकाय का प्रदेश और १०. काल। यह अरूपी अजीव प्रज्ञापना है। विवेचन - जिसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि नहीं हो ऐसे अजीव पदार्थ अरूपी अजीव कहलाते हैं। अरूपी अजीव के मुख्य दस भेद होने से अरूपी अजीव की प्रज्ञापना भी दस प्रकार की कही गई है। For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * हैं के के ******************** प्रथम प्रज्ञापना पद अरूपी अजीव प्रज्ञापना धर्मास्तिकाय - स्वभाव से ही गति परिणाम को प्राप्त हुए जीव और पुद्गलों के गति स्वभाव को जो धारण (पोषण) करता है, वह धर्म कहलाता है । अस्ति अर्थात् प्रदेश और काय अर्थात् समूह अस्तिकाय अर्थात् प्रदेशों का समूह। धर्म रूप अस्तिकाय धर्मास्तिकाय कहलाता है। १९ धर्मास्तिकाय का देश - धर्मास्तिकाय के बुद्धि कल्पित दो, तीन संख्यात प्रदेशों का विभाग । धर्मास्तिकाय का प्रदेश - धर्मास्तिकाय का अत्यन्त सूक्ष्म निर्विकल्प (जिसके दूसरे भाग की कल्पना नहीं की जा सके ऐसा ) विभाग। धर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्यात हैं जो लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण है। इसलिए यहाँ 'पयेसा' (बहुवचन) शब्द दिया है। अधर्मास्तिकाय - धर्मास्तिकाय का प्रतिपक्ष अधर्मास्तिकाय है । स्थिति परिणाम को प्राप्त हुए जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक, अमूर्त असंख्यात प्रदेशों का समूह रूप अधर्मास्तिकाय है। अधर्मास्तिकाय का देश और अधर्मास्तिकाय का प्रदेश धर्मास्तिकाय की तरह समझ लेना चाहिये । **************** आकाशास्तिकाय - "आङ् इति मर्यादा अभिविधौ च " अर्थ - आङ् अव्यय के दो अर्थ होते हैं - यथा - मर्यादा और अभिविधि । यहाँ पर दोनों अर्थों को लेकर टीकाकार ने "आकाश" शब्द की व्युत्पत्ति की है यथा 'आङ् इति मर्यादया स्वस्वभावापरित्यागरूपया काशन्ते स्वरूपेण प्रतिभासन्ते अस्मिन् व्यवस्थिताः पदार्था इति आकाशम् । यदा तु अभिविधौ आङ् तदा आङ् इति सर्वभाव अभिव्याप्त्या 'काशते इति आकाशम् ।' अर्थ- जिसमें पदार्थ अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोडने रूप मर्यादा से प्रतिभासित होते हैं वह आकाश है। यदि "आ" अभिविधि व्याप्ति के अर्थ में हो तब जो सब पदार्थों में अभिव्याप्त होकर प्रतिभासित होता हो वह आकाश है। उसके प्रदेशों का समूह आकाशास्तिकाय है । आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेश का अर्थ पहले की तरह जान लेना चाहिए किन्तु इतना फरक है कि आकाशास्तिकाय के प्रदेश अनन्त होते हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय सम्पूर्ण लोकव्यापी होता है । उनके असंख्यात प्रदेश होते हैं । किन्तु आकाशास्तिकाय लोक और अलोक दोनों में व्याप्त हैं इसलिए उसके प्रदेश अनन्त होते हैं। क्योंकि अलोक अनन्त है । उसका अन्त नहीं आता है। - For Personal & Private Use Only अद्धा समय- अद्धा - यह काल की संज्ञा है । अद्धा रूप समय अद्धा समय है । अथवा अद्धाकाल का समय-निर्विभाग भाग अद्धा समय है । यह काल वास्तविक रूप से एक ही वर्तमान समय रूप अतीत और अनागत समय रूप नहीं क्योंकि अतीत (भूतकाल ) काल तो बीत चुका है और अनागत (भविष्यत्) काल अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ है। इसलिए दोनों अर्थात् भूतकाल और भविष्यत् काल अविद्यमान है। क्योंकि काल के सबसे छोटे निर्विभाग अर्थात् जिसके फिर दो विभाग नहीं हो सके ऐसे Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० निर्विभागी अंश को समय कहते हैं। इसलिए उसमें देश और प्रदेश की कल्पना नहीं होती है । पूर्व समय का नाश होने के पश्चात् ही पीछे के समय का सद्भाव होता है इसलिए उसके समुदाय (समूह) नहीं होता है। असंख्यात समय की आवलिका आदि की कल्पना केवल व्यवहार के लिए की गयी है। लोक और अलोक की व्यवस्था का कारण धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय होने से सर्वप्रथम इनका कथन किया गया है। इन दोनों में भी मांगलिक होने से पहले धर्मास्तिकाय का ग्रहण किया है। इसका प्रतिपक्षी होने से धर्मास्तिकाय के बाद अधर्मास्तिकाय का ग्रहण किया है फिर लोकालोक व्यापी होने से आकाशास्तिकाय का ग्रहण है । इसके बाद लोक में समय क्षेत्र और उससे भिन्न क्षेत्र की व्यवस्था करने वाला होने से अद्धा समय का ग्रहण किया गया है। भावार्थ - प्रज्ञापना सूत्र रूपी- अजीव प्रज्ञापना से किं तं रूवी अजीव पण्णवणा ? रूवी अजीव पण्णवणा चउव्विहा पण्णत्ता । तं जहा - खंधा १ खंधदेसा २ खंधप्पएसा ३ परमाणु पोग्गला ४॥ कठिन शब्दार्थ - खंधा- स्कन्ध, परमाणु पोग्गला - परमाणु पुद्गल। और ४. परमाणु पुद्गल । - प्रश्न रूपी अजीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की है ? उत्तर - रूपी अजीव प्रज्ञापना चार प्रकार की कही है - १. स्कन्ध २. स्कन्ध देश ३. स्कन्ध प्रदेश ******喘嗽喘 विवेचन प्रश्न स्कन्ध किसे कहते हैं ? उत्तर - 'स्कन्धाः स्कन्दन्ति शुष्यन्ति धीयन्ते च पुष्यन्ते पुद्गलानां विचटनेन चटनेन चेति स्कन्धाः ' अर्थ - पुद्गलों के पृथक् होने से जो घटता है और पुद्गलों के मिलने से जो वृद्धि को पाता है। वह 'स्कन्ध' कहलाता है। पुद्गल स्कन्धों की अनन्तता बताने के लिये यहाँ स्कन्ध शब्द में बहुवचन का प्रयोग किया गया है। क्योंकि द्रव्य से पुद्गलास्तिकाय अनन्त कही गयी है। तात्पर्य यह है कि एक, दो यावत् संख्यात परमाणुओं के मिलने से संख्यात प्रदेशी स्कन्ध बनता है। इसी तरह असंख्यात परमाणुओं के मिलने से असंख्यात प्रदेशी और अनन्त परमाणुओं के मिलने से अनन्त प्रदेशी स्कन्ध बनता है। अनन्त प्रदेशी स्कन्ध में से परमाणु अलग होते होते असंख्यात, संख्यात यावत् एक परमाणु तक हो जाता है। इस प्रकार परमाणुओं के मिलने से भी स्कन्ध बनते हैं और विचटन (अलग) होने से भी स्कन्ध बनते हैं। स्कन्ध देश - स्कन्धों के ही स्कन्ध रूप परिणाम का त्याग नहीं करने वाले ऐसे बुद्धि कल्पित For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - रूपी अजीव प्रज्ञापना २१ ********************************************************************************** * (वास्तव में होते नहीं है किन्तु केवल कल्पना की जाती है इसलिये वे बुद्धि कल्पित कहलाते हैं।) द्विप्रदेशी त्रिपदेशी आदि विभाग स्कन्ध देश कहलाते हैं। स्कन्ध प्रदेश - स्कन्ध रूप परिणाम को प्राप्त स्कन्ध के ही बुद्धि कल्पित प्रकृष्ट-अत्यंत सूक्ष्म निर्विभाग (जिसका विभाग न हो सके) अंश को स्कन्ध प्रदेश कहते हैं। ___परमाणु पुद्गल - परम-अत्यंत सूक्ष्म अणु, जिनका विभाग नहीं किया जा सके ऐसे निर्विभाग द्रव्य रूप पुद्गल को पुद्गल परमाणु कहते हैं। परमाणु, स्कंध से मिले हुए नहीं होते हैं। ते समासओ पंचविहा पण्णत्ता। तंजहा-वण्ण परिणया १, गंध परिणया २, रस परिणया ३, फास परिणया ४, संठाण परिणया ५॥४॥ भावार्थ - वे संक्षेप से पांच प्रकार के कहे हैं-यथा - १. वर्ण परिणत २. गन्ध परिणत ३. रस परिणत ४. स्पर्श परिणत और ५. संस्थान परिणत। विवेचन - स्कंध, स्कंध देश, स्कंध प्रदेश और परमाणु पुद्गल। ये चारों रूपी अजीव संक्षेप से पांच प्रकार के कहे हैं - १. वर्ण परिणत अर्थात् जो वर्ण रूप में परिणत हो। इसी प्रकार गन्ध परिणत, रस परिणत, स्पर्श परिणत और संस्थान परिणत भी समझ लेना चाहिये। . यहाँ परिणत शब्द भूतकाल का निर्देश करता है जो कि उपलक्षण से वर्तमान काल एवं भविष्यकाल का भी सूचक है। क्योंकि वर्तमान और भविष्य के बिना भूतकाल का संभव नहीं है। जो वर्तमान का अतिक्रमण कर चुका है वह अतीत होता है और जो अनागत का अतिक्रमण कर चुका है वह वर्तमान है। इस संबंध में कहा है कि - भवति स नामातीतो यः प्राप्तो नाम वर्तमानत्वम्। एष्यंश्च नाम सं भवति यः प्राप्स्यति वर्तमानत्वम्॥ - - जो अभी विद्यमान है उसको वर्तमान काल कहते हैं और जो वर्तमान को अतिक्रमण कर चुका है वह अतीत (भूत) काल कहलाता है और जो वर्तमान को प्राप्त करेगा वह भविष्य है। इस दृष्टि से वर्ण परिणत का अर्थ है - वर्ण रूप में जो परिणत हो चुके हैं, वर्ण रूप में परिणत होते हैं और वर्ण रूप में परिणत होंगे। इसी प्रकार गन्ध परिणत आदि का अर्थ भी तीनों काल विषयक समझ लेना चाहिये। जे वण्ण परिणया ते पंचविहा पण्णत्ता। तंजहा - १. काल वण्ण परिणया २. णील वण्ण परिणया ३. लोहिय वण्ण परिणया ४. हालिद्द वण्ण परिणया ५. सुक्किल्ल वण्ण परिणया। भावार्थ - जो वर्ण परिणत हैं वे पांच प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. कृष्ण (काला) वर्ण For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ परिणत २. नील (नीला-हरा) वर्ण परिणत ३. लोहित (लाल) वर्ण परिणत ४. हारिद्र (पीला) वर्ण परिणत और ५. शुक्ल (सफेद) वर्ण परिणत। विवेचन - वर्ण रूप में परिणत पुद्गल पांच प्रकार के कहे हैं - १. कृष्ण वर्ण परिणत - काजल आदि की तरह काले वर्ण रूप परिणत। २. नील वर्ण परिणत - नीले-मोर की गर्दन के रंग आदि की तरह नीले वर्ण रूप परिणत। ३. लोहित वर्ण परिणत - हींगलु आदि के समान लाल रंग परिणत। ४. हारिद्र वर्ण परिणत - हल्दी आदि के समान पीले रंग में परिणत। ५. शुक्ल वर्ण परिणत - शंख आदि के समान श्वेत (सफेद) वर्ण परिणत। जे गंध परिणया ते दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-सुब्भिगंध परिणया य, दुब्भिगंध परिणया य। भावार्थ - जो गन्ध परिणत हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. सुरभि गन्ध परिणत और २. दुरभिगंध परिणत। विवेचन - गन्ध परिणत के दो प्रकार कहे हैं - १. सुरभि - सुगन्ध रूप परिणत और २. दुरभिदुर्गंध रूप परिणत। १. जो पुद्गल चन्दन आदि के संयोग से सुगंध वाले हो जाते हैं वे सुरभिगंध परिणत कहलाते हैं और २. जो पुद्गल लहसुन आदि के संसर्ग से दुर्गन्ध वाले हो जाते हैं वे दुरभिगंध परिणत कहलाते हैं। जे रस परिणया ते पंचविहा पण्णत्ता। तंजहा - १. तित्त रस परिणया २. कडुय रस परिणया ३. कसाय रस परिणया ४. अंबिल रस परिणया ५. महुर रस परिणया। . भावार्थ - जो रस परिणत हैं वे पांच प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. तिक्त रस परिणत २. कटुक रस परिणत ३. कषाय रस परिणत ४. अम्ल रस परिणत और ५. मधुर रस परिणत। विवेचन - रस परिणत पुद्गलों के पांच भेद हैं - १. तिक्त रस परिणत - मिर्च आदि के समान तिक्त (तीखे) रस वाले २. कटक रस परिणत - संठ. नीम. चिरायता आदि के समान कटक रस वाले ३. कषाय रस परिणत - हरडे आदि के समान कसैले (कषाय) रस वाले ४. अम्ल रस परिणत - इमली आदि के समान खट्टे रस वाले ५. मधुर रस परिणत - शक्कर आदि के समान मधुर रस वाले। जे फास परिणया ते अट्ठविहा पण्णत्ता। तंजहा - १. कक्खडफास परिणया २. मउयफास परिणया ३. गरुयफास परिणया ४. लहुयफास परिणया ५. सीयफास परिणया ६. उसिणफास परिणया ७. णिद्धफास परिणया ८. लुक्खफास परिणया। भावार्थ - जो स्पर्श परिणत हैं वे आठ प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. कर्कश स्पर्श परिणत For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - रूपी अजीव प्रज्ञापना ** *** **** ************* *******-000-00400420444******** ***40*404040404201000+ २. मृदु स्पर्श परिणत ३. गुरु स्पर्श परिणत ४. लघु स्पर्श परिणत ५. शीत स्पर्श परिणत ६. उष्ण स्पर्श परिणत ७. स्निग्ध स्पर्श परिणत और ८. रूक्ष स्पर्श परिणत। - विवेचन - जो स्पर्श रूप में परिणत पुद्गल हैं वे आठ प्रकार के कहे गये हैं - १. कर्कश (कठोर) स्पर्श परिणत - पत्थर आदि के समान कठोर स्पर्श वाले पुद्गल २. मृदु (कोमल) स्पर्श परिणत - रेशम आदि के समान कोमल स्पर्श वाले ३. गुरु (भारी) स्पर्श परिणत - वज्र या लोह आदि के समान भारी स्पर्श वाले ४. लघु (हलका) स्पर्श परिणत - आक की रुई आदि के समान हलके स्पर्श वाले पुद्गल ५. शीत स्पर्श परिणत - मृणाल, कदली वृक्ष आदि के समान शीत स्पर्श वाले ६. उष्ण स्पर्श परिणत - अग्नि आदि के समान उष्ण स्पर्श वाले ७. स्निग्ध स्पर्श परिणत - घी आदि के समान स्निग्ध स्पर्श वाले ८. रूक्ष स्पर्श परिणत - भस्म-राख आदि की तरह रूखे स्पर्श वाले पुद्गल। जे संठाण परिणया ते पंचविहा पण्णत्ता। तंजहा - १. परिमंडल संठाण परिणया २. वट्टसंठाण परिणया ३. तंस संठाण परिणया ४. चउरंस संठाण परिणया ५. आयय संठाण परिणया॥५॥ कठिन शब्दार्थ - संठाणपरिणया - संस्थान परिणत। भावार्थ - जो संस्थान परिणत हैं वे पांच प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. परिमंडल संस्थान- वलयाकार रूप परिणत २. वृत्त संस्थान-वर्तुलाकार रूप परिणत ३. त्र्यन संस्थान - त्रिकोणाकृति रूप परिणत ४. चतुरस्र संस्थान - चतुष्कोणाकृति रूप परिणत और ५. आयत संस्थान - दण्डाकार रूप परिणत। __विवेचन - पदार्थ की आकृति विशेष को संस्थान कहते हैं। ये पांच संस्थान अजीव के हैं। जीव के तो छह संस्थान होते हैं। यथा - १. समचतुरस्र संस्थान २. न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान ३. सादि संस्थान ४. वामन संस्थान ५. कुब्ज संस्थान ६. हुण्डक संस्थान। यहाँ अजीव का प्रकरण चल रहा है इसलिये अजीव के संस्थान कहे गये हैं। वलय (चूड़ी) की तरह बाहर का भाग वर्तुलाकार गोल और अंदर का भाग खाली (पोला) होता है उसे परिमंडल कहते हैं। कुम्हार के चाक की तरह अंदर का भाग.खाली (पोला) नहीं हो तो वृत्त संस्थान समझना चाहिये। ये परिमंडल आदि संस्थान घन और प्रतर के भेद से दो प्रकार के होते हैं। उनमें से परिमंडल संस्थान को छोड कर शेष संस्थानों के ओजः प्रदेश जनित-विषम संख्या वाले (१, ३, ५ आदि संख्या वाले) प्रदेशों से उत्पन्न और युग्म प्रदेश जनित-समसंख्या वाले (२, ४, ६ आदि संख्या वाले) प्रदेशों से उत्पन्न, इस प्रकार दो भेद होते हैं। उपरोक्त सभी संस्थानों की आकृति संघ द्वारा प्रकाशित विवेचन युक्त भगवती सूत्र के सातवें भाग के शतक २५ उद्देशक ३ (पृष्ठ ३२३२ से ३२३५ तक) में बताई गई है। उसके अनुसार विवेचन स्थापनाएं समझ लेनी चाहिये। उनमें उत्कृष्ट परिमंडल आदि सभी संस्थान अनन्त परमाणुओं से उत्पन्न हुए और For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रज्ञापना सूत्र ******************************* ********************** **************************** असंख्यात आकाश प्रदेशों में रहे हुए होते हैं। जघन्य संस्थान नियत संख्या वाले परमाणुओं से बने हुए होते हैं वे इस प्रकार हैं - १. ओजः प्रदेश प्रतर वृत्त - पांच परमाणुओं से बना हुआ और पांच आकाश प्रदेशों में रहा हुआ जैसे कि - एक परमाणु बीच में और चार परमाणु अनुक्रम से पूर्व आदि चारों दिशाओं में स्थापित किये जाते हैं। २. युग्म प्रदेश प्रतर वृत्त - बारह परमाणुओं से बना हुआ और बारह आकाश प्रदेश में रहा हुआ। उसमें निरन्तर चार परमाणु चार आकाश प्रदेश में रुचकाकार (गोस्तनाकार) स्थापित करना और उसके चारों ओर शेष आठ परमाणु रखना। ___३. ओजः प्रदेश घनवृत्त - सात परमाणुओं से बना हुआ और सात आकाश प्रदेशों में रहा हुआ पांच प्रदेश के प्रत्तर वृत्त के मध्य भाग में रहे हए परमाण के ऊपर और नीचे एक-एक परमाण रखना जिससे सात प्रदेश वाला घनवृत होता है। ४. युग्म प्रदेश घनवृत्त - बत्तीस परमाणुओं वाला और बत्तीस आकाश प्रदेशों में रहा हुआ। . पूर्वोक्त बारह परमाणुओं के प्रत्तरवृत्त के ऊपर बारह परमाणु रखना और उसके ऊपर नीचे दूसरे ४-४ परमाणु रखना। ५. ओजः प्रदेश प्रतर त्र्यस्त्र - तीन परगाणुओं से बना हुआ और तीन आकाश प्रदेशों में रहा हुआ तिरछे दो परमाणु और उसके बाद प्रथम परमाणु के नीचे एक ओर परमाणु। ६. युग्म प्रदेश - प्रतर त्र्यस्त्र - छह परमाणुओं से उत्पन्न हुआ और छह आकाश प्रदेश में रहा । हुआ। जिसमें तिरछे निरन्तर तीन परमाणु रखना उसके बाद प्रथम परमाणु के नीचे, ऊपर और नीचे यों दो परमाणु रखना और दूसरे के नीचे एक परमाणु रखना। ७. ओजः प्रदेश घन त्र्यस्त्र - ३५ परमाणुओं से बना हुआ और ३५ आकाश प्रदेशों में रहा हुआ। जो इस प्रकार है - तिरछे निरन्तर पांच परमाणु रखना, उसके नीचे अनुकम से तिरछे ४, ३, २ और १ परमाणु रखना, इस प्रकार १५ प्रदेश वाला प्रतर होता है। इस प्रतर के ऊपर सभी पक्तियों के अंत में रहे हुए एक-एक प्रदेश को छोड़ कर दस परमाणु रखना उसी प्रकार उसके ऊपर छह तीन और एक इस प्रकार अनुक्रम से परमाणु रखना, ये सभी मिल कर ३५ प्रदेश होते हैं। ८. युग्म प्रदेश घन त्र्यस्त्र - चार प्रदेशों का बना हुआ और चार आकाश प्रदेशों में रहा हुआ। तीन प्रदेशों से बने हुए प्रतर त्र्यस्र के एक परमाणु के ऊपर एक परमाणु रखना, जिससे सब मिल कर चार प्रदेश होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - रूपी अजीव प्रज्ञापना ******************** ************************************************************** ९. ओजः प्रदेश प्रतर चतुरस्त्र - ९ परमाणुओं से बना और ९ आकाश प्रदेशों में रहा हुआ, तिरछे निरन्तर तीन प्रदेश वाली तीन पंक्तियाँ स्थापित करना। १०. युग्म प्रदेश-प्रतर चतुरस्त्र .. चार परमाणुओं से बना हुआ और चार आकाश प्रदेश में रहा हुआ। इसमें तिरछे दो आकाश प्रदेश वाली दो पंक्तियाँ स्थापित करना। ११. ओजः प्रदेश घन चतुरस्र - २७ परमाणुओं से बना हुआ और २७ आकाश प्रदेशों में रहा हुआ। इसमें ९ प्रदेश के बने हुए प्रतर के ऊपर नीचे ९-९ प्रदेश स्थापना जिससे २७ प्रदेशों का ओजः प्रदेश घन चतुरस्र होता है। १२. युग्म प्रदेश घन चतुरस्त्र - आठ परमाणुओं से उत्पन्न आठ प्रदेशों में रहा हुआ है इसमें चार प्रदेश के पूर्वोक्त प्रतर के ऊपर दूसरे चार परमाणु रखना। १३. ओजः प्रदेश श्रेण्यायत (श्रेणी आयत) - तीन परमाणु वाले और तीन आकाश प्रदेश में रहे हुए। इसमें निरन्तर तिरछे तीन परमाणु रखना। १४. युग्म प्रदेशा श्रेण्यायत - दो परमाणु वाले और दो आकाश प्रदेश में रहे हुए तिरछे दो परमाणु रखना। १५. ओजः प्रदेश प्रतरायत (प्रतर आयत) - १५ परमाणुओं से बना और १५ आकाश प्रदेशों में रहा हुआ है। इसमें पांच प्रदेशी तीन पंक्तियाँ तिरछी स्थापित करना। १६. यग्म प्रदेश प्रतरायत - छह परमाणुओं से बना और छह आकाश प्रदेश में रहा हआ। इसमें ३-३ प्रदेश की दो पंक्ति स्थापित करना। १७. ओजः प्रदेश घनायत (घन आयत) - ४५ परमाणुओं से उत्पन्न हुआ और उतने ही आकाश प्रदेशों में रहा हुआ। इसमें पूर्व कहे हुए १५ प्रदेश के प्रतरायत के ऊपर नीचे १५-१५ परमाणु रखना। १८. युग्म प्रदेश घनायत - १२ परमाणुओं से बना हुआ और बारह आकाश प्रदेश में रहा हुआ। इसमें पूर्वोक्त कहे हुए छह प्रदेश प्रतरायत के ऊपर उसी प्रकार उतने परमाणु रखना। १९. प्रतर परिमंडल - २० परमाणुओं से बना और २० आकाश प्रदेशों में रहा हुआ। पूर्वादि चार दिशाओं में प्रत्येक दिशा में ४-४ परमाणु स्थापित करना और विदिशाओं में प्रत्येक विदिशा में एक एक परमाणु रखना। ... २० घन परिमंडल - चालीस परमाणुओं से बना और चालीस आकाश प्रदेशों में रहा हुआ। इसमें २० परमाणुओं के ऊपर दूसरे २० परमाणु रखना। इस प्रकार संस्थानों की प्ररूपणा की है। क्योंकि जो इससे भी न्यून प्रदेश वाले होते हैं तो ऊपर कहे हुए संस्थान नहीं होते। यह अर्थ बताने वाली उत्तराध्ययन की नियुक्ति गाथाएँ इस प्रकार हैं - For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ "परिमंडले य वट्टे तंसे चउरंस आयए चेव। घण पयर पढमवजं ओजपएसे य जुम्मे य॥ पंचग बारसगं खलु सत्तगबत्तीसगं च वट्टम्मि। तिग छक्क पणगतीसा चत्तारि य होंति तंसंमि॥ नव चेव तहा चउरो सत्तावीसा य अट्ट चउरंसे। तिग-युग-पन्नरसेव य छच्चेव य आयए होंति॥ पणयाला बारसगं तह चेव य आययंमि संठाणे। वीसा चत्तालीसा परिमंडलए य संठाणे॥" अर्थ - परिमण्डल, वृत्त, त्र्यस्र (त्रिकोण), चतुरस्र (चतुष्कोण) और आयत-ये पांच संस्थान हैं जिसके घन और प्रतर दो भेद हैं। उसके प्रथम परिमंडल के सिवाय प्रत्येक के ओजः प्रदेश जनितएकी की संख्या वाले प्रदेशों से उत्पन्न और युग्म प्रदेश जनित-बेकी की संख्या वाले प्रदेशों से उत्पन्न ऐसे दो भेद हैं । वृत संस्थान के ५, १२, ७ और ३२ प्रदेश है। त्र्यस्र संस्थान में ३, ६, ३५, और ४ प्रदेश हैं। चतुरस्र संस्थान में ९, ४, २७ और आठ प्रदेश है। आयत • संस्थान में ३, २, १५ और ६ तथा ४५ और १२ प्रदेश हैं । २० और ४० प्रदेश परिमंडल संस्थान के हैं। जे वण्णओ कालवण्णपरिणता ते गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि। रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि। फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि। संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २०॥ भावार्थ - जो वर्ण से काले वर्ण रूप परिणत है उनमें से कोई गंध से सुरभि गन्ध रूप परिणत है .आयत संस्थान के श्रेण्यायत (श्रेणी आयत), प्रतरायत (प्रतर आयत) और घनायत (घन आयत) ये तीन भेद होते हैं और प्रत्येक के ओजः प्रदेश जनित और युग्म प्रदेश जनित ऐसे दो भेद मिल कर आयत संस्थान के छह भेद होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***** प्रथम प्रज्ञापना पद - रूपी अजीव प्रज्ञापना - कोई दुरभि गंध रूप परिणत है। रस से कोई तिक्त ( तीखा ) रस रूप, कोई कटु रस रूप, कोई कषाय रस रूप, कोई अम्ल (खट्टा ) रस रूप और कोई मधुर रस रूप परिणत है। स्पर्श से कोई कर्कश स्पर्श रूप, मृदु-कोमल स्पर्श रूप, गुरु स्पर्श रूप, लघु स्पर्श रूप, शीत स्पर्श रूप, उष्ण स्पर्श रूप, स्निग्ध स्पर्श रूप और रूक्ष स्पर्श रूप परिणत है। संस्थान से परिमंडल संस्थान रूप, वृत्त संस्थान रूप, त्रिकोण संस्थान रूप, चतुष्कोण संस्थान रूप और आयत संस्थान रूप परिणत है। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में वर्णादि का परस्पर का बंध कहा है। जो वर्ण से काला वर्ण परिणत है वह गंध से सुरभि गंध और दुरभि गंध रूप भी परिणत होता है तात्पर्य यह है कि गंध की अपेक्षा विकल्प से कोई सुरभि गन्ध रूप परिणत होता है और कोई दुरभि गंध रूप परिणत होता है परन्तु अमुक एक ही गंध रूप परिणत नहीं होता। इसी प्रकार रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा भंग कहना चाहिए। उनमें दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श और पांच संस्थान में सभी मिला कर २० भंग काले वर्ण रूप, परिणत स्कंध में होते हैं। इसी प्रकार नील वर्ण रूप परिणत, रक्त वर्ण रूप परिणत, पीत (पीला) वर्ण रूप परिणत और शुक्ल वर्ण रूप परिणत स्कन्धों के २० - २० भंग होते हैं। इस प्रकार पांचों वर्णों के कुल १०० भंग होते हैं। २७ ************** जेवणओ णील वण्ण परिणता ते गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि । रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि । फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फासपरिणया वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लक्ख फास परिणता वि। संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाणपरिणया वि २० । भावार्थ - जो वर्ण से नील वर्ण रूप परिणत है वह गंध से सुरभि गंध रूप और दुरभि गंध रूप भी परिणत होता है। रस से तीखा, कडुवा, कषायला, खट्टा और मीठा रस रूप भी परिणत होता है । स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष रूप भी परिणत होता है। संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्र्यस्र-त्रिकोण, चतुरस्र (चतुष्कोण) और आयत संस्थान रूप भी परिणत होता है। जे वण्णओ लोहिय वण्ण परिणता ते गंधओ सुब्धि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि । रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि । फासओ कक्खड फास For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रज्ञापना सूत्र **************** *************************************************************** परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फासपरिणया वि, लहुय फास परिणता वि, सीयफास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि। संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २०॥ भावार्थ - जो वर्ण से लोहित-रक्त वर्ण रूप परिणत है वह गंध से सुरभि गंध रूप और दुरभि गंध रूप परिणत होता है। रस से तीखा, कडुआ, कषायला, खट्टा और मधुर रस रूप भी परिणत होता है। स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष रूप भी परिणत होता है। संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्र्यस्र, चतुरस्र और आयत संस्थान रूप भी परिणत होता है २० । जे वण्णओ हालिद्द वण्ण परिणता ते गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि। रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि। फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि। संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २०। भावार्थ - जो वर्ण से हारिद्र-पीला वर्ण रूप परिणत है वह गंध से सुरभि गंध और दुरभि गंध रूप भी परिणत होता है। रस से तीखा, कडुआ, कषायला, खट्टा और मीठा भी परिणत होता है। स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श रूप भी परिणत होता है। संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण और आयत संस्थान रूप भी परिणत होता है २०। जे वण्णओ सुक्किल्ल वण्ण परिणता ते गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि। रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि। फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - रूपी अजीव प्रज्ञापना २९ ********************* ************************* ***************************** वि, लुक्ख फास परिणता वि। संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २०, १००। भावार्थ - जो वर्ण से शुक्ल (सफेद) वर्ण रूप परिणत है वह गंध से सुरभि गंध और दुरभिगंध रूप भी परिणत होता है। रस से तीखा, कडुआ, कषायला, खट्टा और मधुर (मीठा) रस रूप भी परिणत होता है। स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श रूप भी परिणत होता है। संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्र्यस्र (त्रिकोण) चतुरस्र (चतुष्कोण ) और आयत संस्थान रूप भी परिणत होता है २०। जे गंधओ सुब्भिगंध परिणता ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल वण्ण परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुररस परिणता वि। फासओ कक्खडफास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुयफास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि, संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २३। ___ भावार्थ - जो गंध से सुरभि गंध रूप परिणत है वह वर्ण से कृष्ण वर्ण रूप, नील, लोहित, हारिद्र और शुक्ल वर्ण रूप परिणत होता है। रस से तीखा, कडवा, कषायला, खट्टा और मधुर रस रूप परिणत होता है। स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श रूप परिणत होता है। संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्र्यस्र (त्रिकोण), चतुरस्र (चतुष्कोण) और आयत संस्थान रूप भी परिणत होता है २३।। जे गंधओ दुब्भि गंध परिणता ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वंण्ण परिणता वि, सुक्किल्ल वण्ण परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि। फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ********************************* प्रज्ञापना सूत्र ************************************ वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास. परिणता वि। संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २३, ४६ । भावार्थ- जो गंध से दुरभि गंध रूप परिणत है वह वर्ण से कृष्ण वर्ण रूप, नील, लोहित, हारिद्र और शुक्ल वर्ण रूप परिणत होता है। रस से तीखा, कडवा, कषायला, खट्टा और मधुर रस रूप परिणत होता है। स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श रूप परिणत होता है। संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्र्यस्त्र, चतुरस्र और आयत संस्थान रूप भी परिणत होता है। विवेचन - जो गंध से सुरभि गंध रूप परिणाम वाले होते हैं वे वर्ण से काले वर्ण के परिणाम वाले, नील वर्ण के परिणाम वाले, लाल वर्ण के परिणाम वाले, पीले वर्ण के परिणाम वाले और शुक्ल वर्ण के परिणाम वाले भी होते हैं। वर्ण के ये कुल ५, इसी प्रकार ५ रस के, ८ आठ स्पर्श के और ५ संस्थान के ये कुल मिला कर २३ भेद होते हैं। यानी सुरभि गंध रूप परिणत हुए स्कंध के २३ भंग होते हैं। इसी प्रकार दुरभिगंध रूप परिणत स्कन्ध के २३ भंग होते हैं। कुल मिला कर गंध के ४६ भंग होते हैं। जे रसओ तित्त रस परिणता ते वण्णओ कालवण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल्ल वण्ण परिणता वि । गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि । फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि। संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २० । भावार्थ - जो रस तिक्त रस परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण परिणत भी होते हैं, नील वर्ण परिणत भी होते हैं, रक्त वर्ण परिणत भी होते हैं, पीत वर्ण परिणत भी होते हैं और शुक्ल वर्ण परिणत भी होते हैं। गंध से वे सुगंध परिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध परिणत भी होते हैं। स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध होते हैं और रूक्ष स्पर्श परिणत भी । संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्र्यस्त्र, चतुरस्र संस्थान परिणत भी होते हैं और आयत संस्थान परिणत भी होते हैं २० । जे रसओ कडु रस परिणता ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रजापना पद - रूपी अजीव प्रजापना ३१ *********************************** * * * ************* परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि हालिह वण्ण परिणता वि सुक्किल्ल वण्ण परिणता वि। गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि। फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणया वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि। संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउ रंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २०।। भावार्थ - जो रस से कटु रस परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण परिणत भी होते हैं, नील वर्ण परिणत भी होते हैं, रक्त वर्ण परिणत भी होते हैं, पीत वर्ण परिणत भी होते हैं और शुक्ल वर्ण परिणत भी होते हैं। गंध से वे सुगंध परिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध परिणत भी होते हैं। स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श परिणत भी होते हैं। संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्र्यस्त्र, चतुरस्र संस्थान परिणत भी होते हैं और आयत संस्थान परिणत भी होते हैं २०। जे रसओ कसाय रस परिणता, ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल्ल वण्ण परिणता वि। गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि। फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि। संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २०। भावार्थ - जो रस से कषाय रस परिणत होते हैं वे वर्ण सेकृष्ण वर्ण परिणत भी होते हैं, नील वर्ण परिणत भी होते हैं, रक्त वर्ण परिणत भी होते हैं, पीत वर्ण परिणत भी होते हैं और शुक्ल वर्ण परिणत भी होते हैं। गंध से वे सुगंध परिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध परिणत भी होते हैं। स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श परिणत भी होते हैं। संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्र्यस, चतुरस्र संस्थान परिणत भी होते हैं और आयत संस्थान परिणत भी होते हैं २०। जे रसओ अंबिल रस परिणता, ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल्ल For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ प्रज्ञापना सूत्र ******* ****************** * * * * * * * * ** * * वण्ण परिणता वि।गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि। फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि।संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २०। .. भावार्थ - जो रस से अम्ल रस परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण परिणत भी होते हैं, नील वर्ण परिणत भी होते हैं, रक्त वर्ण परिणत भी होते हैं, पीत वर्ण परिणत भी होते हैं और शुक्ल वर्ण परिणत भी होते हैं। गंध से वे सुगंध परिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध परिणत भी होते हैं। स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध स्पर्श और रूक्ष स्पर्श परिणत भी होते हैं। संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्र्यस्र, चतुरस्र संस्थान परिणत भी होते हैं और आयत संस्थान परिणत भी होते हैं.२० । जे रसओ महुर रस परिणता, ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल्ल वण्ण परिणता वि। गंधओ सुब्भिगंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि। फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि।संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २०।१००। भावार्थ - जो रस से मधुर रस परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण परिणत भी होते हैं, नील वर्ण परिणत भी होते हैं, रक्त वर्ण परिणत भी होते हैं, पीत वर्ण परिणत भी होते हैं और शुक्ल वर्ण परिणत भी होते हैं। गंध से वे सुगंध परिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध परिणत भी होते हैं। स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध स्पर्श और रूक्ष स्पर्श परिणत भी होते हैं। संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्र्यस्र, चतुरस्र संस्थान परिणत भी होते हैं और आयत संस्थान परिणत भी होते हैं। . विवेचन - पांच रसों में से प्रत्येक रस के रूप में परिणत पुद्गल यदि पांच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श और पांच संस्थानों के रूप में परिणत हों तो उन पांचों के २०+२०+२०+२०+२०-१०० भंग हो जाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - रूपी अजीव प्रज्ञापना ****************************** जे फासओ कक्खड फास परिणता, ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल वण्ण परिणता वि। गंधओ सुब्धि गंध परिणता वि, दुब्भिगंध परिणता वि । रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि, फासओ गरुय फास परिणता वि लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि, संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २३ । भावार्थ - जो स्पर्श से कर्कशं स्पर्श परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्ण वर्ण परिणत भी होते हैं, नील वर्ण परिणत भी होते हैं, रक्त वर्ण परिणत भी होते हैं, पीत वर्ण परिणत भी होते हैं और शुक्लवर्ण परिणत भी होते हैं। गंध से वे सुगंध परिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध परिणत भी होते हैं। रस से वे तिक्त रस परिणत भी होते हैं, कटु रस परिणत भी होते हैं, कषाय रस परिणत भी होते हैं, अम्लरस परिणत भी होते हैं और मधुर रस से परिणत भी होते हैं। स्पर्श से वे गुरु स्पर्श परिणत भी होते हैं, लघु स्पर्श परिणत भी होते हैं, शीत स्पर्श परिणत भी होते हैं, उष्ण स्पर्श परिणत भी होते हैं, स्निग्ध स्पर्श परिणत भी होते हैं और रूक्ष स्पर्श परिणत भी होते हैं। इस प्रकार स्पर्श से छह भेद वाले होते हैं। संस्थान से वे परिमंडल संस्थान परिणत होते हैं, वृत संस्थान परिणत भी होते हैं, त्र्यस्त्र संस्थान परिणत भी होते हैं, चतुरंस संस्थान परिणत भी होते हैं और आयत संस्थान परिणत भी होते हैं २३ । जे फासओ मयं फास परिणता, ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल aण परिणता वि। गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भिगंध परिणता वि । रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि, फासओ गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि, संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २३ । ३३ For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ भावार्थ - जो स्पर्श से मृदु स्पर्श परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप, रस से तिक्त, कटु आदि पांच रस रूप, स्पर्श से गुरु, लघु, शीत, उष्ण स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श रूप छह स्पर्श रूप और संस्थान से परिमंडल आदि पांचों संस्थान रूप परिणत होते हैं २३। जे फासओ गरुय फास परिणता ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल वण्ण परिणता वि। गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि। रसओ तित्तरस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रंस परिणता वि, महुर रस परिणता वि, फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि, संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २३। भावार्थ - जो स्पर्श से गुरु स्पर्श परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप, रस से तिक्त, कटु आदि पांच रस रूप, स्पर्श से कर्कश, मृदु, शीत, उष्ण स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श रूप छह स्पर्श वाले और संस्थान से परिमंडल आदि पांचों संस्थान रूप परिणत होते हैं २३। जे फासओ लहुय फास परिणता ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल वण्ण परिणता वि, गंधओ सुब्भिगंध परिणता वि, दुब्भिगंध परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि। फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि, संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २३। For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - रूपी अजीव प्रज्ञापना ३५ ******************************************** ****************************** भावार्थ - जो स्पर्श से लघु स्पर्श परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप, रस से तिक्त कटु आदि पांच रस रूप, स्पर्श से कर्कश, मृदु, शीत, उष्ण स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श रूप छह स्पर्श परिणत और संस्थान से परिमंडल आदि पांचों संस्थान रूप परिणत होते हैं २३। जे फासओ सीय फास परिणता ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल वण्ण परिणता वि, गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परितया वि, फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि णिद्ध फास परिणता वि लुक्ख फास परिणता वि, संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २३। भावार्थ - जो स्पर्श से शीत स्पर्श परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप, रस से तिक्त कटु आदि पांच रस रूप, स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श रूप छह स्पर्श परिणत और संस्थान से परिमंडल आदि पांचों संस्थान रूप परिणत होते हैं २३। जे फासओ उसिण फास परिणता, ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल वण्ण परिणता वि, गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि, फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि, संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २३। For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ प्रज्ञापना सूत्र ****************************************** भावार्थ - जो स्पर्श से उष्ण स्पर्श परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप, रस से तिक्त कटु आदि पांच रस रूप, स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श रूप छह स्पर्श परिणत और संस्थान से परिमंडल आदि पांचों संस्थान रूप परिणत होते हैं २३ । जे फासओ गिद्ध फास परिणता ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल aण परिणता वि, गंधओ सुब्धि गंध परिणता वि, दुब्धि गंध परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि, फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २३ । ****************************** भावार्थ - जो स्पर्श से स्निग्ध स्पर्श परिणत है वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्धरूप, रस से तिक्त कटु आदि पांच रस रूप, स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु शीत, उष्ण स्पर्श रूप छह स्पर्श परिणत और संस्थान से परिमंडल आदि पांचों संस्थान रूप परिणत होते हैं २३ । जे फासओ लुक्ख फास परिणता ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल aण परिणता वि, गंधओ सुब्धि गंध परिणता वि, दुब्धि गंध परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि, फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता वि, वट्ट संठाण परिणता वि, तंस संठाण परिणता वि, चउरंस संठाण परिणता वि, आयय संठाण परिणता वि २३ । १८४ । भावार्थ - जो स्पर्श से रूक्ष स्पर्श परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - रूपी अजीव प्रज्ञापना ३७ *************************************************************-*-*22****** दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप, रस से तिक्त कटु आदि पांच रस रूप, स्पर्श से कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण स्पर्श रूप छह स्पर्श परिणत और संस्थान से परिमंडल आदि पांचों संस्थान रूप परिणत होते हैं २३ । _ विवेचन - आठ स्पर्शों में से प्रत्येक के रूप में परिणत पुद्गल यदि पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस छह स्पर्श (आठ स्पर्श में से प्रतिपक्षी एवं स्व स्पर्श को छोड़ कर) तथा पांच संस्थानों के रूप में परिणत हों तो उनके २३+२३+२३+२३+२३ +२३+२३+२३=१८४ भंग हो जाते हैं। जे संठाणओ परिमंडल संठाण परिणता, ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल वण्ण परिणता वि, गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि, फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि २०। भावार्थ - जो संस्थान से परिमण्डल संस्थान रूप परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप, रस से तिक्त कटु आदि पांचों रसों रूप, स्पर्श से आठों ही स्पर्शों रूप परिणत होते हैं २० । . जे संठाणओ वट्ट संठाण परिणता, ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल वण्ण परिणता वि, गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि २०। भावार्थ - जो संस्थान से वृत्त संस्थान परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप, रस से तिक्त कटु आदि पांचों रसों रूप, स्पर्श से आठों ही स्पर्शों रूप परिणत होते हैं २०। For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ प्रज्ञापना सूत्र जे संठाणओ तंस संठाण परिणता, ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल वण्ण परिणता वि, गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि, फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि २०। भावार्थ - जो संस्थान से त्र्यस्र संस्थान परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप, रस से तिक्त कटु आदि पांचों रसों रूप, स्पर्श से आठों ही स्पर्शों रूप परिणत होते हैं २० । जे संठाणओ चउरंस संठाण परिणता ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल वण्ण परिणता वि, गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि, कडुय रस परिणता वि, कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस परिणता वि, महुर रस परिणता वि, फासओं कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि, उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि २०। भावार्थ - जो संस्थान से चतुरस्रसंस्थान परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप, रस से तिक्त कटु आदि पांचों रसों रूप, स्पर्श से आठों ही स्पर्शों रूप परिणत होते हैं २०।। जे संठाणओ आयय संठाण परिणता, ते वण्णओ काल वण्ण परिणता वि, णील वण्ण परिणता वि, लोहिय वण्ण परिणता वि, हालिद्द वण्ण परिणता वि, सुक्किल वण्ण परिणता वि, गंधओ सुब्भि गंध परिणता वि, दुब्भि गंध परिणता वि, रसओ तित्त रस परिणता वि कडुय रस परिणता वि कसाय रस परिणता वि, अंबिल रस For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************* प्रथम प्रज्ञापना पद - जीव प्रज्ञापना *************** परिणता वि, महुर रस परिणता वि, फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि २० । १०० । से 'रूवि अजीवपण्णवणा । से त्तं अजीव पण्णवणा ॥ ६ ॥ भावार्थ - जो संस्थान से आयत संस्थान परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप रस से तिक्त, कटु आदि पांचों रसों रूप, स्पर्श से आठों ही स्पर्शो रूप परिणत होते हैं २० । यह रूपी अजीव प्रज्ञापना है। इस प्रकार अजीव प्रज्ञापना का वर्णन समाप्त हुआ। विवेचन पांच संस्थानों में से प्रत्येक के रूप में परिणत पुद्गल यदि पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस तथा आठ स्पर्शों के रूप से परिणत हों तो उनके २०+२०+२०+२०+२० = १०० भंग होते हैं। इस प्रकार वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान इन पांचों के पारस्परिक संबंध की अपेक्षा से क्रमश: १००+४६+१००+१८४+१००= कुल ५३० भंग बनते हैं। यह जो भंग संख्या दी गयी है वह स्थूल दृष्टि से ही समझनी चाहिये क्योंकि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो तरतमता की अपेक्षा से इनमें से प्रत्येक के अनंत अनंत भेद होने के कारण अनंत भंग हो सकते हैं। इन वर्णादि परिणामों की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल की होती है। जीव प्रज्ञापना से किं तं जीव पण्णवणा ? जीव पण्णवणा दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - संसार समावण्णजीव पण्णवणा य, असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा य ॥७॥ भावार्थ- प्रश्न- जीव प्रज्ञापना कितनी प्रकार की कही गयी है ? ३९ उत्तर - जीव प्रज्ञापना दो प्रकार की कही गई हैं। वह इस प्रकार है - १. संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना और २. असंसार समापन - जीव प्रज्ञापना । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जीव प्रज्ञापना के भेद बतलाये गये हैं। जो जीते हैं, प्राणों को धारण करते हैं वे जीव कहलाते हैं । प्राण दो प्रकार के हैं- १. द्रव्य प्राण और २. भाव प्राण । द्रव्य प्राण के दस भेद इस प्रकार हैं - पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास निःश्वासमथान्युदायुः । प्राणाः दशैते भगवद्भिरुक्ताः तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ - १. स्पर्शनेन्द्रिय बल प्राण २. रसनेन्द्रिय बल प्राण ३. घ्राणेन्द्रिय बल प्राण ४. चक्षुरिन्द्रिय बल For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ************ प्रज्ञापना सूत्र प्राण ५. श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण ६. काय बल प्राण ७. वचन बल प्राण ८. मन बल प्राण ९. श्वासोच्छ्वास बल प्राण और १०. आयुष्य बल प्राण । भाव प्राण चार हैं- ज्ञान, दर्शन, सुख और आत्म सामर्थ्य । संसारी जीव द्रव्य प्राणों एवं भाव प्राणों से युक्त होते हैं जबकि असंसारी (सिद्ध) जीव भाव प्राणों से ही युक्त होते हैं। संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना - जो जीव नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति रूप संसार को प्राप्त हैं वे संसार समापन्न जीव कहलाते हैं। ऐसे जीवों की प्रज्ञापना (स्वरूप) का निरूपण करना, संसार समापन जीव प्रज्ञापना है। असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना - जो जीव संसार- चतुर्गति रूप परिभ्रमण से रहित हैं वे जीव असंसार समापन्न कहलाते हैं। ऐसे असंसार समापन्न - मोक्ष प्राप्त जीवों की प्रज्ञापना (स्वरूप) का निरूपण करना असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कहलाती है। * * * * * * * * * * * असंसार समापन जीव प्रज्ञापना से किं तं असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा ? असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा दुविहा पण्णत्ता । जहा - अनंतर सिद्ध असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा य परंपर सिद्ध असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा य ॥ ८ ॥ भावार्थ - - प्रश्न असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गयी है ? उत्तर असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है १. अनन्तर सिद्ध - असंसार समापन्न - जीव प्रज्ञापना और २. परम्पर सिद्ध असंसार समापन्न जीव - प्रज्ञापना । विवेचन - यद्यपि सूत्र क्रम के अनुसार संसार समापन्न जीवों का वर्णन पहले करना चाहिए किन्तु पूर्व कथित " सूची कटाह न्याय" से असंसार समापन्न जीवों की वक्तव्यता अल्प होने के कारण पहले असंसार समापन्न जीवों की व्याख्या (प्रज्ञापना) कर दी गयी है। - प्रश्न - अनंतर सिद्ध किसे कहते हैं ? उत्तर- जिन जीवों के सिद्ध होने में अनन्तर अर्थात् एक समय का भी अन्तर नहीं है अर्थात् जो वर्तमान समय में सिद्ध हुए हैं, जिनको सिद्ध हुए प्रथम ही समय हुआ है वे अनन्तर सिद्ध कहलाते हैं। अनन्तर सिद्ध जीवों के स्वरूप की प्रज्ञापना अनन्तर सिद्ध संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कहलाती है। प्रश्न- परम्पर सिद्ध किसे कहते हैं ? उत्तर- जिन जीवों के सिद्ध होने में एक, दो, तीन आदि समयों का अन्तर पड गया है वे परम्पर सिद्ध कहलाते हैं । जो किसी भी प्रथम समय में सिद्ध है उससे एक समय पहले सिद्ध होने वाला 'पर' For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना ४१ ******************************************************* ******* ******************** कहलाता है। उससे भी एक समय पहले सिद्ध होने वाला 'पर' कहलाता है। इस प्रकार परम्पर शब्द बनता है। परम्पर सिद्ध का आशय यह है कि जिस समय में कोई जीव सिद्ध हुआ है उससे पूर्ववर्ती समयों में जो जीव सिद्ध हुए हैं वे सब उसकी अपेक्षा परम्पर सिद्ध हैं। अनन्त अतीत काल से सिद्ध होते आ रहे हैं वे सब किसी भी विवक्षित प्रथम समय में सिद्ध होने वाले की अपेक्षा से परम्पर सिद्ध हैं। ऐसे मुक्तात्मा परम्पर सिद्ध असंसार समापन्न जीव हैं। इन जीवों के स्वरूप की प्रज्ञापना परम्पर सिद्ध असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कहलाती है। से किं तं अणंतर सिद्ध असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा? अणंतर सिद्धअसंसार समावण्ण जीव पण्णवणा पण्णरसविहा पण्णत्ता। तंजहा - १. तित्थ सिद्धा २. अतित्थ सिद्धा ३. तित्थगर सिद्धा ४. अतित्थगर सिद्धा ५. सयंबुद्ध सिद्धा ६. पत्तेयबुद्ध सिद्धा ७. बुद्धबोहिय सिद्धा ८. इत्थीलिंग सिद्धा ९. पुरिसलिंग सिद्धा १०. णपुंसगलिंग सिद्धा ११. सलिंग सिद्धा १२. अण्णलिंग सिद्धा १३. गिहिलिंग सिद्धा १४. एग सिद्धा १५. अणेग सिद्धा। से तं अणंतर सिद्ध असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा॥९॥ भावार्थ - प्रश्न - अनन्तरसिद्ध असंसार समापन्न-जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गयी है ? उत्तर - अनन्तर सिद्ध-असंसार समापन्न-जीव प्रज्ञापना पन्द्रह प्रकार की कही गयी है, वह इस प्रकार है - १. तीर्थ सिद्ध २. अतीर्थ सिद्ध ३. तीर्थंकर सिद्ध ४. अतीर्थंकर सिद्ध ५. स्वयंबुद्ध सिद्ध ६. प्रत्येक बुद्ध सिद्ध ७. बुद्धबोधित सिद्ध ८. स्त्रीलिंग सिद्ध ९. पुरुषलिंग सिद्ध १०. नपुंसकलिंग सिद्ध ११. स्वलिंग सिद्ध १२. अन्यलिंग सिद्ध १३. गृहस्थलिंग सिद्ध १४. एक सिद्ध और १५. अनेक सिद्ध। यह अनन्तर सिद्ध असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना है। - विवेचन - अनन्तर सिद्ध असंसार समापन्न जीवों के पन्द्रह भेद इस प्रकार हैं - १. तीर्थ सिद्ध - प्रश्न - तीर्थ शब्द की व्युत्पत्ति क्या है ? उत्तर - तीर्यते संसार सागरो अनेन इति तीर्थं - यथावस्थितसकलजीवाजीवादि पदार्थ सार्थ प्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनम्, तच्च निराधारं न भवति इति सङ्घः, प्रथम गणधरो वा वेदितव्यः। अर्थ - जिससे संसार समुद्र तिरा जाय वह तीर्थ कहलाता है अर्थात् जीवाजीवादि पदार्थों की प्ररूपणा करने वाले तीर्थंकर भगवान् के वचन और उन वचनों को धारण करने वाला चतुर्विध (श्रावक श्राविका साधु साध्वी) संघ तथा प्रथम गणधर तीर्थ कहलाते हैं। इस प्रकार के तीर्थ की मौजूदगी में जो सिद्ध होते हैं वे तीर्थ सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - गौतम स्वामी आदि। For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ प्रज्ञापना सूत्र ***************** ************ *-*-*-*-*- *-* प्रश्न - सिद्ध शब्द की व्युत्पत्ति क्या है ? उत्तर - "षिधु गत्याम्" षिधु शास्त्रे माङ्गल्ये च। संस्कृत में ये दो धातु हैं। इन दो धातुओं से सिद्ध शब्द बनता है यथा - असेधीत् अथवा असैत्सीत यः सर्व कार्याणि स: सिद्धः अथवा सिद्ध्यतिस्म कृतकृत्यो भवेत् सेधयति स्म वा-अगच्छत् अपुनरावृत्या लोकाग्रम इति सिद्धः । सिध्यति स्म सिद्धो यो येन गुणेण निष्पन्नः परिनिष्ठितः, न पुनः साधनीय इत्यर्थः।" अर्थ - जिनके सब काम पूर्ण हो चुके हैं। फिर कोई काम करना बाकी नहीं रहा है। उनको कृतकृत्य कहते हैं। सिद्ध भगवान् कृतकृत्य हो चुके हैं क्योंकि उनको अब कोई काम करना बाकी नहीं रहा है तथा जो ऐसे स्थान पर स्थित हैं, जहाँ जाने पर जीव वापिस संसार में नहीं लौटता है ऐसा स्थान लोक के अग्रभाग पर स्थित है, वह सिद्ध स्थान है। उसे ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी अथवा सिद्ध शिला भी कहते हैं। २. अतीर्थ सिद्ध - तीर्थ की स्थापना होने से पहले अथवा बीच में तीर्थ का विच्छेद होने पर जो सिद्ध होते हैं वे अतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। जैसे - मरुदेवी माता आदि। मरुदेवी माता तीर्थ की स्थापना होने से पहले ही मोक्ष पधार गई थी। भगवान् सुविधिनाथ से लेकर भगवान् शान्तिनाथ तक आठ तीर्थंकरों के बीच में सात अन्तरों में तीर्थ का विच्छेद हो गया था। इस विच्छेद काल में मो वाले अतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। ३. तीर्थंकर सिद्ध - तीर्थंकर पद को प्राप्त करके मोक्ष जाने वाले तीर्थंकर सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - भगवान् ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थङ्कर। ४. अतीर्थंकर सिद्ध - सामान्य केवली हो कर मोक्ष जाने वाले जीव अतीर्थंकर सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - गौतम स्वामी, जम्बूस्वामी आदि। ५. स्वयंबुद्ध सिद्ध - दूसरे के उपदेश के बिना स्वयमेव बोध प्राप्त कर मोक्ष जाने वाले स्वयंबुद्ध सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - कपिल केवली आदि। ६. प्रत्येक बुद्ध सिद्ध - जो किसी के उपदेश के बिना ही किसी एक पदार्थ को देख कर वैराग्य को प्राप्त होते हैं और दीक्षा धारण करके मोक्ष जाते हैं, वे प्रत्येक बुद्ध सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - करकण्डू, नमिराज ऋषि आदि। ७. बुद्धबोधित सिद्ध - आचार्य आदि के उपदेश से बोध प्राप्त कर मोक्ष जाने वाले बुद्धबोधित सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - जम्बूस्वामी आदि। .तीर्थ विच्छेद होने के बाद असंयतियों की पूजा होना एक अच्छेरा (आश्चर्य) है। इस अवसर्पिणी काल में दस अच्छेरे हुए हैं। उनमें यह (तीर्थ विच्छेद) एक अच्छेरा (आश्चर्य) है। दस आश्चर्यों का वर्णन ठाणाङ्ग सूत्र के दसवें ठाणे में आया है। For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना ************************************************* ********************************* ८. स्त्रीलिङ्ग सिद्ध - स्त्रीलिङ्ग से अर्थात् स्त्री की आकृति रहते हुए मोक्ष जाने वाले स्त्रीलिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - चन्दनबाला आदि। . पुरुष लिङ्ग सिद्ध - पुरुष की आकृति रहते हुए मोक्ष में जाने वाले पुरुष लिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - गौतम स्वामी, अर्जुनमाली आदि। १०. नपुंसकलिङ्ग सिद्ध - नपुंसक लिङ्ग में सिद्ध होने वाले नपुंसक लिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - गाङ्गेय अनगार आदि। ११. स्वलिङ्ग सिद्ध - साधु वेश रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि में रहते हुए मोक्ष जाने वाले स्वलिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - गौतम अनगार आदि जैन साधु। १२. अन्यलिङ्ग सिद्ध - परिव्राजक आदि के वल्कल, गेरूएं वस्त्र आदि द्रव्य लिङ्ग में रह कर मोक्ष जाने वाले अन्य लिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - वल्कलचीरी आदि। १३. गृहस्थलिङ्ग सिद्ध - गृहस्थ के वेश में मोक्ष जाने वाले गृहस्थलिङ्ग (गृहीलिङ्ग) सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - मरुदेवी माता आदि। १४. एक सिद्ध - एक समय में एक मोक्ष जाने वाले जीव एक सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - भगवान् महावीर स्वामी, जम्बूस्वामी आदि। १५. अनेक सिद्ध - एक समय में अनेक (एक से अधिक) मोक्ष जाने वाले अनेक सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - भगवान् ऋषभदेव आदि। प्रश्न - नपुंसक किसको कहते हैं ? उत्तर - राणियों के अन्तःपुर में रखने के लिए पुरुषों को लिङ्ग आदि काट कर नपुंसक बनाएँ जाते हैं। वे वास्तव में नपुंसक नहीं हैं। किन्तु कृत्रिम (पुरुष से बनाये हुए) हैं। वास्तविक नपुंसक तो जो जन्म से नपुंसक हो वही नपुंसक है। प्रश्न-कौन से नपंसकको मोक्ष होता है? उत्तर - ऊपर यह बताया जा चुका है कि पुरुष को नपुंसक बनाया जाता है वह कृत्रिम नपुंसक है वास्तव में तो वह पुरुष ही है। वह मुक्ति जा सकता है और उसकी गिनती पुरुषलिङ्ग सिद्ध में होती है। जो जन्म से नपुंसक हैं वे वास्तविक नपुंसक हैं वह मुक्ति जा सकता है। यह बात भगवती सूत्र के छब्बीसवें शतक के मूल पाठ से सिद्ध होती है। अतः आगमानुसार यह स्पष्ट है कि जन्म नपुंसक मोक्ष जा सकता है। प्रश्न - प्रतिक्रमण के पाठ में चौदह प्रकार के सिद्ध बताये हैं वे कौन से हैं? उत्तर - उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीसवें अध्ययन की ५०, ५१ वीं गाथा में चौदह प्रकार के सिद्ध बताये हैं। वे गाथाएँ इस प्रकार है - For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्रज्ञापना सूत्र ************************************** *********** * * * ** * * * * * * * इत्थीपुरिस सिद्धा य, तहेव य नपुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य॥५०॥ उक्कोसोगाहणाए य, जहण्णमज्झिमाइ य। उड़े अहे य तिरियं च, समुद्दम्मि जलम्मि य॥५१॥ अर्थ - स्त्रीलिंग सिद्ध, पुरुषलिंग सिद्ध, नपुंसक लिंग सिद्ध, स्वलिंग सिद्ध, अन्यलिंग सिद्ध, गृहस्थलिंग सिद्ध, जघन्य अवगाहना, मध्यम अवगाहना, उत्कृष्ट अवगाहना वाले सिद्ध, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक् लोक में होने वाले सिद्ध तथा समुद्र एवं जलाशय में होने वाले सिद्ध। .. इस प्रकार ये चौदह प्रकार के सिद्ध हुए। प्रश्न - भेद और प्रकार में क्या फर्क है? उत्तर - गिनती (संख्या) करके बताना भेद हैं। तरीके को प्रकार कहते हैं। अर्थात् इतनी तरह से सिद्ध हो सकते हैं यह बताना प्रकार (तरीका) है। से किं तं परंपरसिद्ध असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा? परंपरसिद्ध असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा - अपढमसमयसिद्धा, दुसमयसिद्धा, तिसमयसिद्धा, चउसमयसिद्धा जाव संखिजसमयसिद्धा असंखिजसमयसिद्धा, अणंतसमयसिद्धा। सेत्तं परंपरसिद्ध असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा। से त्तं असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा॥१०॥ भावार्थ - प्रश्न - परम्परसिद्ध-असंसार-समापन्न-जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गई हैं ? . उत्तर - परम्परसिद्ध असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना अनेक प्रकार की कही गई हैं। वह इस प्रकार है - अप्रथमसमय सिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतुःसमयसिद्ध यावत् संख्यात समयसिद्ध, असंख्यात समयसिद्ध और अनंतसमय सिद्ध। इस प्रकार परंपरसिद्ध-असंसारसमापन्न जीव प्रज्ञापना कही गई। इस प्रकार असंसार समापन्न जीवों की प्रज्ञापना पूर्ण हुई। विवेचन - परम्पर सिद्ध अनेक प्रकार के कहे गये हैं अतः परम्पर सिद्ध असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना भी अनेक प्रकार की कही गई है। जिन्हें सिद्ध हुए प्रथम समय न हुआ है अर्थात् जिन्हें सिद्ध हुए एक से अधिक समय हो चुके हैं वे अप्रथमसमयसिद्ध कहलाते हैं। जिन्हें सिद्ध हुए तीन आदि समय हुए हैं वे द्वितीय समय सिद्ध कहलाते हैं यानी जिन्हें मोक्ष गये हुए दो समय हुए हैं वे अप्रथम समयसिद्ध और तीन समय हुए हैं वे द्वितीय समयसिद्ध, चार समय हुए हैं वे तृतीय समय सिद्ध, इस प्रकार जानना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********** - प्रथम प्रज्ञापना पद संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना संसार समापन जीव प्रज्ञापना से किं तं संसार समावण्ण जीव पण्णवणा ? संसार समावण्ण जीव पण्णवणा पंचविहा पण्णत्ता तंजहा - १. एगिंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा २. बेइंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा ३. तेइंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा ४. चउरिदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा ५. पंचिंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा ॥ ११ ॥ भावार्थ - प्रश्न संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गई हैं ? उत्तर - संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना पांच प्रकार की कही गई है - १. एकेन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना २. बेइन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना ३. तेइन्द्रिय संसार समापन जीव प्रज्ञापना ४. चउरिन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना और ५. पंचेन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना । विवेचन जिन जीवों के सिर्फ एक स्पर्शनेन्द्रिय है वे एकेन्द्रिय कहलाते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के भेद से एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गए हैं। ऐसे एकेन्द्रिय जीवों की प्रज्ञापना (प्ररूपणा) करना एकेन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कहलाती है । इसी प्रकार बेइन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना आदि के विषय में समझना चाहिये । जिन जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय ये दो इन्द्रियाँ वे बेइन्द्रिय कहलाते हैं जैसे शंख, सीप आदि । जिन जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय ये तीन इन्द्रियाँ हैं वे तेइन्द्रिय कहलाते हैं जैसे जूं, लीख, माकड़ (खटमल) आदि। जिन जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय ये चार इन्द्रियाँ हैं वे चउरिन्द्रिय कहलाते हैं जैसे- डांस, मच्छर, मक्खी आदि । जिन जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय रूप पांच इन्द्रियाँ हैं वे पंचेन्द्रिय कहलाते हैं। जैसे मनुष्य, मछली, मगर आदि । एकेन्द्रिय संसार समापन जीव प्रज्ञापना से किं तं एगिंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा? एगिंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा पंचविहा पण्णत्ता । तंजहा १ पुढवी काइया, २ आउ काइया, ३ तेउ काइया, ४ वाउ काइया, ५ वणस्सइ काइया ॥ १२ ॥ भावार्थ - - प्रश्न- एकेन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गई हैं? उत्तर - एकेन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना पांच प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है. १. पृथ्वीकायिक २. अप्कायिक ३. तेजस्कायिक ४. वायुकायिक और ५. वनस्पतिकायिक । - - For Personal & Private Use Only ४५ . Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ प्रज्ञापना सूत्र ********** ************************************************************************** विवेचन - एकेन्द्रिय के पृथ्वीकायिक आदि पांच भेद होने से एकेन्द्रिय संसार समापन जीव प्रज्ञापना पांच प्रकार की कही गयी है। पृथ्वी ही जिन जीवों का काय (शरीर) है वे पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। अप (जल) ही जिनका शरीर है वे अप्कायिक, तेज (अग्नि) ही जिनका शरीर है वे तेजस्कायिक, वायु (हवा) ही जिनका शरीर है वे वायुकायिक और लता आदि वनस्पति ही जिनका शरीर है वे वनस्पतिकायिक कहलाते हैं। पृथ्वी समस्त प्राणियों की आधार भूत होने से सर्वप्रथम पृथ्वीकायिक का ग्रहण किया है। अप्कायिक पृथ्वी के आश्रित हैं अत: पृथ्वीकाय के बाद अप्कायिक का ग्रहण किया गया। अप्कायिक अग्नि के प्रतिपक्ष रूप है अतः उसके बाद तेजस्कायिक का और वायु के सम्पर्क से अग्नि बढ़ती है इसलिए उसके बाद वायुकायिक का कथन किया गया है। दूर रही हुई वायु वृक्ष की शाखा आदि के कंपन से जानी जाती है अतः उसके बाद वनस्पतिकाय का ग्रहण किया गया है। पृथ्वीकायिक जीव प्रज्ञापना से किं तं पुढवी काइया ? पुढवी काइया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-सुहुम पुढवी काइया य बायर पुढवी काइया य ॥१३॥ भावार्थ - प्रश्न - पृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे गए हैं ? उत्तर - पृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे हैं, वे इस प्रकार हैं - १. सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और २. बादर पृथ्वीकायिक। विवेचन - सूक्ष्म नाम कर्म के उदय वाले पृथ्वीकायिक जीव सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर नाम कर्म के उदय वाले पृथ्वीकायिक जीव बादर पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। यहाँ सूक्ष्मता और बादरता कर्म के उदय जन्य है। बेर और आंवले की तरह सूक्ष्मता और बादरता यहाँ नहीं समेझनी चाहिये। उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३६ में कहा है - 'सुहमा सव्व लोगंमि' - सूक्ष्म सर्वलोक में हैं तदनुसार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव पूरे लोक में ठसाठस भरे हुए हैं। बादर पृथ्वीकायिक नियत नियत स्थानों पर लोकरकाश में होते हैं। जिनका वर्णन द्वितीय यद में किया जायेगा। से किं तं सुहुम पुढवी काइया ? सुहुम पुढवी काइया दुविहा पण्णत्ता। तंजहापजत्त सुहुम पुढवी काइया य अपजत्त सुहुम पुढवी काइया य। से त्तं सुहुम पुढवी काइया ॥१४॥ भावार्थ - प्रश्न - सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के कितने प्रकार कहे गये हैं? उत्तर - सूक्ष्म पृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं। वह इस प्रकार है-१. पर्याप्त सूक्ष्म For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पृथ्वीकायिक जीव प्रज्ञापना पृथ्वीकायिक और २. अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक। इस प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। विवेचन प्रश्न पर्याप्ति किसे कहते हैं ? उत्तर - आहारादि के लिये पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उन्हें आहार शरीर आदि रूप परिणमाने की आत्मा की शक्ति विशेष को पर्याप्ति कहते हैं। जब जीव नया जन्म ग्रहण करता है तब जिन जीवों में जितनी पर्याप्तियों का संभव है उन सभी पर्याप्तियों को वह जीव एक साथ बनाना प्रारम्भ कर देता है किन्तु उनकी समाप्ति क्रम से होती है। आशय यह है कि सभी पर्याप्तियों का प्राम्भ काल एक है और समाप्ति काल भिन्न-भिन्न है । आहार पर्याप्ति की पूर्णता का समय एक समय है बाकी सब पर्याप्तियों का समय अन्तर्मुहूर्त्त - अन्तर्मुहूर्त है। इसके छह भेद हैं - १. आहार पर्याप्ति - जिस शक्ति से जीव आहार योग्य बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके उसे खल रूप में और रस रूप में परिणमाता (बदलता) है उसे आहार पर्याप्ति कहते हैं। - - २. शरीर पर्याप्ति - जिस शक्ति द्वारा जीव रस रूप में परिणत आहार को रस, खून, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा और शुक्र रूप सात धातुओं में बदलता है उसे शरीर पर्याप्ति कहते हैं। ३. इन्द्रिय पर्याप्ति - जिस शक्ति द्वारा जीव सात धातुओं में परिणत आहार को इन्द्रियों के रूप में परिवर्तित करता है उसे इन्द्रिय पर्याप्ति कहते हैं, अथवा पांच इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर के अनाभोग निर्वर्तित वीर्य द्वारा उन्हें इन्द्रिय रूप में परिणमाने की जीव की शक्ति विशेष को इन्द्रिय पर्याप्त कहते हैं । ४७ ४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति जिस शक्ति के द्वारा जीव श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गलों को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है उसे श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं । इसी को आणपाण पर्याप्ति एवं उच्छ्वास पर्याप्ति भी कहते हैं । - ***************** ५. भाषा पर्याप्ति - जिस शक्ति के द्वारा जीव भाषा योग्य भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें भाषा के रूप में परिणत करता है और छोड़ता है उसे भाषा पर्याप्ति कहते हैं। ६. मनः पर्याप्ति - जिस शक्ति के द्वारा जीव मन योग्य मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें मन के रूप में परिणत करता है तथा उनका अवलम्बन लेकर छोड़ता है उसे मनः पर्याप्ति कहते हैं । श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनः पर्याप्ति में अवलम्बन लेकर छोड़ना लिखा है। इसका आशय यह है कि इनके छोड़ने में शक्ति की आवश्यकता होती है और वह इन्हीं पुद्गलों का अवलम्बन लेने से उत्पन्न होती है। जैसे गेंद पकड़ते समय उसे जोर से पकड़ते हैं और इससे हमें गेंद फेंकने में शक्ति प्राप्त होती है। अथवा जैसे बिल्ली ऊपर से कूदते समय अपने शरीर को संकुचित करके उससे सहारा लेती हुई है। For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ प्रज्ञापना सूत्र ******************************************************** * * * * ** मृत्यु के बाद जीव अपने उत्पत्ति स्थान में पहुंच कर कार्मण शरीर द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करता है और उनके द्वारा यथायोग्य सभी पर्याप्तियों को बनाना शुरू कर देता है। जीव के आहार पर्याप्ति एक समय में पूर्ण होती हैं। फिर शरीर पर्याप्ति आदि शेष पर्याप्तियां क्रमशः एक एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण होती हैं। इस प्रकार सभी पर्याप्तियों का समय मिला देने पर भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात भेद होते हैं। इन छह पर्याप्तियों में से एकेन्द्रिय जीव के आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास ये चार पर्याप्तियां होती हैं। विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय के आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और भाषा ये पांच पर्याप्तियां होती है। संज्ञी पंचेन्द्रिय के छहों पर्याप्तियां होती हैं। . सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जिन जीवों की पर्याप्तियाँ पूर्ण हो चुकी हैं वे पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। यहाँ मूल में प्रयुक्त "च" शब्द लब्धि:पर्याप्त और करण पर्याप्त रूप दो भेदों का सूचक है। जिन सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों ने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं की है वे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। यहाँ भी 'च' शब्द करण और लब्धि निमित्त, करण अपर्याप्त और लब्धि अपर्याप्त ऐसे दो भेदों का सूचक है। अर्थात् सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त लब्धि और करण के भेद से दो प्रकार के हैं उनमें जो अपर्याप्त अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं वे लब्धि अपर्याप्त और जिन्होंने अभी शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियाँ पूरी की नहीं हैं किन्तु अवश्य पूर्ण करेंगे वे करण अपर्याप्त कहलाते हैं। यह सूक्ष्म पृथ्वीकायिक का वर्णन हुआ। जीव पर्याप्त अवस्था में और अपर्याप्त अवस्था दोनों में मृत्यु को प्राप्त हो सकता है। किन्तु तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके अर्थात् आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति इन तीन पर्याप्तियों को पूरी करके चौथी पर्याप्ति (श्वासोच्छ्वास) को पूर्ण बान्धे बिना मृत्यु को प्राप्त हो सकता है। अर्थात् तीन पर्याप्तियों को पूर्ण बान्धे बिना कोई भी जीव की मृत्यु नहीं हो सकती है। से किं तं बायर पुढवी काइया? बायर पुढवी काइया दुविहा पण्णत्ता। तंजहासण्ह बायर पुढवी काइया य खर बायर पुढवी काइया य॥१५॥ भावार्थ - प्रश्न - बादर पृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - बादर पृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - १. श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिक और २. खर बादर पृथ्वीकायिक। विवेचन - जिन बादर पृथ्वी के जीवों का शरीर पीसे हुए आटे आदि के समान, श्लक्ष्ण-मृदु (मुलायम) है, वे श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। जिन बादर पृथ्वी के जीवों का शरीर खरकठोर हैं वे खर बादर पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। जो पृथ्वी कोमल (मृदु) तथा पानी सोखने की क्षमता For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पृथ्वीकायिक जीव प्रज्ञापना ४९ * * * ************************* ********* वाली होती है वह श्लक्ष्ण कहलाती है। जो पृथ्वी कठोर तथा पानी नहीं सोखने वाली तथा अघुलनशील हो वह खर पृथ्वी कहलाती है। _से किं तं सह बायर पुढवी काइया? सण्ह बायर पुढवी काइया सत्तविहा पण्णत्ता। तंजहा-१. किण्ह मत्तिया २. णील मत्तिया ३. लोहिय मत्तिया ४. हालिद्द मत्तिया ५. सुक्किल्ल मत्तिया ६. पंडु मत्तिया ७. पणग मत्तिया। से तं सण्ह बायर पुढवी काइया। कठिन शब्दार्थ - पंडु मत्तिया - पाण्डु मृत्तिका-कुछ मटमेले रंग की मिट्टी जो सूखने के बाद सफेद हो जाती है तिलक आदि लगाने की मिट्टी, खड्डी, गोपीचन्दन आदि। पणग मत्तिया - पनक मृत्तिकानदी आदि का पानी सूखने पर ऊपर की कोमल मिट्टी (पपड़ी)। भावार्थ - प्रश्न - श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिकों के कितने प्रकार हैं ? उत्तर - श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिकों के सात प्रकार कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. कृष्ण मृत्तिका (काली मिट्टी) २. नील मृत्तिका (नीली मिट्टी) ३. लोहिय मृत्तिका (लाल मिट्टी) ४. हारिद्र मृत्तिका (पीली मिट्टी) ५. शुक्ल मृत्तिका (सफेद मिट्टी) ६. पाण्डु मृत्तिका और ७. पनक मृत्तिका। इस प्रकार श्लक्ष्ण पृथ्वीकायिक के भेद कहे गये हैं। .. से किं तं खर बायर पुढवी काइया ? खर बायर पुढवी काइया अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा १ पुढवी य २ सक्करा ३ वालुया य ४ उवले ५ सिला य ६-७ लोणूसे। ८ अय ९ तंब १० तउय ११ सीसय १२ रुप्प १३ सुवण्णे य १४ वइरे य॥१॥ १५ हरियाले १६ हिंगुलय( हिंगुलुए)१७ मणोसिला १८-२० सासगंजण पवाले। २१-२२ अब्भपडलब्भवालुय बायरकाए मणिविहाणा॥२॥ २३ गोमेजए य २४ रुयए २५ अंके २६ फलिहे य २७ लोहियक्खे य। २८ मरगय २९ मसारगल्ले ३० भुयमोयग ३१ इंदणीले य॥३॥ ३२ चंदण ३३ गेरुय ३४ हंसगब्भ ३५ पुलए ३६ सोगंधिए य बोद्धव्वे। ३७ चंदप्पभ ३८ वेरुलिए ३९ जलकंते ४० सूरकंते य॥४॥ जेयावण्णे तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-पजत्तगा य अपज्जत्तगा य। तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एएसिं वण्णादेसेणं, गंधादेसेणं, रसादेसेणं, फासादेसेणं, सहस्सग्गसो विहाणाई, For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० प्रज्ञापना सूत्र ********* *********************************************************************** संखिजाइं जोणिप्पमुहसयसहस्साइं। पजत्तगणिस्साए अपजत्तगा वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखिजा। से तं खर बायर पुढवी काइया। से तं बायर पुढवी काइया। से तं पुढवी काइया॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - उवले - उपल, लोणूसे - लवण-ऊष, अय - लोहा, तंब - तांबा, तउय - त्रपुष (जस्ता), सीसय - सीसा, रुप्प - रौप्य, वइरे - वज्र, मणोसिला - मैनसिल, सासग - सासग (पारा), अंजण - अंजन (सुरमा), पवाले - प्रवाल (गुंगिया), अब्भपडल - अभ्रपटल, अब्भवालुयअभ्रबालुक, असंपत्ता - असंप्राप्त, वण्णादेसेणं - वर्णादेश से, सहस्सग्गसो - सहस्रशः-हजारों, विहाणाई - विधान (भेद), जोणिप्पमुह-सयसहस्साई - योनि प्रमुख संख्यात लाख, पजत्तग णिस्साएपर्याप्तकों के निश्राय में। भावार्थ - प्रश्न - खर बादर पृथ्वीकायिकों के कितने भेद हैं ? उत्तर - खर बादर पृथ्वीकायिकों के अनेक भेद कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं - १. शुद्ध पृथ्वीनदी तट के पास की भूमि २. शर्करा (कंकर) ३. बालुका (रेत) ४. उपल (टांकी आदि औजारों से घड़ने के अयोग्य पत्थर) ५. शिला-घड़ने के योग्य देवकुल आदि के उपयोगी बड़ा पत्थर ६. लवण (नमक) ७. ऊष (क्षार वाली जमीन) ८. लोहा ९. तांबा १०. त्रपुष (रांगा) ११. सीसा १२. रौप्य (चांदी) १३. सुवर्ण १४. वज्र (हीरा) १५. हडताल १६. हींगलू १७. मैनसिल १८. सासग (पारा) १९. अंजन-सौवीर आदि सुरमा २०. प्रवाल २१. अभ्रपटल (भोडल) २२. अभ्रबालुका, बादर पृथ्वी काय में मणियों के भेद - २३ गोमेजक २४. रुचक २५. अंक २६. स्फटिक २७. लोहिताक्ष २८. मरकत २९. मसारगल्ल ३०. भुजमोचक और ३१. इन्द्रनील ३२. चन्दनरत्न ३३. गैरिक ३४. हंसगर्भ ३५. पुलक ३६. सौगंधिक ३७. चन्द्रप्रभ ३८. वैडूर्य ३९. जलकांत मणि और ४०. सूर्यकांत मणि। इसके अतिरिक्त भी जो अन्य तथा प्रकार के भेद हैं वे सब खर बादर पृथ्वीकायिक समझने चाहिये। वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त। उनमें जो अपर्याप्त है वे असम्प्राप्त (स्वयोग्य सभी पर्याप्तियों को प्राप्त नहीं या विशिष्ट वर्ण आदि को प्राप्त नहीं) है। जो पर्याप्त हैं उनके वर्णादेश (वर्ण की अपेक्षा) से, गंधादेश से, रसादेश से और स्पर्शादेश से हजारों भेद होते हैं और उनके संख्यात लाख योनि प्रमुख (योनिद्वार) हैं। पर्याप्तों के निश्राय (आश्रय) में अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्त होते हैं। इस प्रकार खर बादर पृथ्वीकायिक जीव कहे गये हैं। यह बादर पृथ्वीकाय का निरूपण हुआ। इस प्रकार पृथ्वीकायिकों का वर्णन समाप्त हुआ। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में खर बादर पृथ्वीकायिक के भेदों का कथन किया गया है। प्रथम गाथा में पृथ्वी आदि १४ भेद, दूसरी गाथा में हड़ताल (हरताल) आदि आठ भेद, तीसरी गाथा में गोमेध्यक For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पृथ्वीकायिक जीव प्रज्ञापना **************************************************-4416-*-*-**** ************************ आदि मणियों के ९ भेद और चौथी गाथा में शेष ९ भेद इस प्रकार कुल मिला कर खरबादर पृथ्वीकायिकों के ४० भेद कहे गये हैं। इसके अलावा भी पद्म रागादि जितने रत्न हैं वे सभी खरबादर पृथ्वीकायिक हैं। सामान्य रूप से बादर पृथ्वीकायिकों के संक्षेप में दो भेद कहे गये हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। उसमें जो अपर्याप्त हैं वे असंप्राप्त-स्व योग्य सभी पर्याप्तियों को प्राप्त नहीं हुए हैं अथवा असंप्राप्त अर्थात् विशिष्ट वर्ण आदि को प्राप्त नहीं हुए हैं इसी कारण उनमें स्पष्टतया वर्ण आदि का विभाग संभव नहीं है। शरीर आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाने पर ही बादर जीवों में वर्ण आदि विभाग प्रकट होता है, अपूर्ण होने की स्थिति में नहीं। अपर्याप्त जीव उच्छवास पर्याप्ति को पूरी किये बिना ही मर जाते हैं। - शंका - अपर्याप्त जीव आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति और इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद उच्छ्वास पर्याप्ति अपूर्ण रहते क्यों मर जाते हैं, शरीर और इन्द्रिय पर्याप्ति के अपूर्ण रहते क्यों नहीं मरते ? समाधान - सभी प्राणी अगले भव का आयुष्य बांध कर ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं यानी बिना आयुष्य बांधे मरते नहीं हैं और आयुष्य बंध आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति और इन्द्रिय पर्याप्ति पूरी होने पर ही होता है अतः आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति और इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण हो और उच्छ्वास पर्याप्ति अपूर्ण हो तब अपर्याप्त जीव मरण को प्राप्त होते हैं। ___ जो पर्याप्त हैं अर्थात् जिन्होंने स्व योग्य सभी पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हैं। उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के भेद से हजारों भेद होते हैं। जैसे-वर्ण के ५, गंध के २, रस के ५ और स्पर्श के ८ भेद होते हैं। फिर प्रत्येक वर्ण, गंध, रस, स्पर्श में अनेक प्रकार की तरतमता होती है जैसे भ्रमर, कोयल और काजल में कालेपन की न्यूनाधिकता होती है अतः कृष्ण, कृष्णतर और कृष्णतम आदि काले वर्ण के अनेक भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार नीलवर्ण आदि के विषय में भी समझना चाहिये। इसी प्रकार गंध में दूसरी गंध के, एक रस में दूसरे रस के और एक स्पर्श के साथ दूसरे स्पर्श के मिश्रण-संयोग से गंध, रस और स्पर्श के भी हजारों भेद हो जाते हैं। - संखिज्जाइं जोणिप्पमुह सयसहस्साइं अर्थात् संख्यात लाख योनि प्रमुख-योनिद्वार हैं। पृथ्वीकाथिक जीवों की लाखों योनियाँ हैं। जैसे कि-एक वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श में पृथ्वीकायिकों की संवृता योनि होती है। वह तीन प्रकार की है-सचित्त, अचित्त और मिश्र (सचित्ताचित्त)। इनके प्रत्येक के तीन-तीन भेद होते हैं-शीत, उष्ण और शीतोष्ण। इन शीत आदि प्रत्येक के भी तारतम्य के कारण अनेक भेद हो जाते हैं। इस प्रकार स्वस्थान के आश्रयी व्यक्ति भेद से विशिष्ट वर्णादि युक्त असंख्य योनियाँ होने पर भी जाति की अपेक्षा एक ही योनि गिनी जाती है। यानी प्राणियों के उत्पत्ति स्थान व्यक्तिगत भेद से असंख्यात हैं फिर भी जाति-अमुक वर्णादिक की समानता की अपेक्षा एक ही योनि गिनी गयी है। इसलिए सूक्ष्म और बादर पृथ्वीकायिकों की मिल कर संख्यात (सात) लाख योनियों कही गयी हैं। For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अपर्याप्त जीवों के शरीर स्पष्ट रूप से वर्ण आदि के विभागों को प्राप्त नहीं होने से उनके योनियाँ नहीं होती है। यहाँ बताई हुई सभी योनियाँ पर्याप्त जीवों की अपेक्षा ही समझना चाहिये । अपकायिक जीव प्रज्ञापना से किं तं आउक्काइया ? आउक्काइया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - सुहुम प्रज्ञापना सूत्र आउक्काइया य बायर आउक्काइया य ॥ १८ ॥ भावार्थ - प्रश्न- अप्कायिक के कितने प्रकार गहे गये हैं ? उत्तर - अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं और २. बादर अप्कायिक | से किं तं सुहुम आउक्काइया ? सुहुम आउक्काइया दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - पज्जत्त सुहुम आउक्काइया य अपज्जत्त सुहुम आउक्काइंया य । से तं सुहुम आउक्काइया ॥ १९॥ - भावार्थ - प्रश्न- सूक्ष्म अप्कायिक के कितने प्रकार कहे गये हैं ? उत्तर - सूक्ष्म अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं - १. पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक और २. अपर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक। इस प्रकार सूक्ष्म अप्कायिक की प्ररूपणा हुई । से किं तं बायर आउक्काइयां ? बायर आउक्काइया अणेगविहा पण्णत्ता । तंजा उस्सा (ओसा), हिमए, महिया, करए, हरतणुए, सुद्धोदए, सीओदए, उसिणोदए, खारोदए, खट्टोदए, अंबिलोदए, लवणोदए, वारुणोदए, खीरोदए, (घओदए), खोओदए, रसोदए, जे यावण्णे तहप्पगारा । ते समासओ दुविहा पण्णत्ता । तंजा - पज्जत्तगा य अप्पज्जत्तगा य ! तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता । तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एएसिं णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखिज्जाई जोणिप्पमुह सयसहस्साइं पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखिज्जा। से तं बायर आउक्काइया । सेतं आउक्काइया ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - उस्सा ओस, हिमए हिम (बर्फ), महिया - महिका, करए ओले, अंबिलोदए - अम्लोदक, खोओदक - क्षोदोदक । भावार्थ - प्रश्न- बादर अप्कायिक के कितने प्रकार कहे गये हैं ? - - - For Personal & Private Use Only १. सूक्ष्म अप्कायिक Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - तेजस्कायिक जीव प्रज्ञापना ५३ * * * * ** ** ** * * * ** * ** * ** * * * * ** * * * tak -*-*-*-*-* ************** * **** *********** उत्तर - बादर अप्कायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - ओस, हिम (बर्फ) महिका (धुम्मस या कोहरा, गर्भमासों में होने वाली सूक्ष्म वर्षा) ओले, हरतनु (वनस्पति के ऊपर की जल बिन्दु) शुद्धोदक (आकाश से गिरा हुआ अथवा नदी आदि का पानी) शीतोदक - नदी तालाब, कुआँ, बावड़ी आदि का शीत स्पर्श परिणत जल। उष्णोदक - कहीं झरने आदि से स्वाभाविक रूप से उष्ण स्पर्श परिणत जल। क्षारोदक - कुछ खारा स्वभाव वाला पानी जैसे लाट देश आदि के कुछ कुएं का पानी। खटोदक (कन्छ खटा पानी) अम्लोदक (स्वाभाविक रूप से खदा पानी जैसे कांजी आदि का पानी) लवणोदक - विशेष खारा पानी कड़वे जैसा तद्योनिक जीवों के सिवाय शेष जीवों के अपेय। वारुणोदक (वरुण समुद्र का पानी-मदिरा जैसे स्वाद वाला जल) क्षीरोदक (क्षीर समुद्र का पानी) घृतोदक (घृतवर समुद्र का पानी) क्षोदोद (इक्षु समुद्र का पानी) रसोदक - उत्सर्पिणी के दूसरे आरे के प्रारम्भ में बरसने वाले रस मेघ का जल। ये तथा इसके अलावा और भी रस स्पर्श आदि के भेद से जितने भी प्रकार हों, वे सब बादर अप्कायिक समझने चाहिये। वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। उनमें से जो अपर्याप्त हैं वे असम्प्राप्त (अपनी पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर पाए हैं या विशिष्ट वर्णादि को प्राप्त नहीं हुए हैं) उनमें से जो पर्याप्त हैं उनके वर्णादेश, गंधादेश, रसादेश और स्पर्शादेश से हजारों भेद होते हैं और संख्यात लाख योनिद्वार-योनि प्रमुख हैं। पर्याप्त जीवों के आश्रय से अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्त होते हैं। इस प्रकार बादर अप्कायिकों का वर्णन कहा गया है। इस प्रकार अप्कायिक जीवों का वर्णन हुआ। ___टीकाकार 'जे यावन्ने तहप्पगारा' में 'घओदए' आदि का ग्रहण करते हैं। अतः टीका युग के बाद मूलपाठ में घओदए' शब्द प्रक्षिप्त होना संभव है। अत: मूलपाठ में 'खीरोदए' के बाद 'खोओदए' पाठ होमा चाहिए। .. विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बादर अप्कायिक जीवों के भेद प्रभेदों की प्ररूपणा की गयी है। तेजस्कायिक जीव प्रज्ञापना से किं तं तेउक्काइया? तेउक्काइया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-सुहुम तेउक्काइया य बादर तेउक्काइया य॥२१॥ भावार्थ - प्रश्न - तेजस्कायिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. सूक्ष्म तेजस्कायिक और २..बादर तेजस्कायिक। से किं तं सुहम तेउक्काइया? सुहम तेउक्काइया दुविहा पण्णत्ता। तंजहापजत्तगा य अपजत्तगा य। से तं सुहुम तेउक्काइया॥२२॥ For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ प्रज्ञापना सूत्र ************************** ******** ************************************** **** भावार्थ - प्रश्न - सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. पर्याप्त और २. अपर्याप्त। यह सूक्ष्म तेजस्कायिक का वर्णन हुआ। से किं तं बायर तेउक्काइया ? बायर तेउक्काइया अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहाइंगाले, जाला, मुम्मुरे, अच्ची, अलाए, सुद्धागणी, उक्का, विजू, असणी, णिग्याए संघरिस समुट्ठिए सूरकंत मणि णिस्सिए, जे यावण्णे तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-पजत्तगा य अपज्जत्तगा या तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपत्ता। तत्थ णं जे ते पजत्तगा एएसि णं वण्णादेसेणं, गंधादेसेणं, रसादेसेणं, फासादेसेणं, सहस्सग्गसो विहाणाइं, संखिजाई जोणिप्यमुह सयसहस्साई। पजत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखिज्जा। से तं बायर तेउक्काइया। से तं तेउक्काइया॥२३॥ ___ कठिन शब्दार्थ - इंगाले - अंगार-कोयलों की अग्नि, धूम रहित अग्नि।, जाला - ज्वालासंबद्ध अग्नि, अग्नि से जुड़ी हुई दीप शिखा, मुम्मुरे - मुर्मुर (राख से मिले अग्नि कण या भोभर) अच्ची - अर्चि (अग्नि से पृथक् हुई ज्वाला या लपट) अलाए - अलात-जलती हुई मशाल या जलती हुई लकड़ी, सुद्धागणी - शुद्ध अग्नि (लोहे के गोले की अग्नि), उक्का - उल्का - रेखा सहित विद्युत, विजू - विद्युत - कृत्रिम बिजली, असणी - अशनि - विद्युत रहित अग्नि, णिग्याए - निर्घात - कड़क युक्त विद्युत, संघरिस समुट्ठिए - संघर्ष समुत्थित (रगड-घर्षण से उत्पन्न होने वाली अग्नि) सूरकंत मणि णिस्सिए - सूर्यकांत मणि निःसृत-सूर्यकांत मणि से उत्पन्न होने वाली अग्नि। भावार्थ - प्रश्न - बादर तेजस्कायिक कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - बादर तेजस्कायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - अंगार, ज्वाला, मुर्मुर, अर्चि, अलात, शुद्ध अग्नि, उल्का, विद्युत, अशनि, निर्घात, संघर्ष समुत्थित-संघर्ष से उत्पन्न हुई और सूर्यकांत मणिनिःसृत और इसके अलावा अन्य इसी प्रकार की जो भी अग्नियाँ हैं उन्हें बादर तेजस्कायिक समझना चाहिए। वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। उनमें से जो अपर्याप्त हैं वे असम्प्राप्त हैं। उनमें से जो पर्याप्त हैं उनके वर्णादेश, गंधादेश, रसादेश और स्पर्शादेश से हजारों भेद होते हैं। उनके संख्यात लाख योनि प्रमुख-योनिद्वार हैं। पर्याप्त की निश्राय से अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार बादर तेजस्कायिक जीव कहे गये हैं। इस प्रकार तेजस्कायिक जीवों की प्ररूपणा पूर्ण हुई। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बादर तेजस्कायिक जीवों के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गयी है। For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - तेजस्कायिक जीव प्रज्ञापना ** * * * * * * * ****** 4000024 **********4041044444444444 4 4444444 __ "विद्युत (बिजली) सचित्त अग्निकाय हैं" इस विषय में जिनागमों में निम्न उल्लेख मिलते हैं - १. श्री प्रज्ञापना के प्रथम पद में तेउकाय के वर्णन में संघर्ष से उत्पन्न होने वाले अग्नि और ऐसी ही अन्य अग्नियों का उल्लेख क्रमश: 'संघरिस समुट्ठिए' और 'जे यावण्णे तहप्पगारा' पदों से किया गया हैं। बिजली संघर्ष से उत्पन्न होती हैं। उपरोक्त आगम पाठ से इसका समावेश 'संघरिस समुट्ठिए' में होता है। २. उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३६ में बादर अग्निकाय के भेद में 'विजू' शब्द से बिजली को तेउकाय में स्वीकार की हैं। ३. अभिधान राजेन्द्र कोष में 'तेउकाय' शब्द की व्याख्या में निम्न ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं पिण्ड नियुक्ति, ओघनियुक्ति आवश्यक मलयगिरि, कल्प सुबोधिका, बृहत्कल्प वृति। इन ग्रन्थों में सचित्त. अचित्त और मिश्र तीन प्रकार की अग्नि बताई गई हैं। - सचित्त दो प्रकार की है-निश्चय और व्यवहार। निश्चय से सचित्त ईंट की भट्टी, कुम्हार की भट्टी आदि के मध्य की अग्नि और बिजली की अग्नि निश्चय सचित्त हैं। मिश्र तेजसकाय में मुर्मुर (चिनगारियां) आदि। - अचित्त तेजस्काय में अग्नि द्वारा पके हुए भोजन, तरकारियां, पेय पदार्थ, अग्नि द्वारा तैयार की हुई लोहे की सूई आदि वस्तुएं और राख कोयला आदि अचित्त तेजस्काय हैं। अचित्त की नामावली में बिजली का नाम नहीं है। ४. श्री भगवती सूत्र श० ५ उ० २ के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि केवल सचित्त अग्नि के मृत शरीरों को ही अचित्त अग्नि कहा गया हैं, बनावटी विद्युत आदि को नहीं। ५. श्री भगवती श० ७ उ० १० में अचित्त प्रकाशक तापक पुद्गल में केवल क्रोधाभिभूत साधु की तेजोलेश्या को लिया हैं। परन्तु बिजली को नहीं लिया। . ६. सूयगडांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध के तीसरे अध्ययन में उल्लेख हैं कि त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त और अचित्त शरीरों में पृथ्वी, पानी, तेउकाय आदि रूपों में जीव पूर्वकृत कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि बेटरी, दियासलाई और तांबे के तारों में सचित्त तेजसं उत्पन्न हो सकती हैं। ... ७. लोगों से मालूम हुआ कि अग्नि की ही तरह बिजली से भी भोजन बनाया जाता हैं । ज्वालायें निकलती हैं, हवा गर्म होती हैं। जिस प्रकार कोयला, तेल आदि से अग्नि उत्पन्न कर मशीनें चलाई जाती हैं उसी प्रकार बिजली से भी मशीनें चलाई जाती है। बिजली मनुष्यों की मृत्यु का कारण भी बन जाती हैं। इससे बल्ब और पंखे भी गर्म हो जाते हैं। सभी प्रकार से देखा जाय, तो बिजली अग्नि का महापुंज हैं और साधारण अग्नि से भी महान् कार्य करने वाली हैं। इसे अचित्त फिर कैसे माना जाय? For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ प्रज्ञापना सूत्र ******** ************************************** पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज ने दशवैकालिक के चौथे अध्ययन में तेजस्काय की यतना के अधिकार में पृ० १६१ पर लिखा कि - 'अग्नि के लक्षण प्रकाशकत्व उष्णत्व वर्णन किये हैं। बनावटी विद्युत में प्रकाशकत्व गुण दृष्टिगोचर होता हैं। उष्णत्व गुण प्रतीत नहीं होता इसीलिए विद्युत की अग्नि अचित्त प्रतीत होती है। पूज्य श्री ने उपरोक्त उल्लेख किस अनुभव के आधार से किया है यह समझ में नहीं आया। पूज्य श्री ने उसी जगह साधु की तेजोलेश्या को 'अचित्त अग्नि - तेजस्काय' लिखा है किन्तु यह बात भी भगवती सूत्र के ऊपर बताए हुए पांचवें प्रमाण से विपरीत है। क्योंकि वहाँ भगवती सूत्र में उसे अचित्त अग्नि नहीं बल्कि अचित्त प्रकाशक तापक पुद्गल लिखा हैं, अचित्त तेजस्काय नहीं। ८. पृथ्वी, अप्, वायु और वनस्पति में अपनी अपनी काय में, अपने ही भिन्न-भिन्न भेदों में भिन्नभिन्न गुण स्वभाव और लक्षण हैं, उसी प्रकार अग्नि में भी स्वभाव भिन्नता हो सकती हैं किन्तु बिजली अचित्त नहीं हो सकती है। ____९. जब शास्त्रों में हाथ से, पत्ते के टुकड़े से, पंखे से और वस्त्र पात्रादि से हवा की उदीरणा करने का निषेध है। हवा और अग्नि के आरम्भ को बहुत सावद्य दुर्गति का कारण और इनका आरम्भ करने से निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट होना बताया है, तब तेउ, वायु के प्रबल आरंभक यंत्र (जो प्रत्यक्ष में पशु पक्षी आदि अनेक जीवों के घातक हैं) का उपयोग कैसे हो सकता है ? __ शास्त्रों में तेजस्काय के वर्णन में स्थान-स्थान पर बिजली का उल्लेख हैं। केवल सचित्त अग्निकाय के मृत कलेवर को अचित्त अग्निकाय मानने का स्पष्ट उल्लेख हैं। अग्निकाय और बिजली के समान गुण, लक्षण व स्वभाव को देखते बिजली सचित्त तेजस्काय ही हैं। हम तो कृत्रिम बिजली को सचित्त मानते ही हैं किन्तु पू० आत्मारामजी महाराज साहब ने बड़ी खोज के बाद बिजली को सचित्त स्वीकार किया है। उनका एक लेख संवत् १९९५ विक्रमी के ज्येष्ठ सुद पूनम को प्रकाशित रतलाम के निवेदन में हैं। कुछ संबंधित पंक्तियां इस प्रकार हैं। - 'विद्युत-बिजली जिसका प्रयोग आजकल रोशनी, पंखे चलाने के लिए तथा अन्य कई कामों में हो रहा हैं। उसके सचित्त या अचित्त होने के संबंध में जैन समाज में आजकल बड़ा वाद विवाद चल रहा है। कोई इसे सचित्त कोई इसे अचित्त कह रहे हैं। कई वर्ष हए, पंजाब के कतिपय मुनियों ने इस पर विचार किया तो यह निर्णय हुआ कि यह कृत्रिम बिजली अचित्त प्रतीत होती है। उसके अनुसार हमने भी सेठ ज्वाला प्रसाद जी के द्वारा प्रकाशित दशवकालिक सूत्र के अपने अनुवादों में ऐसी ही लिख दिया था। पश्चात् जब बिजली घरों में जाकर पुन: बड़ी खोज के साथ अन्वेषण किया गया तो यह निश्चित हुआ कि बिजली सचित्त हैं, अचित्त नहीं।' लेख की उपरोक्त पंक्तियों से बिजली का सचित्त तेउकाय होना सिद्ध होता हैं। For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वायुकायिक जीव प्रज्ञापना वायुकायिक जीव प्रज्ञापना से किं तं वाउक्काइया ? वाउक्काइया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - सुहुम वाउक्काइया य बायर वाउक्काइया य ॥ २४ ॥ भावार्थ प्रश्न वायुकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - वायुकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं और २. बादर वायुकायिक | से किं तं सुहुम वाउक्काइया ? सुहुम वाउक्काइया दुविहा पण्णत्ता । तंजहापज्जत्तग सुहुम वाउक्काइया य अपज्जत्तग सुहुम वाउक्काइया । से तं सुहुम वाक्काइया ॥ २५ ॥ भावार्थ- प्रश्न सूक्ष्म वायुकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर- सूक्ष्म वायुकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं - १. पर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिक और २. अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिक। इस प्रकार सूक्ष्म वायुकायिक जीव कहे गये हैं । से किं तं बायर वाउक्काइया ? बायर वाउक्काइया अणेगविहा पण्णत्ता । तंजहापाईणवाए, पडीणवाए, दाहिणवाए, उदीणवाए, उड्डवाए, अहोवाए, तिरियवाए, विदिसीवाए, वाउब्भामे, वाउक्कलिया, वायमंडलिया, उक्कलियावाए, मंडलियावाए, गुंजावाए, झंझावाए, संवट्टगवाए, घणवाए, तणुवाए, सुद्धवाए, जे यावण्णे तहप्पगारा । ते समासओ दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । तत्थ णं जें ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता । तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एएसि णं वण्णादेसेणं, गंधादेसेणं, रसादेसेणं, फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखिज्जाई जोणिप्पमुह सयसहस्साइं । पज्जत्तग णिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखिज्जा | से तं बायर वाउक्काइया । से तं वाउक्काइया ॥ २६ ॥ 1 कठिन शब्दार्थ- पाईणवाए- प्राचीन वात- पूर्वी वायु (पूर्व दिशा से चलती हुई वायु) उड्डवाए - ऊर्ध्व वायु ऊँची दिशा में गमन करती हुई वायु, विदिसीवाए - विदिग्वायु (विदिशा से आती हुई हवा) वाउब्भामे - वातोद्भ्राम - अनवस्थित वायु, वाउक्कलिया - वातोत्कलिका - समुद्र की तरह वायु की तरंगें, वायमंडलिया - वातमंडलिका, उक्कलियावाए - उत्कलिकावात - अनेक तरंगों से मिश्रित वायु, मंडलियावाए - मंडलिकावात - मंडलाकार में उठती हुई वायु शुरू से ही प्रचुर मंडलिकाओं ************** - - - For Personal & Private Use Only - - ५७ ********** १. सूक्ष्म वायुकायिक Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ गोल-गोल चक्करदार हवाओं से प्रारम्भ होकर उठने वाली वायु, गुंजावाए - गुंजावात गुंजती हुई चलने वाली वायु, झंझावाए - झंझावात - वृष्टि सहित वायु, संवट्टगवाए संवर्तक वायु-तृण आदि को उड़ा कर ले जाने वाली वायु, घणवाए - घनवात ठोस वायु, तणुवाए - तनुवात - प्रवाही वायु - घनवात के नीचे रही हुई पतली वायु, सुद्धवाए शुद्धवात - शुद्ध वायु-मंद तथा स्थिर वायु - धीरे-धीरे बहने वाली हवा या मशक आदि में रही हुई हवा | भावार्थ- प्रश्न- बादर वायुकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर बादर वायुकायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं- पूर्व वायु, पश्चिम वायु, दक्षिण वायु, उत्तर वायु ऊर्ध्व वायु, अधो वायु, तिर्यक् वायु, विदिग् वायु, वातोद्भ्राम, वातोत्कलिका, वातमंडलिका, उत्कलिकावात, मंडलिकावात, गुंजावात, झंझावात, संवतर्कवात, घनवात, तनुवात, शुद्धवात। अन्य जितनी भी इस प्रकार की हवाएँ हैं उन्हें भी बादर वायुकायिक ही समझना चाहिए। (यहाँ पर बादर वायुकायिकों में सचित्त वायुओं का ही ग्रहण हुआ है आक्सीजन आदि अचित्त वायुओं का ग्रहण नहीं समझना चाहिये ।) वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा- पर्याप्त और अपर्याप्त। इनमें जो अपर्याप्त हैं वे असम्प्राप्त हैं। इनमें जो पर्याप्त हैं उनके वर्णादेश, गंधादेश, रसादेश और स्पर्शादेश से हजारों भेद होते हैं। इनके संख्यात लाख योनि द्वार हैं। पर्याप्त की निश्राय में अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्त होते हैं। इस प्रकार बादर वायुकायिक जीव कहे गये हैं। इस प्रकार वायुकायिक जीवों की प्ररूपणा पूर्ण हुई । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बादर वायुकायिक जीवों के भेद-प्रभेदों का कथन किया गया है। - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना से किं तं वणस्सइकाइया ? वणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - सुहुम वणस्सइकाइया य बायर वणस्सइकाइया य ॥ २७ ॥ भावार्थ प्रश्न वनस्पतिकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? - - प्रज्ञापना सूत्र - उत्तर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं वनस्पतिकायिक और २. बादर वनस्पतिकायिक | से किं तं सुहुम वणस्सइकाइया ? सुहुम वणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - पज्जत्तग सुहुम वणस्सइकाइया य अपज्जत्तग सुहुम वणस्सइकाइया य । से तं सुहुम वणस्सइकाइया ॥ २८ ॥ भावार्थ प्रश्न सूक्ष्म वनस्पतिकायिक के कितने भेद कहे गये हैं ? - For Personal & Private Use Only - १. सूक्ष्म Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ५९ ********** ******************************************************* ************* उत्तर - सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और २. अपर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक। इस प्रकार सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव कहे गये हैं। से किं तं बायर वणस्सइकाइया? बायर वणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया य साहारणसरीर बायर वणस्सइकाइया य॥२९॥ भावार्थ - प्रश्न - बादर वनस्पतिकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? . उत्तर - बादर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं- १. प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक और २. साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक। विवेचन - प्रश्न - प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक किसे कहते हैं ? उत्तर - 'एकं एक जीवं प्रति गतं प्रत्येकं प्रत्येकं शरीरं येषां ते प्रत्येकशरीराः।' - एक एक जीव को प्राप्त शरीर प्रत्येक शरीर कहलाता है। जिन वनस्पतिकायिक जीवों का प्रत्येक शरीर है अर्थात् एक-एक जीव का एक-एक औदारिक शरीर भिन्न-भिन्न है। वे प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव कहलाते हैं। प्रश्न - साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव किसे कहते हैं ? उत्तर - 'समानं-तुल्यं प्राणापानादि उपभोगं यथा भवति एवम् आ-समन्तात् एकीभावेन अनन्तानां जन्तूनां धारणं-संग्रहणं येन तत्साधारणं, साधारणं शरीरं येषां ते साधारणशरीराः' - श्वासोच्छ्वास आदि का उपभोग समान रूप से होता है इस प्रकार अनंतजीवों द्वारा जो शरीर धारण किया जाता है उसे साधारण शरीर कहते हैं। जिन वनस्पतिकायिक जीवों का साधारण शरीर है वे साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव कहलाते हैं। इनका औदारिक शरीर एक होता है। तैजस और कार्मण शरीर सबका भिन्न-भिन्न होता है। इन अनंत ही जीवों का जन्म, श्वासोच्छ्वास और मरण एक साथ होता है। से किं तं पत्तेय सरीर बायर वणस्सइ काइया ? पत्तेय सरीर बायर वणस्सइ काइया दुवालस विहा पण्णत्ता। तंजहा - १ रुक्खा २ गुच्छा ३ गुम्मा ४ लया य ५ वल्ली य ६ पव्वगा चेव। ७ तण ८ वलय ९ हरिय १० ओसहि ११ जलरुह १२ कुहणा य बोद्धव्वा॥३०॥ कठिन शब्दार्थ - रुक्खा - वृक्ष, गुच्छा - गुच्छ, गुम्मा - गुल्म, लया - लता, वल्ली - वल्ली, पव्वगा - पर्वग, तण - तृण, ओसहि - औषधि, कुहणा - कुहण। For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्रज्ञापना सूत्र * *-*-*-* - *-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-* * * * * -- *-*-* - *-*-*-*-*-*-*-*-*-**-** * * * * * * भावार्थ - प्रश्न - प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव बारह प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. वृक्ष (आम, नीम आदि) २. गुच्छ (बैंगन आदि के पौधे) ३. गुल्म (नवमालिका आदि) ४. लता (चम्पकलता आदि) ५. वल्ली (कूष्माण्डी आदि बेलें) ६. पर्वग (इक्षु आदि पर्व-पोर-गांठ वाली वनस्पति) ७. तृष्ण (कुश, दूब आदि हरी घास) ८. वलय (केतकी कदली आदि) ९. हरित (बथुआ आदि हरी लिलोती) १०. औषधि (गेहूँ आदि धान्य) ११. जलरुह (पानी में उगने वाली कमल, सिंघाड़ा आदि वनस्पति) १२. कुहण (भूमि को फोड कर उगने वाली वनस्पति)। . विवेचन - बारह प्रकार के प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीवों के नाम भावार्थ से स्पष्ट है। कुछ विशेष नामों का अर्थ इस प्रकार है - गुल्म - नवमालिका आदि पुष्प प्रधान जाति के पौधे को तथा जिसके स्कन्ध तो छोटे हो किन्तु वह बहुत शाखाओं तथा पत्र पुष्प आदि से युक्त हो। लता - जिसके मध्य स्कन्ध के सिवाय शेष स्थल शाखाएं नहीं होती ऐसी चम्पक लता आदि। . जो प्रायः वृक्षों पर चढ़ जाती है। बेल - जिसके पत्तों के पास तन्तु लगे हों ऐसी खरबूजों की बेले। जो विशेषतः जमीन पर ही फैलती है। वलय - जिनकी छाल वलय के आकार की गोल होती है जैसे केतकी कदली आदि। से किं तं रुक्खा? रुक्खा दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-एगट्ठिया य बहुनीयगा य॥३१॥ कठिन शब्दार्थ - एगट्ठिया - एक अस्थिक (एक बीज वाले) बहुबीयगा - बहुत बीज वाले। भावार्थ - प्रश्न - वृक्ष कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - वृक्ष दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. एकास्थिक और २. बहुवीजक। विवेचन - प्रश्न - एकास्थिक वृक्ष किसे कहते हैं ? उत्तर - एक एक फल में एक एक बीज होता है उसे एकास्थिक कहते हैं अथवा एक बीज वाला वृक्ष एकास्थिक वृक्ष कहलाता है। जैसे - आम, बेर आदि। प्रश्न - बहुबीजक वृक्ष किसे कहते हैं ? उत्तर- ऐसे वृक्ष जिनके फल में बहुत बीज हों, उन्हें बहुबीजक वृक्ष कहते हैं। जैसे-नींबू आदि। से किं तं एगट्ठिया ? एगट्ठिया अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा - णिंबंब-जंबुकोसंब साल अंकुल्ल पीलु सेलू य। सल्लइ मोयइ मालुय बउल पलासे करंजे य॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना .. ...६१ ********************************************* ************************************** पुत्तंजीवय अरिटे बिभेलए हरिडए य भिल्लाए (भल्लाए)। उंबेभरिया-खीरिणि बोद्धव्वे धायइ पियाले॥२॥ पूईय णिंब करंजे (पूई करंज) सण्हा तह सीसवा य असणे य। पुण्णाग-णागरुक्खे सीवणि तहा असोगे य॥३॥ जे यावण्णे तहप्पगारा। एएसि णं मूला वि असंखिज जीविया, कंदा वि, खंधा वि, तया वि, साला वि, पवाला वि। पत्ता पत्तेय जीविया, पुप्फा अणेग जीविया, फला एगट्ठिया। सेत्तं एगट्ठिया॥३२॥ ____ कठिन शब्दार्थ - णिंब - नीम, अंब - आम, सल्लइ - सल्लकी, मोयइ - मोचकी, पुतंजीवियपुत्रजीवक, अरिद्वे - अरिष्ट, असंखिज्ज जीविया - असंख्यात जीव वाले, कंदा - कंद, खंधा - स्कंध, तया - त्वचा, साला - शाखा, पवाला - प्रवाल। भावार्थ - प्रश्न - एकास्थिक वृक्ष कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - एकास्थिक वृक्ष अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - नीम, आम, जामुन, कोशम्ब (कोशाम्र) शाल (राल का वृक्ष) अंकोल्ल (अखरोट या पिस्ता), पीलु, सेलु (श्लेष्मातक-गुंदा) सल्लकी (हस्ती प्रिय वनस्पति), मोचकी, मालुक (कृष्ण तुलसी), बकुल (बोरसली), पलाश (खाखरा), करंज॥१॥ पुत्रजीवक, अरिष्ट (अरीठा) बिभीतक (बहेडा), हरितक (हरडे), भिलामा, उंबेभरिका, क्षीरिणी (गंभारी) धातकी (धावडी), प्रियाल (रायण का वृक्ष अथवा चारोली का वृक्ष)॥ .. पूति(निंब)करंज, सुण्हा (श्लक्ष्णा) शिंशपा-शीशम, अशन, पुन्नाग (नागकेसर) नागवृक्ष, श्रीपर्णी और अशोक। इसी प्रकार के अन्य जितने भी वृक्ष हों उन सबको एकास्थिक ही समझना चाहिये। इनके मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा और प्रवाल असंख्यात जीवों वाले होते हैं किन्तु इनके पत्ते प्रत्येक जीव वाले होते हैं, पुष्प अनेक जीव वाले होते हैं और फल एकास्थिक-एक ही बीज वाले होते हैं। इस प्रकार एकास्थिक वृक्ष कहे गये हैं। विवेचन - शंका - मूल और कंद में क्या अन्तर है? समाधान - भूमि में तिरछा फैलने वाला मूल होता है तथा वह कन्द से नीचे होता है। चौड़ाई में फैलने वाला तथा स्कन्ध के नीचे रहने वाला कंद होता है वह तने की अपेक्षा विस्तृत होता है। एकास्थिक वृक्षों में कितनेक प्रसिद्ध हैं और कितनेक अप्रसिद्ध हैं। किसी देश विशेष में प्रसिद्ध भी हो सकते हैं। For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्रज्ञापना सूत्र ********* * * * * * * * ******************************************* **** ******* से किं तं बहुबीयगा ? बहुबीयगा अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा - अस्थिय-तिंदु-कविढे अंबाडग-माउलिंग बिल्ले य। आमलग फणस दाडिम आसोत्थे उंबर वडे य॥१॥ णग्गोह णंदिरुक्खे पिप्परी सयरी पिलुक्ख रुक्खे य। काउंबरि कुत्धुंभरि बोद्धव्वा देवदाली य॥२॥ तिलए लउए छत्तोह-सिरीसे सत्तवण्ण दहिवण्णे। लोद्ध धव चंदण अज्जुण णीमे कुडए कयंबे य॥३॥ जे यावण्णे तहप्पगारा। एएसि णं मूला वि असंखिज जीविया, कंदा वि, खंधा वि, तया वि, साला वि, पवाला वि। पत्ता पत्तेय जीविया। पुप्फा अणेग जीविया। फला बहुबीयगा। से तं बहुबीयगा। से तं रुक्खा॥३३॥ भावार्थ - प्रश्न - बहुबीजक वृक्ष कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - बहुबीजक वृक्ष अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - अस्थिक, तेंदुक (टींबरु), कपित्थक (कोठा), अम्बाडग, मातुलिंग (बिजौरा), बिल्व (बीला) आमलक (आंवला), पनस (अनन्नास), दाडिम (अनार), अश्वत्थ (पीपल), उदुम्बर (गुल्लर), वट (बड)॥ १॥ न्यग्रोध (बडा वट), नंदिवृक्ष, पिप्पली (पीपल), शतरी (शतावरी), प्लक्ष वृक्ष, कादुम्बरी, कुस्तुंबरि और देवदाली॥ २॥ तिलक, लकुच, छत्रौघ, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुटज और कदम्ब ॥३॥ इसी प्रकार के अन्य जितने भी वृक्ष हैं वे सब बहुबीजक वृक्ष समझने चाहिये। इनके मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा और प्रवाल असंख्यात जीवों वाले होते हैं। किन्तु इनके पते प्रत्येक जीव वाले और पुष्प अनेक जीव वाले होते हैं तथा फल बहुत बीज वाले होते हैं। इस प्रकार बहुबीजक वृक्षों का वर्णन हुआ। इस प्रकार वृक्ष कहे गये हैं। विवेचन - इन बहुबीजक वृक्षों में से कितनेक प्रसिद्ध हैं और कितनेक अप्रसिद्ध हैं। किसी देश विशेष में प्रसिद्ध भी हो सकते हैं। यहाँ पर आमलक शब्द का अर्थ टीका में प्रसिद्ध आंवला नहीं समझना ऐसा कहा है जिसके लिए एक बीज होने का हेतु दिया गया है परन्तु वस्तुत: ऐसी स्थिति नहीं है। लोक प्रसिद्ध आमलक, बोर आदि एक गुठली वाले और अनेक बीज वाले होते हैं अर्थात् आमलक के जितने फांके होती है उसकी गुठली में उतने ही बीज होते हैं इसी प्रकार अम्बाडग को भी समझना अर्थात् यह सब लोक प्रसिद्ध ही समझना। For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ६३ ******************************************************* ** ** * * ** * * ** ********** से किं तं गुच्छा ? गुच्छा अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा - वाइंगण (वाइंगणि) सल्लइ बोंडई (धुंडई) य तह कच्छुरी य जासुमणा। रूवी आढइ णीली तुलसी तह माउलिंगी य॥१॥ कत्थंभरि पिप्पलिया अयसी बिल्ली (वल्ली) य कायमाई या। चुच्चु पडोल कंदलि बाउच्चा वत्थुले बयरे॥२॥ पत्तउर सीयउरए हवइ तहा जवसए य बोद्धव्वे। णिग्गुंडिय कत्तुंबरि (णिग्गुंडि अक्क तूवरि ) अत्थई चेव तलऊडा॥३॥ सण-पाण (वाण) कास मुद्दग-अग्घाडग-साम-सिंदुवारे य। करमद्द-अहरुसग-करीर-एरावण-महित्थे॥४॥ जाउलग-माल-परिली-गयमारिणी-कुच्च कारिया भंडी। जावइ केयइ तह गंज पाडला दासि-अंकोल्ले॥५॥ जे यावण्णे तहप्पगारा।से तं गुच्छा॥३४॥ भावार्थ - प्रश्न - गुच्छ कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर- गच्छ अनेक प्रकार के कहे गये हैं. वे इस प्रकार हैं - वाइंगिणी (बैंगन), सल्लकी, धुंडकी, कच्छुरी (कवच), जासुमना, रूपी, आढकी, नीली, तुलसी और मातुलिंगी॥१॥ - कुस्तुंभरी, पिप्पलिका, अलसी, वल्ली (बिल्वी), कायमादिका, चुच्चु (वुच्चु) पटोलकंदलि, विउव्वा (विकुर्वा), वत्थुल (बस्तुल), बदर ॥२॥ पत्रपूर, शीतपूर, जवसक, निर्गुडी, कस्तुंबरि, अत्थई (अस्तकी) और तलउडा (तलपुटा) ॥३॥ शण, पाण, काशमुद्रक, अघ्रातक, श्याम, सिन्दुबार और करमर्द (लोक प्रसिद्ध करमदा) आर्द्रडूसक (अडूसा) करीर (कैर) एरावण तथा महित्थ ॥ ४॥ जातुलक, मालग, परिली, गजमारिणी, कुर्व्वकारिका, भंडी जीवकी (जीवंती) केतकी, गंज, पाटला, दासी और अंकोल्ल। इसी प्रकार की अन्य जो वनस्पति हैं वे सभी गुच्छ समझनी चाहिये। इस प्रकार गुच्छ कहे गये हैं। विवेचन - इनमें कितनेक गुच्छ प्रसिद्ध हैं और कितनेक अप्रसिद्ध हैं। किसी देश विशेष में प्रसिद्ध भी हो सकते हैं। For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************* से किं तं गुम्मा? गुम्मा अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा - सेरियए णोमालिय कोरंटय-बंधुजीवग मणोजे। पीईय पाण कणइर (कणयर) कुज्जय तह सिंदुवारे य॥१॥ जाई मोग्गर तह जूहिया य तह मल्लिया य वासंती। वत्थुल कच्छुल (कत्थुल) सेवाल गंठि मगदंतिया चेव॥२॥ . चंपगजाई णवणीइया य कुंदो तहा महाजाई। एवमणेगागारा हवंति गुम्मा मुणेयव्वा ॥३॥ से तं गुम्मा॥३५॥ भावार्थ - प्रश्न - गुल्म कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - गुल्म अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - सेरितक (सैरियक) नवमालती, कोरण्टक, बंधुजीवक, मनोद्य, पीतिक, पान, कनेर, कुर्जर (कुब्जक) सिंदुवार। जाती (जाई) मोगरा, जूही, मल्लिका, वासंती, वस्तुल, कत्थुल, शैवाल, ग्रंथी और मृगदन्तिका। चम्पक, जाति, नवनीतिका, कुंद तथा महाजाति। इस प्रकार के अन्य जो अनेक आकार प्रकार के हैं उन्हें गुल्म समझना चाहिये। इस प्रकार गुल्म कहे गये हैं। विवेचन - इनमें भी कितनेक गुल्म प्रसिद्ध है और कितनेक अप्रसिद्ध हैं। किसी देश विशेष में प्रसिद्ध भी हो सकते हैं। से किं तं लयाओ ? लयाओ अणेगविहाओ पण्णत्ताओ। तंजहा - पउम लया णाग लया असोग चंपग लया य चूय लया। वण लय-वासंति लया अइमुत्तय-कुंद-साम लया॥१॥ जे यावण्णे तहप्पगारा। से तं लयाओ॥३६॥ भावार्थ - प्रश्न - लताएं कितनी प्रकार की कही गयी हैं ? उत्तर - लताएँ अनेक प्रकार की कही गयी हैं। वे इस प्रकार हैं - पद्म लता, नाग लता, अशोक लता, चम्पक लता और चूत(आम्र-बेलिया आम की लता) लता, वन लता, वासन्ती लता, अतिमुक्तक लता, कुंद लता और श्याम लता। इसी प्रकार की अन्य जितनी भी वनस्पति हैं उन्हें लता समझना चाहिए। इस प्रकार लताएँ कही गयी है। विवेचन - इनमें भी कितनेक लताएँ प्रसिद्ध हैं और कितनेक अप्रसिद्ध हैं। किसी देश विदेश में प्रसिद्ध भी हो सकते हैं। For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से किं तं वल्लीओ ? वल्लीओ अणेग विहाओ पण्णत्ताओ। तंजहा पूसफली कालिंगी तुंबी तउसी य एलवालुंकी । . घोसाडई पडोला पंचंगुलिया य णाली य ॥ १ ॥ कंगूया य कहुइया कक्कोडइ कारियल्लई सुभगा । कुवधा (या) य वागली पाववल्ली तह देवदाली य ॥२॥ अप्फोया अइमुत्तगणागलया कण्ह-सूरवल्ली य । ** संघट्ट- सुमनसा विय जासुवण- कुविंद वल्ली य॥३॥ मुद्दिय अंबावल्ली ** छीरविराली जयंती ** गोवाली' पाणी - मासावल्ली गुंजावल्ली य वच्छाणी ॥ ४॥ ससबिन्दु गोत्तफुसिया गिरिकण्णई मालुया य अंजणई । दहफोल्लई कागणी मोगली य तह अक्कबोंदी य ॥ ५ ॥ यावणे तहप्पगारा। से तं वल्लीओ ॥ ३७॥ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना भावार्थ - प्रश्न वल्लियाँ कितनी प्रकार की कही गयी है ? उत्तर - वल्लियाँ अनेक प्रकार की कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं- पूसफली, कालिंगी (जंगली तरबूज की बेल), तुम्बी, त्रपुषी (ककडी), एलवालुंकी (एक प्रकार की ककडी) घोषातकी (तोरई), पंडोला, पंचागुलिका और नीली (नालीका)। कंडुइया, कट्ठूइया, कंकोडी, करेला (लोक प्रसिद्ध), सुभगा (मोगरा की एक जाति) कुयवाय, वागुलीया, पापवल्ली, देवदाली ( कुकडबेल) । अफ्फ़ोया (आस्फोटा-अनन्तमूल) अतिमुक्त, नागलता (नागबेल) कृष्णा (जटामांसी) सूर्यवल्ली, संघट्टा, सुमनसा, जासुवन और कुविन्दवल्ली। मुद्दिया (मृद्विका दाख की बेल), अंबावल्ली (आम्रवल्ली), क्षीरविदारिका, जयंती गोपाली, पाणी, मासावल्ली, गुंजावल्ली (चणीठी चिरमी की वेल) वच्छाणी ( वत्सादनी गजपीपर)। शशबिन्दु, गोत्रस्पर्शिका, गिरिकर्णिका, मालुका और अंजनकी दहस्फोटकी ( दधिपुष्पिका) काकणी, मोगली और अर्कबोंदि । इसी प्रकार की अन्य जितनी भी वनस्पतियाँ है उन्हें वल्लियाँ समझना चाहिये। इस प्रकार वल्लियाँ कही गयी है । - - 1 विवेचन इनमें से कितनेक प्रसिद्ध हैं और कितनेक अप्रसिद्ध हैं। किसी देश विशेष में प्रसिद्ध भी हो सकती हैं। यहाँ वल्लियों के प्रकरण में "मुद्दिया" शब्द आया है। जिसका अर्थ है मृद्विका अर्थात् दाख (किशमिश)। इस आगम पाठ से यह स्पष्ट होता है कि दाख छोटी हो चाहे बड़ी हो उन ** पाठान्तर - देवदारु, अप्पाभल्ली, जियंति, गोवल्ली । ६५ **** For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ प्रज्ञापना सूत्र सब में बीज होता है। अतः बीज युक्त होने से दाख सचित्त है। इसमें बीज बहुत छोटा होता है इसलिए सहज रूप में दिखाई नहीं देता। लोग कहते हैं कि आजकल सीडलेस (बीज रहित) अङ्गुर आते हैं। परन्तु यह मान्यता गलत है कि उनमें बीज नहीं होते वास्तविक ध्यान पूर्वक देखने पर बीज दिखाई देते हैं। क्योंकि बीज बिना कोई फल होता ही नहीं है। किसी कोष में दाख (किसमिस) को " 'अबीजा" लिख दिया गया है परन्तु यहाँ पर अकार का अर्थ निषेध नहीं है किन्तु अल्प अर्थ है। इसलिए अबीजा का अर्थ "अल्पबीजा" समझना चाहिए। इसके अन्दर बीज बहुत छोटे होते हैं इस कारण सामान्य रूप से देखने वालों को दिखाई नहीं देते हैं । किन्तु वह दाख उबली हुई हो अथवा खीर आदि बनायी हुई हो, उसमें दाख डाली हुई हो तो वह फूल जाती है। तब उसमें बीज स्पष्ट दिखाई देता है। से किं तं पव्वगा ? पव्वगा अणेगविहा पण्णत्ता । तंजहा - इक्खू य इक्खुवाडी वीरण तह एक्कडे भमासे य । सुंठे सरे य वेत्ते तिमिरे सयपोरग ले य ॥ १ ॥ वंसे वेलू कणए कंकावंसे य चाववंसे य । उदए कुडए विमए कंडावेलू य कल्लाणे ॥ २ ॥ जे यावणे तहप्पगारा । से तं पव्वगा ॥ ३८ ॥ ******* भावार्थ - प्रश्न - पर्वक (पर्व वाली) वनस्पतियाँ कितने प्रकार की कही गयी है ? उत्तर - पर्वक (गांठ वाली) वनस्पतियाँ अनेक प्रकार की कही गई है। वे इस प्रकार हैं १. इक्षु, इक्षुवाटिका, वीरण (वालो) एक्कड (इत्कट) भमास, सूंठ, शर, वेत्र, तिमिर, शत पोरक और नल। वंश (बांस), वेणु (बांस की जाति), कनक, कर्कावंश और चापवंश (धनुष बनाने योग्य बांस), उदक कुडग (कुटज) विभक्त, कंडावेणु और कल्याण । इसी प्रकार की अन्य जो वनस्पति है उन्हें पर्वक समझना चाहिए। उनके पर्व (गांठ) में बीज होता है। इस प्रकार पर्वक वनस्पति कही गयी हैं। से किं तं तणा ? तणा अणेग विहा पण्णत्ता। तंजहा - सेडिय-मंत्तिय-होंत्तिय-दब्भकुसे पव्वए य पोडड्ला । अज्जुण असाढए रोहियंसे सुय-वेय-खीर - तुसे (भुसे ) ॥ १ ॥ एरंडे कुरुविंदे कक्खड (करकर) सुंद्वे तहा विभंगू य । महुर- तण - लुणय (थुरय) सिप्पिय बोद्धव्वे सुंकलि तणा य ॥ २ ॥ जे यावण्णे तहप्पगारा । से तं तणा ॥ ३९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ६७ ************************ ************ ******** ****** * ** ** ***** **** भावार्थ - प्रश्न - तृण कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - तृण अनेक प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं - सेटिक, भक्तिक, होत्रिक, दर्भ, कुश और पर्वक, पोटकिला, अर्जुन, आषाढक, रोहितांश, शुक, वेद, क्षीर भुसा, एरण्ड, कुरुविंद, करकर, मुट्ठ विभंगु, मधुरतृण, क्षुरक, शिल्पिक, सुंकली तृण। इसके सिवाय अन्य इसी प्रकार की वनस्पति को तृण समझना चाहिए। इस प्रकार तृण कहे गये हैं। से किं वलया? वलया अणेग विहा पण्णत्ता। तंजहा - ताल-तमाले तक्कलि-तोयली सारे (साली) य सारकल्लाणे। सरले जावति केयइ कदली तह धम्म रुक्खे य॥१॥ . भुय रुक्ख-हिंगु रुक्खे लवंग रुक्खे य होइ बोद्धव्वे। पूयफली खजुरी बोद्धव्वा णालिएरी य॥२॥ जे यावण्णे तहप्पगारा।से तं वलया॥४०॥ भावार्थ - प्रश्न - वलय वनस्पति कितने प्रकार की कही गई हैं ? उत्तर - वलय वनस्पति अनेक प्रकार की कही गयी हैं, वे इस प्रकार हैं - ताल (ताड), तमाल, तक्कलि, तोयली, साली (शाल्मली), सारकल्याण, सरल (चीड), जावती (जावित्री) केतकी (केवडा) कदली (केला), धर्मवृक्ष (चर्मवृक्ष)। भुजवृक्ष, हिंगुवृक्ष, लवंगवृक्ष, पूगफली (सुपारी), खजूर और नालिकेरी (नारियल)। इसके अलावा अन्य इसी प्रकार की वनस्पति को वलय समझना। इस प्रकार वलय वनस्पतियों का वर्णन हुआ। विवेचन - वलय के आकार की गोलगोल छाल वाली वनस्पति वलय कहलाती है। जिसके तने में से छाल निकलते निकलते पीछे कुछ भी नहीं बचे, उसे वलय वनस्पति कहते हैं। कदली (केले) की सचित्तता निम्न आगम प्रमाणों से सिद्ध होती है - १. प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में वनस्पति के भेदों के अन्तर्गत 'वलय' नामक वनस्पति के भेद में कदली का भी वर्णन है। कदली के साथ साथ ताल, तमाल, नालिकेर आदि अनेक प्रकार की वनस्पति भी उसी भेद में बताई गई है, अर्थात् इन सब की समानता होने से इन सबका ग्रहण 'वलय' वनस्पति में हुआ है। ताल, तमाल नालिकेर आदि में प्रत्यक्ष बीज पाये जाते हैं। अतः इस शास्त्रीय प्रमाण से तालादि के समान कदली भी होने से उसमें भी बीज है और वह भी सचित्त है। २. भगवती सूत्र के बावीसवें शतक में ताल वर्ग के भेदों में कदली का नाम भी है और इनके मूल से बीज पर्यन्त दस भेदों के दस उद्देशक बताये गये हैं। इनके मूलादि में जीव कहाँ से आकर For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ प्रज्ञापना सूत्र ***** *-*-* ** * * * * * * * * * * * * * * * * ******** उत्पन्न होते हैं, इत्यादि द्वार बताये हैं। जिनमें से मूलादि पांचों में देव उत्पन्न नहीं होते हैं और प्रवाल से लेकर बीज पर्यन्त के पांच भेदों में देव उत्पन्न हो सकते हैं, इत्यादि वर्णन है। इस मूल पाठ से भी केले में बीज होते हैं, वे बीज के जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं। इत्यादि की स्पष्ट रूप से सिद्धि होती है। अत: आगमों पर श्रद्धा रखने वाले मुमुक्षु साधकों को केले में बीज मानने चाहिये और बीजों के कारण केलों को सचित्त मानना चाहिए। अतः साधु समाज को तो इसका वर्जन रखना ही चाहिये। भगवती सूत्र के इस पाठ से केले में बीज होना स्पष्ट प्रमाणित हो रहा है। केले के मध्य में जो काली रेखा दिखाई देती है वह छोटे छोटे बीजों की पंक्ति है। यह प्रत्यक्ष से भी सिद्ध है। केला पूरा हो या खण्ड रूप हो, टुकड़ों पर शक्कर डाल दी गई हो तो भी बीजों के होने से वह सचित्त है एवं साधु साध्वियों के लिए अकल्पनीय है। यही बात इस शतक के अंतिम वर्ग में वर्णित द्राक्षा के विषय में भी लागू होती है। से किं तं हरिया ? हरिया अणेग विहा पण्णत्ता। तंजहा - अज्जोरुह-वोडाणे हरितग तह तंदुलेजग तणे य। वत्थुल-पारग-मज्जार पाइ बिल्ली य पालक्का॥१॥ दगपिप्पली य दव्वी सोत्थिय साए तहेव मंडुक्की। मूलग-सरिसव अंबिल-साए य जियंतए चेव॥२॥ तुलसी कण्ह उराले फणिज्जए अज्जए य भूयणए। चोरग-दमणग-मरुयग सयपुष्फिंदीवरे य तहा॥३॥ जे यावण्णे तहप्पगारा।से तं हरिया॥४१॥ भावार्थ - प्रश्न - हरित वनस्पतियाँ कितने प्रकार की कही गयी हैं ? उत्तर - हरित वनस्पतियाँ (हरी साग भाजियाँ) अनेक प्रकार की कही गयी हैं, वे इस प्रकार हैंअद्यावरोह, व्युदान, हरितक, तान्दुलेयक, तृण, वस्तुल (बथुआ) पोरक, मार्जार, पाती, बिल्वी और पाल्यक (पालक)। दकपिप्पली, दर्वी, स्वस्तिक शाक तथा माण्डुकी। मूलक, सरसव (सर्षप), अम्ल शाक और जीवन्तक। तुलसी, कृष्ण, उदार, फायनेयक, आर्यक और भुजनक, चोरक, दमनक, मरुचक (मरवो), शतपुष्प और इंदिवर। इसके अलावा अन्य जो इसी प्रकार की वनस्पतियाँ है उन्हें हरित . समझना चाहिए। इस प्रकार हरित वनस्पतियाँ कही गयी हैं। से किं तं ओसहीओ? ओसहीओ अणेग विहाओ पण्णत्ताओ। तंजहा - सालीवीही-गोहुम-जवजवा-कल-मसूर-तिल-मुग्गा। For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ***************************************** ********************************* *-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*--*-*-*-* * * * * * मास-णिफ्फाव-कुलत्थ-आलिसंद-सतीण-पलिमंथा। अयसी-कुसुंभ-कोद्दव-कंगू-रालग-वर सामग-कोदूसा। सण-सरिसव-मूलग बीया। जेयावण्णे तहप्पगारा। से तं ओसहीओ॥४२॥ प्रश्न - औषधियाँ (धान्य) कितने प्रकार की कही गयी हैं ? उत्तर - औषधियाँ अनेक प्रकार की कही गयी है, वे इस प्रकार हैं - १. शाली (चावल की जाति-धान) २. व्रीहि (चावल) ३. गोधूम (गेहूँ) ४. जौ ५. कलाय (मटर) ६. मसूर ७. तिल ८. मूंग ९. माष (उड़द) १०. निष्फाव (वालोर सेमी) ११. कुलत्थ १२. आलिसंद - चवला १३. सतीण - चने की जाति १४. पलिमंथ - ‘चने की जाति १५. अलसी १६. कुसुम्भ १७. कोद्रव १८. कंगू - कांगणी १९. राल २०. वरश्यामाक - साँवाधान २१. कोदूस २२. शण (सन) २३. सरसो और २४ मूलक बीज। ये और इसी प्रकार की अन्य जो वनस्पतियाँ हैं उन्हें औषधि समझना चाहिए। इस प्रकार औषधियाँ कही गयी है। से किं तं जलरुहा ? जलरुहा अणेग विहा पण्णत्ता। तंजहा-उदए, अवए, पणए, सेवाले, कलंबुया, हढे य कसेरुया, कच्छा, भाणी, उप्पले, पउमे, कुमुदे, णलिणे, सुभए, सुगंधिए, पोंडरीए, महापोंडरीए, सयपत्ते, सहस्सपत्ते, कल्हारे, कोकणदे अरविंदे, तामरसे, भिसे, भिसमुणाले, पोक्खले, पोक्खलत्थिभए ०, जे यावण्णे तहप्पगारा। से तं जलरुहा॥ ४३-१॥ भावार्थ - प्रश्न - जलरुह वनस्पतियाँ कितने प्रकार की कही गयी हैं ? उत्तर - जलरुह वनस्पतियाँ अनेक प्रकार की कही गयी हैं। वे इस प्रकार हैं - उदक, अवक, पनक, शैवाल, कलम्बुका, हढ, कसेरुका, कच्छ, भाणी, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, कल्हार, कोकनद, अरविन्द, तामरस, भिस (कमलगट्टा). भिसमृणाल (कमलतंतु), पुष्कर, पुष्करस्थलज (पुष्करास्तिभुक्)। इसी प्रकार की अन्य जो वनस्पतियाँ हैं उन्हें जलरुह समझना चाहिए। इस प्रकार जलरुह कही हैं। विवेचन - 'उत्पल से तामरस तक तथा पुष्कर' ये सभी कमलों की जातियाँ समझनी चाहिये। से किं तं कुहणा ? कुहणा अणेग विहा पण्णत्ता। तंजहा-आए, काए, कुहणे, • पोक्खलत्थिभुए, पोक्खलविभए। For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना सूत्र ****** *********************************************************** ** * * * * * * * * * * ** * * * * कुणक्के, दव्वहलिया, सप्काए (सप्याए), सज्झाए, सित्ताए (छत्ताए), वंसी, णहिया कुरए। जे यावण्णे तहप्पगारा।से तं कुहणा।। णाणाविहसंठाणा रुक्खाणं एगजीविया पत्ता। खंधा वि एगजीवा ताल सरल णालिएरीणं॥१॥ जह सगलसरिसवाणं सिलेस मिस्साणं वद्रिया वट्टी। पत्तेयसरीराणं तह होंति सरीरसंघाया॥२॥ जह वा तिलपप्पडिया बहुएहिं तिलेहिं संहिता संती। ... पत्तेय सरीराणं तह होंति सरीरसंघाया॥३॥ से तं पत्तेय सरीर बायर वणस्सइ काइया॥४३-२॥ कठिन शब्दार्थ - सिलेस मिस्साणं - श्लेष द्रव्य से मिश्रित किये हुए, वट्टिया - बट्टी, सरीरसंघाया- शरीर संघात, संहिता - संहत। भावार्थ - प्रश्न - कुहण वनस्पतियाँ कितने प्रकार की कही गयी हैं ? उत्तर - कुहण वनस्पतियाँ अनेक प्रकार की कही गयी हैं। वे इस प्रकार हैं - आय, काय, कुहण, कुनक्क, द्रव्यहलिका, शफाय, सज्झाय, छत्रौक और वंशी नहिता, कुरक। इसी प्रकार की अन्य जो वनस्पतियाँ है उन्हें कुहण समझना चाहिये। इस प्रकार कुहण वनस्पतियाँ कही गयी हैं। वृक्षों (उपलक्षण से गुच्छ, गुल्म आदि) के संस्थान (आकृतियाँ) नाना प्रकार के होते हैं। इनके पत्ते एकजीवक-एकजीव वाले होते हैं और ताल, सरल और नालिकेर (नारियल) प्रमुख वृक्षों के स्कंध भी एक जीव वाले होते हैं जैसे श्लेष द्रव्य से मिश्रित किये हुए समस्त सर्षपों (सरसों के दानों) की वर्ती (बट्टी) एकरूप प्रतीत होती है वैसे ही प्रत्येक शरीर जीवों के शरीर संघात रूप होते हैं अथवा जैसे अनेक तिलों के समुदाय वाली तिलपपडी (तिलपट्टी) होती है वैसे ही प्रत्येक शरीर वनस्पति जीवों के शरीर संघात होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव कहे गये हैं। से किं तं साहारण सरीर बायर वणस्सइ काइया? साहारण सरीर बायर वणस्सइ काइया अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा अवए पणए सेवाले, लोहिणी मिहू थिहू थिभगा। अस्सकण्णी सीहकण्णी, सिउंढी ततो मुसुंढी य॥१॥ रुरु कुंडरिया ( कंडुरिया)जीरू, छीरविराली तहेव किट्टी य। हलिद्दा सिंगबेरे य, आलुगा मूलए इ य॥२॥ For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रपना ७१ कंबू य कण्णूक्कड महुओ, वलई तहेव महुसिंगी। णीरुहा सप्पसुयंधा, छिण्णरुहा चेव बीयरुहा॥३॥ पाढा मियवालुंकी, महुररसा चेव रायवल्ली य। प्रउमा य माढरी दंती, चंडी किट्टि त्ति यावरा॥४॥ मासपण्णी मुग्गपण्णी, जीविय रसहे य रेणुया चेव। काओली खीरकाओली, तहा भंगी णही इ य॥५॥ किमिरासि भद्दमुत्था, णंगलई पेलुगा ( पलुगा) इय। किण्हे पउले य हढे, हरतणुया चेव लोयाणी॥६॥ कण्हकंदे वजे, सूरणकंदे तहेव खल्लुडे। एए अणंत जीवा, जे यावण्णे तहाविहा॥७॥ भावार्थ - प्रश्न - साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-अवक, पनक, शैवाल, लोहिणी-रोहिणी, स्निहपुष्प, मिहु, स्तिहू हस्तिभाग् और अश्वकर्णी, सिंहकर्णी सिउण्डी (शितुण्डी) और मुसुंढी॥१॥ रुरु, कण्डुरिका (कुंडरिका) जीरु, क्षीरविदारिका, किट्टि, हरिद्रा (हल्दी), श्रृंगबेर (आदा या अदरक) आलू एवं मूला॥२॥ कम्बू, कर्णोत्कट, मधुक, वलकी तथा मधुश्रृंगी, नीरुह, सर्प सुगंधा, छिन्नरुह और बीजरुह ॥३॥ पांढा, मृगवालुंकी, मधुररसा और राजपत्री, पद्मा, माढरी, दंती, इसी प्रकार चण्डी, किट्टी (कृष्टि )॥४॥ माषपर्णी, मुद्गपर्णी, जीवित, रसभेद और रेणुका, काकोली (काचोली), क्षीरकाकोली और भुंगी, नखी॥५॥ ___ कृमिराशि, भद्रमुस्ता, नांगलकी, पलुका, इसी प्रकार कृष्ण प्रकुल, हड (हढ), हरतनुका, लोयाणी ॥६॥ कृष्णकंद, वज्रकन्द, सूरणकन्द तथा खल्लुर-ये अनन्त जीव वाले हैं। इसके अलावा और जितने भी इसी प्रकार के हैं वे सभी अनन्त जीवात्मक हैं। विवेचन - उपर्युक्त नामों में 'मुद्गपर्णी' नाम आया है। यह एक अप्रसिद्ध साधारण वनस्पति है, मुंगफली से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। मुंगफली को तो प्रत्येक वनस्पति के गुच्छ नाम के अन्तर्गत For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ प्रज्ञापना सूत्र समझा जाता है। मुंगफली के सम्बन्ध में इस प्रकार समझना चाहिये - मुंगफली बीज रूप होने से जमीकन्द नहीं समझी जाती । कोई भी जमीकन्द सूखने के बाद अचित्त हो जाते हैं किन्तु मुंगफली सूखने के बाद भी एकजीवी रहती है। अनन्तकाय (जमीकन्द) का अर्थ ही यह है कि एक शरीर में अनन्त जीवों का होना। किसी भी अनन्तकाय के एक शरीर में एक जीव होता ही नहीं है मुंगफली के एक शरीर (दाने) में एक जीव होता है। अतः मुंगफली जमीकन्द नहीं है । इसी सूत्र के पहले पद में प्रत्येक की नेश्राय में भी निगोद (अनन्त जीवों) का उत्पन्न होना बताया है अत्यन्त कोमल अवस्था में अनन्त जीव भी पैदा हो सकते हैं। इसी प्रकार मुंगफली में भी दुध निकले ऐसी कच्ची अवस्था में अनन्त जीव पैदा हो सकते हैं। मुंगफली मूल (मौलिक रूप ) में तो प्रत्येक वनस्पति की जाति समझी जाती है इसकी नेश्राय में अनन्त जीव भी पैदा हो सकते हैं आगम में कहीं पर भी अनन्तकायिक वनस्पतियों में मुंगफली का उल्लेख नहीं हुआ है। तणमूल कंदमूले, वंसीमूले त्ति यावरे । संखिज्जमसंखिज्जा, बोधव्वा अणंतजीवा य ॥ ८ ॥ सिंघाडगस्स गुच्छो, अणेग जीवो उ होइ णायव्वो । पत्ता पत्तेय जिया, दोण्णि य जीवा फले भणिया ॥ ९ ॥ भावार्थ - तृणमूल, कन्दमूल वंशीमूल ये और इसी प्रकार के दूसरे संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त जीव वाले जानना चाहिये। सिंघाडे का गुच्छ अनेक जीव वाला होता है और इसके पत्ते प्रत्येक जीव वाले होते हैं तथा इसके फल में दो-दो जीव कहे गये हैं । विवेचन - सिंघाडे का गुच्छ अनेक जीव वाला समझना चाहिये क्योंकि उसकी त्वचा और शाखाएँ आदि अनेक जीव वाली होती है। उसके पत्ते एक एक जीव वाले और उसके फल में दो दो जीव होते हैं । यहाँ पर कन्दमूल तृणमूल आदि बताये हैं वे वनस्पति विशेष हैं इनके मूल (जड़) संख्यात, असंख्यात, अनन्तजीवी होते हैं। सिंघाड़क - अनन्त कायिक जीवों का वर्णन पूरा हो जाने के बाद प्रत्येक की नेश्राय में जो अनन्तकायिक उत्पन्न होते हैं उनका वर्णन बताते हुए सिंघाड़क के अमुक अवयव तो प्रत्येक जीवी होते हैं शेष अवयव लक्षणों के अनुसार संख्यात, असंख्यात, अनन्तजीवी भी हो सकते हैं। यह बताने के लिए बीच में सिंघाड़क का वर्णन आया है। सिंघाड़े के कच्ची अवस्था में तो अनन्तजीव भी रह सकते हैं यहाँ पर जो दो जीव बताये गये हैं वह परिपक्व अवस्था होने पर फल की अपेक्षा समझना चाहिये। एक जीव छाल का और दूसरा अन्दर के गिर (गर्भ) भाग का । इसलिए For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ७३ ********************* * * ** * * ** * ** * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * ** * * * * * * * * * * * * गीले सिंघाड़े को जमीकन्द नहीं समझना चाहिये। अत्यन्त कच्ची अवस्था में इसमें भी प्रत्येक की नेश्राय में अनन्त जीव पैदा हो सकते हैं। जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ। अणंत जीवे उसे मूले, जे यावण्णे तहाविहा॥१०॥ जस्स कंदस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ। अणंत जीवे उ से कंदे, जे यावण्णे तहाविहा॥११॥ जस्स खंधस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ। अणंत जीवे उसे खंधे, जे यावण्णे तहाविहा॥१२॥ जीसे तयाए भग्गाए, समो भंगो पदीसइ। अणंत जीवा उ सा तया, जे यावण्णे तहाविहा॥१३॥ जस्स सालस्स भंग्गस्स समो भंगो पदीसइ। अणंत जीवे उ से साले, जे यावण्णे तहाविहा॥१४॥ जस्स पवालस्स भग्मस्स समो भंगो पदीसइ। अणंत जीवे पवाले से, जे यावण्णे तहाविहा॥१५॥ जस्स पत्तस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ। अणंत जीवे उसे पत्ते, जे यावण्णे तहाविहा॥१६॥ जस्स पुष्फस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ। अणंत जीवे उ से पुप्फे, जे यावण्णे तहाविहा॥१७॥ .. जस्स फलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ। अणंत जीवे उ से फले, जे यावण्णे तहाविहा॥१८॥ जस्स बीयस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ। . अणंत जीवे उसे बीए, जे यावण्णे तहाविहा॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - मूलस्स - मूल का, भग्गस्स - भंग करने पर, समो - समान, भंगो - भंग, पदीसइ - दिखाई देता है। भावार्थ - जिस मूल को भंग करने (तोड़ने) पर समान भंग दिखाई दे वह मूल अनन्त जीव वाला है। इसी प्रकार के दूसरे जितने भी मूल हैं उन्हें भी अनन्त जीव वाले समझना चाहिये॥१०॥ For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ *********** प्रज्ञापना सूत्र जिस कंद को भंग करने पर समान भंग दिखाई दे वह कंद अनन्त जीव वाला है। इसी प्रकार के दूसरे जितने भी कंद हैं उन्हें अनन्त जीव वाले समझना चाहिये ॥ ११ ॥ जिस स्कंध को भंग करने पर समान भंग दिखाई दे वह स्कन्ध अनन्त जीव वाला है। इसी प्रकार के दूसरे स्कंधों को भी अनन्त जीव वाले समझना चाहिये ॥ १२ ॥ जिस त्वचा को भंग करने पर समान भंग दिखाई दे वह त्वचा अनन्त जीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य त्वचा भी अनंत जीव वाली समझनी चाहिये ॥ १३ ॥ जिस शाखा को भंग करने पर समान भंग दिखाई दे वह शाखा अनंत जीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य शाखा भी अनंत जीव वाली समझनी चाहिये ॥ १४ ॥ जिस प्रवाल ( कोंपल) को भंग करने पर समान भंग दिखाई दे वह प्रवाल अनन्त जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी प्रवाल हैं, उन्हें भी अनंत जीव वाले समझना चाहिये ॥ १५ ॥ जिस पत्ते का भंग करने (तोड़ने ) पर समान भंग दिखाई दे वह पत्ता अनन्त जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी पत्र हैं, उन्हें अनन्त जीव वाले समझने चाहिये ।। १६ ॥ जिस फूल को भंग करने पर समान भंग दिखाई दे वह फूल अनन्त जीव वाला है। इसी प्रकार अन्य जितने भी फूल हों उन्हें, अनंत जीव वाले समझने चाहिये ॥ १७॥ जिस फल को तोड़ने पर समान भंग दिखाई दे वह फल अनन्त जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी फल हैं, उन्हें अनन्त जीव वाले समझने चाहिये ॥ १८ ॥ जिस बीज को भंग करने पर समान भंग दिखाई दे वह बीज अनंत जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी बीज हैं, उन्हें अनन्त जीव वाले समझने चाहिये । । १९॥ विवेचन - उपरोक्त गाथाओं में अनन्तकायिक वनस्पति का लक्षण बताया गया है। जिस वनस्पति के मूल को भंग करने (तोड़ने ) पर समभंग हो अर्थात् एकान्त समान चक्र के आकार वाला भंग स्पष्ट दिखाई दे वह मूल अनंत जीवात्मक जानना चाहिए। इसी प्रकार कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प और बीज के विषय में भी समझना चाहिये । जस्स मूलस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसइ । परित्त जीवे उसे मूले, जे यावण्णे तहाविहा ॥ २० ॥ जस्स कंदस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसइ । परित्त जीवे उसे कंदे, जे यावण्णे तहाविहा ॥ २१ ॥ जस्स खंधस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसइ । परित्त जीवे उ से खंधे, जे यावण्णे तहाविहा ॥ २२ ॥ For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ७५ ************************************************************************************ जीसे तयाए भग्गाए, हीरो भंगो पदीसइ। परित्त जीवा उ सा तया, जे यावण्णे तहाविहा॥२३॥ जस्स सालस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसइ। परित्त जीवे उसे साले, जे यावण्णे तहाविहा॥२४॥ जस्स पवालस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसइ। परित्त जीवे उ से पवाले, जे यावण्णे तहाविहा॥२५॥ जस्स पत्तस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसइ। परित्त जीवे उ से पत्ते, जे यावण्णे तहाविहा॥२६॥ जस्स पुष्फस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसइ। परित्त जीवे उ से पुप्फे, जे यावण्णे तहाविहा॥२७॥ जस्स फलस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसइ। परित्त जीवे उ से फले, जे यावण्णे तहाविहा॥२८॥ जस्स बीयस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसइ। परित्त जीवे उ से बीए, जे यावण्णे तहाविहा॥२९॥ कठिन शब्दार्थ - हीरो - हीर (विषम छेद), परित्त जीवे - प्रत्येक जीव वाला। भावार्थ - जिस मूल को भंग करने पर हीर-विषम भंग दिखाई दे वह मूल प्रत्येक जीव वाला है इसी प्रकार के अन्य जितने भी मूल हैं, उन्हें भी प्रत्येक जीव वाले समझने चाहिये॥२०॥ जिस कंद को भंग करने पर हीर-विषम भंग दिखाई दे वह कंद प्रत्येक जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी कंद हैं, उन्हें भी प्रत्येक जीव वाले समझने चाहिये॥२१॥ जिस स्कंध को भंग करने पर हीर-विषम भंग दिखाई दे वह स्कंध प्रत्येक जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी स्कंध हैं, उन्हें भी प्रत्येक जीव वाले समझने चाहिये॥२२॥ - जिस त्वचा को भंग करने पर हीर-विषम भंग दिखाई दे वह त्वचा प्रत्येक जीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य जितनी भी त्वचा हैं, उन्हें भी प्रत्येक जीव वाली समझनी चाहिये॥ २३॥ जिस शाखा को भंग करने पर हीर-विषम भंग दिखाई दे वह शाखा प्रत्येक जीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य जितनी भी शाखाएँ हैं, उन्हें भी प्रत्येक जीव वाली समझनी चाहिये॥ २४॥ जिस प्रवाल को भंग करने पर हीर-विषम भंग दिखाई दे वह प्रवाल प्रत्येक जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी प्रवाल हैं, उन्हें भी प्रत्येक जीव वाले समझने चाहिये॥२५॥ For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ जिस पत्र को भंग करने पर हीर-विषम भंग दिखाई दे वह पत्र प्रत्येक जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी पत्र हैं, उन्हें भी प्रत्येक जीव वाले समझने चाहिये॥ २६॥ जिस पुष्प को भंग करने पर हीर-विषम भंग दिखाई दे वह पुष्प प्रत्येक जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी पुष्प हैं, उन्हें भी प्रत्येक जीव वाले समझने चाहिये॥ २७॥ __जिस फल को भंग करने पर हीर-विषम भंग दिखाई दे वह फल प्रत्येक जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी फल हैं, उन्हें भी प्रत्येक जीव वाले समझने चाहिये॥ २८॥ जिस बीज को भंग करने पर हीर-विषम भंग दिखाई दे वह बीज प्रत्येक जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी बीज हैं, उन्हें भी प्रत्येक जीव वाले समझने चाहिये॥ २९॥ विवेचन - उपरोक्त गाथाओं में प्रत्येक शरीर वाली वनस्पति का लक्षण बताया है। जिस मूल को भंग करने (तोड़ने) पर हीर-विषम छेद वाली दिखाई दे वह मूल प्रत्येक जीव वाला समझना चाहिए इसी प्रकार कन्द आदि के विषय में भी जानना चाहिए। उपर्युक्त गाथाओं में प्रवाल को प्रत्येक शरीरी भी बताया है, यद्यपि प्रवाल (कोंपल) अत्यन्त कोमल होने से उसमें अनन्तकाय के लक्षण (सम-भंग होना) पाये जाने से अनन्तकाय में भी माना गया है तथा जिन प्रवालों में प्रत्येक काय के लक्षण (विषम भंग) पाये जाते हो उन्हें प्रत्येक काय में समझना चाहिये। अतः शास्त्रकारों ने दोनों प्रकार के प्रवालों के लक्षण बता दिये हैं।' जस्स मूलस्स कट्ठाओ, छल्ली बहलयरी भवे। अणंत जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३०॥ जस्स कंदस्स कट्ठाओ, छल्ली बहलयरी भवे। अणंत जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३१॥ जस्स खंधस्स कट्ठाओ, छल्ली बहलयरी भवे।। अणंत जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३२॥ जीसे सालाए कट्ठाओ, छल्ली बहलयरी भवे। अणंत जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३३॥ कठिन शब्दार्थ - कट्ठाओ - काष्ठ (मध्य भाग में रहा हुआ गर्भ), छल्ली - छाल, बहलयरी - अधिक मोटी। भावार्थ - जिस मूल के काष्ठ से छाल अधिक मोटी हो वह छाल अनन्त जीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य जो भी छाले हैं उन्हें अनंत जीव वाली समझनी चाहिये।।३०॥ For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ७७ * ** ************** जिस कंद के काष्ठ से छाल अधिक मोटी हो वह अनंत जीव वाली है, इसी प्रकार की जो भी अन्य छाले हों उन्हें अनन्त जीव वाली समझनी चाहिये।। ३१॥ जिस स्कंध के काष्ठ से छाल अधिक मोटी हो वह छाल अनंत जीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य जितनी भी छाले हैं उन्हें अनंत जीव वाली समझनी चाहिये।। ३२॥ जिस शाखा के काष्ठ से छाल अधिक मोटी हो वह छाल अनंत जीव वाली है। इस प्रकार जितनी भी छाले हैं उन्हें अनंत जीव वाली समझनी चाहिये।। ३३॥ विवेचन - यहाँ पर मूल आदि चार भेदों के अन्दर के काष्ठ से छाल जाड़ी बताई है अन्य भेदों के नहीं बताई क उनके अन्दर काष्ठ नहीं होता है। जिनके अन्दर काष्ठ बताया गया है वह अन्दर की लकड़ी मकान आदि के काम आती है। जस्स मूलस्स कट्ठाओ, छल्ली तणुयतरी भवे। परित्त जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३४॥ जस्स कंदस्स कट्ठाओ, छल्ली तणुयतरी भवे। परित्त जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३५॥ जस्स खंधदस्स कट्ठाओ, छल्ली तणुयतरी भवे। परित्त जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३६॥ जीसे सालाए कट्ठाओ, छल्ली तणुयतरी भवे। परित्त जीवा उ सा छल्ली, जे यावण्णा तहाविहा॥३७॥ भावार्थ - जिस मूल के काष्ठ से उसकी छाल अधिक पतली हो वह छाल प्रत्येक जीव वाली है। इसी प्रकार जितनी भी छाले हैं, उन्हें प्रत्येक जीव वाली समझना चाहिए।।३४॥ - जिस कंद के काष्ठ से उसकी छाल अधिक पतली हो वह छाल प्रत्येक जीव वाली है। इस प्रकार की जितनी भी अन्य छाले हैं, उन्हें प्रत्येक जीव वाली समझना चाहिये।। ३५॥ जिस स्कंध के काष्ठ से उसकी छाल अधिक पतली हो वह छाल प्रत्येक जीव वाली है। इस प्रकार की अन्य जितनी भी छाले हैं, उन्हें प्रत्येक जीव वाली समझना चाहिये।। ३६॥ जिस शाखा के काष्ठ से उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येक जीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य जितनी भी छालें हैं, उन्हें प्रत्येक जीव वाली समझनी चाहिये।। ३७॥ चक्कागं भजमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे। पुढवीसरिसभेएण, अणंतजीवं वियाणाहि॥३८॥ For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८. प्रज्ञापना सूत्र ******** +NKA गूढछिरागं पत्तं सच्छीरं, जंच होइ णिच्छीरं। जंपिय पणद्वसंधिं, अणंतजीवं वियाणाहि ॥३९॥ कठिन शब्दार्थ - चक्कागं - चक्राकार, भज्जमाणस्स - भंग करने (तोड़ने) पर, गंठी - गांठ, चुण्णघणो - चूर्ण से सघन, पुढवीसरिसेण - पृथ्वी के समान, गूढछिरागं - गूढ़ शिराएँ, सच्छीरं - सक्षीर-दूध वाला, णिच्छीरं - निःक्षीर-दूध रहित, पणट्ठसंधिं - प्रनष्ट सन्धि। भावार्थ - जिस को भंग करने (तोड़ने) पर भंग स्थान चक्राकार (सम) हो अथवा जिसकी गांठ चूर्ण (रज) से व्याप्त हो अथवा पृथ्वी के समान भेद हो उसे अनन्त जीव वाली वनस्पति जानना चाहिए॥३८॥ __जिसकी शिराएं गूढ (गुप्त) हों, जो दूध वाला हो अथवा दूध रहित हो, जिसकी संधि नष्ट हो उसे अनन्त जीवों वाला जानना चाहिए॥३९॥ विवेचन - गाथा नं. ३८ में अनन्तकायिक वनस्पति के तीन लक्षण बताए गये हैं। यथा - १. जिस वनस्पति के तोड़ने पर चक्राकार सम भंग हो। २. जिस वनस्पति को तोड़ने पर जिसकी गांठ . अथवा गांठ स्थानीय स्थान पूर्ण (पृथ्वी की रजकण) सरीखे से व्याप्त हो। ३. जैसे किसी स्थान पर पानी हो और वह पानी सूर्य की किरणों से सूख गया हो फिर उस जगह पतली पपड़ी जम जाती है। उस पृथ्वी के टुकड़े के समान जिसका भंग हो। ___ इन तीन लक्षणों में से कोई भी लक्षण पाया जाता हो उसे अनन्त जीविक वनस्पति समझना चाहिए। गाथा नं. ३९ में अनन्तकायिक पत्ते का लक्षण बतलाया गया है। जिस पत्ते की शिराएँ (मोटी मोटी नाड़ियाँ) दिखाई न देती हों अथवा जिस पत्ते को तोड़ने पर उसमें से दूध निकलता हो अथवा न निकलता हो तथा बीच का भाग भी स्पष्ट न दिखाई देता हो उस पत्ते को अनन्तजीवि समझना चाहिए। यहाँ पर गांठ के सघन चूर्ण होने के उदाहरण के रूप में थोहर आदि समझ सकते हैं। हरी . कच्ची वनस्पति में दुध निकलने की अवस्था में अनन्तकायिक हो सकते हैं सूख जाने पर प्रत्येककायिक माने जाते हैं। पुष्फा जलया थलया य, विंटबद्धा य णालबद्धा य। संखिजमसंखिज्जा, बोद्धंव्वा अणंतजीवा य॥४०॥ जे केइ णालिया बद्धा, पुप्फा संखिज जीविया भणिया। णिहुया अणंत जीवा, जे यावण्णे तहाविहा॥४१॥ For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *************** प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना **************** पउमुप्पलिणी कंदे, अंतरकंदे तहेव झिल्ली य। एए अनंत जीवा, एगो जीवो बिस (भिस) मुणाले ॥ ४२ ॥ पलंडू- ल्हसुणकंदे य, कंदली य कुडुंबए (कुसुंबए) । एए परित्त जीवा, जे यावण्णे तहाविहा ॥ ४३ ॥ पमुप्पल लिणाणं, सुभग सोगंधियाण य । अरविंद - कोकणाणं, सयवत्त - सहस्सपत्ताणं ॥ ४४ ॥ विंट बाहिर पत्ता य, कण्णिया चेव एग जीवस्स । अब्धिंतरगा पत्ता, पत्तेयं केसरा मिंजा ॥ ४५ ॥ वेणु-लल- इक्खुवाडिय, समासइक्खू य इक्कडे रंडे । करकर सुंठि विहंगू (विहुंगुं ), तणाण तह पव्वगाणं च ॥ ४६ ॥ अच्छिं पव्वं बलिमोडओ य, एगस्स होंति जीवस्स । पत्तेयं पत्ताइं पुप्फाई, अणेगजीवाइं ॥ ४७ ॥ पुस्सफलं कालिंगं तुंबं, तउसेल वालु वालुंकं । घोसाडयं पडोलं, तिंदुयं चेव तेंदूसं ॥ ४८ ॥ विंट समंस - कडाहं एयाइं हवंति एगजीवस्स । पत्तेयं पत्ताई सकेसरमकेसरं मिंजा ॥ ४९ ॥ सफा-सज्जा उव्वेहलिया य कुहण कंदुक्के । एए अनंतजीवा कंडुक्के (कुंडुक्के ) होइ भयणा उ ॥ ५० ॥ . कठिन शब्दार्थ - जलया - जल में पैदा होने वाले, थलया स्थलज - जमीन पर पैदा होने वाले, ७९ विटबद्धा - डंठल से बन्धे हुए, णालबद्धा - नाल से बन्धे हुए, णिहुय - थोहर के फूल, झिल्ली - एक कन्द का नाम, बिस (भिस) कमल की नाल, मुणाल- मृणाल - कमल गट्टे को तोड़ने पर उसका तन्तु जो पीछे रह जाता है, पलंडु - प्याज - कान्दा, ल्हसुण - लहसुन, कंदली - वनस्पति विशेष, मिंजा - फूल का अन्दरी भाग, कण्णिया कर्णिका-फूल का ठीक मध्य भाग । भावार्थ - जलज - जल में उत्पन्न होने वाले, स्थलज - स्थल में उत्पन्न होने वाले, वृन्तबद्ध या नालबद्ध पुष्प संख्यात जीवों वाले, असंख्यात जीवों वाले और अनन्त जीवों वाले समझने चाहिये ॥ ४० ॥ जो कोई नालिकाबद्ध पुष्प हों वे संख्यात जीव वाले कहे गये हैं। थूहर के फूल और इसी प्रकार अन्य जो फूल हों वे अनंत जीवों वाले समझने चाहिये ॥ ४१ ॥ - ***************** For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० प्रज्ञापना सूत्र ****************************************************************************** * * * * * * पद्मकंद, उत्पलिनी कंद और झिल्ली ये सब अनन्त जीवों वाले कहे गये हैं किन्तु भिस और मृणाल में एक एक जीव होते है ॥ ४२॥ पलाण्डूकन्द, लहसुनकन्द, कंदलीकन्द और कुसुम्बक प्रत्येक जीव वाले होते हैं। अन्य जो भी इस प्रकार की वनस्पतियाँ है उन्हें प्रत्येक जीवाश्रित समझना चाहिए॥४३॥ पद्म, उत्पल, नलिन, सुभग, सौगंधिक, अरविन्द, कोकनद, शतपत्र और सहस्रपत्र-इनके वृन्त (डंठल) बाहर के पत्ते और कर्णिका, ये तीनों अवयव शामिल एक जीव वाले होते हैं। इनके भीतरी पत्ते, केसर और मिंजा भी एक जीव वाले होते हैं ॥ ४४-४५॥ . वेणु (बांस), नल, इक्षुवाटिका, समासइक्षु और इक्कड, रंड, करकर, सूंठ विहंगु, तृण और पर्व वाली वनस्पतियों के जो अक्षि (आंख) पर्व (गांठ) और परिमोटक (पर्व को परिवेष्टक करने वाला भाग) ये सब एक जीव वाले होते हैं। इनके पत्ते एक एक जीवात्मक और पुष्प अनेक जीवात्मक होते हैं॥४६-४७॥ पुष्यफल, कालिंग, तुम्ब, त्रपुष, एलवालुक, वालुक, घोषातक, पटोल, तिन्दुक, तिंदूस इनके वृन्त (डंठल) मांस-गर्भ और कटाह (ऊपर की छाल) एक जीव वाले होते हैं। पत्ते एक जीवात्मक होते है। केसर सहित और केसर रहित बीज एक जीवाश्रित होता है॥ ४८-४९॥ सप्फाक, सध्यात, उव्वेहलिया, कुहण तथा कंदुक्क ये सब अनन्त जीवात्मक होते हैं। किन्तु कंडुक्क (कंडुक्य) वनस्पति में भजना (विकल्प) है॥५०॥ विवेचन - साधारण (अनन्तकायिक) वनस्पति के वर्णन में उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३६ गाथा नम्बर ९८ में 'पलण्डु लसणकंदे य' शब्द दिया है। परन्तु पनवणा सूत्र प्रथम पद में उपलब्ध सब प्रतियों में ये दोनों शब्द देखने में नहीं आते हैं इसका क्या कारण है इसका रहस्य तो बहुश्रुत ही जान सकते हैं। परन्तु संभावना ऐसी लगती है कि शायद ये दोनों शब्द लिपि दोष के कारण छूट गये हैं। परन्तु यह साधारण वनस्पतिकाय (अनन्तकायिक) ही हैं। अथवा ये दोनों नाम किसी प्रत्येक वनस्पति के हो सकते हैं साधारण वनस्पति में आये हुए इन नामों को उपर्युक्त नामों से भिन्न समझना चाहिये। सरीखे नाम वाली वनस्पतियाँ प्रत्येक काय एवं अनन्त काय दोनों में हो सकती है लक्षणों के आधार पर उनके प्रत्येक काय व अनन्त काय को समझना चाहिये। यहाँ पर गाथा नं. ४३ में पलंडु और ल्हसुणकंद को परित्तजीवी बताया है इसका खुलासा टीकाकार ने कुछ भी नहीं किया है किन्तु "पलण्डुकन्दो लसुनकन्दः कन्दलीकन्दको वनस्पतिविशेष" इतना ही लिखा है। इन सब का निष्कर्ष यह निकलता है कि उत्तराध्ययन सूत्र वर्णित "पलण्डु" शब्द का अर्थ वर्तमान में प्रचलित कान्दा (प्याज) और लहसुन है। अभिधान राजेन्द्र कोष में भी इस शब्द का For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ८१ **************** ******** *-*-*-*-* - *-*-*-*-*-* *-**-*-**-*-* यही अर्थ किया है और यहाँ पन्नवणा सूत्र में पलण्डु और लहसुन को परित्तजीवी बताया है अत: यह कोई अप्रसिद्ध प्रत्येक वनस्पति विशेष है, ऐसा समझना चाहिए। हरी (कच्ची) सूंठ को अदरक कहते हैं। इसके लिए "सिंगबेर और सुंठि" ये दो शब्द आगम में आते हैं। यहाँ पन्नवणा सूत्र के ४६ वीं गाथा में 'सुंठि' शब्द दिया है और इसको एक जीव वाला बताया है अतः यह कोई प्रत्येक वनस्पति विशेष समझना चाहिए परन्तु इसको साधारण वनस्पति से भिन्न समझना चाहिए। प्रचलित हरी कच्ची सूंठ जिसको वर्तमान में अदरक कहते हैं वह तो साधारण वनस्पति (अनन्तकायिक) ही है। ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि एक शब्द अनेक अर्थों में आ जाता है जैसा कि अमरकोष आदि में एक शब्द के अनेक पर्यायवाची दिये हैं - जैसा कि - हरि शब्द के विष्णु, बन्दर, सूर्य आदि दस अर्थ दिये हैं। इसी प्रकार गोशब्द के भी दस अर्थ दिये हैं। इसी प्रकार यहाँ पलण्डु, सिंगबेर, सुंठि आदि शब्दों से भिन्न-भिन्न अर्थ वाली वनस्पति लेनी चाहिए। इनमें कोई अनन्तकायिक हैं और कोई परित्तकायिक हैं। ____ कोरण्टक आदि स्थल फूल हैं। इनमें अतिमुक्तक फूल डंठलबद्ध होते हैं और जाति (जूई) के फूल नालिका बद्ध होते हैं। इनमें पत्रगत जीव की अपेक्षा कितनेक संख्यात जीविक, कितनेक असंख्यात. जीविक तथा कितनेक अनन्त जीविक होते हैं। जूई आदि के फूल तो संख्यात जीविक होते हैं स्निहूपुष्प (थूहर के फूल) तो सब अनन्त जीविक होते हैं। पद्मिनीकन्द (उत्पलिनी कन्द) और अन्तरकन्द यह जल में पैदा होने वाली वनस्पति विशेष है। झिल्लिका (वनस्पति विशेष) ये सब अनन्त जीविक हैं किन्तु पद्मिनी (कमलिनी) के नाल और नाल का तन्तु (मृणाल) ये दोनों एक जीवात्मक होते हैं। बीए जोणिब्भूए जीवो, वक्कमइ सो व अण्णो वा। जो वि य मूले जीवो, सो वि य पत्ते पढमयाए॥५१॥ सव्वोवि किसलओ खलु, उग्गममाणो अणंतओ भणिओ। सो चेव विवतो होइ, परित्तो अणंतो वा॥५२॥ कठिन शब्दार्थ - जोणिभूए - योनिभूत, वक्कमइ - उत्पन्न होता है, किसलओ - किसलय (कोंपल), उग्गममाणो - उगता हुआ, विवतो - वृद्धि पाता हुआ। भावार्थ - योनि भूत बीज में वही बीज का जीव उत्पन्न होता है या अन्य कोई जीव उत्पन्न होता है परन्तु जो मूल का जीव है वही प्रथम पत्र के रूप में परिणत होता है। सभी किसलय उगते हुए अनन्तकायिक कहे गये हैं और वृद्धि पाते हुए प्रत्येक शरीर या अनन्तकायिक होते हैं ॥५१-५२॥ विवेचन - जीव के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं। बीज की दो अवस्थाएँ होती हैं-योनि भूत (अवस्था) और अयोनि भूत (अवस्था)। जब बीज योनि अवस्था का परित्याग नहीं करता किन्तु जीव For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ प्रज्ञापना सूत्र यह के द्वारा त्याग दिया जाता है तब वह बीज योनिभूत कहलाता है। बीज जीव रहित हुआ है छद्मस्थ के द्वारा निश्चय से नहीं कहा जा सकता। जो अविनष्ट योनि वाला ऊगने की शक्ति वाला होता है वह बीज योनिभूत कहलाता है और विनष्ट योनि वाला होता है वह नियम से अचेतन होने के कारण अयोनिभूत कहलाता है। जो बीज जमीन में बोया जाता है, वह गीली मिट्टी, धूप, हवा आदि का संयोग पाकर फूल जाता । तब वह बीज का जीव अपना आयुष्य पूर्ण हो जाने के कारण बीज का त्याग करके वही बीज का जीव मूल आदि नाम गोत्र को उपार्जन करके बीज में उत्पन्न हो जाता है । अथवा अंकुरित हो जाता है। इस प्रकार वनस्पति का जीव उसी वनस्पति में उत्पन्न हो जाता है। इसको "पउट्ट परिहार" कहते हैं । यह पउट्ट परिहार पांचों स्थावरकायों में होता है तथा अन्य असन्नी जीवों में भी हो सकता है। ( इसका वर्णन भगवती सूत्र के पन्द्रहवें गोशालक नामक अध्ययन में है) यदि कदाचित् वह बीज का जीव वापिस उसी में उत्पन्न नहीं होता है तो दूसरा पृथ्वीकायिक आदि जीव आकर उत्पन्न हो जाता है। बीज के द्वारा जो प्रथम पत्र उत्पन्न होता है उसके लिये यह नियम है कि मूल का जो जीव हैं वही पहले पत्ते में उत्पन्न होता है अर्थात् मूल और प्रथम पत्र एक ही जीव के द्वारा बनाये जाते हैं। प्रश्न - पहले यह कहा गया है कि "सव्वो वि किसलओ खलु उग्गममाणो अनंतओ भणिओ" अर्थ - सब किसलय अर्थात् ऊगता हुआ अङ्कुर अनन्तजीव वाला होता है, तो फिर इसके साथ विरोध नहीं आयेगा ? ***************** उत्तर - बीज का जीव अथवा अन्य जीव मूल रूप से उत्पन्न होकर फिर वह फूलता है उसके बाद किसलय अवस्था को प्राप्त होता है। अनन्त जीव मिलकर उस किसलय अवस्था को पैदा करते हैं। इसलिये ऊगता हुआ किसलय अनन्त जीविक होता है। फिर उन अनन्त जीवों का आयुष्य पूरा होने से वह मूल जीव उस अनन्तजीव रूप शरीर को अर्थात् किसलय को अपने शरीर रूप से परिणत करके तब तक वृद्धि को प्राप्त होता है, जब की वह प्रथम पत्र बन जाता है। इसलिए किसलय अवस्था अनन्त जीव रूप है और प्रथम पत्र भी एक जीव रूप है। इस प्रकार मूल बीज और प्रथम पत्र एक जीव कर्तृक (एक जीव द्वारा बनाये हुए) हैं। इसलिये परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है। दूसरे आचार्यों ने तो उपरोक्त शङ्का का समाधान इस प्रकार दिया है कि प्रथम पत्र का अर्थ किया है बीज की फूली हुई अवस्था । इसलिए मूल और प्रथम पत्र एक जीव कर्तृक हैं। तात्पर्य यह है कि मूल और समुच्छून (फूली हुई) अवस्था । ये दोनों एक जीव कर्तृक हैं। ये बात नियम बतलाने के लिए कही गयी है कि मूल और समुच्छून अवस्था एक जीव द्वारा परिणामित होते हैं। शेष किसलय आदि मूल जीव द्वारा ही परिणमित होते हैं यह आवश्यक नहीं हैं। इसलिए "सव्वो वि किसलओ खलु उग्गममाणो अनंतओ भणिओ" में किसी प्रकार का विरोध नहीं आता है। For Personal & Private Use Only - Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ************************************************************************************ शंका - पहले यह बतलाया गया है कि ऊगता हुआ किसलय अनन्त कायिक होता है तो क्या वह कभी परित्त भी हो सकता है ? उत्तर - हाँ, ऊगने के बाद किसलय वृद्धि को प्राप्त होता है उस समय वह परित्त जीवी हो जाता है। प्रश्न - वह परित्त जीवी कैसे हो जाता है क्योंकि जब उसने साधारण शरीर बनाया है तब वह साधारण ही रहना चाहिए और जब प्रत्येक शरीर बनाया है तो प्रत्येक शरीरी ही रहना चाहिए? उत्तर - यह एकान्त नियम नहीं है क्योंकि साधारण शरीरी जीव भी प्रत्येक शरीरी हो जाता है। प्रश्न - साधारण शरीरी भी कितने काल के बाद प्रत्येक शरीरी हो जाता है? उत्तर - अन्तमुहूर्त के बाद वह परित्त जीवी हो सकता है क्योंकि निगोदों की उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की ही बताई है इसलिए बढ़ता हुआ साधारण शरीरी किसलय प्रत्येक शरीरी भी हो जाता है। ___यहाँ जो किसलय अवस्था बताई गई वह बीज फुटने के अन्तर्मुहूर्त बाद होने की संभावना है। बीज फुटने के दूसरे ही समय में होना एकान्त जरूरी ध्यान में नहीं आता है क्योंकि सचित्त आदि तीनों ही प्रकार की योनि होती है। मूंग, मोठ आदि धान्य को पानी में भिगोने पर अंकर फुट गये हो फिर उन्हें धूप में सूखा दिया हो तो उन्हें अचित्त समझना चाहिये क्योंकि बीज के फुटने से बीज के जीव तो चव गये तथा किसलय अवस्था में अंकुर निकलते समय जो अनन्तकाय उत्पन्न हुई वह तो थोड़े काल बाद नष्ट हो जाती है। बीज फुट कर जब तक बाहर न आवे तब तक समुच्छून अवस्था में एकजीवी रहता है अर्थात् कोमल अवस्था में पत्र उत्पन्न होने के बाद जब तक उसकी नेश्राय में अनन्त जीव उत्पन्न हो तब तक एकजीवी समझना चाहिये। क्योंकि भगवती सूत्र के ११ वे शतक में एक पत्र वाले उप्पल को एकजीवी ही बताया है। नोट - योनिभूत बीज के सचित्त आदि से सम्बन्धित विस्तृत चर्चा आचार्य श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण द्वारा विरचित विशेषणवती ग्रन्थ के ४६ वें विशेष में की हुई है। जिज्ञासुओं के लिए वह ग्रन्थ द्रष्टव्य है। समयं वक्कंताणं समयं तेसिं सरीर णिव्वत्ती। समयं अणुग्गहणं, समयं ऊसासणीसासे॥५३॥ इक्कस्स उजं गहणं, बहुणं साहारणाणं तं चेव। जं बहुयाणं गहणं समासओ तं पि इक्कस्स॥५४॥ साहारणमाहारो साहारणमाणुपाणगहणं च। साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एयं॥५५॥ For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ***宗樂樂****************嵌谢谢谢谢谢爿 प्रज्ञापना सूत्र *案******嚳帝冰樂樂業未央宗憲家宴宇家楽案案楽楽南必影味的南安米果去*号号。 जह अयगोलो धंतो जाओ तत्ततवणिज्ज संकासो । सव्वो अगणिपरिणओ णिगोयजीवे तहा जाण ॥ ५६ ॥ एगस्स दोह तिह व संखिज्जाण व ण पासिउं सक्का । दीति सरीराइं णिओयजीवाणं अणंताणं ॥ ५७ ॥ कठिन शब्दार्थ- सरीरणिव्वत्ती - शरीर निष्पत्ति, आणुग्गहणं- प्राणानपान ग्रहण, ऊसास - णीसासेउच्छ्वास-नि:श्वास, अयगोलो - लोहे का गोला, तत्ततवणिज्जसंकासो - तपे हुए सोने के समान । भावार्थ - एक साथ उत्पन्न हुए उन जीवों की शरीर निष्पत्ति ( शरीर रचना) एक ही काल में होती है एक साथ प्राणानपान ग्रहण - श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों का ग्रहण होता है और एक साथ ही उच्छ्वास निःश्वास होता है ॥ ५३ ॥ एक जीव का जो आहारादि पुद्गलों का ग्रहण होता है वही बहुत से साधारण जीवों का होता है और जो आहारादि पुद्गलों का ग्रहण बहुत से जीवों का होता है वही संक्षेप से एक का ग्रहण होता. है ॥ ५४ ॥ साधारण जीवों का साधारण आहार और साधारण श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों का ग्रहण एवं श्वासोच्छ्वास भी साधारण होता है। यह साधारण जीवों का लक्षण है ॥ ५५ ॥ जैसे अग्नि में अत्यंत तपाया हुआ लोहे का गोला तपे हुए सोने के गोर्ले के समान सारा अग्नि परिणत (अग्निमय) हो जाता है उसी प्रकार निगोद के जीवों के संबंध में जानना चाहिये ॥ ५६ ॥ एक, दो, तीन यावत् संख्यात (अथवा असंख्यात) बादर निगोद जीवों के शरीर को देखना संभव नहीं किन्तु अनंत जीवों के असंख्यात शरीर मिलकर ही दिखाई देते हैं ॥ ५७ ॥ विवेचन - साधारण वनस्पतिकायिक जीव एक साथ ही उत्पन्न होते हैं, एक साथ ही उनका शरीर बनता है, एक साथ ही वे श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और एक साथ ही उनका श्वासोच्छ्वास होता है। एक जीव का आहार आदि के पुद्गलों को ग्रहण करना ही उस शरीर के आश्रित बहुत से जीवों का आहारादि पुद्गल ग्रहण करना है इसी प्रकार बहुत से जीवों का आहारादि पुद्गल ग्रहण करना भी एक जीव का आहारादि पुद्गल ग्रहण करना है। क्योंकि वे सब जीव एक ही शरीर में आश्रित होते हैं । यहाँ गाथा में 'इक्कस्स' व 'बहुणं' शब्द दिया है इसका आशय इस प्रकार समझना चाहिये - यहाँ पर एक जीव को अलग ग्रहण किया है। इसलिए इसके सिवाय शेष जीव बहुत ही होंगे, सब नहीं। क्योंकि सबसे वह जीव अलग बताया गया है तथा गाथा में आया हुआ 'बहुणं' शब्द का प्रयोग भी इसी अर्थ का सूचक है। एक निगोद शरीर में अनन्त जीवों का परिणमन कैसे होता है ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ८५ ************************************************************************************ फरमाते हैं कि - जैसे अग्नि में तपे हुए लोहे का गोला सारा का सारा अग्निमय बन जाता है वैसे ही निगोद रूप एक शरीर में अनन्त जीवों का परिणमन समझ लेना चाहिए। एक, दो, तीन संख्यात या असंख्यात निगोद जीवों के शरीर छद्मस्थ को दिखाई नहीं दे सकते क्योंकि उनके अलग अलग शरीर ही नहीं है, वे तो अनंत जीवों के पिण्ड रूप ही होते हैं अर्थात् अनन्त जीवों का एक ही शरीर (औदारिक शरीर) होता है छद्मस्थ को केवल अनन्त जीवों के असंख्यात शरीर मिलकर ही दिखाई देते हैं वे भी बादर निगोद जीवों के ही, सूक्ष्म निगोद जीवों के नहीं। क्योंकि सूक्ष्म निगोद जीवों के असंख्यात शरीर भी छद्मस्थ के दृष्टिगोचर नहीं होते। स्वाभाविक रूप से उसी प्रकार के सूक्ष्म परिणामों से परिणत उनके शरीर होते हैं। शंका - यह कैसे जाना जा सकता है कि अनंत निगोद जीवों का एक ही शरीर होता है ? समाधान - जिनवचनों से ही यह जाना जा सकता है कि अनंत निगोद जीवों का एक ही शरीर होता है। इस विषय में सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवंत के वचन ही प्रमाण भूत हैं। भगवान् का कथन है गोला य असंखिज्जा होंति निगोया असंखया गोले। एक्केको य निगोओ अणंत जीवो मुणेयव्वो॥ अर्थात् - सूई की नोंक के बराबर निगोदकाय में असंख्यात गोले होते हैं। एक एक गोले में असंख्यात असंख्यात निगोद होते हैं और एक एक निगोद में अनंत अनंत जीव होते हैं। लोगागासपएसे णिओय जीवं ठवेहि इक्किक्कं। एवं मविजमाणा हवंति लोया अणंता उ॥५८॥ लोगागासपएसे परित्तजीवं ठवेहि इक्किक्कं। एवं मविज्जमाणा हवंति लोया असंखिज्जा॥५९॥ पत्तेया पजत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता उ। लोगाऽसंखाऽपजत्तयाण साहारणमणंता॥६०॥ एएहिं सरीरेहिं पच्चक्खं ते परूविया जीवा। सुहुमा आणागिज्झा चक्खुप्फासं ण ते इंति॥६१॥ कठिन शब्दार्थ - लोगागासपएसे - लोकाकाश के प्रदेश में, णिओय जीव - निगोद जीव को, मविजमाणा - मापते हुए, पयरस्स - प्रतर के, पच्चक्खं - प्रत्यक्ष, परूविया - प्ररूपणा की गयी, आणागिज्झा- आज्ञा ग्राह्य, चक्खुप्फासं - चक्षु स्पर्श। For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ******************* ********* प्रज्ञापना सूत्र ****** भावार्थ - लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर यदि एक एक निगोद जीव को स्थापित किया जाय और उनका माप किया जाय तो अनन्त लोक हो जाते हैं ॥ ५८ ॥ ****************************** लोकाकाश के एक एक प्रदेश ऊपर प्रत्येक वनस्पतिकाय के एक एक जीव को स्थापित किया जाय और उन्हें मापा जाय तो असंख्यात लोक होते हैं ॥ ५९ ॥ प्रत्येक वनस्पतिकाय के पर्याप्त जीव प्रतर के असंख्यात भाग मात्र अर्थात् लोक के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश हैं उतने होते हैं तथा अपर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव असंख्यात लोक के बराबर है और साधारण जीव अनन्त लोक (लोकाकाश) परिमाण है ॥ ६० ॥ इस प्रकार प्ररूपित किये गये बादर निगोद जीव शरीरों के द्वारा प्रत्यक्ष है किन्तु सूक्ष्म निगोद जीव केवल आज्ञा ग्राह्य है क्योंकि ये आँखों से दिखाई नहीं देते ॥ ६१ ॥ यहाँ पर गाथा में आये हुए 'चक्खुप्फासं' शब्द से मात्र आँखों से दिखना नहीं समझ कर उपलक्षण से सभी इन्द्रियों से ग्रहण होना समझना चाहिये। अर्थात् सूक्ष्म जीव पांचों इन्द्रियों में से किसी भी इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं होते हैं। विवेचन - निगोद जीवों के रहने के स्थान को 'निगोद' कहते हैं। अर्थात् निगोद जीवों का घर और उसमें रहने वाले जीवों को 'निगोदिया जीव' कहते हैं। एक एक घर (निगोद) में अनंत अनंत निगोदिया जीव रहते हैं । पण्णवणा सूत्र के तीसरे पद में अण्ठाणु बोल का अल्पबहुत्व बतलाया गया है । उसमें निगोद का बोल ५४ (चौपन्न) का आया है। जबकि निगोदिया जीवों का बोल ८८ (इठयासी) आया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि निगोद के घर से निगोदिया जीव अनन्ता अनन्त गुणा अधिक हैं। अर्थात् बोल नं. ५४, ६०, ७३, ७४ ये चार बोल निगोद (शरीर) की अपेक्षा से है और ८८ वाँ बोल निगोदिया जीवों की अपेक्षा हैं । आगमों में वर्णित कितनेक पदार्थ प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध कर स्पष्ट दिखाए जा सकते हैं। किन्तु कितनेक पदार्थ ऐसे हैं जो छद्मस्थ को दिखाये नहीं जा सकते। ऐसे पदार्थों को वीतराग भगवान् की आज्ञा से ही स्वीकार करने पड़ते हैं। उनको आज्ञा ग्राह्य कहते हैं। क्योंकि वीतरागों के वचन असत्य नहीं होते हैं जैसा कि कहा है - रागाद् वा द्वेषाद् वा, मोहाद् वा वाक्य मुच्यते ह्यनृतम् । यस्तु नैते दोषाः तस्य अनृत कारणं किं स्यात् ॥ अर्थ - जिस पुरुष में मोहनीय कर्म की प्रकृति रूप राग और द्वेष होते हैं उसका वचन असत्य भी हो सकता है किन्तु जिनमें राग-द्वेष नहीं अतएव वे वीतराग हैं अतः उनके असत्य बोलने का कोई कारण नहीं है कारण के बिना कोई भी कार्य नहीं हो सकता है। अतः उनके वचन सदा सर्वदा और सर्वथा सत्य ही होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ८७ ********************************************************************************** * अनन्त निगोदिया जीवों का शरीर एक ही होता है। यह कथन औदारिक शरीर की अपेक्षा से जानना चाहिए। उन सब जीवों के तैजस और कार्मण शरीर तो भिन्न-भिन्न होते हैं। जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता तंजहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपत्ता। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा तेसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखिज्जाइं जोणिप्पमुहसयसहस्साइं। पजत्तग-णिस्साए अपजत्तगा वक्कमंति। जत्थ एगो तत्थ सिय संखिज्जा, सिय असंखिज्जा, सिय अणंता। एएसि णं इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ तंजहा कंदा य कंदमूला य रुक्खमूला इ यावरे। गुच्छा य गुम्मा वल्ली य वेणुयाणि तणाणि य॥१॥ पउमुप्पल संघाडे हढे य सेवाल किण्हए पणए। अवए य कच्छ भाणी कंडुक्केगूणवीसइमे॥२॥ तयछल्ली पवालेसु पत्तपुप्फफलेसु य। मूलग्गमज्झबीएसु जोणी कस्सइ कित्तिया॥॥ से तं साहारण सरीर बायर वणस्सइ काइया। से तं बायर वणस्सइ काया। से तं वणस्सइकाइया।से तं एगिंदिया॥४३-३॥ कठिन शब्दार्थ - अणुगंतव्वाओ - अनुसरण करना चाहिये। भावार्थ - इसी प्रकार की अन्य जो वनस्पतियाँ हों उन्हें लक्षणानुसार साधारण या प्रत्येक वनस्पतिकाय समझ लेनी चाहिये। वे जीव संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। उनमें जो अपर्याप्त हैं वे असम्प्राप्त (अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किये हुए) हैं। उनमें से जो पर्याप्त हैं उनके वर्णादेश, गंधादेश, रसादेश और स्पर्शादेश से हजारों भेद हो जाते हैं। उनके संख्यात लाख योनि प्रमुख होते हैं। पर्याप्त के आश्रय से अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्त जीव होता है वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनंत अपर्याप्त होते हैं। वनस्पति के विषय में विशेष जानने के लिये इन गाथाओं का अनुसरण करना चाहिये। वे इस प्रकार हैं - १. कन्द (सूरण आदि कन्द) २. कन्दमूल ३. वृक्षमूल ४. गुच्छ ५. गुल्म ६. वल्ली और ७. वेणु (बांस) और ८ तृण ९. पद्म १०. उत्पल ११. श्रृंगाटक (सिंघाडा) १२. हढ १३. शैवाल १४. कृष्णक १५. पनक १६. अवक १७. कच्छ १८. भाणी और १९. कंदुक (कन्दक्य)। For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ******************************* इन उन्नीस प्रकार की वनस्पतियों की त्वचा, छल्ली (छाल) प्रवाल ( कोंपल), पत्र, पुष्प, फल, मूल अग्र, मध्य और बीज में से किसी की योनि कुछ और किसी की कुछ कही गयी है। यह साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक का स्वरूप हुआ। इस प्रकार बादर वनस्पतिकाय, वनस्पतिकाय और केन्द्रिय जीवों की प्ररूपणा की गयी है । प्रज्ञापना सूत्र विवेचन - जहाँ एक बादर पर्याप्त जीव है वहाँ उसकी नेश्राय में कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त अपर्याप्त जीव होते हैं। प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव संख्यात या असंख्यात होते हैं किन्तु साधारण वनस्पतिकायिक तो नियम से अनन्त ही उत्पन्न होते हैं । बेइन्द्रिय जीव प्रज्ञापना से किं तं बेइंदिया ? ( से किं तं बेइंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा ? बेइंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा) बेइंदिया अणेगविहा पण्णत्ता । तंजहा पुलाकिमिया, कुच्छिकिमिया, गंडूयलगा, गोलोमा, णेउरा, सोमंगलगा, वंसीमुहा, सुईमुहा, गोजलोया, जलोया, जालाउया (जलोउया), संखा संखणगा, घुल्ला, खुल्ला, गुलया, खंधा, वराडा, सोत्तिया, मुत्तिया, कलुया, वासा, एगओवत्ता दुहओवत्ता, णंदियावत्ता, संबुक्का, माइवाहा, सिप्पिसंपुडा, चंदणा, समुद्दलिक्खा, जे यावणे तप्पगारा । सव्वे ते संमुच्छिमा णपुंसगा । ते समासओ दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । एएसि णं एवमाइयाणं बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं संत्त जाइकुलकोडि-जोणीप्पमुहसयसहस्सा भवंती ति मक्खायं । से तं बेइंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा ॥ ४४ ॥ ****************** * * * * * * * * * * * * * * कठिन शब्दार्थ- पुलाकिमिया पुलाकृमिक - मलद्वार में उत्पन्न होने वाले कृमि (कीड़ा), कुच्छिकमिया - कुक्षिकृमिक - उदर में उत्पन्न होने वाले कृमि (कीड़ा), संखणगा - शंखनक - छोटे शंख, चंदणा - चंदनक - अक्ष, गंडूयलगा - गिंडोला, संवुक्का शम्बूक- घोंघा, घुल्ला - घोंघरी, सिप्पिसंपुटा संपुटाकार सीप, जलोया - जौंक । भावार्थ - उत्तर - प्रश्न - बेइन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? बेइन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं । इस प्रकार हैं पुलाकृमिक, कुक्षिकृमिक, गण्डूयलग, गोलोम, नूपर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचीमुख, गोजलौका, जलौका, जलायुका(जलोयुक), शंख, शंखनक, घुल्ल, खुल्ला, गुडज, स्कन्ध, वराटा (कोडा) सौक्तिक (सौत्रिक), मौक्तिक ( मूत्रिक) कलुकावास, एकतोवृत (एकत आवर्त) द्विधातोवृत ( द्विधाआवर्त ) नन्दिकावर्त्त - - For Personal & Private Use Only - - Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - बेइन्द्रिय जीव प्रज्ञापना शंबुक, मातृवाह, शुक्तिसंपुट, चंदनक, समुद्रलिक्षा । अन्य जितने भी इसी प्रकार के जीव हैं उन्हें बेइन्द्रिय समझना चाहिये। ये सभी सम्मूच्छिम और नपुंसक हैं। ये संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैंपर्याप्त और अपर्याप्त । इन पर्याप्त और अपर्याप्त बेइन्द्रिय जीवों के सात लाख जाति-कुलकोटि-योनि प्रमुख होते हैं। ऐसा कहा गया है। यह बेइन्द्रिय संसार समापन्नक जीवों की प्रज्ञापना हुई । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बेइन्द्रिय जीवों का निरूपण किया गया है। इन बेइन्द्रिय जीवों के अलावा अन्य इसी प्रकार जो जीव हैं वे सभी बेइन्द्रिय जानना चाहिए । मृत कलेवर में पैदा होने वाले कृमिकीट आदि बेइन्द्रिय होते हैं और ये सभी सम्मूच्छिम होते हैं । सम्मूच्छिम होने के कारण ये नपुंसक होते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है - "नारकसंमूच्छिनो नपुंसकानि" ( अ. २ सूत्र. ५० ) नारक और सम्मूच्छिम नपुंसक होते हैं। 1 बेइन्द्रिय (सभी पर्याप्त और अपर्याप्त ) जीवों के योनि प्रमुख योनि से उत्पन्न हुए सात लाख करोड जाति कुल होते हैं - इस प्रकार तीर्थंकरों ने कहा है। जाति, कुल और योनि के स्वरूप को समझने के लिए पूर्वाचार्यों ने स्थूल, उदाहरण बताया है जो इस प्रकार हैं- जाति अर्थात् बेइन्द्रिय जाति, उसके कुल हैं - कृमि, कीट, वृश्चिक (बिच्छू) आदि । ये कुल योनि प्रमुख होते हैं अर्थात् एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं जैसे एक ही छाण (गोबर या कंडे) की योनि में कृमिकुल, कीटकुल और • वृश्चिककुल आदि होते हैं। इसी प्रकार एक ही योनि में अवान्तर जातिभेद होने से अनेक जाति कुल के योनि प्रवाह होते हैं। इस प्रकार बेइन्द्रियों के सात लाख करोड़ जाति कुल होते हैं। मूल पाठ में बेइन्द्रिय जीवों के जो नाम गिनाए गये हैं उनमें कितनेक नाम प्रसिद्ध हैं और कितने ही नाम अप्रसिद्ध हैं। देश विशेष में ये प्रसिद्ध हो सकते हैं । गोबर योनि है। इसमें अनेक कुल पैदा हो सकते हैं। गोबर में बेइन्द्रिय जीव तो पैदा होते ही है किन्तु बिच्छू जो कि चतुरिन्द्रिय जीव है। वह बिच्छू का कुल भी गोबर में पैदा हो सकता । बिच्छू भी अनेक प्रकार के होते हैं। इसलिए बिच्छू का कुल कहा है। बेइन्द्रिय जीत्रों में 'जलोक' एक नाम आया है यह एक जल में रहने वाला बेइन्द्रिय जीव है। इसकी प्रकृति ऐसी होती है कि किसी के फोड़ा फुन्सी होकर खराब खून इकट्ठा हो गया हो तो इस जलोक को उस खराब खून की जगह लगाया जाता है तो वह खराब खून को चूस लेता है किन्तु उसके पास में रहे हुए अच्छे खून को नहीं चूसता है इसीलिये दुष्ट प्रकृति वाले पुरुष को जलोक की उपमा दी यी है। जैसा कि कहा है गुण को उगी हे, गुण न कहे खल लोक । ८९ ***** रक्त पीये पयना पीये, लगी पयोधर जोक ॥ अर्थ - दुष्ट प्रकृति वाले पुरुष का यह स्वभाव होता है कि अनेक गुणों वाले गुणी पुरुष में से For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० प्रज्ञापना सूत्र ******************************************************************************** ** एक भी गुण को ग्रहण नहीं करता है किन्तु वह तो दोष को देखकर उस दोष (अवगुण) को बड़े उमङ्ग और उत्साह पूर्वक ग्रहण कर लेता है। उसका स्वभाव जलोक (जोक) सरीखा होता है। किसी गाय, भैंस आदि दूधारु (दूध देने वाली) जानवर के पयोधर (स्तन) के पास फोड़ा फुन्सी का खून इकट्ठा हो गया हो उस पर उस जलोक जानवर को लगाया जाय तो स्तन में दूध भी है और खराब खून भी है। परन्तु वह तो दूध (पय) को नहीं पीता बल्कि उस खराब खून को ही चूसता है। इसलिए दुष्ट प्रकृति वाले पुरुष को जलोक की उपमा दी जाती है। तेइन्द्रिय जीव प्रज्ञापना से किं तं तेइंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा? तेइंदिय-संसार-समावण्ण जीव पण्णवणा अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा-ओवइया, रोहिणिया, कुंथू, पिपीलिया, उइंसगा, उद्देहिया, उक्कलिया, उप्पाया, उप्पाडा, तणहारा, कट्ठहारा, मालुया, पत्ताहारा, तणवेंटिया, पत्तवेंटिया, पुप्फवेंटिया, फलबेटिया, बीयवेंटिया, तेबुरणमिंजिया( तेदुरणमिंजिया'), तउसमिंजिया (तओसिमिंजिया) कप्पासथिमिंजिया, हिल्लिया, झिल्लिया, झिंगिरा, किंगिरिडा, बाहुया (पाहुया.), लहुया, सुभगा, सोवत्थिया, सुयवेंटा, इंदकाइया, इंदगोवया, तुरुतुंबगा, कुच्छलवाहगा, जूया, हालाहला, पिसुया, सयवाइया, गोम्ही, हत्थिसोंडा, जेयावण्णे तहप्पगारा। सव्वे ते संमुच्छिमा णपुंसगा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य। एएसि णं एवमाइयाणं तेइंदियाणं पज्जत्ता अपज्जत्ताणं अट्ठ जाईकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। से तं तेइंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा॥४५॥ भावार्थ - प्रश्न - तेइन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गयी है ? उत्तर - तेइन्द्रिय संसार समापन जीव प्रज्ञापना अनेक प्रकार की कही गयी है। वह इस प्रकार हैऔपयिक, रोहिणीक, कुंथु, पिपीलिका (चींटी), उद्देशक (डांस), उद्देलिका (उदई-दीमक) उत्कलिक उत्पाद, उत्कट, उत्पट, तृणहार, काष्ठहार, मालुक, पत्रहार, तृणवृन्तिक, पत्रवृन्तिक, पुष्पवृन्तिक, फलवृन्तिक, बीजवृन्तिक, तेबुरणमिंजिक, त्रपुषमिंजिक, कार्पासास्थिमिंजिक, हिल्लिक, झिल्लिक, झिंगिरा, किंगिरिट, बाहुक, लघुक, सुभग, सौवस्तिक, शुक्रवृन्त, इन्द्रकायिक, इन्द्रगोप (बीरबहूटी), तुरुतुंबक, कुस्थलवाहक, यूका (जू), हालाहल, पिशुक (खटमल), शतपादिका, गोम्ही (कानखजूरा) For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - चतुरिन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ९१ * * * * * * * * * ******************************************************************** और हस्तिशोंड। इसी प्रकार के जितने भी अन्य जीव हों उन्हें तेइन्द्रिय समझना चाहिये। ये सब सम्मूछिम और नपुंसक हैं। ये संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। इन पर्याप्त और अपर्याप्त तेइन्द्रिय जीवों के सात लाख जाति कुल कोटि-योनि प्रमुख (योनिद्वार) होते हैं। ऐसा तीर्थङ्करों ने कहा है। यह तेइन्द्रिय संसार समापन्न जीवों की प्रज्ञापना हुई। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में तेइन्द्रिय-तीन इन्द्रिय (स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय) वाले जीवों का निरूपण किया गया है। इनमें कितनेक नाम प्रसिद्ध हैं और कितने ही नाम अप्रसिद्ध हैं। चतुरिन्द्रिय जीव प्रज्ञापना से किं तं चउरिदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा? चउरिदिय संसारसमावण्ण जीव पण्णवणा अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा - अंधिय णेत्तिय ( पत्तिय) मच्छिय मसगा कीडे तहा पयंगे य। ढंकुण कुक्कुड (कुक्कड) कुक्कुह णंदावत्ते य सिंगिरिडे॥ किण्हपत्ता णीलपत्ता लोहियपत्ता हालिद्दपत्ता सुक्किल्लपत्ता, चित्तपक्खा, विचित्तपक्खा ओहंजलिया, जलचारिया, गंभीरा, णीणिया, तंतवा अच्छिरोडा अच्छिवेहा सारंगा णेउरा दोला भमरा भरिली जरुला तोट्टा विच्छुया, पत्तविच्छुया छाणविच्छुया, जलविच्छुया, पियंगाला, कणगा गोमयकीडा, जेयावण्णे तहप्पगारा। सव्वे ते सम्मुच्छिमा णपुंसगा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-पजत्तगा य अपज्जत्तगा य। एएसि णं एवमाइयाणं चउरिंदियाणं पज्जत्तापजत्ताणं णव जाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्साइं भवंतीति मक्खायं। से तं चउरिदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा॥४६॥ भावार्थ - प्रश्न - चतुरिन्द्रिय संसार समापन जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गयी है ? उत्तर - चतुरिन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना अनेक प्रकार की कही गयी हैं। वह इस प्रकार है-अंधिक, नेत्रिक (पत्रिक), मक्खी, मच्छर, कीट, पतंग, ढंकुण, कुर्कुट, कुक्कुह, नंदावर्त, सिंगिरिड। कृष्णपत्र, नीलपत्र, लोहितपत्र, हारिद्रपत्र, शुक्लपत्र, चित्रपक्ष, विचित्रपक्ष, ओहांजलिक, जल चारिक, गंभीर, नीनिक, तंतव, अक्षिरोट, अक्षिवेध, सारंग, नेवल, दोला, भ्रमर भरिली, जरुला, तोह, बिच्छू. (वृश्चिक), पत्र वृश्चिक, छाणवृश्चिक (गोबर का बिच्छू) जल वृश्चिक, प्रियंगाल, कनक और गोबर का कीडा (गोमयकीट)। इसी प्रकार के जितने भी अन्य प्राणी हैं उन्हें चतुरिन्द्रिय समझना चाहिये। ये For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******* * ** * * ** *र फ र ************************** ९२ प्रज्ञापना सूत्र ******************* सभी सम्मूच्छिम और नपुंसक हैं। ये दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। इन पर्याप्त और अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय जीवों की नौ लाख जाति कुल कोटि होती है, ऐसा तीर्थंकर भगवन्त ने कहा है। यह चतुरिन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना हुई। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चतुरिन्द्रिय - चार इन्द्रिय (स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और चक्षुइन्द्रिय) वाले जीवों का निरूपण किया गया है। इनमें कितनेक जीव प्रसिद्ध हैं और कितने ही जीव अप्रसिद्ध हैं। कृष्णपत्र से विचित्रपक्ष तक के नाम तितलियों के समझने चाहिये। पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना से किं तं पंचिंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा? पंचिंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा चउव्विहा पण्णत्ता। तंजहा-णेरइय पंचिंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा, तिरिक्खजोणिय पंचिंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा, मणुस्स पंचिंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा, देव पंचिंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा॥४७॥ भावार्थ - प्रश्न - पंचेन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गयी है ? उत्तर - पंचेन्द्रिय संसार समापन जीव प्रज्ञापना चार प्रकार की कही गयी है। वह इस प्रकार है१. नैरयिक पंचेन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना २. तिर्यंचयोनिक पंचेन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना ३. मनुष्य पंचेन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना और ४. देव पंचेन्द्रिय संसार समापन जीव प्रज्ञापना। नैरयिक जीव - से किं तं णेरइया ? णेरइया सत्तविहा पण्णत्ता तंजहा - १. रयणपभापुढवी णेरइया २. सक्करप्पभा पुढवीणेरइया ३. वालुयप्पभा पुढवीणेरड्या ४. पंकप्पभा पुढवी जेरइया ५. धूमप्पभा पुढवीणेरइया ६. तमप्पभा पुढवीणेरइया ७. तमतमप्पभा पुढवी जेरइया। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य। से तं णेरइया॥४८॥ भावार्थ - प्रश्न - नैरयिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - नैरयिक सात प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक २. शर्कराप्रभा पृथ्वी नैरयिक ३. वालुकाप्रभा पृथ्वी नैरयिक ४. पंकप्रभा पृथ्वी नैरयिक ५. धूमप्रभा पृथ्वी For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************* - नैरयिक ६. तमः प्रभा पृथ्वी नैरयिक ७ तमस्तमः प्रभा पृथ्वी नैरयिक। वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गए हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । यह नैरयिकों की प्ररूपणा हुई। विवेचन प्रश्न नैरयिक किसे कहते हैं ? - प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना उत्तर - नैरयिक शब्द का शास्त्रीय भाषा में शब्द है " णिरय" जिसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है - 'निर्+अयः । निर्-निर्गतम् - अविद्यमानम, अयः - इष्टफलं कर्म येभ्यस्ते निरयास्तेषु भवा नैरयिका क्लिष्टसत्त्वविशेषाः ।' अर्थ - यहाँ पर 'अय' शब्द का अर्थ पुण्य किया है। जिन जीवों का इष्ट फल देने वाला पुण्य अभी विद्यमान नहीं है उनको नैरयिक कहते हैं । ९३ ***************** प्रश्न- रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि नाम किस कारण से दिये गये हैं ? उत्तर - पहली नरक में रत्नकाण्ड है जिससे वहां रत्नों की प्रभा पड़ती है, इसलिए उसे रत्नप्रभा कहते हैं। दूसरी नरक में शर्करा अर्थात् तीखे पत्थरों के टुकड़ों की अधिकता है इसलिए उसे शर्कराप्रभा कहते हैं। तीसरी नरक में. बालुका अर्थात् बालू रेत अधिक है। वह भड़भुंजा की भाड़ से अनन्तगुणा अधिक तपती है इसलिए उसे बालुकाप्रभा कहते हैं। चौथी नरक में रक्त मांस के कीचड की अधिकता है इसलिए उसे पंकप्रभा कहते हैं। पांचवी नरक में धूम ( धूंआ) अधिक है। वह सोमिल खार से भी अनन्त गुणा अधिक खारा है इसलिए उसे धूमप्रभा कहते हैं। छठी नरक में तमः (अंधकार) की अधिकता है, इसलिए उसे तमः प्रभा कहते हैं। सातवीं नरक में महातमस् अर्थात् गाढ़ अन्धकार है इसलिए उसे महातमः प्रभा कहते हैं । इसको तमस्तमः प्रभा भी कहते हैं जिसका अर्थ है जहां घोर अंधकार ही अन्धकार है। - तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव से किं तं पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया ? पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया तिविहा पण्णत्ता तंजहा - १. जलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया य २. थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया य ३. खहयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया य ॥ ४९ ॥ भावार्थ प्रश्न पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक तीन प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं १. जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक २. स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक ३. खेचर ( खहचर) पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक | से किं तं जलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया ? जलयर पंचिंदिय तिरिक्ख - For Personal & Private Use Only - Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ प्रज्ञापना सूत्र ****** ****************** जोणिया पंचविहा पण्णत्ता तंजहा - १ मच्छा २ कच्छभा (कच्छहा) ३ गाहा ४ मगरा ५ सुंसुमारा। से किं तं मच्छा? मच्छा अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा-सण्हमच्छा, खवल्लमच्छा, जुंगमच्छा, विज्झडियमच्छा, हलिमच्छा, मगरिमच्छा, रोहियमच्छा, हलीसागरा, गागरा, वडा, वडगरा, गब्भया उसगारा, तिमी, तिमिंगिला, णक्का, तंदुलमच्छा, कणिक्कामच्छा, साली, सत्थियामच्छा लंभणमच्छा, पडागा, पडागाइपडागा, जेयावण्णे तहप्पगारा।से तं मच्छा। से किं तं कच्छभा ? कच्छभा दुविहा पण्णत्ता तंजहा-अट्टिकच्छभा य मंसकच्छभा य।से तं कच्छभा। से किं तं गाहा? गाहा पंचविहा पण्णत्ता तंजहा-१ दिली २ वेढगा ३ मुद्धया ४ पुलया ५ सीमागारा।से तं गाहा। से किं तं मगरा? मगरा दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-१ सोंडमगरा य २ मट्ठमगरा य। से तं मगरा। से किं तं सुसुमारा? सुंसुमारा एगागारा पण्णत्ता। से तं सुंसुमारा। जे या वण्णे तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-समुच्छिमा य गब्भवक्कंतिया य। तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा। तत्थ णं जे ते गब्भवक्कंतिया ते तिविहा पण्णत्ता। तंजहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। एएसि णं एवमाइयाणं जलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पजत्तापजत्ताणं अद्धतेरस जाइकुलकोडि जोणिप्पमुह सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। से तं जलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया॥५०॥ कठिन शब्दार्थ - मच्छा - मत्स्य, कच्छभा - कच्छप (कछुए) गाहा - ग्राह। भावार्थ - प्रश्न - जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक पांच प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. मत्स्य २. कच्छप ३. ग्राह ४. मगर और ५. सुंसुमार (शिशुमार)। .. प्रश्न - मत्स्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - मत्स्य अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - श्लक्ष्ण मत्स्य, खवल्ल मत्स्य, For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ***************************************************************** युग मत्स्य, विज्झडिय मत्स्य, हलि मत्स्य, मकरी मत्स्य, रोहित मत्स्य, हलीसागर, गागर, वट, वटकर, गर्भज, उसगार, तिमि, तिमिगिल, नक्र, तन्दुल मत्स्य, कणिक्का मत्स्य, शाली, शस्त्रिक मत्स्य, लंभनमत्स्य, पताका, पताकातिपताका। इसी प्रकार के अन्य जो प्राणी हैं उन्हें मत्स्य समझना चाहिये। इस प्रकार मत्स्यों का वर्णन हुआ। प्रश्न - कच्छप कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - कच्छप दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - अस्थि कच्छप (जिनके शरीर में हड्डियाँ अधिक हो) और मांस कच्छप (जिनके शरीर में मांस अधिक हो)। इस प्रकार कच्छप का वर्णन हुआ। प्रश्न - ग्राह कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - ग्राह पांच प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. दिली २. वेढग (वेष्टक) ३. मूर्धज ४. पुलक और ५. सीमाकार। इस प्रकार ग्राह कहे गये हैं। प्रश्न - मगर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - मगर (मगरमच्छ) दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - शोण्ड मगर और मट्ठ (मृष्ट) मगर। इस प्रकार मगर कहे गय हैं। .. प्रश्न - सुंसुमार (शिशुमार) कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर-सुंसुमार (शिशुमार) एक ही आकार प्रकार के कहे गये हैं। इस प्रकार सुंसुमार कहे गये हैं। अन्य जो इस प्रकार के हों। वे संक्षेप में दो प्रकार के हैं - सम्मूर्छिम और गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज)। इनमें से जो सम्मूर्छिम हैं वे सब नपुंसक हैं और जो गर्भ व्युत्क्रान्तिक हैं वे तीन प्रकार के कहे गये हैं - स्त्री, पुरुष और नपुंसक। इस प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों के साढ़े बारह लाख जाति कुल कोटि-योनि प्रमुख होते हैं। तीर्थंकर भगवन्तों ने इस प्रकार कहा है। इस प्रकार जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कहे गये हैं। विवेचन - प्रश्न - तिर्यंच योनिक किसे कहते हैं ? उत्तर - जो तिर्यंच गति में जन्म लेते हैं, उन्हें तिर्यंच कहते हैं। गति की अपेक्षा वे तिर्यंच गति के जीव हैं और उत्पत्ति की अपेक्षा वे तिर्यंच योनिक कहलाते हैं। क्योंकि योनि का अर्थ है उत्पत्ति का स्थान। टीकाकार ने तिर्यंच शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है- संस्कृत में 'अञ्च गति पूजनयोः' धातु है। उससे तिर्यंच शब्द बनता है "तिरः वक्रं अञ्चति गच्छति इति तिर्यक् बहुवचने तिर्यञ्चः" शब्दार्थ यह है कि जो टेड़े मेड़े चलते हैं वे तिर्यंच कहलाते हैं। यह केवल शब्दार्थ मात्र है। रूढ अर्थ तो ऊपर बतला दिया है कि - जो तिर्यंच गति में जन्म लेते हैं वे तिर्यंच कहलाते हैं। प्रश्न - सम्मूर्छिम किसे कहते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ प्रज्ञापना सूत्र **************************************************** **** * * ************* * उत्तर - जो जीव माता-पिता के संयोग के बिना ही, गर्भ या उपपात के बिना उत्पन्न होते हैं वे सम्मूर्छिम कहलाते हैं। सम्मूर्छिम सब नपुंसक ही होते हैं। क्योंकि उनके केवल नपुंसक वेद का ही उदय होता है। प्रश्न - गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) किसे कहते हैं ? उत्तर - जो जीव गर्भ में उत्पन्न होते हैं, वे माता पिता के संयोग से उत्पन्न होने वाले गर्भव्युत्क्रांतिक (गर्भज) कहलाते हैं। गर्भज तीन प्रकार के होते हैं - १. स्त्री २. पुरुष और ३. नपुंसक। अर्थात् गर्भज तीनों वेदी होते हैं। यद्यपि उपरोक्त जलचरों के नामों में कुछ नामों का ही वर्णन किया है। आदि शब्द से शेष नामों को भी समझ लेना चाहिये ऐसा बताया है उन शेष नामों में जलचरों के ५ भेदों में से मत्स्य नाम के भेद के अन्तर्गत मेंढ़क को भी समझना चाहिये, जलचर जीवों के शरीर की इसमें समानता है चाहे वह स्थल में भी रहता हो फिर भी वह जलचर गिना जाता है। ___ जल में जो सर्प दिखाई देते हैं उन्हें उरपरिसर्प नहीं समझ कर सर्पाकार मत्स्य के प्रकार समझना चाहिये क्योंकि मत्स्यों के असंख्यात प्रकार बताये गये हैं। से किं तं थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया? थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - चउप्पय थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया य परिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया य। से किं तं चउप्पय थलयर पंचिंदिय-तिरिक्ख जोणिया? चउप्पय थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया चउव्विहा पण्णत्ता। तंजहा - एगखुरा, दुखुरा, गंडीपया, सणप्फया। से किं तं एगखुरा? एगखुरा अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा - अस्सा, अस्सतरा, घोडगा, गद्दभा, गोरक्खरा, कंदलगा, सिरिकंदलगा, आवत्तगा, जे यावण्णे तहप्पगारा। से तं एगखुरा। से किं तं दुखुरा? दुखुरा अणेगविहा पण्णत्ता तं जहा - उट्टा, गोणा, गवया, रोज्झा, पसया, महिसा, मिया, संबरा, वराहा, अया, एलग-रुरु-सरभ-चमर-कुरंगगोकण्णमाई, जे यावण्णे तहप्पगारा। से तं दुखुरा। से किं तं गंडीपया? गंडीपया अणेगविहा पण्णत्ता तं जहा - हत्थी, हत्थीपूयणया, मंकुणहत्थी, खगा (ग्गा), गंडा, जे यावण्णे तहप्पगारा। से तं गंडीपया। से किं तं सणप्फया? सणप्फया अणेगविहा पण्णत्ता तंजहा - सीहा, वग्घा, For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना *** *********************************************************************** दीविया, अच्छा, तरच्छा, परस्सरा, सियाला, बिडाला, सुणगा, कोलसुणगा, कोकंतिया, ससगा, चित्तगा, चित्तलगा (चिल्ललगा), जे यावण्णे तहप्पगारा। से तं सणप्फया। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - समुच्छिमा य गब्भवक्कंतिया य। तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा। तत्थ णं जे ते गब्भवक्कंतिया ते तिविहा पण्णत्ता। तंजहा - इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। एएसि णं एवमाइयाणं थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं दस जाइ कुलकोडि प्पमुह सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। से तं चउप्पय थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया॥५१॥ कठिन शब्दार्थ - एगखुरा - एकखुरा-एक खुर वाले, दुखुरा - द्विखुरा-दो खुर वाले, गंडीपयागण्डीपदा-सुनार की एरण जैसे पैर वाले, सणप्फया - सनखपदा-नख सहित पैरों वाले। भावार्थ - प्रश्न - स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक दो प्रकार के कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - १. चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक और २. परिसर्प-स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक। . प्रश्न - चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक चार प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. एकखुरा २. द्विखुरा ३. गण्डीपदा और ४. सनखपदा। . प्रश्न - एक खुरा कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - एक खुरा अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - अश्व, अश्वतर (खच्चर), घोडा, गर्दभ (गधा), गोरक्षर, कन्दलक, श्रीकंदलक, आवर्तक। इसी प्रकार के अन्य जितने भी प्राणी हैं उन्हें एकखुर स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक समझना। इस प्रकार एकखुरों का वर्णन हुआ। प्रश्न - द्विखुरा-दो खुर वाले कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - दो खुर वाले अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - ऊंट, गाय, गवय, रोझ, पशुक, महिष, मृग, सांभर, वराह, अज, एलक, रुरु, सरभ, चमर, कुरंग, गोकर्ण आदि। इसी प्रकार के अन्य जितने भी प्राणी हैं उन्हें द्विखुरा समझना चाहिए। इस प्रकार दो खुर वाले कहे गये हैं। पैर के बीच में जो चिरा सरीखा लगा हुआ दिखाई देता हो उसे खुर कहते हैं। प्रश्न - गण्डीपदा कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - गण्डीपदा अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - हाथी, हस्तिपूतनक, मत्कुणहस्ती, खड्गी, गेंडा। इसी प्रकार के अन्य जो भी प्राणी हैं उन्हें गण्डीपदा में समझना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ इस प्रकार गण्डीपदा कहे गये हैं। इनके पैर सुनार की एरण की तरह चपटे होते हैं इन के पैर में खुर नहीं होते हैं। प्रश्न - सनखपदा कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - सनखपदा अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - सिंह, व्याघ्र, द्वीपिक, रीछ, तरक्ष (तेंदुआ), पाराशर, श्रृगाल (सियार) विडाल (बिल्ली), श्वान (कुत्ता), कोलश्वान (शिकारी कुत्ता), कोकंतिक (लोमडी), शशक (खरगोश), चीत्ता और चित्तलग (चिल्लक)। इसी प्रकार के अन्य जो भी प्राणी हैं उन्हें सनखपदा समझना चाहिए। इस प्रकार सनखपदा कहे गये हैं। इनके पैरों में नख होते हैं। इनके दान्तों की रचना भी दसरे तिर्यंचों की अपेक्षा भिन्न प्रकार की होती है। इसलिये सब तिर्यंचों में सिर्फ ये ही मांस भक्षी होते हैं। बाकी सब तिर्यंच घास-फूस खाकर . अपना जीवन निर्वाह करते हैं। वे सब शाकाहारी हैं। वे स्थलचर संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं - सम्मच्छिम और गर्भज। उनमें जो सम्मच्छिम हैं वे सब नपुंसक हैं। और उनमें जो गर्भज हैं वे तीन प्रकार के कहे हैं - स्त्री, पुरुष और नपुंसक। इस प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों के दस लाख जाति कुलकोटि-योनि प्रमुख होते हैं। ऐसा कहा गया है। इस प्रकार स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का वर्णन हुआ। से किं तं परिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया? परिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - उरपरिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया य भुयपरिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया य॥५२॥ भावार्थ - प्रश्न - परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - उर:परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक और भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक। विवेचन - प्रश्न - उर:परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक किसे कहते हैं ? उत्तर - "उरसा परिसर्पन्ति" - "उरस" का अर्थ है छाती इसलिए जो छाती के बल से चलते हैं वे उर:परिसर्प और ऐसे सर्प आदि स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव, उर:परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक कहलाते हैं। प्रश्न - भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक किसे कहते हैं ? उत्तर - "भुजाभ्यां परिसर्पन्ति" - जो भुजाओं के बल से चलते हैं वे भुजपरिसर्प, ऐसे नेवले, गोह आदि स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव, भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक कहलाते हैं। से किं तं उरपरिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया? उरपरिसप्प थलयर For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया चउव्विहा पण्णत्ता तंजहा अही, अयगरा, आसालिया, महोरगा । से किं तं अही ? अही दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - दव्वीकरा य मउलिणो य । से किं तं दव्वीकरा ? दव्वीकरा अणेगविहा पण्णत्ता । तंजहा - आसीविसा, दिट्ठीविसा, उग्गविसा, भोगविसा, तयाविसा, लालाविसा, उस्सासविसा, णीसासविसा, कण्हसप्पा, सेय सप्पा, काओदरा, दज्झपुप्फा, कोलाहा, मेलिमिंदा, सेसिंदा, जे यावण्णे तहष्पगारा। से तं दव्वीकरा । से किं तं मउलिणो ? मउलिणो अणेगविहा पण्णत्ता । तंजहा - दिव्वागा, गोणसा, कसाहीया, वइउला, चित्तलिणो, मंडलिणो, मालिणो, अही, अहिसलागा, वासपडागा, जे यावणे तप्पगारा। से तं मउलिणो । से तं अही । से किं तं अयगरा ? अयगरा एगागारा पण्णत्ता । से तं अयगरा ॥ ५३ ॥ कठिन शब्दार्थ - अहि- अहि (सर्प), अयगरा अजगर, आसालिया दव्वीकरा - दर्वीकर (फन वाले), मउलिणो- मुकुली (बिना फन वाले)। आसालिका, भावार्थ- प्रश्न- उरः परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - उरः परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक चार प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं - १. अहि २. अजगर ३. आसालिका और ४. महोरग । प्रश्न अहि कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - अहि दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- दर्वीकर और मुकुली । प्रश्न- दर्वीकर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? " उत्तर - दर्वीकर अर्थ कुडछी भी होता है परन्तु यहाँ पर "दर्वी" का अर्थ है फण और 'कर' का अर्थ है करने वाली। ऐसे सर्प होते हैं जो फण फैलाते हैं उन्हें "दर्वीकर" कहते हैं । दर्वीकर अनेक प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं आशीविष (दाढों में विष वाले) दृष्टिविष (दृष्टि में विष वाले) उग्रविष (तीव्र विष वाले) भोगविष (फण या शरीर में विष वाले) त्वचाविष ( चमडी में विष वाले) लालाविष (लार में विष वाले) उच्छ्वासविष (श्वास लेने में विष वाले) निःश्वास विष (श्वास छोड़ने में विष वाले) कृष्ण सर्प, श्वेतसर्प, काकोदर, दर्भपुष्प, कोलाह, मेलिमिन्द और शेषेन्द्र । इसी प्रकार के अन्य जितने भी सर्प हैं उन्हें दर्वीकर समझना चाहिये । इस प्रकार दवकर कहे गये हैं । प्रश्न- मुकुली किसे कहते हैं ? उत्तर - मुकुली अर्थात् फण उठाने की शक्ति से विकल, जो सर्प बिना फण वाले हैं वे मुकुली कहलाते हैं । - - - ९९ For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० प्रज्ञापना सूत्र ** ******************************************************************************** प्रश्न - मुकुली कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - मुकुली अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - दिव्याक, गोनस, कषाधिक, व्यतिकुल, चित्रली, मण्डली, माली, अहि, अहिशलाका, वासपताका। इसी प्रकार के अन्य जितने भी सर्प हैं उन्हें मुकुली समझना चाहिये। इस प्रकार मुकुली (सर्प) कहे गये हैं। इस प्रकार अहि सों का वर्णन हुआ। प्रश्न - अजगर कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - अजगर एक ही आकार प्रकार के कहे गये हैं। इस प्रकार अजगर कहे गये हैं। ये प्रायः विष रहित होते हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में उर:परिसर्प तिर्यंच पंचेन्द्रिय के भेदों का कथन किया गया है। से किं तं आसालिया? कहि णं भंते! आसालिया संमुच्छइ? गोयमा! अंतोमणुस्स खेत्ते अड्डाइजेसु दीवेसु, णिव्वाघाएणं पण्णरससु कम्मभूमिसु, वाघायं पडुच्च पंचसु महाविदेहेसु, चक्कवट्टिखंधावारेसु, वासुदेवखंधावारेसु, बलदेवखंधावारेसु, . मंडलियखंधावारेसु, महामंडलियखंधावारेसु, गामणिवेसेसु, णगरणिवेसेसु, णिगमणिवेसेसु, खेडणिवेसेसु, कब्बडणिवेसेसु, मडंबणिवेसेसु, दोणमुहणिवेसेसु, पट्टणणिवेसेसु, आगरणिवेसेसु, आसमणिवेसेसु, संवाहणिवेसेसु, रायहाणीणिवेसेसु, एएसि णं चेव विणासेसु एत्थ णं आसालिया संमुच्छइ। जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिज्जइभागमित्ताए ओगाहणाए उक्कोसेणं बारसजोयणाई तयणुरूवं च णं विक्खंभबाहल्लेणं भूमिं दालित्ता णं समुढेइ, असण्णी मिच्छादिट्ठी अण्णाणी अंतोमुहत्तअद्धाउया चेव कालं करेइ। से तं आसालिया॥५४॥ ___ कठिन शब्दार्थ - संमुच्छइ - सम्मूर्च्छित-सम्मूर्छिम रूप से उत्पन्न होता है, णिव्वाधाएणं - निर्व्याघात से, वाघायं - व्याघात को, पडुच्च - प्रतीत्य (अपेक्षा), चक्कवट्टिखंधावारेसु - चक्रवर्ती के स्कन्धावारों (सैनिक छावनियों)में, गामणिवेसेसु - ग्राम निवेशों में, तयणुरूवं - तदनुरूप, विक्खंभबाहल्लेणं - विष्कम्भ (विस्तार) और बाहल्य (मोटाई), दालित्ता - फोड कर। भावार्थ - प्रश्न - आसालिका कितने प्रकार के होते हैं ? हे भगवन् ! आसालिका क्या सम्मूर्छिम रूप से उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - हे गौतम ! मनुष्य क्षेत्र के अंदर ढाई द्वीपों में निर्व्याघात रूप से पन्द्रह कर्मभूमियों में, व्याघात की अपेक्षा पांच महाविदेह क्षेत्रों में अथवा चक्रवर्ती के स्कन्धावारों (सैनिक छावनियों) में या For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ ***************************************************************************** प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ******* वासुदेवों के स्कन्धावारों में, बलदेवों के स्कन्धावारों में, माण्डलिकों के स्कन्धावारों में, महामाण्डलिकों के स्कन्धावारों में, ग्रामनिवेशों में, नगरनिवेशों में, निगमनिवेशों में, खेटनिवेशों में, कर्बटनिवेशों में, मडम्बनिवेशों में, द्रोणमुखनिवेशों में, पट्टणनिवेशों में, आकरनिवेशों में, आश्रमनिवेशों में, सम्बाधनिवेशों में और राजधानी निवेशों में, इन निवेशों (स्थानों का जब विनाश होने वाला हो तब इन स्थानों में आसालिका सम्मूर्छिम रूप से उत्पन्न होते हैं। वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्रा की अवगाहना से और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना से उत्पन्न होते हैं। अवगाहना के अनुरूप ही उसका विष्कम्भ (विस्तार) और बाहल्य (मोटाई) होता है। वह चक्रवर्ती के स्कन्धावार आदि के नीचे की भूमि को फोड़ कर उत्पन्न होता है। वह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है और अंतर्मुहूर्त की आयु भोग कर काल कर जाता है। इस प्रकार आसालिका कहा है। विवेचन - आसालिया शब्द के संस्कृत में दो रूपान्तर होते हैं - आसालिका और आसालिगा। आसालिका (आसालिगा) गर्भज नहीं किंतु सम्मूर्छिम होता है। इसकी उत्पत्ति अढाई द्वीपों में होती है लवण समुद्र या कालोदधि समुद्र में नहीं। किसी प्रकार के व्याघात के अभाव में वह १५ कर्मभूमियों में उत्पन्न होता है। अर्थात् यदि ५ भरत एवं ५ ऐरवत क्षेत्रों में व्याघात हेतुक सुषम-सुषम आदि रूप या दुःषम-दुःषम आदि रूप काल व्याघात कारक न हों तो १५ कर्मभूमियों में आसालिका की उत्पत्ति होती है। यदि ५ भरत और ५ ऐरक्त क्षेत्र में पूर्वोक्तानुसार कोई व्याघात हो तो फिर वहां उत्पत्ति नहीं होती। ऐसी स्थिति में पांच महाविदेह क्षेत्रों में उत्पन्न होता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि तीस अकर्मभूमियों में आसालिका की उत्पत्ति नहीं होती तथा १५ कर्मभूमियों एवं महाविदेहों में भी इसकी सर्वत्र उत्पत्ति नहीं होती किन्त चक्रवर्ती. बलदेव आदि के स्कन्धावारों (सैनिक छावनियों) में वह उत्पन्न होती है। इसके अलावा ग्राम निवेश यावत् राजधानी निवेश तक में से किसी में भी इसकी उत्पत्ति होती है। स्कन्धावारों या निवेशों के विनाशकाल में उनके नीचे की भूमि को फोड कर उसमें से आसालिका उत्पन्न होती है। आसालिका की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की उत्कृष्ट बारह योजन की होती है। आसालिका असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होती है इसकी आयु अन्तर्मुहूर्त की होती है। आसालिका शब्द यद्यपि व्याकरण की दृष्टि से स्त्रीलिंग शब्द है-गंगा शब्द की तरह। किन्तु. आगम की दृष्टि से यह नपुंसक लिंग और नपुंसक वेदी एक जानवर होता है। जब चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक राजा और महामाण्डलिक राजा इनकी पुण्यवानी में कमी आती है तब जहाँ इन राजाओं की सेना ठहरी हुई होती है उस भूमि को फोड़कर यह आसालिका जानवर सम्मूर्छिम रूप से उत्पन्न होता है और अन्तर्मुहूर्त में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तब उस आसालिका की जगह बनी पोली भूमि में वह सेना धस जाती है। इस प्रकार उन सब सैनिकों की मृत्यु हो जाती है। For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ प्रज्ञापना सूत्र ** ******** ********** भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल होता है। अवसर्पिणी काल का सुषम-सुषमा, सुषमा ये दो आरे बीत जाने के बाद तीसरे सुषम-दुषमा आरे के अन्तिम भाग में तीर्थङ्कर चक्रवर्ती आदि होते हैं। जो कि चौथे आरे तक क्रमश: होते रहते हैं। इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के तीसरे और चौथे आरे में भी तीर्थङ्कर चक्रवर्ती आदि होते हैं और यह आसालिका भी उसी समय में पैदा होता है। इसलिये उसकी उत्पत्ति में यह काल "व्याघात" (बाधा) रहित होता है। इसलिए इस काल को निर्व्याघात काल कहा गया है। इसके अतिरिक्त भरत और ऐरवत की अपेक्षा सुषम-सुषमा सुषमा, सुषम-दुषमा तथा दुःषमदुषमा काल की अपेक्षा इसे व्याघात काल कहा गया है। महाविदेह क्षेत्र में तो काल चक्र होता ही नहीं है। वहाँ तो हमेशा अवसर्पिणी काल के चौथे आरे जैसे भाव रहते हैं। उसे नो उत्सर्पिणी नो अवसर्पिणी काल कहते हैं। अतएव तीर्थंकर और चक्रवर्ती हमेशा विद्यमान रहते हैं। इसलिए आसालिका जानवर की उत्पत्ति में व्याघात (बाधा) नहीं पड़ती है। इस अपेक्षा उपर्युक्त पाठ में जो बतलाया गया है कि निर्व्याघात की अपेक्षा पन्द्रह कर्म भूमि में यह आसालिका उत्पन्न होता है और व्याघात की अपेक्षा सिर्फ पांच महाविदेह में उत्पन्न होता है। यहाँ पर सम्मूछिम उरपरिसर्प के भेदों में आसालिका का नाम आया है उसकी अवगाहना उत्कृष्ठ १२ योजन की बताई गई है। इसी प्रकार बेइन्द्रिय जीवों के भेदों में एक नाम अलसिया (केंचुआ) भी बताया है उसकी अवगाहना भी उत्कृष्ट १२ योजन की बताई गई है दोनों भेदों में प्रायः समानता होने से एवं अवगाहना भी सरीखी होने से कई बार किन्हीं-किन्हीं को समझने में भ्रान्ति हो जाती है। अत: उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिये - आसालिक पंचेन्द्रिय है, द्वीन्द्रिय नहीं। क्योंकि आगमकार, टीकाकार एवं हमारे स्थविर उसे पंचेन्द्रिय ही कहते आये हैं। पनवणा सूत्र (पद १ के) मूलपाठ में उरपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय को चार प्रकार का बताया है जिसमें तीसरा भेद 'आसालिक' का है। टीकाकार भी इसे पंचेन्द्रिय ही कहते हैं, एवं हमारे स्थविर भी उपर्युक्त आधार से पंचेन्द्रिय ही कहते आये हैं। अनुयोग द्वार सूत्र में चार ही गति के जीवों के शरीर की अवगाहना का मान उत्सेधांगल बताया गया है। चक्रवर्ती का स्कन्धावार (सेना का पड़ाव स्थल) आत्माङ्गल से होता है। अत: द्वीन्द्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना और चक्रवर्ती स्कन्धावार दोनों एक सरीखे होते ही नहीं है। दूसरी बात स्कन्धावार नौ योजन का चौड़ा होता है। द्वीन्द्रिय में यह चौड़ाई भी संभव नहीं है। अत: आसालिक को पंचेन्द्रिय ही समझना चाहिये। आसालिक चक्रवर्ती आदि के स्कन्धावार के नीचे एवं ग्रामादि के नीचे सम्मूर्छता (उपजता) है। उरपरि सर्प होने से स्कन्धावार एवं ग्रामादि जितनी चौड़ाई संभव नहीं है। 'तयणुरूवं' का अर्थ 'लम्बाई के अनुरूप' (न कि स्कन्धावारादि के अनुरूप) करना ही संगत लगता है। स्कन्धावार, ग्रामादि के जितने देश में वह होगा, उतना ही विनाश होगा। ऐसा अर्थ ही गुरु भगवन्त फरमाया करते थे एवं वही For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना १०३ *************************** आगमानुरूप प्रतीत होता है। उरपरिसर्प तिर्यंच पंचेन्द्रिय का तीसरा भेद 'आसालिक' होने से उसकी 'पंचेन्द्रियता' तो आगम से पूर्ण स्पष्ट है ही। आगमकार सर्वत्र जिस पद्धति से भेदों का वर्णन करते हैं, वैसा ही यहाँ भी है। अतः इसे पंचेन्द्रिय मानना ही आगम सम्मत है। ___ 'पुतं' शब्द बहुवचन का द्योतक है। अतः इसका अर्थ 'नौ' से अधिक करने में कोई बाधा नहीं आती है। आगमों के अनेक स्थलों पर तो 'पुहुत' शब्द का अर्थ 'नौ' से अधिक करना ही होता है। टीकाकारों ने भी 'नौ' के अर्थ को प्रायिक कह कर सम्मूछिम उरपरिसर्प पंचेन्द्रिय की 'योजन पृथक्त्व' अवगाहना में बारह योजन का समावेश होना माना है। जो आगमोचित है। अतः आसालिक को पंचेन्द्रिय ही समझना चाहिये एवं उसकी उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना भी समझनी चाहिये। इसमें न भ्रांति है न भूल ही लगती है। आसालिक सम्मूछिम है, गर्भज नहीं। क्योंकि आगम के मूल पाठ में उसके लिए 'असण्णी' एवं 'समुच्छइ' पाठ आये हैं। जो उसे सम्मूर्च्छिम सिद्ध करते हैं। गर्भज अन्तर्मुहुर्त में बारह योजन का हो ही नहीं सकता है वह तो 'धनुषपृथक्त्व' का ही हो पाता है। मूल पाठ में आये ग्राम आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है - १. ग्राम - जहाँ प्रवेश करने पर कर, महसूल, टेक्स लगता हो (यह प्राचीन व्याख्या मात्र है). जिसके चारों ओर कांटों की बाड़ हो अथवा जहाँ मिट्टी का परकोटा हो और जहाँ किसान लोग रहते हों उसे ग्राम कहते हैं। २. नगर - जहाँ राज्य का कर न लगता हो उसे नगर या नकर कहते हैं (यह शब्द की व्युत्पत्ति मात्र है अन्यथा आजकल सब नगरों और शहरों में राज्य का कर लगता ही है।) ३. निगम - जहाँ महाजनों की बस्ती अधिक हो उसे निगम कहते हैं। ४. खेट - जिसके चारों ओर धूल का परकोटा हो उसे खेट या खेडा कहते हैं । ५. कर्बट - कुनगर को कर्बट कहते हैं। गांव से बड़ा और नगर से छोटा कस्बा कर्बट कहलाता है। ६. मडम्ब - जिसके चारों तरफ अढ़ाई-अढ़ाई कोस तक कोई गांव न हो उसे मडम्ब कहते हैं। ७. द्रोणमुख - जिसमें जाने के लिये जल और स्थल दोनों प्रकार के रास्ते हों उसे द्रोणमुख कहते हैं। जिसे आज की भाषा में बन्दरगाह कहते हैं। ८. पत्तन - जिसमें जाने के लिये जल या स्थल दोनों में से एक रास्ता हो उसे पत्तन कहते हैं। ९. आकर - लोह आदि की खान को आकर कहते हैं। १०. आश्रम - परिव्राजकों के रहने के स्थान को एवं तीर्थस्थान को आश्रम कहते हैं। ११. संबाह - धान्य की सुरक्षा के लिए कृषकों के द्वारा निर्मित पर्वत आदि के दुर्गम स्थानों को संबाह कहते हैं। जहाँ पर अतिवृष्टि एवं अल्पवृष्टि में भी धान्य आदि सुरक्षित रखा जा सकता है। १२. राजधानी- जहाँ राजा का निवास होता है उसे राजधानी कहते हैं। से किं तं महोरगा? महोरगा अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा - अत्थेगइया अंगुलं वि, अंगुलपुहुत्तिया वि, वियत्थिं वि, वियत्थिपुहुत्तिया वि, रयणिं वि, रयणिपुहुत्तिया For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ प्रज्ञापना सूत्र ****** वि, कुच्छिं वि, कुच्छिपुहुत्तिया वि, धणुं वि, धणुपुहुत्तिया वि, गाउयं वि, गाउयपुहुत्तिया वि, जोयणं वि, जोयणपुहुत्तिया वि, जोयणसयं वि, जोयणसयपुहुत्तिया वि, जोयणसहस्सं वि। ते णं थले जाया, जले वि चरंति, थले वि चरंति, ते णत्थि इहं, बाहिरएस दीवेसु समुद्दएस हवंति, जे यावण्णे तहप्पगारा। से तं महोरगा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - संमुच्छिमा य गब्भवक्कंतिया य। तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा। तत्थ णं जे ते गब्भवक्कंतिया ते तिविहा पण्णत्ता तंजहा - इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। एएसि णं एवमाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं उरपरिसप्पाणं दस जाइ कुलकोडि जोणि प्पमुह सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। से तं उरपरिसप्पा॥५५॥ ___ कठिन शब्दार्थ - पुहुत्त - पृथक्त्व, अंगुलपुहुत्तिया - अंगुल पृथक्त्व, वियत्थिं - वितस्ति, रयणिंरलि-हाथ, कुच्छिं - कुक्षि। भावार्थ - प्रश्न - महोरग कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - महोरग अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - कई महोरग एक अंगुल परिमाण, अंगुल पृथुत्व परिमाण, वितस्ति-वेंत परिमाण, रनि-हस्त, रनि पृथक्त्व, कुक्षि-दो हाथ, कुक्षि पृथक्त्व, धनुष, धनुष पृथक्त्व, गाऊ, गाऊ पृथक्त्व परिमाण, योजन, योजन पृथक्त्व, सौ योजन, सौ योजन पृथक्त्व और हजार योजन परिमाण होते हैं। वे स्थल में उत्पन्न होते हैं किंत जल में भी विचरण करते हैं और स्थल में भी विचरण करते हैं। वे यहां अढाई द्वीप में नहीं होते किंतु मनुष्य क्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं। इसी प्रकार के अन्य जो प्राणी हों उन्हें महोरग समझना चाहिये। वे उर:परिसर्प स्थलचर संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं - सम्मूर्छिम और गर्भज। इनमें जो सम्मूर्च्छिम हैं वे सभी नपुंसक होते हैं। इनमें से जो गर्भज हैं वे तीन प्रकार के कहे गए हैं - स्त्री, पुरुष और नपुंसक। इस प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त उर:परिसरों के दस लाख जातिकुलकोटि-योनि प्रमुख होते हैं। ऐसा कहा गया है। इस प्रकार उर:परिसॉं का वर्णन यहाँ तक पूर्ण हुआ। विवेचन - महोरग एक अंगुल की अवगाहना से लेकर एक हजार योजन तक की अवगाहना वाले होते हैं। ये स्थल में उत्पन्न होकर जल और स्थल दोनों में विचरण करते हैं। महोरग इस मनुष्य क्षेत्र में नहीं होते किंतु इससे बाहर के द्वीप समुद्रों में उत्पन्न होते हैं। ___ यहाँ पर महोरग की अवगाहना अंगुल आदि की बताई है वह अवगाहना पूरे भव की समझनी चाहिये। कोई अंगुल जितना ही होता है तो कोई हजार योजन की अवगाहना वाला भी हो सकता है यहाँ पर अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना में बढ़ने वालों की विवक्षा नहीं है। परिपूर्ण अवगाहना की ही विवक्षा समझनी चाहिये ! महोरग सर्पो का ही एक विशिष्ट प्रकार समझना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना १०५ * * * * ********* ******************************************************41-42424016-11-* यहां वेंत, हाथ आदि का परिमाण उत्सेध अंगुल की अपेक्षा समझना चाहिए क्योंकि यहां शरीर परिमाण का वर्णन किया गया है। प्राकृत में तीन प्रकार के शब्द मिलते हैं। यथा - ' - १. पहुत्त - प्रभुत्व। जिस का अर्थ होता है स्वामीपना। इस शब्द की दूसरी तरह से संस्कृत छाया "प्रहृत्व" किया है। जिसका अर्थ है - नम्रपणा। २. पुहत्त - पृथक्त्व विस्तारे। जिसका अर्थ होता है विस्तार। ३. पुहुत्त - पृथक्त्व। “विस्तारे" (ठाणाङ्ग ४-२) ठाणाङ्ग सूत्र में इसका अर्थ विस्तार किया है। इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार किया गया है-"समयपरिभाषया द्वि प्रभृतौ आ नवतौ आ नवतो" सिद्धान्त की भाषा में इसका अर्थ होता है- दो से लेकर नौ यावत् निब्बे तक की संख्या।। इन तीन शब्दों में से प्रथम शब्द का तो यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि यहाँ परिमाण का प्रकरण चल रहा है। दूसरा शब्द विस्तार अर्थ में आता है। उसका भी यहाँ सम्बन्ध नहीं है। यहाँ सम्बन्ध केवल तीसरे शब्द से है। इसीलिये जहाँ दो से लेकर नौ अथवा नौ से अधिक संख्या बतलाना हो वहाँ पुहुत्त' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। थोकड़े वाले इसको प्रत्येक अङ्गल, प्रत्येक हाथ कहते हैं। वह उनकी भाषा में दो से लेकर नौ । की संख्या के लिए प्रत्येक रूढ़ हो गया है। इसी प्रकार पृथक्त्व शब्द भी उन लोगों के लिए रूढ़ हो .. गया है ऐसा समझना चाहिए। . पृथक्त्व शब्द का अर्थ टीकाकारों ने भी 'पृथक्त्वो बहुवाची' कहकर 'अनेक' या 'बहुत' अर्थ माना है अर्थात् कम से कम दो उत्कृष्ट अपने अपने प्रसंग के अनुसार नौ से कम या ज्यादा यावत् संख्यात, असंख्यात या अनन्त अर्थ भी होता है। पृथक्त्व शब्द के अनेकों अर्थों का खुलासा जानने वाले जिज्ञासुओं को स्वर्गीय श्रावक रत्न श्रीमान् रतनलालजी सा. डोशी सैलाना द्वारा लिखित 'समीक्षा की परीक्षा' पुस्तक का कदली प्रकरण देखना चाहिये। से किं तं भुयपरिसप्या? भुयपरिसप्पा अणेगविहा पण्णत्ता तंजहा - णउला, सेहा, सरडा, सल्ला, सरंठा, सारा, खोरा, घरोइला, विस्संभरा, मूसा, मंगुसा, पयलाइया, छीर विरालिया जोहा, चउप्पाइया, जेयावण्णे तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - संमुच्छिमा य गब्भवक्कंतिया य।तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा। तत्थ णं जे ते गब्भवक्कंतिया ते तिविहा पण्णत्ता। तं जहा - इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। एएसि णं एवमाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं भुयपरिसप्पाणं णव जाइकुलकोडि जोणि प्पमुह सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। से तं भुयपरिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिवख जोणिया।से तं परिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया॥५६॥ For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ प्रज्ञापना सूत्र * * * * * * ** * * * * * * * * * * * * * ********** **** * ****************************************** भावार्थ - प्रश्न - भुजपरिसर्प कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - भुजपरिसर्प अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- नकुल (नेवले), सेहा, शरट (गिरगिट), शल्य, सरंठ, सार, खोर, घरोली (छिपकली) विषम्भरा, मूषक (चूहा), मंगुस (गिलहरी), पयोलातिक (प्रचलायित) छीर विडालिका (क्षीर विरालिय), जोहा, चतुष्पद इसी प्रकार के अन्य जितने भी प्राणी हैं, उन्हें भुजपरिसर्प समझना चाहिये। वे संक्षेप में दो प्रकार के हैं-सम्मूछिम और गर्भज। इनमें से जो सम्मूछिम हैं वे सभी नपुंसक होते हैं। इनमें से जो गर्भज हैं वे तीन प्रकार के कहे गये हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक। ऐसे पर्याप्त और अपर्याप्त भुज परिसरों के नौ लाख जाति कुलकोटियोनि प्रमुख होते हैं। ऐसा कहा है। यह भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक योनिकों का वर्णन हुआ। इस प्रकार परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों का वर्णन हुआ। ___ से किं तं खहयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया? खहयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया चउव्विहा पण्णत्ता। तंजहा - चम्मपक्खी, लोमपक्खी, समुग्गपक्खी, . विययपक्खी। से किं तं चम्मपक्खी? चम्मपक्खी अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा - वग्गुली, जलोया, अडिल्ला, भारंडपक्खी, जीवंजीवा, समुद्दवायसा, कण्णत्तिया, पक्खिविरालिया, जेयावण्णे तहप्पगारा।से तं चम्मपक्खी। से किं तं लोमपक्खी? लोमपक्खी अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा - ढंका, कंका, कुरला, वायसा, चक्कागा, हंसा, कलहंसा, रायहंसा, पायहंसा, आडा, सेडी, बगा, बलागा, पारिप्पवा, कोंचा, सारसा, मेसरा, मसूरा, मऊरा, सत्तहत्था( सतवच्छा), गहरा, पोंडरिया, कागा, कामिंजुया, वंजुलया, तित्तिरा, वडगा, लावगा, कवोया, कविंजला, पारेवया, चिडगा, चासा, कुक्कुडा, सुगा, बरहिणा मयणसलागा, कोइला, सेहा, वरिल्लगमाई।से तं लोमपक्खी। से किं तं समुग्गपक्खी? समुग्गपक्खी एगागारा पण्णत्ता। ते णं णत्थि इहं, बाहिरएसु दीवसमुद्देसु भवंति।से तं समुग्गपक्खी। से किं तं विययपक्खी? विययपक्खी एगागारा पण्णत्ता। ते णं णत्थि इहं, बाहिरएसु दीवसमुद्देसु भवंति।से तं विययपक्खी । ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - संमुच्छिमा य गब्भवक्कंतिया य। तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा। तत्थ णं जे ते गब्भवक्वंतिया ते तिविहा पण्णत्ता। For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना १०७ * * * * * * ** alalkalakaa * r atdeatalabhatta * * * * ** * *********************** तंजहा - इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। एएसि णं एवमाइयाणं खहयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पज्जत्तापजत्ताणं बारस जाइ कुलकोडि जोणि प्यमुह सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। सत्तट्ट जाइकुलकोडि लक्ख णव अद्धतेरसाइं च। दस दस य होंति णवगा तह बारस चेव बोद्धव्वा। से तं खहयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया। से तं पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया॥५७॥ कठिन शब्दार्थ - चम्मपक्खी - चर्म पक्षी, लोमपक्खी - लोम (रोम) पक्षी, समुग्गपक्खी - समुद्गक पक्षी, विययपक्खी - वितत पक्षी। भावार्थ - प्रश्न - खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच योनिक कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच योनिक चार प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. चर्म पक्षी २. लोम पक्षी ३. समुद्गक पक्षी ४. वितत पक्षी। . प्रश्न - चर्म पक्षी कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - चर्मपक्षी अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - वल्गुली (चमगादड) जलौका, अडिल्ल, भारण्ड पक्षी, जीवंजीव, समुद्रवायस (समुद्री कौए), कर्णत्रिक पक्षी, विडाली पक्षी (विरालिका). इसी प्रकार के अन्य जो पक्षी हों उन्हें चर्मपक्षी समझना चाहिये। इस प्रकार चर्म पक्षी कहे गये हैं। २ प्रश्न - लोम (रोम) पक्षी कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - लोम (रोम) पक्षी अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - ढंक, कंक, कुरल वायस (कौआ) चक्रवाक, हंस, कलहंस, राजहंस, पादहंस, आड, सेडी, बक (बगुला) बलाका पारिप्लव, क्रौंच, सारस, मेसर, मसूर, मयूर (मोर), सप्तहस्त, गहर, पौण्डरिक, काक, कामिंजुय, वंजुलक, तीतर, वर्तक (बतक), लावक, कपोत, कपिंजल, पारावत (कबूतर), चिटक (चिड़िया), चाष (नीलकंठ) कुक्कुट (मुर्गा), शुक (तोता), बी (मोर विशेष), मदनशलाका (मैना-मादा तोता), कोकिल (कोयल), सेह और वरिल्लक (बाजपक्षी) आदि। यह रोमपक्षी का वर्णन हुआ। प्रश्न - समुद्गक पक्षी कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - समुद्गक पक्षी एक ही आकार प्रकार के कहे गये हैं। वे यहाँ (मनुष्य क्षेत्र में) नहीं होते, बाहर के द्वीप समुद्रों में होते हैं। यह समुद्गक पक्षी का वर्णन हुआ। प्रश्न - वितत पक्षी कितने प्रकार के कहे हैं ? For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ प्रज्ञापना सूत्र ****************** * * * ****************** उत्तर - वितत पक्षी एक ही आकार प्रकार के होते हैं। वे यहाँ नहीं होते। वे मनुष्य क्षेत्र से बाहर के द्वीप समुद्रों में होते हैं। यह वितत पक्षी का कथन हुआ। वे खेचर प्राणी संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - सम्मूछिम और गर्भज। इनमें से जो सम्मूछिम हैं वे सभी नपुंसक होते हैं। इनमें से जो गर्भज हैं वे तीन प्रकार के कहे गये हैंस्त्री, पुरुष, नपुंसक। इस प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों के बारह लाख जाति कुल कोटि-योनि प्रमुख होते हैं। ऐसा कहा गया है। बेइन्द्रिय जीवों की सात लाख जाति कुल कोटि, तेइन्द्रिय की आठ लाख, चउरिन्द्रिय की नौ लाख, जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रियों की साढ़े बारह लाख, चतुष्पद स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रियों की दस लाख, उरपरिसर्प तिर्यंच पंचेन्द्रियों की दस लाख, भुजपरिसर्प तिर्यंच पंचेन्द्रियों की नौ लाख, खेचर तिर्यंच पंचेन्द्रियों की बारह लाख, इस प्रकार बेइन्द्रिय से लेकर खेचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय तक क्रमशः जाननी चाहिये। इस प्रकार खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक कहे गये हैं। यह पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिकों का वर्णन हुआ। विवेचन - प्रश्न - खेचर किसे कहते हैं ? उत्तर - आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को खेचर प्राणी कहते हैं। आकाश के पर्यायवाची अनेक शब्द हैं तथापि आगम में प्रायः तीन शब्दों का प्रयोग विशेष रूप से देखने में आता है। यथा - ख, खे, खह। इसलिए तीन शब्दों का प्रयोग होता है यथा - खचर, खेचर, खहचर। यहाँ मूल पाठ में खहचर शब्द दिया गया है तथा चर का अर्थ है विचरण करने वाले। अतः पूरे शब्द का अर्थ यह हुआ कि "खे" अर्थात् आकाश में 'चर' अर्थात् विचरण करने वाले प्राणी खेचर कहलाते हैं। प्रश्न - चर्मपक्षी किसे कहते हैं? उत्तर - चर्ममय अर्थात् चमडे की पंख वाले पक्षी चर्मपक्षी कहलाते हैं। जैसे-चपगादड आदि। प्रश्न - रोम पक्षी किसे कहते हैं ? उत्तर - रोममय अर्थात् रोम की पंख वाले पक्षी रोम पक्षी कहलाते हैं। जैसे हंस, बगुला, चीडी, कबूतर आदि। प्रश्न - समुद्गक पक्षी किसे कहते हैं? उत्तर - समुद्गक का अर्थ है डिब्बा। जिन पक्षियों के पंख बैठे हुए या उडते हुए भी डिब्बे की तरह बन्द ही रहते हैं। खुलते नहीं है उन्हें समुद्गक पक्षी कहते हैं। प्रश्न - वितत पक्षी किसे कहते हैं? उत्तर - वितत का अर्थ है फैला हुआ। बैठे हुए अथवा उडते हुए जिन पक्षियों के पंख हमेशा For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फैले हुए रहते हैं । प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ही रहते हैं। उन्हें वितत पक्षी कहते हैं । उनके पंख बैठते समय भी बन्द नहीं होते। खुले ही प्रश्न- उपरोक्त चारों प्रकार के पक्षी कहाँ होते हैं ? उत्तर - अढाई द्वीप और दो समुद्र रूप मनुष्य लोक है। इसमें चर्मपक्षी और रोम (लोम) पक्षी ये दोनों जाति के पक्षी मनुष्य लोक में होते हैं। समुद्गक पक्षी और विततपक्षी ये दोनों जाति के पक्षी मनुष्य लोक में नहीं होते हैं । अढाईद्वीप के बाहर चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गक पक्षी और वितत पक्षी ये चारों जाति के पक्षी होते हैं। निष्कर्ष यह है कि मनुष्य लोक में सिर्फ दो जाति के पक्षी होते हैं और मनुष्य लोक के बाहर चारों जाति के पक्षी होते हैं । प्रश्न- भारण्डपक्षी किसे कहते हैं ? उत्तर - " अभिधान राजेनेद्र कोष' भाग पांच पृष्ठ नं. १४९१ में "भारण्ड" शब्द की व्याख्या इस प्रकार दी है - ‘“भारण्डपक्षिणोः किल एकं शरीरं पृथग् ग्रीवं त्रिपादं च भवति, तौ च अत्यन्त अप्रमत्ततया एव निर्वाहं लभेते इति भारण्डः ।" (ठाणाङ्ग ९) एकोदराः पृथग्ग्रीवाः, अन्योन्य फलभक्षिणः । प्रमत्ता इव नश्यन्ति, यथा भारण्डपक्षिणः ॥ एकोदराः पृथग्ग्रीवाः त्रिपादा मर्त्यभाषिणः । १०९ भाण्डपक्षिणः तेषां मृतिर्भिन्नफलेच्छया ॥ "भारण्डपक्षिणः जीवद्वयरूपा भवन्ति, ते च सर्वदा चकितचित्ता भवन्ति इति । " अर्थात् - भारण्ड पक्षी का एक शरीर होता है और उसमें दो जीव होते हैं वे हमेशा अप्रमत्त रह कर एवं चकित - चकित की तरह सावधान होकर जीवन निर्वाह करते हैं अर्थात् आहार पानी लेते हैं । यही बात दोनों श्लोकों में कही गयी है कि उनके पेट एक होता है, पैर तीन होते हैं, मनुष्यों की तरह भाषा बोलते हैं। दो गर्दन (गला) होती हैं और दो ही मुख होते हैं। एक मुख से अमृत फल खाता है तो दूसरा मुख इर्षालु बन कर जहरीला फल खा लेता है इस तरह उन दोनों की मृत्यु एक साथ हो जाती है। यह उपरोक्त मान्यता टीकाकार की है। किन्तु पूर्वाचार्य बहुश्रुत मुनिराज तो ऐसा फरमाते हैं कि यह एक ही जीव होता है किन्तु उसके शरीर की रचना उपरोक्त प्रकार से होती है। उसमें दो जीव रूप उन्नीस प्राण नहीं होते हैं किन्तु एक जीव के अनुसार दस प्राण ही होते हैं। भाण्ड पक्षी की उपमा मुनि को दी गयी है कि जिस प्रकार भारण्डपक्षी हर वक्त सावधान रहता है और सावधान रह कर ही अन्न पानी ग्रहण करता है इसी प्रकार मुनिराज को भी संयम में हर समय सावधानी रखनी चाहिए और आहार पानी में भी सावधानी रखनी चाहिए कि कहीं उद्गम आदि For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० प्रज्ञापना सूत्र * * ** * * * * * **************-*-*-*-42 -04-14- 1 2 -Reskele****************** ** ****** बय्यालीस दोष से दूषित आहार पानी न आ जाय? किन्तु बय्यालीस दोष वर्जित एषणीय शुद्ध आहार पानी ग्रहण करके अपना संयम निर्वाह करना चाहिए। मनुष्य जीव प्रज्ञापना से किं तं मणुस्सा? मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - संमुच्छिम मणुस्सा य गब्भवतिय मणस्सा य॥५८॥ भावार्थ - प्रश्न - मनुष्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - मनुष्य दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-१. सम्पूछिम मनुष्य और २. गर्भज मनुष्य। विवेचन - प्रश्न - मनुष्य किसे कहते हैं ? उत्तर - मनुष्य के लिये दो शब्दों का प्रयोग होता है। यथा - मणुज (मनुज) और मणुस्स। इसकी . व्युत्पत्ति इस प्रकार की है 'मनोर्जातो मनुजः'। 'मनुरिति मनुष्यस्य संज्ञा'। मनोरपत्यानि मनुष्याः। . मनु अर्थात् मनुष्य की सन्तति को मनुष्य कहते हैं । यह तो व्युत्पत्ति मात्र है। तात्पर्यार्थ तो यह है कि मनुष्य गति नाम कर्म के उदय से जिस जीव ने मनुष्य गति में जन्म लिया है उसको मनुष्य कहते हैं। प्रश्न - किन कारणों से जीव मनुष्य गति में जन्म लेता है ? उत्तर - ठाणाङ्ग सूत्र के चौथे ठाणे के चौथे उद्देशक में इस प्रकार पाठ आया है - "चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सत्ताए कम्मं पगरेंति तंजहा पगइभद्दयाए पगइविणीययाए साणुक्कोसयाए अमच्छरियाए।" अर्थात् - १. प्रकृति की भद्रता (सरलता), २. स्वभाव से विनीतता (विनीत), ३. दया और अनुकम्पा के परिणामों वाला ४. मत्सर (इर्षा) डाह जलन न करने वाला। इन चार कारणों से जीव मनुष्य गति का आयुष्य बान्ध कर मनुष्य गति में जन्म लेता है। से किं तं समुच्छिम मणुस्सा? कहि णं भंते! संमुच्छिम मणुस्सा संमुच्छंति ?, गोयमा! अंतो मणुस्सखेत्ते पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु, अड्ढाइजेसु दीवसमुद्देसु, पण्णरससु कम्मभूमिसु, तीसाए अकम्मभूमिसु, छप्पण्णाए अंतरदीवएसु गब्भवक्वंतिय मणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा, पासवणेसु वा, खेलेसु वा, सिंघाणएसु वा, वंतेसु वा, पित्तेसु वा, पूएसु वा, सोणिएसु वा, सुक्केसु वा, सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा, विगयजीवकलेवरेसु वा, थीपुरिससंजोएसु वा, णगरणिद्धमणेसु वा, सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु, एत्थ णं समुच्छिम मणुस्सा संमुच्छंति, अंगुलस्स असंखिजइ भागमेत्ताए ओगाहणाए। असण्णी मिच्छदिट्ठी (अण्णाणी) सव्वाहिं पजत्तीहिं अपजत्तगा अंतोमुहुत्ताउया चेव कालं करेंति। से तं समुच्छिम मणुस्सा॥५५॥ For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना भावार्थ - प्रश्न - सम्मूच्छिम मनुष्य कितने प्रकार के कहे गये हैं? हे भगवन् ! सम्मूच्छिम मनुष्य कहाँ उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर ४५ लाख योजन परिमाण क्षेत्र में ढाईद्वीप और समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में तीस अकर्मभूमियों में एवं ५६ अन्तरद्वीपों में गर्भज मनुष्यों के १. उच्चारों (विष्ठाओं) २. प्रस्रवणों (मूत्रों) में ३. कफों में ४. सिंघाण - नाक के मैलों में ५. वमनों में ६. पित्तों में ७ मवादों में ८. रक्तों में ९. शुक्रों-वीर्यों में १०. पहले सूखे हुए शुक्र के पुद्गलों को गीला करने में ११. मरे हुए जीवों के कलेवरों में १२. स्त्री-पुरुष के संयोगों में १३. नगर की गटरों या मोरियों में तथा १४. सभी अशुचि स्थानों में सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। इन सम्मूच्छिम मनुष्यों की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र की होती है। ये असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी एवं सभी पर्याप्तियों से अपर्याप्त होते हैं और अन्तर्मुहूर्त आयु भोग कर काल करते हैं। यह सम्मूच्छिम मनुष्यों का वर्णन हुआ। - विवेचन - प्रश्न सम्मूच्छिम मनुष्य किसे कहते हैं ? उत्तर - बिना माता पिता के उत्पन्न होने वाले अर्थात् स्त्री पुरुष के समागम के बिना ही उत्पन्न होने वाले जीव सम्मूच्छिम कहलाते हैं । ४५ लाख योजन परिमाण मनुष्य क्षेत्र में ढाई द्वीप और दो समुद्रों में पन्द्रह कर्म भूमि, तीस अकर्मभूमि और ५६ अंतरद्वीपों में गर्भज मनुष्य रहते हैं । उनके मल मूत्रादि में सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। - प्रश्न- सम्मूच्छिम मनुष्य के उत्पन्न होने के कितने और कौन-कौन से स्थान हैं ? उत्तर - सम्मूच्छिम मनुष्य के उत्पन्न होने के चौदह स्थान हैं - १. उच्चारेसु - उच्चार (विष्ठा ) में २. पासवणेसु - मूत्र में ३. खेलेसु - खेंखार में ४. सिंघाणेसु - नाक का मैल (श्लेष्म) में ५. वंतेसुवमन में ६. पित्तेसु - पित्त में ७. सोणिएसु - रुधिर में ८. पूएसु - परु (पीप) में ९. सुक्केसु - पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज में १०. सुक्कपुग्गल परिसाडिएसु - पहले सूखे हुए शुक्र के पुद्गलों के गीला होने में अथवा उपरोक्त सभी बोलों के सूखे हुए पुद्गलों में ११ इत्थीपुरिस संजोगेसु - स्त्री-पुरुष के संयोग में १२. विगयजीवकलेवरेसु - मनुष्य के कलेवर (शव) में १३. नगर निधमणेसुनगर की गटरों (मोरियों) में १४. सव्वेसु चेव असुइठाणेसु मनुष्य के सभी अशुचि के स्थानों में । प्रश्न- क्या संमूच्छिम मनुष्य अपने को दिखाई देते हैं ? उत्तर - नहीं, वे इतने सूक्ष्म हैं कि चर्म चक्षुओं से नहीं देखे जा सकते। प्रश्न - चौदह स्थानों में उत्पन्न होने वाले सम्मूच्छिम मनुष्यों की स्थिति (आयु) और अवगाहना . कितनी होती है ? उत्तर - चौदह स्थानों में एक अंतर्मुहूर्त में सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं । इनकी अवगाहना १११ - For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ प्रज्ञापना सूत्र *********************************************************************************** अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण होती है। इनकी आयु अन्तर्मुहूर्त की होती है अर्थात् ये अन्तर्मुहूर्त में अपर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं। ___यहाँ मूल पाठ में "सव्वाहि पज्जत्तीहिं अपजत्तगा" शब्द दिया है तथा भावार्थ में भी इसका अर्थ किया है- "सभी पर्याप्तियों से अपर्याप्त।" इसका आशय इस प्रकार समझना चाहिए कि आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति और इन्द्रिय पर्याप्ति इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करने से पहले किसी भी जीव की मृत्यु होती ही नहीं है। इसलिए सम्मूछिम मनुष्य भी इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करने के बाद चौथी श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति को पूर्ण करने के पहले ही उसकी मृत्यु हो जाती है इसलिए वह अपर्याप्तक कहलाता है। किन्तु उपरोक्त पाठ का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि सम्मूछिम मनुष्य के आहार, शरीर आदि कोई भी पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना ही उसकी मृत्यु हो जाती है। किन्तु ऐसा अर्थ समझना चाहिए कि सम्मूछिम मनुष्य भी आहार, शरीर और इन्द्रिय इन तीन पर्याप्तियों को तो पूर्ण कर ही लेता है। चौथी पर्याप्ति को पूर्ण करने से पहले उसकी मृत्यु हो जाती है। इसलिए वह अपर्याप्तक कहलाता है। कितनेक प्राणी चार पर्याप्तियों के पर्याप्तक होते हैं कितनेक पांच पर्याप्तियों के पर्याप्तक होते हैं तथा कितनेक प्राणी छह पर्याप्तियों के पर्याप्तक होते हैं। सम्मूछिम मनुष्य उपरोक्त तीनों प्रकार के पर्याप्तकों में से किसी भी प्रकार के पर्याप्तक नहीं होने से उन्हें यहाँ पर 'सव्वाहि पजत्तीहिं' अपजत्तगा' कहा गया है। प्रश्न - यहाँ मूल पाठ में "सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु" शब्द दिया है इसका क्या अर्थ है ? उत्तर - यहाँ सम्मूछिम मनुष्यों के उत्पन्न होने के चौदह स्थान बतलाये गये हैं उनमें से मूत्र, विष्ठा, वमन आदि में अलग-अलग रहते हुए भी सम्मूछिम मनुष्य पैदा होता है और यदि उपरोक्त स्थानों में से दो (विष्ठा और मूत्र आदि) या तीन या चार यावत् तेरह ही स्थान एक जगह इकट्ठे कर दिये जाय या एक जगह इकट्ठे हो जाय तो वह एक अलग चौदहवां स्थान गिना जाता है उसमें भी सम्मूच्छिम मनुष्य पैदा होते रहते हैं। ऐसा प्रसङ्ग प्रायः अस्पतालों में बनता रहता है क्योंकि वहाँ अनेक प्रकार के रोगी आते रहते हैं। आपरेशन भी होता रहता है । इसलिये मल, मूत्र, खून पीप, वमन, आदि अनेक पदार्थों का परस्पर सम्मिश्रण हो जाता है। ऐसे स्थान को यहाँ वर्णित चौदहवां स्थान समझना चाहिए। प्रश्न - क्या मनुष्य के थूक में भी सम्मूर्छिम मनुष्य पैदा होते हैं ? उत्तर - नहीं। क्योंकि रक्त, पीप, वमन आदि तो कभी किसी व्यक्ति विशेष में बाहर निकले हुए पाये जाते हैं उनमें भी तीर्थङ्कर भगवन्तों ने सम्मूछिम मनुष्यों की उत्पत्ति बतलाई तो भला थूक तो मनुष्य के मुँह में हर समय पाया ही जाता है फिर यदि उसमें (थूक में) सम्मूछिम मनुष्यों की उत्पत्ति होती तो उसको एक अलग स्थान बतला देते। परन्तु ऐसा नहीं बतलाया गया है। अतएव यह स्पष्ट है For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ********** प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना कि थूक मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न नहीं होते हैं। बल्कि थूक तो आयुर्वेद में अमी (अमृत) बतलाया गया है । अत: थूक में सम्मूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति मानना मिथ्या है। प्रश्न- क्या मनुष्यों के पसीने में सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - नहीं। मनुष्यों के पसीने में सम्मूच्छिम मनुष्य पैदा नहीं होते हैं किन्तु जूँ, लीख आदि तेइन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति कभी होने की सम्भावना रहती है, हमेशा नहीं । प्रश्न- क्या तिर्यंच के मलमूत्र आदि में सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न हो सकता है ? उत्तर - नहीं। क्योंकि उपरोक्त मलमूत्र आदि सभी स्थान मनुष्य के गिने गये हैं तिर्यंच के नहीं । तिर्यंच के मल मूत्र आदि सड़ जाने पर उनमें लट गिण्डोला आदि बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरेन्द्रिय असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न हो सकते हैं। किन्तु संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच उत्पन्न नहीं हो सकता है। से किं तं गब्भवक्द्वंतिय मणुस्सा ? गब्भवक्कंतिय मणुस्सा तिविहा पण्णत्ता । तंजा - कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा ।। ६० ॥ भावार्थ - प्रश्न गर्भज मनुष्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ११३ 台南南海**樂未来安常常常出常事 उत्तर - गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. कर्मभूमक (कर्मभूमिज) २. अकर्मभूमक (अकर्मभूमिज ) और ३ अन्तरद्वीपक (अन्तरद्वीपज) । से किं तं अतंरदीवगा? अंतरदीवगा अट्ठावीसइविहा पण्णत्ता । तंजहा - १ एगोरुया, २ आभासिया, ३ वेसाणिया, ४ गंगोलिया, ५ हयकण्णा, ६ गयकण्णा, ७ गोकण्णा, ८ सक्कुलिकण्णा ९ आयंसमुहा, १० मेंढमुहा, ११ अयोमुहा, १२ गोमुहा, १३ आसमुहा, १४ हत्थिमुहा, १५ सीहमुहा, १६ वग्घमुहा, १७ आसकण्णा, १८ हरिकण्णा, १९ अकण्णा, २० कण्णपाउरणा, २१ उक्कामुहा, २२ मेहमुहा, २३ विज्जुमुहा, २४ विज्जुदंता, २५ घणदंता, २६ लट्ठदंता, २७ गूढदंता, २८ सुद्धदंता । सेतं अंतरदीवगा ॥ ६१॥ -- भावार्थ - प्रश्न अन्तरद्वीपक (अन्तरद्वीपज) मनुष्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - अन्तरद्वीपक मनुष्य अट्ठाईस प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं १. एकोरुक २. आभासिक ३. वैषाणिक ४. नांगोलिक ५. हयकर्ण ६. गजकर्ण ७. गोकर्ण ८. शष्कुलिकर्ण ९. आदर्शमुख १०. मेण्ढमुख ११. अयोमुख १२. गोमुख १३. अश्वमुख १४. हस्तिमुख १५ सिंहमुख १६. व्याघ्रमुख १७. अश्वकर्ण १८. सिंहकर्ण १० अकर्ण २०. कर्ण प्रावरण २१. उल्कामुख २२. मेघमुख २३. विद्युन्मुख २४ विद्युद्दन्त २५. घनदन्त २६. लष्टदन्त २७. गूढदन्त २८. शुद्ध दन्त । यह अन्तरद्वीप मनुष्यों का वर्णन हुआ। - For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ विवेचन प्रश्न अन्तरद्वीप किसे कहते हैं ? उत्तर- ऐसा नगर जो पानी के बीच में आया हो अर्थात् जिसके चारों तरफ पानी हो ऐसे नगर को अन्तरद्वीप (टापू) कहते हैं । - प्रज्ञापना सूत्र - प्रश्न - अन्तरद्वीप २८ होते हैं या ५६ होते हैं ? ********* उत्तर - अन्तरद्वीप ५६ होते हैं २८ नहीं । यहाँ पर जो २८ अन्तरद्वीप बताये गये हैं, वह २८ नामों की अपेक्षा समझना चाहिये । चुल्लहिमवन्त पर्वत की विदिशाओं में लवण समुद्र में २८ अन्तरद्वीप आये हुए है तथा शिखरी पर्वत की विदिशाओं में लवण समुद्र में २८ अन्तरद्वीप आये हुए हैं। दोनों मिलाकर ५६ की संख्या होने पर भी नाम दोनों तरफ २८-२८ समान होने से यहाँ पर २८ अन्तर द्वीप बताये गये हैं । प्रश्न - छप्पन अंतरद्वीप के क्षेत्र कहां है और कौन-कौन से कहे गये हैं ? उत्तर - लवण समुद्र के भीतर होने से इनको अंतरद्वीप कहते हैं । उनमें रहने वाले मनुष्यों को अन्तरद्वीपिक या अन्तरद्वीपज कहते हैं। जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र और हैमवत क्षेत्र की मर्यादा करने वाला चुल्लहिमवान पर्वत है। वह पर्वत पूर्व और पश्चिम में लवण समुद्र को स्पर्श करता है। उस पर्वत कें पूर्व और पश्चिम के चरमान्त से चारों विदिशाओं (ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य) में लवण समुद्र में तीन सौ - तीन सौ योजन जाने पर प्रत्येक विदिशा में एकोरुक आदि एक-एक द्वीप आता है। वे द्वीप गोल हैं। उनकी लम्बाई चौड़ाई तीन सौ तीन सौ योजन की है। परिधि प्रत्येक की ९४९ योजन से कुछ कम है । इन द्वीपों से चार सौ - चार सौ योजन लवण समुद्र में जाने पर क्रमश: पांचवां, छठा, सातवां और आठवां द्वीप आते हैं। उनकी लम्बाई चौड़ाई चार सौ चार सौ योजन है। इसी प्रकार इन से आगे क्रमशः पांच सौ, छह सौ, सात सौ आठ सौ, नव सौ योजन जाने पर क्रमशः चार-चार द्वीप आते रहते हैं इनकी लम्बाई चौड़ाई पांच सौ से लेकर नव सौ योजन तक क्रमशः जाननी चाहिये। ये सभी गोल हैं । तिगुनी से कुछ अधिक परिधि है । इस प्रकार चुल्लहिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं। नोट - जीवाजीवाभिगम और पण्णवणा आदि सूत्रों की टीका में चुल्लहिमवान् और शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में चार-चार दाढाएं बतलाई गई हैं उन दाढाओं के ऊपर अन्तरद्वीपों का होना बतलाया गया है किन्तु यह बात सूत्र के मूल पाठ से मिलती नहीं है क्योंकि इन दोनों पर्वतों की जो लम्बाई आदि बतलाई गई है वह पर्वत की सीमा तक ही आई है। उसमें दाढाओं की लम्बाई आदि नहीं बतलाई गई है। यदि इन पर्वतों की दाढाएं होती तो उन पर्वतों की हद लवण समुद्र में भी बतलाई जाती । लवण समुद्र में भी दाढाओं का वर्णन नहीं है। इसी प्रकार भगवती सूत्र के मूल पाठ में तथा टीका में भी दाढ़ाओं का वर्णन नहीं है। ये द्वीप विदिशाओं में टेढे टेढे आये हैं। इन 'टेढे टेढे' शब्दों को For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ११५ *********** ******************************************* ****** ***************** **** मेण्ढमुख मेघमुख बिगाड़ कर दाढाओं की कल्पना कर ली गई मालूम होती है। सूत्र का वर्णन देखने से दाढायें किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होती है। जिस प्रकार चुल्लहिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में अट्ठाईस अन्तरद्वीप कहे गये हैं उसी प्रकार शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में भी अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं। जिनका वर्णन भगवती सूत्र के दसवें शतक के सातवें उद्देशक से लेकर चौतीसवें उद्देशक तक २८ उद्देशकों में किया गया है। उनके नाम आदि सब समान हैं। छप्पन अंतरद्वीपों के नाम इस प्रकार हैं - छप्पन अंतरद्वीपों के नाम - ईशान कोण आग्नेय कोण नैऋत्य कोण वायव्य कोण १. एकोरुक आभासिक वैषाणिक नाङ्गोलिक २. हयकर्ण गजकर्ण गोकर्ण शष्कुलकर्ण ३. आदर्शमुख अयोमुख गोमुख ४. अश्वमुख हस्तिमुख सिंहमुख व्याघ्रमुख ५. अश्वकर्ण हरिकर्ण अकर्ण कर्णप्रावरण ६. उल्कामुख विद्युन्मुख विद्युतदन्ता ७. घनदन्त लष्टदन्त गूढदन्त शुद्धदन्त चुल्लहिमवान् पर्वत की तरह ही शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में उपरोक्त नाम वाले सातसात अन्तरद्वीप हैं। इस प्रकार दोनों पर्वतों की चारों विदिशाओं में छप्पन अन्तरद्वीप हैं। प्रत्येक अन्तर द्वीप चारों ओर पद्मवर वेदिका से शोभित हैं और पद्मवर वेदिका भी वनखण्ड से घिरी हुई है। इन अन्तरद्वीपों में अन्तरद्वीप के नाम वाले ही युगलिक मनुष्य रहते हैं। जैसे कि एकोरुक द्वीप में रहने वाले मनुष्य को भी एकोरुक युगलिक मनुष्य कहते हैं। जैसे कि बोलचाल की भाषा में पंजाब में रहने वाले को पंजाबी, मारवाड़ में रहने वाले को मारवाड़ी और गुजरात में रहने वाले को गुजराती कहते हैं। इसी प्रकार इन अन्तरद्वीपों में रहने वाले मनुष्यों को भी अन्तरद्वीप के नाम से कहा जाता है। ये नाम संज्ञा मात्र है इसलिए इनका समास युक्त विग्रह वाक्य नहीं किया जाता है क्योंकि संस्कृत व्याकरण का नियम है - "संज्ञायमिति पदेन नित्य समासो दर्शितः। अविग्रहो नित्यसमासः॥" संज्ञा - अर्थात् किसी का जो नाम हो उसका विग्रह नहीं करना चाहिए जैसे कि किसी का नाम देवदत्त है, यज्ञदत्त है-इनका अर्थ यह नहीं है कि देवता के द्वारा दिया हुआ या यज्ञ के द्वारा दिया हुआ, किन्तु यह माता-पिता वृद्धजनों द्वारा दिया हुआ संज्ञारूप नाम है। प्राचीन समय में किसी चित्रकार ने इन For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ प्रज्ञापना सूत्र ****************+++44- *-*-*-*-*-*-***************************** ++400-140 ********** ***** अन्तरद्वीपिक मनुष्यों के चित्र बनाये हैं उसमें एकोरुक का चित्र एक जंघा वाला मनुष्य तथा अश्वमुख अर्थात घोडे के समान मख वाला तथा गजकर्ण-हाथी के समान कान वाला ऐसे चित्र बना दिये गए परन्त यह उचित नहीं है क्योंकि ये तो नाम मात्र है। नाम के अनुसार अर्थ नहीं करना चाहिए। जीवाजीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति में इन युगलिक पति पत्नी अर्थात् पुरुष और स्त्री दोनों की सुन्दरता का वर्णन दिया गया है उसमें नखशिख अर्थात् पैरों के नखों से लेकर चोटी तक का सम्पूर्ण शरीर का वर्णन दिया है। इन अन्तरद्वीपों के मनुष्य और स्त्री वज्रऋषभनाराच संहनन वाले और समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं उनके शरीर में बत्तीस उत्तम लक्षण होते हैं। वे सर्वाङ्ग सुन्दर होते हैं। कर्मभूमि के सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा उनकी सुन्दरता अधिक होती है। इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि ये घोड़े के मुख की तरह मुख वाले मनुष्य नहीं होते अपितु बहुत सुन्दर शरीर और मुख वाले होते हैं। से किं तं अकम्मभूमगा ? अकम्मभूमगा तीसइ विहा पण्णत्ता। तंजहा-पंचहिं हेमवएहिं पंचहिं हिरण्णवएहिं, पंचहिं हरिवासेहिं, पंचहिं रम्मगवासेहिं, पंचहिं देवकुरूहिं( कुराहिं), पंचहिं उत्तरकुरूहिं( कुराहिं) से तं अकम्मभूमगा॥६२॥ भावार्थ - प्रश्न - अकर्म भूमक (अकर्म भूमि के मनुष्य) कितने प्रकार के कहे गये हैं? : उत्तर - अकर्मभूमि के मनुष्य तीस प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यक्वर्ष, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु इन तीस क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य अकर्म भूमि के मनुष्य कहलाते हैं। यह अकर्म भूमि के मनुष्यों का वर्णन हुआ। विवेचन - प्रश्न - अकर्म-भूमि किसे कहते हैं ? उत्तर - जहाँ असि, मसि, कृषि आदि की प्रवृत्ति नहीं होती है उसे अकर्म भूमि कहते हैं। इन क्षेत्रों में दस प्रकार के वृक्ष होते हैं। ये अपने नाम के अनुसार फल देते हैं इन्हीं से अकर्म भूमिज मनुष्य अपना निर्वाह करते हैं। ___ प्रश्न - अकर्म भूमि को भोग भूमि क्यों कहते हैं ? उत्तर - कोई भी कर्म (कार्य) न करने से और वृक्षों द्वारा मनोवांच्छित भोग (फल) प्राप्त होने से इन क्षेत्रों को भोग भूमि भी कहते हैं । प्रश्न - दस प्रकार के वृक्ष कौन से हैं और उनका क्या अर्थ है ? उत्तर - अकर्म भूमि में उत्पन्न होने वाले युगलियों के लिये जो उपभोग में आते हैं अर्थात् उनकी आवश्यकताओं को पूरी करने वाले दस प्रकार के वृक्ष होते हैं। उनके नाम और अर्थ इस प्रकार हैं - १. मतङ्गा - शरीर के लिए पौष्टिक रस देने वाले। २. भृताङ्गा - पात्र आदि देने वाले। For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद ११७ ***** ************************************************************ ***** *** * * ३. त्रुटिताङ्गा - बाजे (वादिन्त्र) का काम देने वाले। ४. दीपाङ्गा - दीपक का काम देने वाले। ५. ज्योतिरंगा - प्रकाश को ज्योति कहते हैं। सूर्य के समान प्रकाश देने वाले। अग्नि को भी ज्योति कहते हैं। अग्नि के समान काम देने वाले। ६. चित्राङ्गा - विविध प्रकार के फूल देने वाले। ७. चित्ररसा - विविध प्रकार के भोजन देने वाले। ८. मण्यङ्गा - आभूषण का काम देने वाले। ९. गेहाकारा - मकान के आकार में परिणत हो जाने वाले अर्थात् मकान की तरह आश्रय देने वाले। १०. अणिगणा (अनग्ना)- वस्त्र आदि का काम देने वाले। टीकाकार ने और ग्रंथकार ने इन वृक्षों को कल्पवृक्ष लिखा है परन्तु ठाणांग सूत्र के दसवें ठाणे के तीसरे उद्देशक में इनको दस प्रकार के वृक्ष लिखा है। जीवाजीवाभिगम तथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में भी इनको वृक्ष ही कहा है अतः इनको कल्पवृक्ष कहना ठीक नहीं है। से किं कम्मभूमगा? कम्मभूमगा पण्णरस विहा पण्णत्ता। तंजहा - पंचहिं भरहेहिं, पंचहिं एरवएहिं, पंचहिं महाविदेहेहिं । ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - आरिया य मिलक्खू य॥६३॥ कठिन शब्दार्थ - आरिया - आर्य, मिलक्खू - म्लेच्छ। भावार्थ - प्रश्न - कर्म भूमक (कर्मभूमि के मनुष्य) कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - कर्म भूमि के मनुष्य पन्द्रह प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह इन पन्द्रह क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य। वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं - १. आर्य और २. म्लेच्छ। विवेचन - प्रश्न - कर्मभूमि किसे कहते हैं ? उत्तर - जहाँ असि (तलवार आदि शस्त्र), मसि (स्याही अर्थात् लिखने पढ़ने का कार्य), कृषि (खेती आदि शारीरिक परिश्रम) के द्वारा मनुष्य अपना निर्वाह करते हैं उसे कर्मभूमि कहते हैं। इसके १५ भेद हैं। प्रश्न - कर्मभूमि के पन्द्रह भेद कौन-कौन से हैं ? उत्तर - पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह कुल १५ कर्म-भूमियाँ हैं। इनमें से एक भरत, एक ऐरवत और एक महाविदेह ये तीन क्षेत्र जम्बूद्वीप में हैं। दो भरत, दो ऐरवत और दो महाविदेह ये छह क्षेत्र धातकी खण्ड द्वीप में हैं। दो भरत, दो ऐरवत और दो महाविदेह ये छह क्षेत्र अर्द्ध पुष्कर द्वीप में हैं। पन्द्रह कर्म भूमि में ही तीर्थंकर, चक्रवर्ती, साधु-साध्वी आदि होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ ... से किं तं मिलक्खू? मिलक्खू अणेग विहा पण्णत्ता। तंजहा - सगा जवणा चिलाय-सबर-बब्बर कायमुरुंडोड-भडग-णिण्णग-पक्कणिया कुलक्ख-गोंडसिंहल-पारस-गोधा-कोंच-अंबडइ दमिल-चिल्लल-पुलिंद-हारोस-दोब-वोक्काणगंधाहारग-पहलिय-अज्झल-रोमपास-पउसा-मलयाय-बंधु-याय-सूयलि, कोंकणगमेयपल्हव-मालव-मग्गर (गग्गर) आभासिय,णक्क, चीण, ल्हसिय-खसा खासियणेदूरमोंढ-डोंबिलग-लओस-पओस-कक्केय-अक्खाग-हूण-रोमग-भरु मरुयचिलाय-विसयवासी य एवमाई। से तं मिलक्खू॥६४॥ भावार्थ - प्रश्न - म्लेच्छ मनुष्य कितने प्रकार के कहे हैं ? उत्तर - म्लेच्छ मनुष्य अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - शत, यवन, फिरात, शबर, बर्बर कायमुरुडोड़, भडक, निष्णक, पक्कणिक, कुलाक्ष, गोंड, सिंहल, पारस, गोध, कौंच अम्बडक, इदमिल, चिल्लक, पुलिन्द हारोस, दोच (डोब), वोक्काण, गंधाहारक, बहलिक, अज्झल रोमपास (रामणस), प्रदूष, मलयाय, बंधुक, सूयली, कोंकणक, मद, पल्हव, मालव, मग्गर आभासिक, नक्क, चीना, ल्हासिक, खस, घासिक, नेडूर, मोंढ, डोंबिलक, लओस, बकुश कैकय अवख्यक, हूण, रोमक, समक, चिलात, विसयवासी आदि। इस प्रकार म्लेच्छ अनेक प्रकार के कहे गये हैं। विवेचन - प्रश्न - म्लेच्छ किसे कहते हैं? उत्तर - जिनके वचन (भाषा) और आचार अव्यक्त-अस्पष्ट हों अर्थात् जिनका व्यवहार शिष्टजन सम्मत न हो, उन्हें 'म्लेच्छ' कहते हैं। से किं तं आरिया? आरिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - इड्डिपत्तारिया य अणिड्डिपत्तारिया य। से किं तं इडिपत्तारिया? इड्डिपत्तारिया छव्विहा पण्णत्ता। तंजहा - १. अरहंता २. चक्कवट्टी ३. बलदेवा ४. वासुदेवा, ५. चारणा ६. विजाहरा। से तं इड्विपत्तारिया। से किं तं अणिविपत्तारिया? अणिड्डिपत्तारिया णव विहा पण्णत्ता। तंजहा - खेत्तारिया, जाइआरिया, कुलारिया, कम्मारिया, सिप्पारिया, भासारिया, णाणारिया, दसणारिया, चरित्तारिया॥६५॥ कठिन शब्दार्थ - इड्डिपत्तारिया - ऋद्धि प्राप्त आर्य, अणिड्डिपत्तारिया - अनृद्धि प्राप्त-ऋद्धि को नहीं प्राप्त आर्य। भावार्थ- प्रश्न - आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं? For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना (मनुष्य भेद) * ** * * * * * * ** * * * * **** ** *todisadaatatasai1854010 t hapaga iyata उत्तर - आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-ऋद्धि प्राप्त आर्य और अनृद्धि प्राप्त आर्य। प्रश्न - ऋद्धि प्राप्त आर्य कितने प्रकार के कहे हैं ? उत्तर - ऋद्धि प्राप्त आर्य छह प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अरहंत-अर्हत् (तीर्थंकर) २. चक्रवर्ती ३. बलदेव ४. वासुदेव ५. चारण और ६. विद्याधर। यह ऋद्धि प्राप्त आर्य का वर्णन हुआ। प्रश्न - अनृद्धि प्राप्त आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - अनृद्धि प्राप्त आर्य नव प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. क्षेत्रार्य २. जाति आर्य ३. कुलार्य ४. कर्मार्य ५. शिल्पार्य ६. भाषार्य ७. ज्ञानार्य ८. दर्शनार्य और ९. चारित्रार्य। विवेचन - जो सभी हेय धर्मों से दूर हो चुके हैं तथा उपादेय धर्म को प्राप्त है वे आर्य कहे जाते हैं। आर्य शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये 'आरात याति इति आर्यः' जो दूर से जाता है जैसे क्षेत्र आर्य में अनार्य क्षेत्र से दूर जाना अर्थात् आर्य क्षेत्र में रहने वाले। इस प्रकार अर्थ करने से आर्य के सभी भेदों में यह अर्थ घटित हो सकता है। जिसमें ज्ञान दर्शन और चारित्र ग्रहण करने की योग्यता हो उसे आर्य कहते हैं। इसके दो भेद हैं - ऋद्धिप्राप्त और अनृद्धिप्राप्त। जो व्यक्ति अरहन्त, चक्रवर्ती आदि ऋद्धियों को प्राप्त कर लेता है, उसे ऋद्धिप्राप्त आर्य कहते हैं। आर्य क्षेत्र में उत्पन्न होने आदि के कारण जो पुरुष आर्य कहा जाता है उसे अनृद्धिप्राप्त आर्य कहते हैं। ऋद्धिप्राप्त आर्य के छह भेद हैं - १. अर्हन्त (अरिहन्त) - जो देवों द्वारा बनाये हुए आठ महाप्रातिहार्य (अशोक वृक्ष आदि) रूप पूजा के योग्य हैं तथा वन्दन नमस्कार एवं सत्कार के योग्य हैं सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं, चार तीर्थ की स्थापना करने वाले हैं और जो सिद्धि गमन के योग्य हैं उनको 'अर्हन्त (अर्हत्)' कहते हैं अथवा अरि-आत्म शत्रुओं को (चार घाती कर्मों को) हंत-नाश करने वालों को 'अरिहन्त' कहते हैं। २. चक्रवर्ती - चौदह रत्न और छह खण्डों के स्वामी चक्रवर्ती कहलाते हैं, वे सर्वोत्कृष्ट लौकिक समृद्धि सम्पन्न होते हैं। ३. वासुदेव - सात रत्न और तीन खण्डों के स्वामी वासुदेव कहलाते हैं। वे भी अनेक प्रकार की ऋद्धियों से सम्पन्न होते हैं। ४. बलदेव - वासुदेव के बड़े भाई बलदेव कहे जाते हैं। वे कई प्रकार की ऋद्धियों से सम्पन्न होते हैं। बलदेव से वासुदेव और वासुदेव से चक्रवर्ती की ऋद्धि दुगुनी-दुगुनी होती है। तीर्थंकर की आध्यात्मिक ऋद्धि चक्रवर्ती से अनन्त गुणी होती है। ५. चारण - आकाश गामिनी विद्या जानने वाले चारण कहलाते हैं। जंघाचारण और विद्याचारण के भेद से चारण दो प्रकार के हैं। चारित्र और तप विशेष के प्रभाव से जिन्हें आकाश में आने जाने की For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्रज्ञापना सूत्र ऋद्धि प्राप्त हो वे जंघाचारण कहलाते हैं । जिन्हें उक्त लब्धि विद्या द्वारा प्राप्त हो वे विद्याचारण कहलाते हैं। जंघाचारण और विद्याचारण का विशेष वर्णन भगवती सूत्र शतक २० उद्देशा ९ में है । ६. विद्याधर - वैताढ्य पर्वत के अधिवासी प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं के धारण करने वाले विशिष्ट शक्ति सम्पन्न व्यक्ति विद्याधर कहलाते हैं। ये आकाश में उड़ते हैं तथा अनेक चमत्कारिक कार्य करते हैं। यहाँ पर ऋद्धि प्राप्त आर्यों में ऋद्धि शब्द से आध्यात्मिक लब्धियाँ नहीं लेकर जन्म आदि से जीवन की विशिष्टताएं ली गई है जिनके कारण से वे साधारण मनुष्यों से अलग रूप में मालूम होते हैं। तीर्थंकरों के समवसरण में चारण मुनियों एवं विद्याधरों का प्रायः आना होता ही रहता । उनके सम्बन्ध में आम लोगों की जिज्ञासा को जानकर भगवान् ने इन्हें ऋद्धि प्राप्त आर्य के रूप में समझाया। इसलिए भी इनका ऋद्धि प्राप्त आर्य में समावेश किया गया है। प्रश्न- २८ लब्धियों को किस किस आर्य में समझना चाहिए ? उत्तर - तीर्थंकर आदि छह भेदों को तो ऋद्धि प्राप्त आर्य में बताया ही गया है। अवधिज्ञान, ऋजुमति, विपुलमति, केवली, गणधर, पूर्वधर, कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारिणी ये नौ लब्धियाँ ज्ञान आर्य में संभव है। संभिन्न श्रोत लब्धि में ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम होते हुए भी चारित्रिक साधना से प्राप्त होने से चारित्र आर्य में आना संभव है । अभव्य एवं मिथ्यात्वी को प्राप्त लब्धियाँ आर्य के भेदों में नहीं गिना जाना संभव है। इनके सिवाय एवं ऋद्धि आर्य के भेदों के सिवाय शेष लब्धियाँ साधुओं के चारित्र आर्य में होना संभव है । सम्यग्दृष्टि एवं देश विरति के भी यथा योग्य ज्ञान आर्य, दर्शन आर्य में होना समझा जाता है। से किं तं खेत्तारिया ? खेत्तारिया अद्ध छव्वीसइ विहांणा पण्णत्ता । तंजहा रायगिहमगह चंपा, अंगा तह तामलित्ति वंगा य । कंचणपुरं कलिंगा, वाणारसी चेव कासी च ॥१॥ साएय कोसला गयपुरं च कुरु सोरियं कुसट्टा य । कंपिल्लं पंचाला, अहिछत्ता जंगला चेव ॥ २ ॥ बारवई सोरट्ठा, मिहिल विदेहा य वच्छ कोसंबी । दिपुरं संडिल्ला, भद्दिलपुरमेव मलया य॥ ३ ॥ वइराड वच्छ वरणा, अच्छा तह मत्तियावइ दसण्णा । सोत्तियवई य चेदी, वीयभयं सिंधुसोवीरा ॥ ४ ॥ महुरा य सूरसेणा, पावा भंगी य मास पुरिवट्टा । सावत्थी य कुणाला, कोडीवरिसं च लाढा य ॥ ५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ************40*40-45 k i rits ** *********************edettethritte n ded सेयविया वि य णयरी, केयइअद्धं च आरियं भणियं। अत्थुप्पत्ती जिणाणं, चक्कीणं रामकण्हाणं॥६॥से तं खेत्तारिया॥६६॥ भावार्थ - प्रश्न - क्षेत्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - क्षेत्र आर्य साढे पच्चीस प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. मगध देश और राजगृह नगर २. अंगदेश और चम्पानगरी ३. बंगदेश और ताम्रलिप्ती (वर्तमान में यह पश्चिम बंगाल में तामलूक नाम से प्रसिद्ध नगर संभव है।) ४. कलिंग देश - कंचनपुर नगर ५. काशी देश - वाराणसी नगरी, वर्तमान में इसे बनारस देश व काशी नगरी भी कहा जाता है। ६. कौशलदेश-साकेतपुरनगर, वर्तमान में इसे अयोध्या नगरी भी कहा जाता है। ७. कुरु देश - गजपुरनगर, वर्तमान में इसे दिल्ली कहा जाता है पूर्व में इसका नाम इन्द्रप्रस्थ भी कहा जाता था। ८. कुशावर्त देश - सौरिकपुर नगर वर्तमान में इसे आगरा कहा जाता है। ९. पंचालदेश - कंपिलपुर नगर १०. जंगल देश - अहिच्छत्रा नगरी ११. सौरठ देश - द्वारिका नगरी, वर्तमान में इसे जूनागढ़ कहा जाता है जहाँ पर गिरनार (रैवतक) पर्वत आया हुआ है। १२. विदेह देश - मिथिला नगरी १३. कौशाम्बी देश - वत्स नगरी, कथा ग्रन्थों में एवं टीकाओं आदि में इसका नाम वत्सदेश और कौशाम्बी नगरी बताया गया है। किन्तु आगम में आये हुए वर्णन से पहले नगर (राजधानी) एवं बाद देश का नाम होने से जैसा यहाँ बताया गया है वैसा ही कहना उचित रहता है। जैसे वाणारसी को आज भी काशी नाम से पुकारा जाता है वैसे कोई राजधानियाँ देश के नाम से भी नामान्तरित हो सकती है। इसी प्रकार १७ वें नम्बर में अच्छा देशवरणा नगरी के विषय में भी समझना चाहिये। १४. शांडिल्य देश- नंदीपुर नगर १५. मलयदेश - भद्दिलपुर नगर १६. वत्स देश - विराटपुर नगर १७. अच्छा देश - वरणा नगरी १८. दशार्ण देश - मृत्तिकावती नगरी १९. चेदि देश - शौक्तिकावती नगरी २०. सिन्धु सौवीर देश - वीतभय नगर, वर्तमान में इसे कराची कहा जाता है। २१. शूरसेन देश - मथुरा नगरी २२. भंग देश - अपापापुरी (पावापुरी) नगरी २३. पुरिवर्त देश - मासा नगरी २४. कुणाल देश - श्रावस्ती नगरी २५. लाटदेश - कोटिवर्ष नगर २५॥ आधा केकय देश - श्वेताम्बिका नगरी। इन आर्य देशों में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि का जन्म होता है। इसलिए इन्हें आर्य देश कहते हैं। विवेचन - भरत क्षेत्र में बत्तीस हजार देश हैं। इनमें से साढ़े पच्चीस आर्य देश हैं। शेष ३१९७४॥ देश अनार्य हैं। इन साढे पच्चीस आर्य देशों में रहने वाले क्षेत्र आर्य हैं। आर्य देश और उनकी राजधानी के नाम भावार्थ में दे दिये गये हैं। पहले देश का नाम है और उसके आगे उसकी राजधानी का नाम है। जैसे कि देश का नाम मगध है और राजधानी का नाम राजगृह है। इस प्रकार आगे भी देश और राजधानी का नाम समझना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ प्रज्ञापना सूत्र ********************** ************************* * *************************** पूर्वाचार्यों की धारणा है कि वर्तमान में जितनी दुनिया दिखाई दे रही है वह सब भरत क्षेत्र के मध्य खण्ड में है। क्षेत्र की अपेक्षा वर्तमान में भारत देश एवं उसके बाहर पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, तिब्बत, बंगलादेश, श्रीलंका आदि आर्य देशों में होने की संभावना है। वर्तमान के समुद्रों में भी आर्य क्षेत्र का हिस्सा हो सकता है। आर्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है। "आरात् सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः प्राप्तो गुणैः इति। पापकर्मबहिर्भूतत्वेन अपापः।" अर्थ - जो सब पापों से दूर रहता है, उसे आर्य कहते हैं। सब पापों से दूर रहने के कारण उसका दूसरा नाम अपाप है। यह व्युत्पत्ति सिर्फ ज्ञान आर्य, दर्शन आर्य और चारित्र आर्य में घटित होती है। इसी से आत्मा का कल्याण सधता है। इसीलिये इनको भाव आर्य कहते हैं बाकी दूसरे क्षेत्र आर्य, कर्म आर्य आदि द्रव्य आर्य हैं। इन से आत्म-गुणों का कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि इनमें ज्ञान, दर्शन और चारित्र की नियमा नहीं है। से किं तं जाइ आरिया? जाइ आरिया छव्विहा पण्णत्ता। तंजहा - अंबट्टा य कलिंदा विदेहा वेदगा इय। हरिया चुंचुणा चेव छ एया इब्भ जाइओ॥ से तं जाइ आरिया॥६७॥ कठिन शब्दार्थ - इब्भ जाइओ - इभ्य जातियाँ। भावार्थ - प्रश्न - जाति आर्य कितने प्रकार के कहे हैं ? उत्तर - जाति आर्य छह प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अम्बष्ठ २. कलिन्द ३. विदेह ४. वेदग ५. हरित और ६. चुंचुण। ये छह इभ्य जातियाँ हैं। इस प्रकार जाति आर्य कहे गये हैं। विवेचन - मातृ-पक्ष को 'जाति' कहते हैं। जाति से जो आर्य-निर्दोष हो, उनको 'जाति-आर्य' कहते हैं अर्थात् जिनका मातृ-पक्ष निर्मल हो, वे जाति-आर्य कहलाते हैं। जिनके अंबष्ठ आदि छह भेद हैं। इन भेदों के भिन्न-भिन्न अर्थ टीकाकार ने नहीं दिये हैं। कोशकार ने 'जाति विशेष' ऐसा अर्थ दिया है। अतः छह ही भेदों का अर्थ निर्मल मातृ-पक्ष वाले समझना चाहिए। आज (वर्तमान) की सभी श्रेष्ठ जातियों का इनमें समावेश हो जाता है। आगमकार तो इन नामों से बताते हैं अभी दूसरे नाम हो सकते हैं। फिर भी इन्हीं में समाविष्ट समझना चाहिये। जाति आर्य में स्त्रियों की प्रधानता एवं कुल आर्य में पुरुषों की प्रधानता है। आगम काल में स्त्रियों की जाति अलग और पुरुषों की अलग होती थी। जातियों में कुल और कुल में जातियाँ, अन्तर्भावित है। भगवान् आदिनाथ के समय से जाति, कुल की व्यवस्था है। घोड़ी जाति सम्पन्न है (ठाणाङ्ग टीका में उदाहरण दिया है)। लोकोक्ति है - राईको (रेबारी-देवासी) में स्त्रियाँ होशियार होती है। वैसे ही किसी में For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ***** ****** ************************** ****************************** . . .. स्त्रियों की प्रधानता (बुद्धिमता, योग्यता आदि) होने से जाति सम्पन्न और किसी में पुरुषों की विशिष्टता से कुल सम्पन्न कहा है। स्त्रियों की योग्यता के पीछे जिनका माप किया जावे वह जाति है और पुरुषों की क्षमता के पीछे कुल (संभावना-मात्र की है। विशेष ज्ञानी गम्य)। से किं तं कुलारिया? कुलारिया छविहा पण्णत्ता। तंजहा - उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाया, कोरव्वा। से तं कुलारिया॥६८॥ भावार्थ - प्रश्न - कुल आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - कुल आर्य छह प्रकार के कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - १. उग्र २ भोग ३. राजन्य ४. इक्ष्वाकु ५. ज्ञात और,६. कौरव्य। इस प्रकार कुल आर्य कहे हैं। - विवेचन - पितृ पक्ष को कुल कहते हैं। जिनका पितृपक्ष निर्मल हो उसको कुल आर्य कहते हैं। से किं तं कम्मारिया? कम्मारिया अणेग विहा पण्णत्ता। तंजहा - दोसिया, सोत्तिया, कप्पासिया, सुत्तवेयालिया, भंडवेयालिया, कोलालिया, णरवाहणिया॥ जे यावण्णे तहप्पगारा।से तं कम्मारिया॥६९॥ भावार्थ - प्रश्न - कर्म आर्य कितने प्रकार के कहे हैं? - उत्तर - कर्म आर्य अनेक प्रकार के गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. दौष्यिक २. सौत्रिक ३. कार्पासिक ४. सूत्रवैतालिक ५. भाण्ड वैतालिक ६. कोलालिक और ७. नरवाहनिक। इसी प्रकार के अन्य जितने भी आर्य कर्म हों, उन्हें कर्म आर्य समझना चाहिये। इस प्रकार कर्म आर्य कहे गये हैं। विवेचन - कर्म आर्य के ४ से ७ तक के भेदों का अर्थ इस प्रकार है - ४.. सूत्र वैतालिक (सूत्र वैचारिक) - सूत्रविचार अर्थात् सूत की उच्चता, हीनता, मजबूती, अल्प मजबूती, अमुक वस्त्र बनने योग्य, अयोग्य. आदि बताने के धन्धे से आजीविका करना सूत्र वैचारिक का अर्थ है। ५. भाण्ड वैतालिक (भाण्ड वैचारिक) - भाण्ड अर्थात् धातु के बर्तनों की योग्यता, टिकाऊपन, अटिकाऊपन, अमुक काम में लेने योग्य है, इत्यादि बर्तनों की योग्यता बताने का धन्धा करना भाण्ड वैचारिक का अर्थ है। ६. कोलालिक - मिट्टी के बर्तनों का धन्धा करना। ७. नरवाहनिका - कावड़, पालखी, शिविका आदि के द्वारा मनुष्यों को ढोने का धन्धा करना। कपडे का व्यापार, सूत का व्यापार, कपास का व्यापार, किराणे का व्यापार, मिट्टी के बर्तनों का व्यापार, सोने, चांदी, जवाहरात का व्यापार आदि आर्य कर्म हैं। कर्मादान के व्यापारों के सिवाय प्रायः सभी आर्य व्यापारों में समझे जाते हैं। वर्तमान में स्टेशनरी, For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्रज्ञापना सूत्र * *********************************************** **** ***** *** ** *************** मणिहारी, चूड़ी, कागज, किराणा, अनाज आदि के धन्धे भी कर्म आर्य में समझे जाते हैं। कृषि (खेती) का कर्म महाआरम्भ जनक होने से अनार्य कर्म में समझा जाता है। कर्म आर्य के नामों में अल्प हिंसा वाले धन्धों को ही बताया गया है। कृषि का कर्म तो "फोडी कम्मे" नाम के कर्मादान के अन्तर्गत समझा जाता है। से किं तं सिप्पारिया? सिप्पारिया अणेग विहा पण्णत्ता। तंजहा - तुण्णागा, तंतुवाया, पट्टागारा देयडा, वरुट्टा, छव्विया, कट्ठपाउयारा, मुंजपाउयारा, छत्तारा, वज्झारा, पोत्थारा, लेप्पारा, चित्तारा, संखारा, दंतारा, भंडारा, जिज्झगारा, सेल्लारा, कोडिगारा, जे यावण्णे तहप्पगारा। से तं सिप्पारिया॥७०॥ भावार्थ - प्रश्न - शिल्प आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - शिल्प आर्य अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - तुन्नाक (रफ्फूगरदर्जी) तंतुवाय (जुलाहा), पट्टकार, दृतिकार (चमडे की मशक बनाने वाले), वरुट्ट (पिंछी बनाने वाले) छर्विक (चटाई आदि बनाने वाले) काष्टपादुकाकार (लकडी की खडाऊ बनाने वाले) मुंज पादुकाकार (मुंज की खडाऊ बनाने वाले) छत्रकार, वज्झार, पुस्तकाकार (पुस्तक बनाने वाले), लेप्यकार, चित्रकार, शंखकार, दंतकार (दांत बनाने वाला) भाण्डकार, जिह्वाकार, सेल्लकार (पत्थर घड़ने वाले), कोटिकार इसी प्रकार के अन्य जितने भी आर्य शिल्पकार हैं उन सबको शिल्प आर्य समझना चाहिये। इस प्रकार शिल्प आर्य कहे गये हैं। विवेचन - शिल्प आर्य के पट्टकार आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार हैं - पट्टकार - पट्टवाई का धन्धा करना अर्थात् गहने, माला आदि पिरोने का काम करना। इसमें राखियाँ, चन्दनहार, मुद्राहार, बीजफल आदि के हार भी समाविष्ट हो जाते हैं। इसी धन्धे के पीछे ओसवालों में 'पटवा' गोत्र प्रसिद्ध हुआ है। दृतिकार - 'दृति' मशक को कहते हैं। कपड़े एवं चमड़े आदि की मशकें बना । पानी के बादलों (झारियों) पर कपड़े चढ़ाने, छींके बनाने आदि का धन्धा भी इसी में समझा जाता है। वरूट्टा (पिच्छीका) - मयूर पंख आदि की पींछिया बनाने वाले, पुताई आदि की बूर्चिका बनाने वाले, रंगने के ब्रुश आदि बनाने वाला का भी इसी में ग्रहण किया जाता है। वज्झारा - वज्झकार (वाद्यकार) - वाहनों के अलग-अलग अवयवों को जोड़ने के हुन्नर वाले। दंतकार - नकली दांत बनाने वाले अथवा दांतों के वलय (चूड़ियाँ), कान कुचरणनी आदि अनेक प्रकार के खिलौने आदि बनाने वाले। सिंग आदि की कंधियों आदि बनाने वालों का भी इसी में ग्रहण होता है। For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************* जिह्वाकार - नाटक, बहुरूपिये आदि के उपयोग में आने वाली नकली जीभ, मुखौटा आदि बनाने वाले । कोडीकाट - कोडियों को रंगने वाले चित्रित करने वाले, कोड़ियों की माला एवं खिलौने बनाने वाले 'कोडिकार' कहलाते हैं। रफू, कसीदा, स्वेटर आदि बुनना, बहियाँ, पुस्तकों आदि बनाना, जिल्द चढ़ाना, राखी आदि बनाना, चटाईयाँ - छाबड़ियाँ बनाना इत्यादि काम करने वाले शिल्प आर्य समझे जाते हैं । से किं तं भासारिया? भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासेंति, जत्थ वि यणं बंभी लिवी पवत्तइ । बंभीए णं लिवीए अट्ठारसविहे लेक्खविहाणे पण्णत्ते । तंजा - १ बंभी, २ जवणालिया, ३ दोसापुरिया, ४ खरोट्टी, ५ पुक्खरसारिया, ६ भोगवइया, ७ पहराइया, ८ अंतक्खरिया, ९ अक्खरपुट्ठिया, १० वेणइया, ११ णिण्हईया, १२ अंकलिवी, १३ गणियलिवी, १४ गंधव्वलिवी, १५ आयंसलिवी, १६ माहेसरी, १७ दोर्मिलिवी ( दामिली), १८ पोलिंदी । से तं भासारिया ॥ ७१ ॥ भावार्थ प्रश्न भाषा आर्य किसे कहते हैं और कितने प्रकार के कहे गये हैं ? - 1 प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ******* - उत्तर भाषा आर्य उनको कहते हैं जो अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं और जहा ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया जाता है । ब्राह्मी लिपि में अठारह प्रकार का लेख विधान बताया गया है। वह इस प्रकार है - १. ब्राह्मी २. यवनानी ३. दोषापुरिका ४. खरोष्ट्री ५. पुष्करशारिका ६. भोगवलिका ७ प्रहरादिका ८. अंतक्षरिका ९. अक्षरपुष्टिया १०. वैनयिका ११. निह्वविका १२. अंकलिपि १३. गणितलिपि १४. गांधर्वलिपि १५. आदर्शलिपि १६. माहेश्वरी १७ तामिली - द्राविद्री १८. पोलिन्दी । इस प्रकार भाषा आर्य कहे गये हैं । - के १२५ है और पैर हैं और मैं और मैं******* और और भ प्रश्न- अर्धमागधी भाषा किसे कहते हैं ? उत्तर- जिसमें छह भाषाओं का मिश्रण हो उसे अर्ध मागधी भाषा कहते हैं। यथाप्राकृतसंस्कृतमागध-पिशाचभाषा च शौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो, देशविशेषाद् अपभ्रंशः ॥ १॥ अर्थ संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, पैशाची, अपभ्रंश और मगध देश । ये छह भाषायें जिसमें मिली हुई हो, मगधदेश की भाषा का विशेष अंश हो उसे अर्धमागधी भाषा कहते हैं। तीर्थंकर भगवान् अर्धमागधी भाषा ही धर्मोपदेश फरमाते हैं और सब देवों की भाषा भी अर्धमागधी हैं। तीर्थंकर भगवान् यद्यपि अर्धमागधी भाषा में धर्मोपदेश फरमाते हैं तथापि उनका ऐसा अतिशय हैं कि वह अर्धमागधी भाषा सब प्राणियों को अपनी अपनी भाषा में परिणत हो जाती है। इसलिए बारह प्रकार की परिषद उनकी भाषा को अच्छी तरह से समझ लेती है। For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ प्रज्ञापना सूत्र ***************************************************** यहाँ पर अर्द्धमागधी को आर्य भाषा कहा है। इसमें मिली छहों भाषाएं एवं उससे बनी हिन्दी भाषा को आर्य भाषा समझा जाता है। वर्तमान की देवनागरी (हिन्दी) लिपि को ब्राह्मी लिपि का ही परिवर्तित संस्कारित रूप समझा जाता है। अन्य लिपियों की परम्पराएं नहीं मिलने से स्पष्ट कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। तथापि वर्तमान भारत में प्रचालित अधिकांश भाषाओं के आर्य होने की संभावना की जाती है। आंग्ल भाषा व उर्दू भाषा को तो अनार्य भाषा ही समझा जाता है। ब्राह्मी लिपि के १८ प्रकारों में आये हुए दूसरे प्रकार 'यवनानी' को उर्दू भाषा नहीं समझना चाहिये। से किं तं णाणारिया? णाणारिया पंचविहा पण्णत्ता। तंजहा - आभिणिबोहिय णाणारिया, सुय णाणारिया, ओहि णाणारिया, मणपज्जव णाणारिया, केवल णाणारिया। से तं णाणारिया॥७२॥ भावार्थ - प्रश्न - ज्ञान आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - ज्ञान आर्य पांच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - १. आभिनिबोधिक ज्ञान आर्य २. श्रुतज्ञान आर्य ३. अवधिज्ञान आर्य ४. मनःपर्यवज्ञान आर्य और ५. केवलज्ञान आर्य। इस प्रकार ज्ञान आर्य कहे हैं। विवेचन - प्रश्न - ज्ञान किसको कहते हैं ? उत्तर - "ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्तु तत्त्वं अनेन इति ज्ञानं" अथवा "ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेन अस्मिन् अस्मात् वा इति ज्ञानं" अर्थ - जिसके द्वारा वास्तविक रूप से पदार्थों का अवबोध (ज्ञान) हो उसे ज्ञान कहते हैं। उस ज्ञान के पांच भेद ऊपर बताये गये हैं। इनका विस्तृत अर्थ और भेद प्रभेद का वर्णन नन्दी सूत्र में बतलाया गया है। यहाँ पर ज्ञान आर्य के भेदों में केवलज्ञान आर्य में तीर्थंकरों के सिवाय शेष सामान्य केवलियों का ही ग्रहण हुआ है। क्योंकि तीर्थंकरों का तो ऋद्धि प्राप्त आर्य के छह भेदों में नाम बताया है यहाँ अनऋद्धि प्राप्त के भेद होने से तीर्थंकरों को नहीं लिया है। . यहाँ पर नौ प्रकार के आर्यों का कथन या वर्णन चल रहा है। इसमें पहले यह बताया जा चुका है कि क्षेत्र आर्य, कर्म आर्य आदि छह भेद द्रव्य आर्य के हैं। आगे के तीन भेद (ज्ञान आर्य, दर्शन आर्य और चारित्र आर्य) भाव आर्य हैं। ये भक्ति के कारण बनते हैं। इसीलिए इनको भाव आर्य कहा गया है। से किं तं दंसणारिया? दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - सरागदंसणारिया य वीयरागदंसणारिया य॥७३॥ भावार्थ - प्रश्न - दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर - दर्शन आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं वीतराग दर्शन आर्य । विवेचन प्रश्न दर्शन किसको कहते हैं ? उत्तर- 'दृश्यन्ते श्रद्धीयन्ते ज्ञायन्ते वा जीवादयः पदार्था अनेन अस्मिन् अस्मात् वा इति दर्शनम् ।' अर्थ - जिसके द्वारा जीव अजीव आदि नव तत्त्वों पर श्रद्धा की जाय उसको दर्शन कहते हैं। यही बात वाचक मुख्य आचार्य उमास्वाति ने भी अपने तत्त्वार्थ सूत्र में कही है। - "तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' अर्थात् नव तत्त्व और उनके अर्थों पर दृढ़ श्रद्धा करना सम्यग् दर्शन है। इनके भेद प्रभेद और विशेष अर्थ का वर्णन नन्दी सूत्र तथा उत्तराध्ययन सूत्र के २८ वें अध्ययन में है । - - प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना - से किं तं सरागदंसणारिया ? सरागदंसणारिया दसविहा पण्णत्ता । तंजहा - णिसग्गुवएसरुई आणारुई सुत्त बीयरुइमेव । अभिगम वित्थाररुई किरिया संखेव धम्मरुई ॥ १ ॥ भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च । सहसंमुइयासव संवरो य रोएइ उ णिस्सग्गो ॥ २॥ जो जिणदिट्ठे भावे चउव्विहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव णहत्तिय णिसग्गरुड़ त्ति णायव्वो ॥ ३ ॥ प्रश्न - सराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर सराग दर्शन आर्य दस प्रकार के २. उपदेश रुचि ३. आज्ञा रुचि ४. सूत्र रुचि ५. ८. क्रिया रुचि ९. संक्षेप रुचि और १०. धर्म रुचि । बीज रुचि ६. जो व्यक्ति स्वमति-जाति स्मरण आदि से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव और संवर आदि तत्त्वों को भूतार्थ (तथ्य) रूप से जान कर उन पर रुचि - श्रद्धा करता है वह निसर्ग रुचि है। जो तीर्थंकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट भावों पर स्वयमेव चार प्रकार (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) से श्रद्धान करता है तथा ऐसा विश्वास करता है कि जीवादि तत्त्वों का जैसा स्वरूप तीर्थंकरों ने फरमाया है वह वैसा ही है अन्यथा नहीं उसे निसर्ग रुचि कहते हैं ॥ १, २, ३॥ कहे गये हैं । वे एए चेव उ भावे उवदिट्ठे जो परेण सद्दहइ । छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुइ त्ति णायव्वो ॥ ४ ॥ १२७ For Personal & Private Use Only सराग दर्शन आर्य और - १. निसर्ग रुचि इस प्रकार हैं अभिगम रुचि ७. विस्तार रुचि Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ जो व्यक्ति अन्य किसी छद्मस्थ या वीतराग भगवन्तों द्वारा उपदिष्ट जीवांदि पदार्थों पर श्रद्धा करता है उसे उपदेश रुचि कहते हैं ॥४॥ जो हेउमयाणंतो आणाए रोयए पवयणं तु। एमेव णण्णहत्ति य एसो आणारुई णाम॥५॥ जो हेतु को नहीं जानता हुआ केवल जिनाज्ञा से ही प्रवचन पर रुचि-श्रद्धा रखता है और समझता है कि जिनेश्वर भगवान् द्वारा उपदिष्ट तत्त्व ऐसे ही है अन्यथा नहीं वह आज्ञा रुचि है॥५॥ (रागो दोसो मोहो, अण्णाणं जस्स अवगयं होइ। आणाए रोयंतो, सो खलु आणारुई णामं॥) (जिस व्यक्ति में राग, द्वेष और मोह नहीं है ऐसे वीतराग के वचन सत्य होते हैं। अन्यथा नहीं होते ऐसा जान कर, जो वीतराग के वचनों पर श्रद्धा करता है, वह आज्ञा रुचि कहलाता है ॥५॥) जो सुत्तमहिजंतो सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं। अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइ त्ति णायव्वो॥६॥ जो सूत्र का अध्ययन करता हुआ अंग प्रविष्ट या अंग बाह्य श्रुत से सम्यक्त्व प्राप्त करता है वह सूत्र रुचि वाला कहलाता है॥६॥ एगपएअणेगाइं पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं। उदए व्व तेल्लबिंदू सो बीयरुइ त्ति णायव्वो॥७॥ जैसे जल में पड़ी हुई तेल की बिन्दु फैल जाती है उसी प्रकार जिसके लिये सूत्र का एक पद अनेक पदों के रूप में फैल जाता है उसे बीज रुचि समकित कहते हैं ॥७॥ सो होइ अभिगमरुई सुयणाणं जस्स अथओ दिटुं। इक्कारस अंगाई पइण्णगा दिट्ठिवाओ य॥८॥. जिसने ग्यारह अंगों को और प्रकीर्णकों को तथा बारहवें अंग दृष्टिवाद तक का श्रुतज्ञान अर्थ रूप में जान लिया है वह अभिगम रुचि वाला कहलाता है॥८॥ दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा। सव्वाहिं णयविहीहिं वित्थाररुइ त्ति णायव्वो॥९॥ जिसने द्रव्यों के सभी भावों को समस्त प्रमाणों से एवं समस्त नय विधियों से जान लिया, उसे विस्तार रुचि वाला कहते हैं ॥९॥ For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना दंसणणाणचरित्ते तवविणए सव्वसमिइगुत्तीसु । जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारुई णाम ॥ १० ॥ दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय में सर्व समितियों और गुप्तियों में जो क्रिया भाव रुचि वाला है वह क्रियारुचि वाला कहलाता है ॥ १० ॥ अणभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइ त्ति होइ णायव्वो । अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु ॥ ११ ॥ जिसने कुदर्शन का ग्रहण नहीं किया है तथा शेष अन्य दर्शनों का ज्ञान नहीं किया है और जो जिन प्रवचन में विशेष चतुर नहीं है किन्तु साधारण ज्ञान रखता है। उसे संक्षेप रुचि वाला समझना चाहिये ॥ ११ ॥ जो अत्यधम्मं सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च। सद्दहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइ त्ति णायव्वो ॥ १२ ॥ जो व्यक्ति अस्तिकाय धर्म पर श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म पर श्रद्धा करता है उसे धर्म रुचि वाला कहते हैं ॥ १२ ॥ · परमत्थसंथवो वा सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वावि । वावण्णकुदंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥ १३॥ परमार्थ (जीवादि तत्त्वों) का संस्तव (परिचय) करना, परमार्थ को जानने वालों की सेवा करना और जिन्होंने सम्यक्त्व का वमन कर दिया है उनसे दूर रहना यही सम्यक्त्व श्रद्धान है ॥ १३ ॥ णिस्संकिय णिक्कंखिय णिव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । विवेचन प्रश्न सराग दर्शन आर्य किसे कहते हैं ? १२९ उववूहथिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ठ॥ १४॥ सेतं सरागदंसणारया ॥ ७४ ॥ सराग दर्शन के आठ आचार इस प्रकार हैं- १. निःशंकित २. नि:कांक्षित ३. निर्विचिकित्स ४. अमूढदृष्टि. ५. उपबृंहण ६. स्थिरीकरण ७. वात्सल्य और ८ प्रभावना । इस प्रकार सराग दर्शन आर्य कहे हैं। ************* - - उत्तर "सरागस्य अनुपशान्त अक्षीण मोहस्य यत् सम्यग्दर्शनं । " अर्थ - दसवें गुणस्थान तक में राग रूप कषाय मौजूद रहता है इसलिए दसवें गुणस्थान तक के जीव सराग दर्शन आर्य कहलाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० *******-*-*-*-*-*-*-********** प्रज्ञापना सूत्र रुचियाँ सम्यग्दृष्टि के भावों की परिणतियाँ है । जो वैसे वैसे संयोगों में ही विश्वास करती है । अथवा जिन जिन कारणों से जीवों को सम्यक्त्व प्राप्त होती है- उन पूर्व कारणों को 'रुचि' कहते हैं । सरागदर्शन के निसर्ग रुचि आदि १० भेद हैं । परमार्थ संस्तव आदि तीन लक्षण हैं । निःशंकित आदि आठ आचारों का अर्थ इस प्रकार है १. निःशंकित - वीतराग सर्वज्ञ के वचनों में शंका न करना । २. निष्कांक्षित - परदर्शन की आकांक्षा न करना अथवा सुख की आकांक्षा न करना और दुःख से न करना, किन्तु सुख-दुःख को अपने किये हुए कर्मों का फल समझ कर समभाव रखना। ३. निर्विचिकित्सा - धर्म के फल में सन्देह न करना अथवा अपने ब्रह्मचर्य व्रत आदि व्रतों के पालन की दृष्टि से साधु साध्वियों का मैला शरीर और मैले कपड़े देख कर घृणा न करना । ४. अमूढदृष्टि - 'कुतीर्थियों को ऋद्धिशाली देख कर भी अपनी श्रद्धा को दृढ़ रखना। ५. उपबृंहा( उपबृंहण ) - गुणीजनों को देख कर उनकी प्रशंसा करना एवं उनके गुणों की वृद्धि करना तथा स्वयं भी उन गुणों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना । ६. स्थिरीकरण - धर्म से डिगते प्राणी को धर्म में स्थिर करना । ७. वात्सल्य - साधर्मियों के साथ वात्सल्यभाव रखना । ८. प्रभावना - जैनधर्म की प्रशंसा और उन्नति के लिए चेष्टा करना । ये आठ दर्शनाचार हैं। सम्यग्दृष्टि जीवों के लिए सम्यक्त्व को पुष्ट करने एवं सुरक्षित रखने के लिए जिनका आचरण आवश्यक होता है उन्हें आचार कहा जाता है। ************************ * * * * * * * * * * * से किं तं वीराय दंसणारिया ? वीयराय दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा उवसंत कसाय वीयरायदंसणारिया य खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य । - - से किं तं उवसंत कसाय वीयराय दंसणारिया ? उवसंत कसाय वीयराय दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा- पढम समय उवसंत कसाय वीयराय दंसणारिया य अपढम समय उवसंत कसाय- वीयराय दंसणारिया य । अहवा चरिम समय उवसंत कसाय वीयराय दंसणारिया य अचरिम समय उवसंत कसाय वीयराय दंसणारिया य । से तं वसंत कसाय वीयराय दंसणारिया । भावार्थ - प्रश्न- वीतराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर वीतराग दर्शन आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- उपशांत कषाय वीतरागदर्शन आर्य और क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य । प्रश्न - उपशांत कषाय वीतराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****** प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना उत्तर - उपशांत कषाय वीतराग दर्शन आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं- प्रथम समय उपशांत कषाय वीतराग दर्शन आर्य और अप्रथमसमय-उपशांतकषाय-वीतराग दर्शन आर्य अथवा चरम समय उपशांत कषाय वीतराग दर्शन आर्य और अचरम समय उपशांत कषायवीतराग दर्शन आर्य । इस प्रकार उपशांत कषाय वीतराग दर्शन आर्य कहे हैं। से किं तं खीण कसाय वीयराय दंसणारिया ? खीण कसाय वीयराय दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता । तजहा छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य । से किं तं छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया ? छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता । तं जहा सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य । से किं तं सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया ? सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - पढम समय संयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य अपढम समय सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य । अहवा चरिम समय सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य अचरिम समय सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य । से तं सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया । प्रश्न- क्षीण कषाय वीतंराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा कषाय वीतराग दर्शन आर्य और २. केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य । - प्रश्न- छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा १. स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य और २. बुद्ध बोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य । १३१ - For Personal & Private Use Only ********* प्रश्न- स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा १. प्रथम समय स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य और २. अप्रथम समय स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य अथवा चरमसमय स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीणकषाय वीतराग १. छद्मस्थ क्षीण - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्रज्ञापना सूत्र दर्शन आर्य और अचरम समय स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य। इस प्रकार स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य कहे गये हैं। से किं तं बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया? बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पढम समय बुद्धबोहिय खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य अपढम समय बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य। अहवा चरिम समय बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य। अचरिम समय बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य। सेत्तं बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया। से तं छउमत्थ खीण कसाय वीयराय दंसणारिया। प्रश्न - बुद्धबोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं। उत्तर - बुद्ध बोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- प्रथम समय बुद्ध बोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य और अप्रथम समय बुद्ध बोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतरागदर्शन आर्य अथवा चरमसमय बुद्ध बोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य और अचरम समय बद्ध बोधित छदमस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य। इस प्रकार बुद्धबोधित छद्मस्थ क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य कहे गये हैं। यह उद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य का वर्णन हुआ। से किं तं केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया? केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-सयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य अयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य। से किं तं सयोगि केवलि खीण कसाय वीयराग दंसणारिया? सयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पढम समय सयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य अपढम समय सयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य।अहवा चरिम समय सयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य अचरिम समय सयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य। से तं सयोगि केवंलिखीण कसाय वीयराय दंसणारिया। प्रश्न - केवली क्षीणा कषाय वीतराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे हैं? For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना १३३ ***********************************************************************-*-*-*-*-*-*- *-*-N e t उत्तर - केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा - सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य और अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य। प्रश्न - सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे हैं? उत्तर - सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - प्रथम समय सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य और अप्रथम समय सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य अथवा चरम समय सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य और अचरम समय सयोगी केवलि क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य। इस प्रकार सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य कहे हैं। से किं तं अयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया? अयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पढम समय-अयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य अपढम समय अयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य। अहवा चरिम समय अयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य अचरिम समय अयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया य। से तं अयोगि केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया। से तं केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया। से तं खीण कसाय वीयराय दंसणारिया। से तं केवलि खीण कसाय वीयराय दंसणारिया। से तं खीण कसाय वीयराय दंसणारिया। से तं दंसणारिया॥७५॥ प्रश्न - अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं? . उत्तर - अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं वे इस प्रकार है- प्रथम समय अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य और अप्रथम समय अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य अथवा चरमसमय अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य और अचरम समय अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य। इस प्रकार अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य कहे हैं। इस प्रकार केवली क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य कहे हैं। यह क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्यों का वर्णन हुआ है। यह दर्शन आर्य की प्ररूपणा हुई। विवेचन - जो दर्शन राग अर्थात् कषाय से रहित हो वह वीतराग दर्शन कहलाता है। वीतराग दर्शन की अपेक्षा से आर्य वीतराग दर्शन आर्य कहलाते हैं। वीतराग दर्शन दो प्रकार का है - उपशान् । कषाय और क्षीण कषाय। जो उपशांत कषाय के कारण आर्य हैं वे उपशांत कषाय दर्शन आर्य और जो For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ******************************* प्रज्ञापना सूत्र ********************************************** क्षीणकषाय के कारण आर्य हैं वे क्षीण कषाय दर्शन आर्य कहलाते हैं। उपशांत कषाय वीतराग दर्शनार्य वे हैं जिनके समस्त कषायों का उपशमन हो चुका है अतएव जिनमें वीतरागता प्रकट हो चुकी है। ऐसे ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि । क्षीण कषाय वीतराग दर्शनार्य वे हैं जिनके समस्त कषाय क्षीण हो चुके हैं अतएव जिनमें वीतराग दशा प्रकट हो चुकी है वे बारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती मुनि । जिन्हें इस अवस्था में पहुँचे प्रथम समय हुआ है वे प्रथम समयवर्ती और जिन्हें एक समय से अधिक हो गया हो वे अप्रथम समयवर्ती कहलाते हैं । इसी प्रकार समय भेद के कारण चरम समयवर्ती और अचरम समयवर्ती भेद होते हैं । जो बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं वे छद्मस्थ हैं और जो तेरहवें चौदहवें गुणस्थान वाले हैं वे केवल हैं। बारहवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग के दो भेद हैं स्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित । । इनके भी अवस्था भेद से दो-दो भेद होते हैं । केवली के दो भेद होते हैं - सयोगी केवली और अयोगी केवली । जो केवलज्ञान तो प्राप्त कर चुके हैं लेकिन अभी योगों से युक्त हैं वे संयोगी केवली कहलाते हैं। जो केवली अयोगी दशा प्राप्त कर चुके हैं वे अयोगी केवली कहलाते हैं। स्वामी भेद के कारण दर्शन में भी भेद होता है और दर्शन भेद से उनके आर्यत्व में भी भेद हो जाता है। T यहाँ पर वीतराग दर्शन आर्य के भेदों में उपशांत कषाय वीतराग दर्शन आर्य के वर्णन में स्वयंबुद्ध एवं प्रत्येक बुद्ध भेद नहीं किये हैं । क्षीण कषाय वीतराग दर्शन आर्य के वर्णन में ही ये भेद किये गये हैं। इससे यह फलित होता है कि स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध क्षीण कषाय वीतरागी ही बनते हैं । उपशांत कषाय वीतरागी नहीं। अर्थात् क्षीण कषाय वीतरागी के उस भव में उपशांत कषाय वीतरागता नहीं होती है। इस वर्णन से एवं भगवती सूत्र के शतक ९ उद्देशक ३२ में वर्णित सोच्चा केवली के वर्णन को देखते हुए एक भव में उपशम और क्षपक दोनों श्रेणियाँ नहीं होती है। अर्थात् जिस भव उपशम श्रेणी की जाती है उस भव में फिर क्षपक श्रेणी नहीं होती है । अर्थात् चरम शरीरी जीव उस भव में एक क्षपक श्रेणी ही करता है। स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध जीव क्षपक श्रेणी ही करते हैं एवं तद्भव मोक्षगामी होते हैं, यहाँ पर स्वयंबुद्धता और प्रत्येकबुद्धता तो चारित्रिक बोध की अपेक्षा समझी जाती है । उपदेश रुचि वाले भी स्वयं बुद्ध एवं प्रत्येक बुद्ध बन सकने में बाधा नहीं समझी जाती है जैसे नमी राजर्षि साधुओं के उपदेश सुने हुए होने पर भी प्रत्येक बुद्ध बने ही थे। अतः ठाणाग सूत्र में - निसर्ग सम्यग्दर्शन के प्रतिपाती, अप्रतिपाती, भेद बताने से उपशम श्रेणी वालों का उसी भव में मोक्ष जाना सिद्ध होता ही नहीं है । निसर्ग चारित्र एवं चरम शरीरी के चारित्र को यदि प्रतिपाती (गिरने वाला) बताया जाता तो एक भव में उपशम व क्षपक दोनों श्रेणियाँ सिद्ध होती । किन्तु ऐसा आगम में कहीं पर भी नहीं बताया गया है। अपितु स्वयंबुद्ध आदि के एवं सोच्चा केवली के उपशांत वेद व कषाय नहीं बताने से 'एक भव में दोनों श्रेणियों का नहीं होना, ही आगम से सिद्ध होता है। - For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना १३५ *********************** *****44-** **************-1-422101041418+++11-04- ******** से किं तं चरित्तारिया? चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - सरागचरित्तारिया य वीयराग-चरित्तारिया य। से किं तं सरागचरित्तारिया? सरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - सुहुमसंपराय सरागचरित्तारिया य बायरसंपराय सरागचरित्तारिया य। से किं तं सुहमसंपराय सरागचरित्तारिया? सुहमसंपराय सरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पढमसमयसुहमसंपराय सरागचरित्तारिया य अपढमसमयसुहुमसंपरायसरागचरित्तारिया य। अहवा चरिम समय सुहुमसंपराय सरागचरित्तारिया य अचरिम समय सुहमसंपराय सरागचरित्तारिया च। अहवा सुहुमसंपराय सरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - संकिलिस्समाणा य विसुज्झमाणा य। से तं सुहमसंपराय सरागचरित्तारिया। कठिन शब्दार्थ - चरित्तारिया - चारित्र आर्य, संकिलिस्समाणा - संक्लिश्यमान, विसुज्झमाणाविशुद्ध्यमान। प्रश्न - चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? । उत्तर - चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - सराग चारित्र आर्य और वीतराग चारित्रार्य। प्रश्न - सराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - सराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - सूक्ष्म संपराय सराग चारित्र आर्य और बादर सम्पराय सराग चारित्र आर्य। ... प्रश्न - सूक्ष्म सम्पराय सराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? .. उत्तर - सूक्ष्म सम्पराय सराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं - प्रथम समय सूक्ष्म सम्पराय सराग चारित्र आर्य और अप्रथम समय सूक्ष्म सम्पराय सराग चारित्र आर्य अथवा चरम समय सूक्ष्म सम्पराय सराग चारित्र आर्य और अचरम समय सूक्ष्म सम्पराय सराग चारित्र आर्य अथवा सूक्ष्म सम्पराय सराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - संक्लिश्यमान और विशुद्ध्यमान। इस प्रकार सूक्ष्म सम्पराय सराग चारित्र आर्य कहे गये हैं। से किं तं बायरसंपराय सरागचरित्तारिया? बायरसंपराय-सरागचरित्तारिया दुविहा अण्णत्ता। तंजहा - पढमसमयबायरसंपराय सरागचरित्तारिया य अपढमसमयबायरसंपरायसरागचरित्तारिया य। अहवा चरिम समय बायरसंपराय सरागचरित्तारिया For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ *************************** प्रज्ञापना सूत्र ************************************ य अचरिम समय बायरसंपराय सरागचरित्तारिया य । अहवा बायरसंपराय सरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा पडिवाई य अपडिवाई य । से तं बायरसंपरा सरागचरित्तारिया ॥ ७६ ॥ प्रश्न - बादर सम्पराय सराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? प्रथम उत्तर बादर सम्पराय सराग चारित्र आर्य 'प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं समय बादर सम्पराय सराग चारित्र आर्य और अप्रथम समय बादर सम्पराय सराग चारित्र आर्य अथवा चरम समय बादर सम्पराय सराग चारित्र आर्य और अचरम समय बादर सम्पराय सराग चारित्रः आर्य अथवा बादर सम्पराय सराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं- प्रतिपाती और प्रतिपाती। इस प्रकार बादर सम्पराय सराग चारित्र आर्य कहे हैं। विवेचन प्रश्न चारित्र किसे कहते हैं ? 44 उत्तर - संस्कृत में "चर गति भक्षणयो" धातु है इस धातु से चारित्र शब्द बनता है उसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार हैं 'अन्य जन उपात्त अष्टविध कर्म संचयस्य अपत्ययाय चरणं, सर्व सावद्य योग निवृति रूपं चरित्रं अथवा कर्मणां च यस्य ऋत्ती करणात् वा चारित्रम् । यथोक्तम "च य" ऋत्त कर्म होइ चरित्तम् इति । " अर्थ - अनेक जन्मों में उपार्जन किये हुए कर्मों के समूह (भंडार) को जिससे खाली किया जाए उसे चारित्र कहते हैं । प्रश्न - सराग चारित्र आर्य किसे कहते हैं ? - उत्तर - राग सहित चारित्र अथवा राग सहित पुरुष के चारित्र को सराग चारित्र कहते हैं । जो सराग चारित्र से आर्य हैं वे सराग चारित्र आर्य कहलाते हैं। प्रश्न- सूक्ष्म सम्पराय सराग चारित्र किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसमें सूक्ष्म कषाय की विद्यमानता होती है वे सूक्ष्म संपराय सराग चारित्र वाले कहलाते हैं। प्रश्न- बादर सम्पराय सराग चारित्र किसे कहते हैं ? उत्तर- जिसमें स्थूल कषाय हो वे बादर सम्पराय सराग चारित्र वाले कहलाते हैं। प्रश्न- प्रथम समय बादर संपराय चारित्र आर्य किसे कहते हैं ? उत्तर - असंयम (पहला व चौथा गुणस्थान), संयमासंयम (पांचवां गुणस्थान) से अप्रमत संयत (सातवां गुणस्थान) में आने वाले एवं सूक्ष्म संपराय संयत (दसवां गुणस्थान) से अनिवृत्ति बादर गुणस्थान (नवमा गुणस्थान) में आने वाले प्रथम समयवर्ती जीव प्रथम समय बादर संपराय चारित्र आर्य कहे जाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **************** प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना प्रश्न- संक्लिश्यमान किसे कहते हैं ? उत्तर ग्यारहवें गुणस्थान से लौट कर वापिस दसवें गुणस्थान आदि में आया हुआ जीव संक्लिश्यमान कहलाता है। प्रश्न – विशुद्धयमान किसे कहते हैं ? - १३७ 米米米米米米米米樂 उत्तर - नौंवे गुणस्थान से ऊपर चढ कर दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान में आया हुआ जीव विशुद्धमान कहलाता है । से किं तं वीयराय चरित्तारिया ? वीयराय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - वसंत कसाय वीयराय चरित्तारिया य खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य । से किं तं वसंत कसाय वीयराय चरित्तारिया ? उवसंत कसाय वीयराय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा पढम समय उवसंत कसाय वीयराय चरित्तारिया य अपढम समय उवसंत कसाय वीयराय चरित्तारिया य । अहवा चरिम समय उवसंत कसाय वीयराय चरित्तारिया य अचरिम समय उवसंत कसाय वीयराय चरित्तारिया ? खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य केवलि खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य । भावार्थ - प्रश्न- वीतराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - वीतराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं- उपशान्त कषायवीतराग चारित्र आर्य और क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य । प्रश्न- उपशान्त कषाय वीतराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - उपशान्त कषाय वीतराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं- प्रथम समय उपशान्त कषाय वीतराग चारित्र आर्य और अप्रथमसमय उपशान्त कषायवीतराग चारित्र आर्य अथवा चरम समय उपशान्त कषाय वीतराग चारित्र आर्य और अचरम समय उपशान्त कषाय वीतराग चारित्र आर्य। इस प्रकार उपशान्त कषाय वीतराग चारित्र आर्य कहे हैं । प्रश्न- क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं- छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य और केवलीक्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य । प्रश्न- छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा - स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य और बुद्धबोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य । For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्रज्ञापना सूत्र ********* ************************************************************************* से किं तं छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया? छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - सयंबुद्ध छउमस्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य। से किं तं सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया? सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पढम समय सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य अपढम समय सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य। अहवा चरिम समय सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य अचरिम समय सयंबुद्ध छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य। प्रश्न - स्वयंबुद्ध किसे कहते हैं ? तथा स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - दूसरे के उपदेश के बिना स्वमेव बोध प्राप्त कर मोक्ष जाने वाले स्वयं बुद्ध कहलाते हैं। स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - प्रथम समय स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य और अप्रथमसमय स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य। अथवा चरमसमय स्वयंबद्ध छदमस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य और अचरमसमय स्वयंबुद्ध छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य। से किं तं बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया? बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पढम समय बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य अपढम समय बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य अहवा चरिम समय बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य अचरिम समय बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य। से तं बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया। से तं छउमत्थ खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया। . प्रश्न - बुद्धबोधित किसे कहते हैं तथा बुद्धबोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं? For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना उत्तर - तीर्थंकर अथवा आचार्यादि के उपदेश से बोध प्राप्त कर मोक्ष जाने वाले बुद्ध बोधित कहलाते हैं। बुद्धबोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं वे इस प्रकार है प्रथमसमय बुद्धबोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य और अप्रथम समय बुद्धबोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य । अथवा चरम समय बुद्धबोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य और अचरम समय बुद्धबोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य । इस प्रकार बुद्धबोधित छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य कहे हैं। यह छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य का वर्णन हुआ। से किं तं केवलि खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया ? केवल खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - सजोगि केवल खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य अजोगि केवल खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य । से किं तं सजोगि वलि खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया । सजोगि केवलि खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा पढ़म समय सजोगि केवल खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य अपढम समय सजोगि केवल खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य | अहवा चरिम समय सजोगि केवल खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य अचरिमसयसजोगि केवल खीण कसाय चरित्तारिया य । सेतं सजोगि केवल खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया । प्रश्न- केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य और अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य । प्रश्न- सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार १३९ - हैं - प्रथम समय सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य और अप्रथम सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य । अथवा चरम समय सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य और अचरम समय सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य। इस प्रकार सयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य कहे हैं। से किं तं अजोगि केवल खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया ? अजोगि केवलि खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा- पढम समय अजोगि For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० प्रज्ञापना सूत्र * * * * * * ** * * * * * * * * * * * * * * * * ** * * * ** * * * * **- * -*-*-* * -- - *- *-* - *13* केवलि खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य अपढम समय अजोगि केवलि खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य। अहवा चरिम समय अजोगि केवलि खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य अचरिम समय अजोगि केवलि खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया य से तं अजोगि केवलि खीण कसाय वीयराय चरित्तारिया। से तं वीयराय चरित्तारिया। प्रश्न - अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - प्रथम समय अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य और अप्रथम समय अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य। अथवा चरम समय अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य और अचरम समय अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य। इस प्रकार अयोगी केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य कहे हैं। इस प्रकार केवली क्षीण कषाय वीतराग चारित्र आर्य कहे हैं। यह वीतराग चारित्र आर्य का वर्णन हुआ। . अहवा चरित्तारिया पंचविहा पण्णत्ता। तंजहा - सामाइयचरित्तारिया, छेओवट्ठावणियचरित्तारिया, परिहारविशुद्धियचरित्तारिया, सुहमसंपराय चरित्तारिया, • अहक्खाय चरित्तारिया य। से किं तं सामाइय चरित्तारिया? सामाइय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - इत्तरिय सामाइय चरित्तारिया य आवकहिय सामाइय चरित्तारिया य। से तं सामाइय चरित्तारिया। अथवा चारित्र आर्य पांच प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. सामायिक चारित्र आर्य २. छेदोपस्थापनीय चारित्र आर्य ३. परिहार विशुद्धिक चारित्र आर्य ४. सूक्ष्मसंपराय चारित्र आर्य और ५. यथाख्यात चारित्र आर्य। प्रश्न - सामायिक चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - सामायिक चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. इत्वरिकसामायिक चारित्र आर्य और २. यावत्कथिक सामायिक चारित्र आर्य। इस प्रकार सामायिक चारित्र आर्य कहे हैं। से किं तं छेओवट्ठावणिय चरित्तारिया? छेओवट्ठावणिय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - साइयार छेओवट्ठावणिय चरित्तारिया य णिरइयार छेओवट्ठावणिय चरित्तारिया य। For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************** प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना सेतं छेओवट्ठावणिय चरित्तारिया । प्रश्न - छेदोपस्थापनीय चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर- छेदोपस्थापनीय चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा - १. सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र आर्य और २. निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र आर्य। इस प्रकार छेदोपस्थापनीय चारित्र आर्य कहे गये हैं । से किं तं परिहारविसुद्धिय चरित्तारिया ? परिहारविसुद्धिय चरित्तारियां दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - णिविस्समाण परिहारविसुद्धिय चरित्तारिया य णिविट्ठकाइय परिहार विसुद्धिय चरित्तारिया य । से तं परिहारविसुद्धियचरित्तारिया । प्रश्न- परिहार विशुद्धिक चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १४१ उत्तर - परिहार विशुद्धिक चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा १. निर्विश्यमानक परिहार विशुद्धि चारित्र आर्य २. निर्विष्टकायिक परिहार विशुद्धिक चारित्र आर्य। इस प्रकार परिहार विशुद्धि चारित्र आर्य कहे गये हैं । **米等分学等计学学报标 - से किं तं सुहुमसंपराय चरित्तारिया ? सुहुमसंपराय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - संकिलिस्समाण सुहुम संपराय चरित्तारिया य विसुज्झमाण सुहुम संपराय चरित्तारिया । से तं सुहुमसंपराय चरित्तारिया । प्रश्न- सूक्ष्म संपराय चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - सूक्ष्म संपराय चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं - १. संक्लिश्यमान सूक्ष्मसंपराय चारित्र आर्य और २. विशुद्धयमान सूक्ष्म संपराय चारित्र आर्य। इस प्रकार सूक्ष्म संपराय चारित्र आर्य कहे गये हैं। For Personal & Private Use Only .से किं तं अहक्खायचरित्तारिया ? अहक्खाय चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता । तंजा - छउमत्थ अहक्खाय चरित्तारिया य केवलि अहक्खाय चरित्तारिया य । से तं अहक्खाय चरित्तारिया । से तं चरित्तारिया । से त्तं अणिड्डिपत्तारिया से तं कम्मभूमगा । से तं गब्भवक्कंतिया । तं मस्सा ॥ ७७ ॥ प्रश्न - यथाख्यात चारित्र आर्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - यथाख्यात चारित्र आर्य दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा- १. छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र आर्य और २. केवल यथाख्यात चारित्र आर्य । इस प्रकार यथाख्यात चारित्र आर्य कहे हैं। इस प्रकार Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ प्रज्ञापना सूत्र ***************** ******************************************************************** चारित्र आर्य कहे हैं। इस प्रकार ऋद्धि अप्राप्त आर्य कहे हैं। यह आर्य का वर्णन हुआ। इस प्रकार कर्म भूमि मनुष्यों, गर्भज मनुष्यों, मनुष्यों का निरूपण हुआ। विवेचन - प्रश्न - वीतराग चारित्र आर्य किसे कहते हैं ? उत्तर - जिस चारित्र में राग का सद्भाव न हो या वीतराग पुरुष (ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थानवर्ती) का जो चारित्र हो उसे वीतराग चारित्र कहते हैं। जो वीतराग चारित्र से आर्य है उसे वीतराग चारित्र आर्य कहते हैं। प्रश्न - चारित्र के कितने भेद हैं ? उत्तर - चारित्र के पांच भेद हैं। वे इस प्रकार हैं - १. सामायिक चारित्र २. छेदोपस्थापनीय चारित्र ३. परिहार विशुद्धि चारित्र ४. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र ५. यथाख्यात चारित्र। इन पांच चारित्रों का अर्थ इस प्रकार है - १. सामायिक चारित्र - सामायिक शब्द का शब्दार्थ इस प्रकार है-"समः रागद्वेष रहित परिणामस्य आय: प्राप्ति समाय अथवा समानाम ज्ञान, दर्शन, चरित्राणाम आय: लाभः इति समाय अथवा समः शत्रुमित्रेषु समः भाव तस्य आयः इति समाय। समाय एव सामायिक।" अर्थ - सम अर्थात् राग द्वेष रहित परिणाम की प्राप्ति होना अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र का लाभ होना तथा शत्रु व मित्र के ऊपर समान परिणाम की प्राप्ति होना समाय कहलाता है। समाय शब्द से ही सामायिक शब्द बना है इसलिए समाय व सामायिक दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है। सम अर्थात् राग द्वेष रहित आत्मा के प्रतिक्षण अपूर्व निर्जरा से होने वाली आत्मविशुद्धि (समभाव) का प्राप्त होना सामायिक है। भवाटवी (भव अर्थात् संसार अटवी अर्थात् जंगल के भ्रमण से पैदा होने वाले क्लेश को प्रतिक्षण नाश करने वाले चिन्तामणि, कामधेनु एवं कल्पवृक्ष के सुखों से भी बढ़ कर, निरुपम सुख देने वाले, ऐसी ज्ञान दर्शन चारित्र पर्यायों को प्राप्त कराने वाले, राग द्वेष रहित आत्मा के क्रियानुष्ठान को सामायिक चारित्र कहते हैं। सर्व सावध व्यापार का त्याग करना एवं निरवद्य व्यापार का सेवन करना सामायिक चारित्र है। For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना १४३ ************************ ** ** *********** ** * ***** ********************* यों तो चारित्र के सभी भेद सावद्य योग विरति रूप है। इसलिए सामान्यतः सभी सामायिक ही हैं किन्तु चारित्र के दूसरे भेदों के साथ 'छेद' आदि विशेषण होने से उनका नाम आअर्थ भिन्न भिन्न बताया गया है। पहले चारित्र के साथ 'छेद' आदि विशेषण न होने से इसका नाम सामान्य रूप से सामायिक ही दिया गया है। सामायिक चारित्र के दो भेद हैं, इत्वर कालिक सामायिक और यावत्कथिक सामायिक। १. इत्वर कालिक सामायिक - इत्वर काल का अर्थ है-अल्प काल (थोड़ा समय)। अर्थात् भविष्य में दूसरी बार फिर सामायिक व्रत का व्यपदेश होने से जो अल्प काल की सामायिक हो, उसे इत्वर कालिक सामायिक कहते हैं। पहले और छेल्ले (अन्तिम) तीर्थंकर भगवान् के तीर्थ में जब तक शिष्य में महाव्रत का आरोपण नहीं किया जाता तब तक उस शिष्य के इत्वर कालिक सामायिक (छोटी दीक्षा) समझना चाहिये। ___ २. यावत्कथिक सामायिक - यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक कहलाती है। बीच के बाईस तीर्थंकर भगवान् (पहले और छेल्ले-अंतिम तीर्थंकर भगवान् के सिवाय) के साधुओं के एवं महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकर भगवन्तों के साधुओं के यावत्कथिक सामायिक ही होती है क्योंकि इन तीर्थंकरों के शिष्यों को दूसरी बार सामायिक व्रत नहीं दिया जाता है। .. २. छेदोपस्थापनीय चारित्र - जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद एवं महाव्रतों में उपस्थान (आरोपण) होता है उसे छेदोपस्थापनीय (छेदोपस्थानिक) चारित्र कहते हैं। अथवा-पूर्व पर्याय का छेद करके जो महाव्रत दिये जाते हैं उसे छेदोपस्थानीय चारित्र कहते हैं। यह चारित्र भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र के प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में ही होता है, शेष तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होता। छेदोपस्थापनीय चारित्र के दो भेद हैं - निरतिचार छेदोपस्थानीय और सातिचार छेदोपस्थानीय। निरतिचार छेदोपस्थापनीय - इत्वर सामायिक वाले शिष्य के एवं एक तीर्थंकर के तीर्थ से दूसरे तीर्थंकर के तीर्थ में जाने वाले साधुओं के जो व्रतों का आरोपण होता है वह निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। इसे बड़ी दीक्षा कहते हैं। यह सातवें दिन, चार महीने बाद और उत्कृष्ट छह महीने बाद दी जाती है। सातिचार छेदोपस्थापनीय - मूल गुणों का घात करने वाले साधु के जो व्रतों का आरोपण होता है वह सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। ३. परिहार विशुद्धि चारित्र - जिस चारित्र में परिहार तप विशेष से कर्म निर्जरा रूप विशेष शुद्धि होती है उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं । अथवा - For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ प्रज्ञापना सूत्र *** * * * ** * * * * * ***************** ******** ** * * * * ** * * * * ** * * * * * * * * * * * * * * * * * * जिस चारित्र में अनेषणीयादि का परित्याग विशेष रूप से होता है उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं। स्वयं तीर्थंकर भगवान् के समीप अथवा तीर्थंकर भगवान् के समीप रह कर पहले जिसने परिहार विशुद्धि चारित्र अङ्गीकार किया है उस साधु के पास यह चारित्र अङ्गीकार किया जाता है। नव साधुओं का गण परिहार तप अङ्गीकार करता है। इनमें चार साधु पहले तप अङ्गीकार करते हैं जो पारिहारिक कहलाते हैं। चार साधु वैयावच्च करते हैं। जो आनुपारिहारिक कहलाते हैं और एक कल्प स्थित और गुरु रूप में रहता है जिसके पास पारिहारिक (तप करने वाले) और आनुपारिहारिक (वैयावच्च करने वाले) साधु आलोचना, वन्दना, प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) आदि करते हैं। पारिहारिक साधु ग्रीष्म ऋतु में जघन्य एक उपवास, मध्यम बेला (दो उपवास) और उत्कृष्ट तेला (तीन उपवास) तप करते हैं। शिशिर काल (शीतकाल) में जघन्य बेला, मध्यम तेला और उत्कृष्ट चौला (चार उपवास) करते हैं। वर्षा काल में जघन्य तेला, मध्यम चौला और उत्कृष्ट पचौला (पांच उपवास) तप करते हैं। शेष चार आनुपारिहारिक और एक कल्पस्थित ये पांच साधु प्रायः नित्य भोजन करते हैं। ये उपवास आदि नहीं करते। आयम्बिल के . सिवाय ये और भोजन नहीं करते अर्थात् सदा आयम्बिल ही करते हैं। इस प्रकार पारिहारिक साधु छह मास तक तप करते हैं। छह मास तप कर लेने के बाद वे आनुपारिहारिक अर्थात् वैयावच्च करने वाले हो जाते हैं और आनुपारिहारिक (वैयावच्च करने वाले) साधु पारिहारिक बन जाते हैं अर्थात् तप करने लग जाते हैं। यह क्रम भी छह मास तक पूर्ववत् चलता है। इस प्रकार आठ साधुओं के तप कर लेने पर उनमें से एक को गुरु पद पर स्थित किया जाता है और शेष सात वैयावच्च करते हैं तथा गुरु पद पर रहा हुआ साधु तप करना शुरू करता है। यह क्रम भी छह मास तक चलता है। इस प्रकार अठारह मास में यह परिहार तप का कल्प पूर्ण होता है। परिहार तप पूर्ण होने पर वे साधु या तो इसी कल्प को पुनः प्रारम्भ करते हैं या जिनकल्प धारण कर लेते हैं या वापिस गच्छ में आ जाते हैं। यह चारित्र छेदोपस्थापनीय चारित्र वालों के ही होता है दूसरों के नहीं। परिहार विशुद्धि चारित्र के दो भेद हैं-निर्विशमानक और निर्विष्ट कायिक। तप करने वाले पारिहारिक साधु निर्विशमानक कहलाते हैं और उनका चारित्र निर्विशमानक परिहार विशुद्धि चारित्र कहलाता है। ___ तप करके वैयावच्च करने वाले आनुपारिहारिक साधु तथा तप करके गुरु पद पर रहा हुआ साधु निर्विष्ट कायिक कहलाते हैं और उनका चारित्र निर्विष्ट कायिक परिहार विशुद्धि चारित्र कहलाता है। ४. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र - सम्पराय का अर्थ कषाय होता है। जिस चारित्र में सूक्ष्म सम्पराय अर्थात् संज्वलन लोभ का सूक्ष्म अंश रहता है, उसे सूक्ष्म सम्पराय चारित्र कहते हैं। ' For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना १४५ * * * * * * * * * ** ** * * * * * * * ** * * * * * ** ** * * ** * * ******************************** सूक्ष्म सम्पराय चारित्र के दो भेद हैं - विशुद्ध्यमान और संक्लिश्यमान। क्षपक श्रेणी या उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर शुद्ध रहने से उनका सूक्ष्म सम्पराय चारित्र विशुद्ध्यमान कहलाता है। उपशम श्रेणी से वापिस लौटते हुए साधु के परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं इसलिए उनका सूक्ष्म सम्पराय चारित्र संक्लिश्यमान कहलाता है। ५. यथाख्यात चारित्र - कषाय का सर्वथा उदय न होने से अतिचार रहित पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र यथाख्यात चारित्र कहलाता है। अथवा अकषायी साधु का निरतिचार यथार्थ चारित्र यथाख्यात चारित्र कहलाता है। ___ छद्मस्थ और केवली के भेद से यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं। अथवा उपशान्त मोह और क्षीण मोह, या प्रतिपाती और अप्रतिपाती के भेद से इसके दो भेद हैं। .. सयोगी केवली और अयोगी केवली के भेद से केवली यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं। देवजीव प्रज्ञापना - से किं तं देवा? देवा चउव्विहा पण्णत्ता। तंजहा - भतणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया। से किं तं भवणवासी? भवणवासी दसविहा पण्णत्ता। तंजहा - असुरकुमारा, णागकुमारा, सुवण्णकुमारा, विजुकुमारा, अग्गिकुमारा, दीवकुमारा, उदहिकुमारा, दिसाकुमारा, वाउकुमारा, थणियकुमारा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पज्जत्तगा य अपजत्तगा य। से तं भवणवासी। भावार्थ - प्रश्न - देव कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - देव चार प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. भवनवासी २. वाणव्यन्तर ३. ज्योतिष्क और ४. वैमानिक। प्रश्न - भवनवासी देव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - भवनवासी देव दस प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. असुरकुमार २. नागकुमार ३. सुवर्णकुमार ४. विद्युत्कुमार ५. अग्निकुमार ६. द्वीपकुमार ७. उदधिकुमार ८. दिशाकुमार ९. वायुकुमार और १०. स्तनितकुमार। ये संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - पर्याप्त और २. अपर्याप्त। इस प्रकार भवनवासी देव कहे गये हैं। For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना सूत्र karsan kradhakadhalakkarte * * *-*- *-*- *- - *- *- * से किं तं वाणमंतरा? वाणमंतरा अट्टविहा पण्णत्ता। तंजहा - किण्णरा, किंपुरिसा, महोरगा, गंधव्वा, जक्खा, रक्खसा, भूया, पिसाया। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पजत्तगा य अपज्जत्तगा य।से तं वाणमंतरा। . प्रश्न - वाणव्यंतर देव कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - वाणव्यंतर देव आठ प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. किन्नर २. किम्पुरुष ३. महोरग ४. गंधर्व ५. यक्ष ६. राक्षस ७. भूत और ८. पिशाच। वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। इस प्रकार वाणव्यंतर देव कहे गये हैं। से किं तं जोइसिया? जोइसिया पंचविहा पण्णत्ता। तंजहा - चंदा, सूरा, गहा, णक्खत्ता, तारा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पजत्तगा य अपजत्तगा य। से तं जोइसिया। प्रश्न - ज्योतिष्क देव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - ज्योतिष्क देव पांच प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. चन्द्र २. सूर्य ३. ग्रह ४. नक्षत्र और ५. तारा। वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। इस प्रकार ज्योतिषी देव कहे गये हैं। से किं तं वेमाणिया? वेमाणिया दविहा पण्णत्ता। तंजहा - कप्पोवगा य कप्पाईया य। से किं तं कप्पोवगा ? कप्पोवगा बारसविहा पण्णत्ता। तंजहा - सोहम्मा, ईसाणा, सणंकुमारा, माहिंदा, बंभलोया, लंतया, महासुक्का, सहस्सारा, आणया, पाणया, आरणा, अच्चुया। ते समासओ दुविहा यण्णत्ता, तंजहा - यजत्तमा य अपज्जत्तगा य।से तं कप्पोवगा। से किं तं कप्पाईया? कप्पाईया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - गेविज्जगा य अणुत्तरोववाइया य। प्रश्न - वैमानिक देव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. कल्पोपपन्न और २. कल्पातीत। प्रश्न - कल्पोपन कितने प्रकार कहे गये हैं ? पे हैं। यथा - १. सौधर्म २. ईशान ३. सनतकुमार ४. माहेन्द्र ५. ब्रह्मलोक ६. लान्तक ७. महाशुक्र ८. सहस्रार ९. आनत १०. प्राणत ११. आरण और १२. अच्युत। वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त। इस प्रकार कल्पोपन देव कहे गये हैं। For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - देव जीव प्रज्ञापना १४७ ******* ** * ** ******************************************************************* प्रश्न - कल्पातीत देव कितने प्रकार के कहे गये हैं। उत्तर - कल्पातीत देव दो प्रकार के कहे गये हैं - १. ग्रैवेयक और २. अनुत्तरौपपातिक। से किं तं गेविजगा? गेविजगा णवविहा पण्णत्ता। तंजहा - हेट्टिम हेट्टिम गेविजगा, हेट्ठिम मज्झिम गेविज्जगा, हेट्टिम उवरिम गेविज्जगा, मज्झिम हेट्ठिम गेविजगा, मझिम मझिम गेविजगा, मज्झिम उवरिम गेविजगा, उवरिम हेट्ठिम गेविजगा, उवरिम मनिझम गेविजगा, उवरिम उवरिम गेविजगा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पजत्तगा य अपजत्तगा य। से तं गेविजगा। से किं तं अणुत्तरोववाइया? अणुत्तरोववाइया पंचविहा पण्णत्ता। तंजहा - विजया, वेजयंता, जयंता, अपराजिया, सव्वट्ठसिद्धा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पजत्तगा य अपजत्तगा य। से तं अणुत्तरोववाइया। से तं कप्पाईया।से तं वेमाणिया।से तं देवा। से तं पंचिंदिया।से तं संसारसमावण्णजीवपण्णवणा। सेतं जीवपण्णवणा। सेतं पण्णवणा॥७८॥ प्रश्न - ग्रैवेयक देव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के कहे गये हैं - १. अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक २. अधस्तन मध्यम ग्रैवेयक ३. अधस्तन उपरिम ग्रैवेयक ४. मध्यम अधस्तन ग्रैवेयक ५. मध्यम मध्यम ग्रैवेयक ६. मध्यम उपरिम ग्रैवेयक ७. उपरिम अधस्तन ग्रैवेयक ८. उपरिम मध्यम ग्रैवेयक और ९. उपरिम उपरिम ग्रैवेयक। वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। इस प्रकार ग्रैवेयक देव कहे गये हैं। .. प्रश्न - अनुत्तरौपपातिक देव कितने प्रकार कहे गये हैं ? ___उत्तर - अनुत्तरौपपातिक देव पांच प्रकार के कहे गये हैं - १. विजय २. वैजयंत ३. जयंत ४. अपराजित और ५. सर्वार्थसिद्ध। वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। इस प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव कहे गये हैं। इस प्रकार कल्पातीत देव कहे गये हैं। इस प्रकार वैमानिक देव और पंचेन्द्रिय कहे गये हैं। यह संसार समापत्रक जीव प्रज्ञापना है। इस प्रकार जीव प्रज्ञापना कही गयी है। यह प्रथम प्रज्ञापना पद का निरूपण हुआ। विवेचन - प्रश्न - देव किसे कहते हैं? - उत्तर - देवगति नाम कर्म के उदय वालों को देव कहते हैं। देव शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है - संस्कृत में "दिवु-क्रीडा विजिगीषा व्यवहार धुति स्तुति मोद मद स्वण कान्ति गतिषु।" इस प्रकार दिवु धातु के दस अर्थ हैं। "दीव्यन्ति निरुपम् क्रीडा सुखम् अनुभवन्ति इति देवाः॥" अथवा "यथेच्छं प्रमोदन्ते इति देवाः।" अर्थात् - निरुपम क्रीडा सुख का जो अनुभव करते हैं अथवा सदा प्रसन्नचित रहते हैं उन्हें देव कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ प्रज्ञापना सूत्र ***************** ** ****************** ****************** ****************** देव के चार भेद हैं - १. भवनवासी २. वाणव्यंतर ३. ज्योतिषी और ४. वैमानिक। प्रश्न - भवनवासी देव किसे कहते हैं? उत्तर - जो देव प्रायः भवनों में रहते हैं उन्हें भवनपति या भवनवासी देव कहते हैं। टीकाकार ने भवनवासी शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है - "भवनेषु वसन्ति इत्येवंशीला भवनवासिनः, एतद् बाहुल्यतो नागकुमार आदि अपेक्षया द्रष्टव्यं, ते हि प्रायो भवनेषु वसन्ति कदाचित् आवासेषु, असुरकुमारास्तु प्राचुर्येण आवासेषु कदाचिद् भवनेषु। अथ भवनानाम् आवासानां च कः प्रतिविशेष? उच्यते, भवनानि बहिर्वृतानि अन्तः समचतुरस्त्राणि अध: पुष्करकर्णिकासंस्थानानि, आवासाः कायमानस्थानीया महामण्डपा विविध मणि रत्न प्रदीप प्रभासित सकल दिक चक्रवाला इति।" अर्थात् - जो भवनों में रहते हैं उन्हें भवनवासी कहते हैं यह व्याख्या प्राय: नागकुमार जाति के भवनवासी देवों में घटित होती है क्योंकि वे प्रायः भवनों में रहते हैं। कभी-कभी आवासों में भी रहते हैं। असुरकुमार तो प्रायः आवासों में ही रहते हैं। कभी कभी भवनों में भी रहते हैं। प्रश्न - भवन और आवास किसे कहते हैं ? इन दोनों में क्या (विशेषता) अन्तर है? उत्तर - जो बाहर से गोल और अंदर समचौरस तथा नीचे पुष्करकर्णिका (कमल की कर्णिका) के आकार वाले होते हैं उनको भवन कहते हैं। जो अपने शरीर परिमाण ऊँचे सब दिशाओं में अर्थात् चारों तरफ अनेक प्रकार के मणि, रत्ल और दीपकों की प्रभा से प्रकाशित महामण्डप होते हैं उन्हें आवास कहते हैं। प्रश्न - भवनपति देवों के दस भेदों को 'कुमार' शब्द से विशेषित क्यों किया है? उत्तर - जिस प्रकार कुमार (बालक) क्रीड़ा, खेलकूद आदि को पसन्द करते हैं, उसी प्रकार ये भवनपति देव भी क्रीड़ा में रत रहते हैं तथा सदा जवान की तरह जवान (युवा) बने रहते हैं। इसलिए इनको कुमार कहते हैं। दस भवनवासी देवों के नाम भावार्थ में दे दिये हैं। प्रश्न - वाणव्यंतर - किसे कहते हैं ? उत्तर - वाणव्यंतर शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है - "अन्तरं अवकाशः तच्चेहाश्रयरूप द्रष्टव्यं, विविधं भवन, नगर आवास रूपमन्तरं येषां ते व्यन्तराः (तत्र भवनानि रत्नप्रभायाः प्रथमे रलकाण्डे उपर्यधश्च प्रत्येकं योजनशतमपहाय शेषे अष्टयोजनशतप्रमाणे मध्यभागे भवन्ति, नगराण्यपि तिर्यग लोके तत्र तिर्यग् लोके यथा जम्बूद्वीप द्वाराधिपतेः विजयदेवस्य अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वादशयोजन सहस्रप्रमाण नगरी। आवासाः त्रिष्वपि लोकेषु, तत्र ऊर्ध्वलोके पाण्डकवनादौ इति)" अथवा विगतमन्तरं मनुष्येम्यो येषां ते व्यन्तराः तयाहि मनुष्यान् अपि चक्रवर्ती वासुदेव प्रभृतीन For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - देव जीव प्रज्ञापना १४९ ************************************* ********************************* ****** भृत्यवत् उपचरन्ति केचित व्यन्तरा इति। मनुष्येभ्यो विगतान्तरा। यदि वा विविधमन्तरं शैलान्तर, कदरान्तरं वनान्तरं वा अथवा आश्रयरूप० येषां ते व्यन्तराः। ___प्राकृतत्वाच्च सूत्रे वाणमन्तरा इति पाठ, यदि वा 'वानमन्तराः' इति पदसंस्कारः तत्र इयं व्युत्पतिः। वनानाम् अन्तराणि वनान्तराणि तेषु भावा: वनमन्तराः। __ अर्थ - यहाँ अन्तर का अर्थ आकाश है वह आश्रय रूप है। अनेक प्रकार के भवन और नगर जिनके रहने का स्थान है उनको व्यन्तर देव कहते हैं अथवा यहाँ अन्तर शब्द का अर्थ फर्क है अतः मनुष्यों के साथ जिनका अन्तर (व्यवधान) नहीं पड़ता है उनको व्यन्तर कहते हैं। क्योंकि बहुत से व्यन्तर देव, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि की सेवा नौकर की तरह करते हैं इसलिए मनुष्यों के साथ अन्तर (व्यवधान) नहीं रहता है इसलिए उनको व्यन्तर कहते हैं अथवा पहाड़, गुफा, वन आदि इनका आश्रय (स्थान) है उनको व्यन्तर कहते हैं। यह प्राकृत भाषा होने के कारण मूल पाठ में वाणमन्तर शब्द दिया है। इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है कि जो वनों (जंगलों) में रहते हैं। इस रत्नप्रभा पृथ्वी का प्रथमकाण्ड रत्नकाण्ड कहलाता है वह एक हजार योजन का मोटा है उसमें से १०० योजन ऊपर और १०० योजन नीचे छोड़कर बीच के आठ सौ योजन में द्वीपों के नीचे इन वाणव्यंतरों के भवन हैं तथा तिरछा लोक में इनके नगर हैं जैसे कि जम्बूद्वीप के विजय द्वार के स्वामी विजयदेव की राजधानी यहाँ से असंख्य द्वीप समुद्र उल्लंघन करने के बाद असंख्यातवें जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में है। वह बारह हजार योजन लम्बी चौड़ी है। वाणव्यन्तरों के आवास तीनों लोक में हैं। ऊर्ध्वलोक में पण्डकवन आदि में है। प्रश्न - ज्योतिषी किसे कहते हैं ? उत्तर - जो देव ज्योति यानी प्रकाश करते हैं वे ज्योतिषी कहलाते हैं। ज्योतिषी शब्द व्युत्पत्ति इस प्रकार है - "द्योतयन्ति-प्रकाशयन्ति जगत् इति ज्योतींषिविमानानि। यदि वा द्योतयन्ति-शिरोमुकुटोपगूहिभिः प्रभामण्डलकल्पैः सूर्यादिमण्डलैः प्रकाशयन्ति इति ज्योतिषो-देवाः सूर्यादयः तथाहि-सूर्यस्य सूर्याकारं मुकुटाग्रभागे चिह्न चन्द्रस्य चन्द्राकारं नक्षत्रस्य नक्षत्राकारं ग्रहस्य ग्रहाकारं तारकस्य तारकाकारं तैः प्रकाशयन्ति इति, आह च तत्त्वार्थभाष्यकृत"द्योतयन्ति इति ज्योतींषि-विमानानि तेषु भवा ज्योतिष्काः, यदि वा ज्योतिषो-देवा: ज्योतिष एव ज्योतिष्काः, मुकुटैः शिरोमुकुटोपगूहिभिः प्रभामण्डलैरुज्वलैः सूर्यचन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाणां मण्डलैः यथास्वं चिह्नः विराजमाना द्युतिमन्तो ज्योतिष्का भवन्ति इति।" ___ अर्थ - जो जगत् को प्रकाशित करते हैं उन्हें ज्योतिषी कहते हैं अथवा सिर पर धारण किये हुए मुकुट की प्रभा से एवं सूर्यादि मण्डलों से प्रकाश करते हैं उनको ज्योतिषी देव कहते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० के भाष्य में भी इसी प्रकार की व्याख्या की गई है - इनके चिह्न इस प्रकार है - सूर्य के मुकुट में सूर्य का, इसी प्रकार चन्द्र के मुकुट में चन्द्र का, नक्षत्र के मुकुट में नक्षत्र का, ग्रह के मुकुट में ग्रह का और ताराओं के मुकुट में ताराओं का चिह्न है। इन मुकुटों के चिह्न से जो शोभित है उनको ज्योतिषी देव कहते हैं। ज्योतिषी देवों के पांच भेद हैं यथा - चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा। पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों के चर (अस्थिर) और अचर (स्थिर) के भेद से दस भेद हो जाते हैं । मनुष्य क्षेत्रवर्ती अर्थात् मानुष्योत्तर पर्वत तक अढ़ाई द्वीप में रहे हुए ज्योतिषी देव सदा मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए चलते रहते हैं। मानुष्योत्तर पर्वत के आगे रहने वाले सभी ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं । प्रज्ञापना सूत्र प्रश्न- वैमानिक देव किसे कहते हैं ? उत्तर - विमानों में रहने वाले देवों को वैमानिक देव कहते हैं। वैमानिक शब्द की व्युत्पत्ति "विविध मानयन्ते - उपभुज्यन्ते पुण्य वद्धिजीवैरिति विमानानि तेषु भवा वैमानिकाः ।" अर्थ - पुण्यवान जीव जिनका उपभोग करते हैं अथवा जिनमें रहते हैं उनको वैमानिक कहते हैं। इनके दो भेद हैं- कल्पोपपत्र और कल्पातीत । प्रश्न - कल्पोपपत्र किसे कहते हैं ? उत्तर उन्हें कल्पोपन्न कहते हैं। सौधर्म से लेकर अच्युत तक बारह देवलोक कल्पोपपत्र कहलाते हैं। प्रश्न- कल्पातीत किसे कहते हैं ? उत्तर - जिन देवों में इन्द्र, सामानिक आदि की एवं छोटे, बड़े की मर्यादा नहीं है अपितु सभी अहमिन्द्र हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं। - कल्प शब्द का अर्थ है - मर्यादा अर्थात् जहाँ छोटे, बड़े, स्वामी, सेवक की मर्यादा है। नवग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमान इस प्रकार यह चौदह प्रकार के देव कल्पातीत कहलाते हैं। ये सब अहमिन्द्र हैं। इनमें सामानिक, लोकपाल आदि का भेद न होने से ये सब अपने आप को इन्द्र समझते हैं। इसलिये " अहम् (मैं) इन्द्र इति अहमिन्द्र" शब्द की व्यत्पत्ति होती है । ॥ पण्णवणाए भगवईए पढमपयं समत्तं ॥ ॥ भगवती प्रज्ञापना का प्रथम पद समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीय ठाणपयं दूसरा स्थान पद उत्क्षेप (उत्थानिका) - दूसरे पद का नाम "ठाण" पद है। "ठाण" शब्द की संस्कृत छाया (रूप) स्थान होता है। यहाँ स्थान शब्द से यह अर्थ लिया गया है, कि जीवों के रहने का स्थान। इसलिये इस पद में जीवों का स्वस्थान ही प्रमुख है। फिर भी उपपात क्षेत्र और समुद्घात क्षेत्र में भी जीवों का रहना होता है। इसलिये उनका विवेचन भी "ठाण" पद में कर दिया गया है। स्वस्थान से उपपात क्षेत्र असंख्यात गुणा है और उपपात क्षेत्र से समुद्घात क्षेत्र असंख्यात गुणा है। समुद्घात में असंख्यात समय लगते हैं। इसलिये जीवों की संख्या भी अधिक इक्कट्ठी हो जाती है तथा समुद्घात में आत्मप्रदेशों का प्रसारण (फैलाव) भी अधिक होता है। अतः समुद्घात का क्षेत्र सबसे अधिक होता है। उपपात में अधिक से अधिक तीन समय ही लगते हैं अतः पूर्व-पूर्व के जीव उपपात से स्वस्थान में चले जाने से समुद्घात से थोड़े होते हैं। इस दूसरे."ठाण" पद में दण्डक के क्रम की विवक्षा नहीं करके एकेन्द्रिय आदि जाति के क्रम से कथन किया गया है। ... अपर्याप्तक जीवों का स्वतन्त्र अस्तित्त्व नहीं है क्योंकि वे पर्याप्तक जीवों की नेत्राय में ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए उनका अलग कथन नहीं किया गया है। इसलिए पर्याप्तक जीवों के जो स्वस्थान हैं वे ही अपर्याप्तक जीवों के भी स्वस्थान हैं ऐसा समझ लेना चाहिए। पृथ्वीकाय-स्थान कहि णं भंते! बायर पढविकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसु, तंजहा - रयणप्यभाए, सक्करप्पभाए, वालुयप्पभाए, पंकप्पभाए, धूमप्पभाए, तमप्पभाए, तमतमप्पभाए, ईसिप्पब्भाराए, अहोलोए पायालेसु, भवणेसु, भवणपत्थडेसु, णिरएम, णिरयावलियासु, णिरयपत्थडेसु, उड्डलोए कप्पेसु, विमाणेसु, विमाणावलियासु, विमाणपत्थडेसु, तिरियलोए टंकेसु, कूडेसु, सेलेसु, सिहरीसु, पब्भारेसु, विजएसु, वक्खारेसु, वासेसु, वासहरपव्वएस, वेलासु, वेइयासु, दारेसु, तोरणेस दीवेसु, समुद्देस, एत्थ णं बायर पुढविकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ प्रज्ञापना सूत्र ************** ****** ***** पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजड़ भागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइ भागे॥७९॥ __कठिन शब्दार्थ - ठाणा - स्थान, सट्ठाणेणं - स्वस्थान की अपेक्षा से, पायालेसु - पातालों में, भवणपत्थडेसु - भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में, णिरयावलियासु - नरकावलियों में, पब्भारेसु - प्राग्भारों में, वेलासु - वेलाओं में, वेइयासु - वेदिकाओं में। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौमत! स्व स्थान की अपेक्षा से वे आठ पृथ्वियों में हैं। वे इस प्रकार हैं - १. रत्नप्रभा में २. शर्कराप्रभा में ३. वालकाप्रभा में ४. पंक प्रभा में ५. धम प्रभा में ६. तम प्रभा में ७. तमस्तम प्रभा में और ८. ईषत प्राग्भारा पृथ्वी में। अधोलोक में-पातालों में, भवनों में, भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में, नरकों में, नरकावलियों में और नरक के प्रस्तटों (पाथड़ों) में। ऊर्ध्वलोक में - कल्पों में, विमानों में, विमानावलियों में और विमान के प्रस्तटों (पाथड़ों) में। तिर्यक्लोक में, टंकों में, कूटों में, शैलों में, शिखरवाले पर्वतों में, प्राग्भारों में, विजयों में, वक्षस्कार पर्वतों में, वर्षों में, वर्षधर पर्वतों में, वेलाओं मे, वेदिकाओं में, द्वारों में, तोरणों में, द्वीपों में और समुद्रों में इन बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तकों के स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा वे लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। विवेचन - प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में सूत्रकार ने पृथ्वीकायिक आदि जीवों की प्ररूपणा की है और इस दूसरे पद में इन जीवों के स्थान आदि की प्ररूपणा करते हैं। इस प्रकार प्रथम एवं दूसरे पद का संबंध है। प्रस्तुत सूत्र में बादर पर्याप्तक पृथ्वीकायिक जीवों के स्थानों का निरूपण किया गया है। मूल पाठ में आये हुए कठिन शब्दों का अर्थ और उनका विवेचन इस प्रकार है - रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियाँ तो अधोलोक में है और इषत्प्राग्भारा पृथ्वी ऊर्ध्व लोक में है। इस से अलोक देशोन एक योजन दूर है उस योजन के चौबीस विभाग किये जाय तो तेईस भाग तो खाली है और ऊपर के एक भाग में सिद्ध भगवन्तों के आत्म प्रदेश हैं। अधोलोक में लवणे समुद्र में ७८८८ पाताल कलश हैं। उनकी भित्तियाँ वज्ररत्न की है। अतएव वे पृथ्वीकाय हैं। भवन का अर्थ है भवनपति देवों के निवास स्थान। भवन प्रस्तट का अर्थ है भवन की भूमिका अर्थात् भवनों के बीच का स्थान। नरक का अर्थ है प्रकीर्ण रूप नरकावास। नरकावली का अर्थ है आवलिका प्रविष्ट नरकावास। नरक प्रस्तट का अर्थ है नरक भूमि। ऊर्ध्व लोक में अर्थात् सौधर्म आदि बारह देवलोक। विमान का अर्थ है ग्रैवेयक सम्बन्धी प्रकीर्णक देवलोक। विमान आवलिका का अर्थ है, आवलिका प्रविष्ट विमान । विमान प्रस्तट का अर्थ है विमान भूमि तथा विमानों का अन्तराल। ऊर्ध्व लोक में यह सब बादर पर्याप्तक जीवों के स्व स्थान है। तिर्खा लोक में टंक-छिन्न पर्वतों के टूटे हुए भाग, कूट-सिद्धायतन आदि, शैल-शिखर रहित पर्वत, शिखरी For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ********* दूसरा स्थान पद पृथ्वीकाय स्थान - शिखर युक्त पर्वत, प्रारभार-कुछ झुके हुए पर्वत, विजय-कच्छ सुकच्छ आदि, वक्षस्कार - विद्युतप्रभ आदि पर्वत, वर्ष - क्षेत्र - भरत एरवत आदि, वर्षधर क्षेत्रों की मर्यादा करने वाले हिमवान महा हिमवान आदि पर्वत, बेला - समुद्र के पानी का प्रवाह जहाँ जाकर वापिस लौट आता है वहाँ का पानी रहित क्षेत्र (रमणभूमि) वेदिका जम्बू द्वीप की जगती आदि की वेदिकाएँ, द्वार - विजय वैजयन्त आदि तथा द्वीप और समुद्रों का समुद्रतल इन सब स्थानों में बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीवों के स्थान कहे गये हैं । प्रश्न- स्वस्थान किसे कहते हैं ? उत्तर - जीवन के प्रारंभ से लेकर अन्त तक जहाँ जीव रहते हैं उसे स्व स्थान कहते हैं । जीवों का उपपात, समुद्घात आदि अवस्थाओं के अभाव में जो शरीरस्थ रहना होता है वही उनका स्वस्थान कहलाता है। १५३ प्रश्न - उपपात स्थान किसे कहते हैं ? उत्तर - पूर्वभव के आयुष्य को पूर्ण करके ऋजु गति से उसी समय में एवं वक्र गति से दो तीन समयों में उत्पत्ति स्थान पर पहुँचे हो ऐसे वाटे बहते (मार्ग में चलते हुए) जीव उस नये स्थान के उपपात में ग्रहण किये गये हैं। जीव जहाँ एक भव से छूट कर दूसरे भव में जन्म लेने से पूर्व बीच में स्वस्थानाभिमुख होकर रहते हैं उसे उपपात स्थान कहते हैं। निष्कर्ष यह है कि जीव मरकर अगले भव में जाता है उसको गति कहते हैं और जिस स्थान से आता है उसे आगति कहते हैं। जैसे कि एकेन्द्रिय जीव मरकर औदारिक के दस दण्डकों में जाता है। यह उसकी गति हुई । नरक गति को छोड़कर शेष तेईस दण्डकों से जीव मरकर एकेन्द्रिय में आ सकते हैं। यह उसकी आगति हुई । यहाँ पर उपपात का अर्थ आगति से है। इसीलिये पृथ्वीकाय का उपपात तेईस दण्डकों से लिया गया है। प्रश्न- समुद्घात स्थान किसे कहते हैं ? उत्तर - आत्म प्रदेशों में वेदना आदि की प्रबलता से जो विशेष प्रकार का स्पन्दन (कम्पन) होता है उसे समुद्घात कहते हैं । समुद्घात करते समय जीव के प्रदेश जहाँ रहते हैं, जितने आकाश प्रदेश में रहते हैं, उसे समुद्घात स्थान कहते हैं । इस भव के आयुष्य के अन्तर्मुहूर्त्त शेष रहते हुए जिस जीव ने मारणान्तिक समुद्घात एवं वली समुद्घात की है वे समुद्घात में गिने जाते हैं । पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय जीवों का उपपात, समुद्घात और स्वस्थानलोक के असंख्यातवें भाग में है। प्रश्न - भगवती सूत्र आदि में गौतम स्वामी ने प्रश्न किये हैं और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उत्तर दिये हैं किन्तु यह पण्णवणा सूत्र आर्य श्यामाचार्य की स्वयं की रचना है फिर इसमें प्रश्नोत्तर किस प्रकार हो सकते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ************* प्रज्ञापना सूत्र उत्तर - उपयुक्त प्रश्न यथार्थ है किन्तु प्रश्नोत्तर की शैली से जो बात कही जाती है वह शिष्यों को और जनसाधारण को सरलता से समझ में आ सकती है इसलिये आर्य श्यामाचार्य ने भी इस पद्धति को अपनाया है। इसलिये इसमें प्रश्नोत्तर रूप देना अनुचित नहीं है। दूसरी बात यह है कि यह पण्णवणा सूत्र चौदह पूर्वों में से उद्धृत् किया गया है और चौदह पूर्व भगवान् की वाणी है इसलिए आर्य श्यामाचार्य ने भी उसी शैली का अनुसरण किया है। यही बात टीकाकार ने भी कही है - ********************* "यदिवा प्रायः सर्वत्र गणधर प्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपं सूत्रमतो भगवानार्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति।" अर्थ - प्रायः सब जगह गणधरों ने प्रश्न किये हैं और तीर्थंङ्कर भगवन्तों ने उत्तर फरमाये हैं। इस प्रकार के सूत्र हैं। इस लिये आर्य श्यामाचार्य ने भी इसी पद्धति को अपनाया है। ऐसा करने में श्यामाचार्य की निरभिमानता और तीर्थंकर भगवान् के प्रति अतिशय भक्ति और विनय प्रतिपती प्रकट होती है। प्रश्न - गणधर चार ज्ञान चौदह पूर्व के धारी और सर्वाक्षर सन्निपाती लब्धि के धारक होते हैं और विवक्षित अर्थ के ज्ञान से युक्त होते हैं। फिर भी वे भगवान् से प्रश्न क्यों पूछते हैं ? उत्तर - यह बात सत्य है । यद्यपि गौतम स्वामी आदि गणधर इन प्रश्नों का उत्तर जानते हैं तथापि दूसरे शिष्यों को बोध कराने के लिए इस प्रकार पूछते हैं। अथवा गौतम स्वामी आदि गणधर भी छद्मस्थ हैं इसलिए उनको भी कहीं अनुपयोग हो सकता है। जैसा कि कहा है. - "न हि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिद् नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥" अर्थ - छद्यस्थ के भी कभी अनुपयोग हो सकता है क्योंकि अभी उसके ज्ञानावरणीय कर्म बाकी है । इसलिये तथा अपने वचन में संशय रहित प्रामाणिकता लाने के लिए भी गणधर तीर्थंकर भगवान् से प्रश्न करते हैं। कहि णं भंते! बायर पुढवीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बायर पुढवीकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायर पुढवीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेजड़ भागे ॥ ८० ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! जहाँ बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं वहीं बादर For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***** * * ** * * ** * ********* दूसरा स्थान पद -- पृथ्वीकाय स्थान १५५ ............५५ पृथ्वीकायिक अपर्याप्तकों के भी स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा से सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में तथा स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थानों का निरूपण किया गया है। पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय है। इसके आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति ये चार पर्याप्तियां होती हैं। इन चारों पर्याप्तियों को जो पूर्ण कर लेता है उसे पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक कहते हैं। तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना तो किसी भी जीव की मृत्यु होती ही नहीं है। इसलिये तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके चौथी पर्याप्ति को प्रारम्भ तो कर देता है परन्तु पूर्ण होने से पहले ही जिसकी मृत्यु हो जाती है वह अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक कहलाता है। प्रश्न - बादर अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक जीवों का स्व स्थान तो लोक के असंख्यातवें भाग में कहा है परन्तु उपपात एवं समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में कहने का क्या कारण है ? उत्तर - अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक जीव उपपात अवस्था में विग्रह गति में होते हुए भी अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक के आयुष्य का वेदन विशिष्ट विपाक से करते हैं तथा नैरयिक का एक दण्डक छोड़कर शेष सभी तेवीस ही दण्डकों से आकर जीव पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं और मर कर भी देवों और नैरयिकों के सिवाय शेष सभी स्थानों में जाते हैं अतः विग्रह गति में रहे हुए भी अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक ही कहलाते हैं। ये स्वभाव से ही प्रचुर संख्या में होते हैं इसलिए उपपात और समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक व्यापी होते हैं। इनमें से किन्हीं का उपपात ऋजुगति से होता है और किन्हीं का वक्र गति से। इसका निष्कर्ष यह है कि जब किसी बेइन्द्रिय आदि जीव ने पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने के लिए मारणान्तिक समुद्घात की। इसे बेइन्द्रिय का समुद्घात कहा जाता है। जब वह बेइन्द्रिय का आयुष्य पूर्ण करके पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने के लिए मार्ग में चल रहा है (वाटे बह रहा है) उसे पृथ्वीकाय का उपपात कहते हैं। जब वह पृथ्वीकाय के शरीर में उत्पन्न हो जाता है, तब वह पृथ्वीकाय का स्वस्थान कहलाता है या जब वह बेईन्द्रिय के शरीर में है, समुद्घात आदि नहीं कर रहा है। तब वह बेइन्द्रिय का स्वस्थान कहलाता है। कहिणं भंते! सुहमपुढवीकाइयाणं पजत्तगाणं अपजत्तगाणं च ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सुहमपुढवीकाइया जे पजत्तगा जे य अपजत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो!॥८१॥ . कठिन शब्दार्थ - अविसेसा - अविशेष, अणाणत्ता - अनानात्व (नाना-भेद रहित)। भावार्थ - हे भगवन् ! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहां है ? For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ प्रज्ञापना सूत्र *************** ************************* ****************************** उत्तर - हे गौतम! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जो पर्याप्तक हैं और जो अपर्याप्तक हैं वे सब एक ही प्रकार के हैं। अविशेष-विशेषता रहित है, अनानात्व-अनेकत्व से रहित है और हे आयुष्मन् श्रमणो! वे. सर्व लोक में व्याप्त कहे गये हैं। विवेचन - सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जो पर्याप्तक व अपर्याप्तक जीव हैं वे सभी एक ही प्रकार के हैं। स्थान आदि की अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं होता है इसलिए उनके लिए अविशेष (विशेषता रहित अर्थात् जैसे पर्याप्तक है वैसे ही अपर्याप्तक है) और अनानात्व (भिन्नता रहित) विशेषण दिये हैं। सभी सूक्ष्म पृथ्वीकायिक उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा सर्वलोक व्यापी हैं। अपकाय-स्थान कहि णं भंते! बायर आउकाइयाणं पजत्तगाणं च ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सट्ठाणेणं सत्तसु घणोदहीसु, सत्तसु घणोदहिवलएसु, अहोलोए पायालेसु, भवणेसु, भवणपत्थडेसु, उड्डलोए कप्पेसु, विमाणेसु, विमाणावलियासु, विमाणपत्थडेसु, तिरियलोए अगडेसु, तलाएसु, णईसु, दहेसु, वावीसु, पुक्खरिणीसु, दीहियासु, गुंजालियासु, सरेसु, सरपंतियासु, सरसरपंतियासु, बिलेसु, बिलपंतियासु, उज्झरेसु, णिज्झरेसु, चिल्ललएस, पल्ललएसु, वप्पिणेसु, दीवेसु, समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु, एत्थ णं बायर आउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइ भागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइ भागे। . कहि णं भंते! बायर आउकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! जत्थेव बायर आउकाइयाणं-पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बाथर आउकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइ भागे। कहि णं भंते! सुहम आउकाइयाणं पजत्तगाणं अपजत्तगाणं च ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सुहम आउकाइया जे पजत्तगा जे य अपजनगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो!॥८२॥ कठिन शब्दार्थ - घणोदहि वलएसु - घनोदधि वलयों में, अगडेसु - अवटो (कुओं) में, दहेसुद्रहों में, वावीसु - वापियों (बावडियों) में, पुक्खरिणीसु - पुष्करिणियों में, दीहियासु - दीर्घिकाओं में, For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान प- अप्काय स्थान गुंजालिया - गुंजालिकाओं (टेढी मेढी बावडियों) में चिल्ललएसु - गड्ढों (खड्डों) में, पल्ललएसुपोखरों में, वप्पणेसु - वप्रों (क्यारियों) में। १५७ भावार्थ - हे भगवन् ! पर्याप्तक बादर अप्कायिक जीवों के स्थान कहां कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान की अपेक्षा से - सात घनोदधियों में, सात घनोदधि वलयों में अधोलोक में - पातालों में, भवनों में तथा भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में, ऊर्ध्वलोक में, कल्पों में, विमानों में, विमानावलियों (पंक्तिबद्ध विमानों) में और विमानों के प्रस्तटों (मध्यवर्ती स्थानों) में, तिर्यक्लोक में - कुओं में, तालाबों में, नदियों में, द्रहों में, बावड़ियों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरः सरः पंक्तियों में, बिलों में, पंक्ति बद्ध बिलों में, उज्झरों (पर्वतीय जल स्रोतों) में, झरनों (निर्झरों) में, गड्डों (खड्डों) में, पोखरों में, क्यारियों में, द्वीपों में, समुद्रों में, सभी जलाशयों और जल के स्थानों में पर्याप्तक बादर अप्कायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यात भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यात भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यात भाग में हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्तक बादर अप्कायिक जीवों के स्थान कहां पर कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! जहाँ पर्याप्तक बादर अप्कायिकों के स्थान हैं वहाँ अपर्याप्तक बादर अप्कायिकों के स्थान हैं। वे उपपात की अपेक्षा सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म अपकायिक जीवों के स्थान कहां कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! सूक्ष्म अप्कायिक जीवों के जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक हैं वे सभी एक प्रकार के हैं अविशेष - विशेषता रहित हैं, अनानात्व - नानात्व से रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो! वे सर्वलोकव्यापी कहे गये हैं । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बादर और सूक्ष्म अप्कायिक जीवों के स्थानों का निरूपण किया गया है। बादर अप्कायिक जीवों के स्वस्थान का वर्णन किया जाता है उसमें सर्वप्रथम " सत्तसु घणोदहीसु" शब्द दिया है जिसका अर्थ इस प्रकार है - रत्न प्रभा आदि सात पृथ्वियों के प्रत्येक के नीचे बीस बीस हजार योजन का मोटा बर्फ की तरह ठोस जमा हुआ पानी का समूह है उसको धनोदधि कहते हैं। इसके आगे " घणोदहिवलयेसु " शब्द दिया है। इसका अर्थ है घनोदधि वलय । चूडी के आकार जो गोल हो उसे 'वलय' कहते हैं। घनोदधि से उठे हुए अपनी अपनी नरक पृथ्वी को चारों तरफ से वेष्टित किये हुए थाली के उठे हुए किनारों की तरह जो गोल हैं उन्हें " घनोदधिवलय" कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ****************** 44 प्रज्ञापना सूत्र 'अहोलोए पायालेसु" शब्द दिया है जिसका अर्थ है अधोलोक पाताल । तात्पर्य यह है कि लवण समुद्र दो लाख योजन का लम्बा चौड़ा है। उसमें जम्बूद्वीप की चारों दिशाओं में बाहरी वेदिका से लवण समुद्र में पिच्यानवै हजार योजन आगे जाने पर तथा इसी प्रकार धातकीखण्ड द्वीप से पिच्यानवै हजार योजन इधर आने पर बीच में दस हजार योजन की चौड़ाई में चारों दिशाओं में चार महापाताल कलश आये हुए हैं। वे गोस्तनाकार रूप में एक लाख योजन नीचे गये हैं। उनके तीन विभाग किये गये हैं। तेतीस हजार तीन सौ तेतीस और एक योजन के त्रिभाग ( ३३३३३ - १/३) जितने मोटे हैं। सबसे नीचे के भाग में वायु है बीच के भाग में गोलाकार रूप होते हुए हवा और पानी मिले हुए हैं और ऊपर के तीसरे भाग में सिर्फ पानी है। इन चारों कलशों के नाम इस प्रकार हैं- वड़वा (वलया) मुख, केतु, यूप, ईश्वर। इन चार कलशों के प्रत्येक के बीच में छोटे पाताल कलशों की नव नव लड़ियाँ हैं यथा - २१५, २१६, २१७, २१८, २१९, २२०, २२१, २२२ और २२३ । एक लड़ी के १९७१ छोटे पाताल कलशें हैं। चारों लड़ियों को मिलाने पर ७८८४ छोटे पाताल कलशें होते हैं। ये एक एक हजार योजन के उड़े (गहरे हैं। प्रत्येक के तीन-तीन भाग हैं। पहले भाग में वायु, दूसरे भाग में वायु और पानी मिश्रित और तीसरे भाग में केवल पानी है। इस प्रकार इन अधोलोक के कुल ७८८४+४=७८८८ पाताल कलशों में अप्काय का स्वस्थान है। भवनों में बारह देवलोकों की बावड़ियों में अप्काय है। अवट - कूप, कूआँ, तडाग - तालाब । नदी - गंगा सिन्धु आदि । हृद - द्रह - पद्मद्रह आदि, वापी चार कोनों वाली बावड़ी, पुष्करिणी-गोल बावड़ी अथवा जिनमें पद्मकमल उगे हुए हों, दीर्घिका - लम्बी बावड़ियाँ, गुंजालिका - टेड़ी मेड़ी बावड़ियाँ । सरोवर एक ही लाईन में हो तो सरपंक्ति और बहुत लाईनों में हो तो सरसर पंक्ति । स्वभाव निष्पन्न जगती के ऊपर होने वाले कूओं की पंक्तियाँ बिल पंक्तियाँ कहलाती है। पहाड़ों के अन्दर स्वभाव से नीचे से उबकने वाले पानी के स्रोतों को उज्झर कहते हैं और ऊपर से नीचे की तरफ सदा गिरते रहने वाले स्रोतों को निर्झर कहते हैं। बिना खोदे हुए थोड़े जल के आश्रय भूत भूमि अथवा पहाड़ों के प्रदेशों को छिल्लर कहते हैं। बिना खोदे हुए सरोवरों को पल्वल कहते हैं। वप्र का अर्थ है केदार-खेत अथवा क्यारियाँ इत्यादि सब जल के स्थानों में बादर अप्काय का स्वस्थान है। ************************ पाताल कलशों का वर्णन पृथ्वीकाय के वर्णन में और अप्काय के वर्णन में दोनों जगह आया है इसका कारण यह है कि पाताल कलशों की भित्तियाँ वज्र रत्न पृथ्वीकाय की है इसलिये भित्तियों की अपेक्षा उनका वर्णन पृथ्वीकाय में दिया गया है। सभी पाताल कलशों के तीन भागों में से दूसरे त्रिभाग में देशतः और तृतीय त्रिभाग में सम्पूर्ण रूप से जल है। इसलिये उस जल की अपेक्षा इन पाताल कलशों का वर्णन अप्काय में दिया गया है। For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - तेजस्काय स्थान १५९ AAAAAAAAAAA *** ** *************************** तेजस्काय-स्थान कहिणं भंते! बायर-तेउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सट्ठाणेणं अंतोमणुस्सखेत्ते अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु, णिव्वाघाएणं पण्णरससु कम्मभूमीसु वाघायं पडुच्च पंचसु महाविदेहेसु, एत्थ णं बायर तेउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उबवाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे, सट्ठाणेणं लोबस्स असंखेजइ भागे॥८३॥ कठिन शब्दार्थ - अंतोमणुस्सखेत्ते - मनुष्य क्षेत्र के अंदर, णिव्याघाएणं - निर्व्याघात से। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! स्व स्थान की अपेक्षा से मनुष्य क्षेत्र के अंदर ढाई द्वीप समुद्रों में निर्व्याघात की अपेक्षा पन्द्रह कर्म भूमियों में और व्याघात की अपेक्षा पांच महाविदेहों में पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में तथा स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। विवेचन - स्वस्थान की अपेक्षा पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान मनुष्य क्षेत्र के अन्तर्गत ढाई द्वीपों (जंबूद्वीप, धातकीखंड और अर्द्धपुष्करवरद्वीप) और दो समुद्रों (लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र) में हैं। ___ व्याघात अर्थात् प्रतिबंध रूप अति स्निग्ध या अति रूक्ष काल होने पर बादर अग्नि काय का विच्छेद हो जाता है। अतः जब पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों में सुषमसुषमा, सुषमा और सुषमदुषमा ये तीन आरे वर्तते (प्रवृत होते) हैं तब अति स्निग्धकाल होता है और जब दुष्षम दुषमा नामक छठा आरा वर्तता है तब अतिरूक्ष काल होता है और उस समय अग्नि का विच्छेद हो जाता है। इसलिए व्याघात-प्रतिबंध हो तब पांच महाविदेहों में और व्याघात नहीं हो तब पंद्रह कर्म भमियों में पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं। उपपात-उक्त स्थानों की प्राप्ति की अभिमुखता की अपेक्षा यानी अन्तराल गति (विग्रह गति) में हो तब बादर तेजस्कायिक लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। क्योंकि वे बहुत थोड़े होते हैं। समुद्घात की अपेक्षा मारणान्तिक समुद्घात के समय आत्म-प्रदेशों को दण्ड रूप में विस्तार करते हुए भी थोड़े होने से वे लोक के असंख्यातवें भाग में ही समा जाते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा से भी वे लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं क्योंकि मनुष्य क्षेत्र की लम्बाई-चौडाई ४५ लाख योजन प्रमाण होने से वह लोक का असंख्यातवां भाग मात्र है। For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ********* ********...... प्रज्ञापना सूत्र । ****************************************************************** कहि णं भंते! बायर तेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! जत्थेव बायर तेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायर तेउकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स दोसु उड्डकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे॥८४॥ कठिन शब्दार्थ- उड्डकवाडेसु- ऊर्ध्वकपाटों में, तिरियलोयतट्टे-तिर्यक्लोक रूप तट्ट-स्थाल में। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! जहाँ पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान हैं वहीं अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक के स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा लोक के दो ऊर्ध्व कपाटों में तथा तिर्यक्लोक तट्ट-स्थाल रूप स्थान में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में तथा स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिकों के स्थान का निरूपण किया गया है। अपर्याप्तक बादर तेउकाय का उपपात दो ऊर्ध्व कपाटों में तथा दोनों कपाटों में रहे हुए तिर्यक्लोक में अर्थात् दोनों कपाटों के अन्तरवर्ती तिर्यक्लोक में है। समुद्घात से सारे लोक में है तथा स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में यानी मनुष्य लोक में है। प्रश्न - बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक तीन प्रकार के कहे गये हैं - १. एक भविक . २. बद्धायुष्क और ३. अभिमुखनाम गोत्र। प्रश्न - एकभविक किसे कहते हैं? -- उत्तर - जो जीव एक विवक्षित भव के अनन्तर आगामी भव में बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक रूप में उत्पन्न होंगे वे एकभविक कहलाते हैं। .. . प्रश्न - बद्धायुष्क किसे कहते हैं ? ___उत्तर - जो जीव पूर्व भव की आयु का त्रिभाग आदि समय शेष रहते बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक की आयु बांध चुके हैं, वे बद्धायुष्क कहलाते हैं। प्रश्न - अभिमुख नाम गोत्र किसे कहते हैं? उत्तर - जो पूर्व भव का त्याग करने के बाद बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक का आयुष्य नाम और गोत्र का साक्षात् वेदन कर रहे हैं वे अभिमुख नाम गोत्र कहलाते हैं। इनमें से जो एकभविक और बद्धायुष्क हैं वे द्रव्य से बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक कहलाते हैंभाव से नहीं, क्योंकि ये उस समय तेजस्कायिक आयु, नाम और गोत्र का वेदन नहीं करते हैं। अतएव For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ दूसरा स्थान पद - तेजस्काय स्थान ***************************** ***************** *********** यहाँ उन दोनों का ग्रहण नहीं है परन्तु अभिमुखनाम गोत्र वाले बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक का ही ग्रहण है क्योंकि स्वस्थान की प्राप्ति के अभिमुख रूप उपपात उनका ही संभव है। यद्यपि ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से वे भी बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक का आयुष्य नाम और गोत्र का उदय होने पूर्वोक्त दो ऊर्ध्व कपाट और तिर्यग्लोक के बाहर रहते हुए भी बादर अपर्याप्त तेजस्कायिक कहलाते हैं तथापि यहाँ व्यवहार नय की दृष्टि से जो स्वस्थान में समश्रेणिक दो ऊर्ध्व कपाट में स्थित हैं और जो स्वस्थान से अनुगत तिर्यक्लोक में प्रविष्ट हैं उन्हीं को बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक कहा जाता है शेष जो ऊर्ध्व कपाटों के अन्तराल में स्थित हैं उनको नहीं, क्योंकि वे विषम स्थानवर्ती हैं। अतः जो अभी तक दो ऊर्ध्व कपाटों में प्रविष्ट नहीं हुए हैं और तिर्यक्लोक में भी जिन्होंने प्रवेश किया नहीं वे पूर्वभव की अवस्था वाले हैं अत: उनकी गणना बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिकों में नहीं की जाती। कहा भी है - पणयाल लक्ख पिहुला, दुण्णि कवाडा य छद्दिसिं पुट्ठा। लोगंते तेसिंऽतो जे तेऊ ते उ धिप्पंति॥ अर्थात् - ४५ लाख योज़न चौडे दो ऊर्ध्व कपाट हैं जो छहों दिशाओं में लोकान्त का स्पर्श करते हैं। उनके अन्दर अन्दर जो तेजस्कायिक हैं उन्हीं का यहाँ ग्रहण किया गया है। इसीलिये कहा है कि - "उववाएणं दोसु उड्डकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य' उपपात की अपेक्षा दो ऊर्ध्व कपाटों में और तिर्यक्लोक के तट्ट-स्थाल रूप में। अतः इस सूत्र की व्याख्या व्यवहार नय की दृष्टि से की गई है। प्रश्न - दो ऊर्ध्व कपाटों से क्या आशय समझना चाहिए? उत्तर - बादर तेजस्काय जीवों के अपर्याप्तकों का उपपात-'दोसु उड्नकवाडेसु तिरियलोग तट्टे य' - दो ऊर्ध्व कपाट का आशय इस प्रकार समझना चाहिए - 'जब लोक व्यापी पृथ्वीकायादि जीव मरकर मनुष्य (समय) क्षेत्रस्थ बादर तेजस्काय के अपर्याप्तकों में उत्पन्न होने के लिए वाटे बह रहे हों, तब उत्पत्ति स्थान की सीध में आ जाना बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तकों का उपपात क्षेत्र विवक्षित है। "४५ लाख योजन के समय (मनष्य) क्षेत्र की सीध में आया हआ छहों दिशाओं का लोकान्त तक का क्षेत्र ‘दो ऊर्ध्व कपाट' के रूप में विवक्षित हैं।" यह सब क्षेत्र बादर तेजस्काय के अपर्याप्तकों के उपपात के रूप में विवक्षित (बताया गया) है। इसकी स्थापना आगे के पृ० १६२ पर दी गई है। इस स्थापना के मध्य में जो गोलक है, वह समय क्षेत्र का प्रतीक है। उस क्षेत्र की सीध में ऊपर नीचे लोकान्त तक का क्षेत्र बादर तेजस्काय के अपर्याप्तकों का उपपात क्षेत्र माना गया है। स्थापना में चारों तरफ जो चार कर्ण बताये गये हैं, वे समय क्षेत्र की सीध में चारों दिशाओं में स्वयंभूरमण समुद्र (लोकान्त) पर्यन्त आये हुए हैं। इनकी चौड़ाई समय क्षेत्र के समान ४५ लाख योजन की है। For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्रज्ञापना सूत्र ************* **** ******** ******************************* * *********** *** बादर तेजर कायिक अपर्याप्तक जीवों का उतपात क्षेत्र “दोसु उड्ढकवाडेसु तिरियलोग तट्टे य"। - अ “न 'अ' से 'ब' तक 14 रज्जु की ऊंचाई। 'क' से 'ख' या 'क' से 'ग' तथा 'का' से 'प' या 'का' से 'ध' तक की लम्बाई आधा रज्जु तिरछे लोक के अन्त तक । 'प' से 'फ' तक की चौड़ाई 45 लाख योजन है वैसा ही चारों तरफ समझना चाहिये । 'घ' से 'न' तक 1800 योजन की या 1900 योजन की जाड़ाई समझना । इसी प्रकार चारों दिशा में समझना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - तेजस्काय स्थान १६३ * * * * ** जाडाई १८००-१९०० योजन की है और लम्बाई लोकान्त पर्यन्त है। इसे ही 'दो ऊर्ध्वकपाट' कहा गया है। बीच का गोलक (भुंगला) ऊपर नीचे लोकान्त पर्यन्त और चारों कर्ण १९०० योजन की जाड़ाई वाले हैं। इतना क्षेत्र बादर तेजस्काय के अपर्याप्तकों के उपपात का माना गया है। सलिलावती और वप्रा विजय (२४ वीं, २५ वीं) १००० (हजार) योजन उण्डी (गहरी) आई हुई होने से एवं वहाँ पर बादर तेजस्काय होने से ऊर्ध्व कपाटों की जाडाई १९०० योजन समझी जाती है। ___ केवली समुद्घात के कपाट की तरह यहाँ पर ४५ लाख योजन के दो ऊर्ध्व कपाट बताये हैं। इससे दोनों ऊर्ध्व कपाट सर्वत्र लोकान्त तक होना स्पष्ट होता है। इसका निषेध करने के लिये ही आगमकार आगे ‘तिरियलोयतट्टे य' पाठ देते हैं। जिससे दोनों ऊर्ध्व कपाटों के तिर्यग्लोकस्थ भाग का ही बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिकों के उपपात रूप से ग्रहण किया गया है। यद्यपि मूल पाठ में ४५ लाख योजन का उल्लेख नहीं है। तथापि आगमकारों का आशय 'उपपात क्षेत्र की सीध (समश्रेणी) में आ जाना ही उपपात रूप से विवक्षित है। उपपात क्षेत्र की सीध का ग्रहण करने पर वैसा-उस प्रकार का (उपरोक्त) आकार बन जाता है। टीका में भी ऐसा अर्थ किया है। "पणयाललक्खपिहला, दुण्णि कवाडा य छद्दिसिं पुट्ठा। लोगंते तेसिंऽतो जे तेऊ ते उ धिप्पन्ति॥" __ इस टीका की गाथा में भी छहों दिशों में लोकान्त का स्पर्श बताया है। इससे भी १४ रज्जु की लम्बाई स्पष्ट हो जाती है 'तिरियलोयतट्टे य' आगम के इन शब्दों से सम्पूर्ण ऊर्ध्व कपाट लोकान्त जितने लम्बें नहीं समझे जाते हैं। नोट - यहाँ पर कपाट (किंवाड़) का जो कथन किया गया है वह केवल समझाने की दृष्टि से कपाटों की कल्पना मात्र की गयी है किन्तु इनको लोह के अथवा लकड़ी आदि के बने हुए कपाट (किंवाड) नहीं समझना चाहिए। "दोसु उड्ढकवाडेसु" - इस सम्बन्ध में टीका में दो मान्यताएं बताई गई है। दूसरी मान्यता आगम अर्थों से ज्यादा उचित लगती है परन्तु उसमें भी कुछ अपूर्णता है। टीकागत दोनों मान्यताओं से कुछ भिन्न उपर्युक्त धारणा का कारण इस प्रकार से समझना है - "अढ़ाई द्वीप (समय क्षेत्र) की सीध के लोकान्त तक का क्षेत्र भी पूरा आपूरित (व्याप्त) नहीं होता है। युगलिक क्षेत्र व पर्वत तो पूरे छूट जाते हैं तथा महाविदेह क्षेत्र में भी बीच के दो युगलिक क्षेत्र देवकुरु उत्तर कुरु (५४-५४ हजार के) तो छूट ही जाते हैं तथा कर्म भूमि के क्षेत्रों में भी बहुत कम अग्निका प्राप्त होती है। अमुक जगह सिगड़ी जल रही है तो उससे निरन्तर ऊपर नीचे कहीं न कहीं अग्निकाय होगी - ऐसा भी नहीं है अर्थात् अग्नि के उत्पत्ति प्रायोग्य क्षेत्र होते हुए भी प्रत्येक (हर एक) आकाश प्रदेश पर निरन्तर अग्निकाय नहीं मिलती है तथा लोक के प्रत्येक आकाश प्रदेश से बादर अपर्याप्त तेजस्काय के जीव आने वाले मिलते हैं। पृथ्वी आदि चार स्थावरों का उपपात सर्व लोक बताया है। For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ प्रज्ञापना सूत्र ***** **** ******************************************************** ******* ********* चार स्थावर के चार स्थावरों में आने वाले (तथा तेजस्काय से चार स्थावरों में आने वाले) जीव प्रत्येक आकाश प्रदेश पर असंख्यात, असंख्यात मिलते हैं, तो क्या बादर तेजस्काय में आने वाले २-४ जीव भी प्रति आकाश प्रदेश पर नहीं मिलेंगे? अतः हम 'प्रति आकाश प्रदेश से अपर्याप्त बादर तेजस्काय पें आने वाले मिलते हैं।' ऐसा कहते हैं तथा 'खवगसेढी' ग्रन्थ में भी ऐसा ही बताया है फिर भी. आगमकारों ने उपपात 'दोसु उड्डकवाडेसु' बताया है। अढाई द्वीप में भी अनेक धाराएं उत्पत्ति की बनती है। उन्हें अलग अलग बताना बड़ा दुरूह (कठिन) हो जाता है। एक संख्यातवें भाग क्षेत्र में भी बहुत धाराएं (उस क्षेत्र में अग्नि की निरन्तरता नहीं होने से) बन जाती है। उन्हें जोड़ने के लिए 'दोसु उड्डकवाडेसु' बताया है। अतः 'उपपात' का अर्थ 'उत्पत्ति स्थान की सीध (समंश्रेणी)' ऐसा करना ही उचित रहता है (टीका में भी ऐसा ही अर्थ किया है) जिससे ऊर्ध्वकपाट का महाविदेह क्षेत्र की सीध में रहा हुआ जीव भरत क्षेत्र की तेजस्काय में उत्पन्न होने के लिए आ रहा है तो वह 'दोसु उड्डकवाडेसु' में होते हुए भी उसे भरत क्षेत्र की सीध में आने पर ही उपपात में गिना जायेगा, अन्यथा नहीं। ___'दोसु उड्डकवाडेसु' के पूर्व पश्चिम, उत्तर - दक्षिण के दोनों कपाटों की अपेक्षा ऊर्ध्व अधो के भंगले में प्रविष्ट जीव अधिक मिल सकते हैं। अत: ऊर्ध्व अधो भंगले में प्रविष्ट जीवों का क्षेत्र है। स्थावर नाल में जो जीव त्रसनाल की सीध तथा अढ़ाईद्वीप की विदिशा में है, वे जीव ही पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण के आरों में प्रविष्ट होते हैं। जो जीव त्रसनाल की विदिशा में है - वे जीव ऊर्ध्व अधो भंगले में आते हैं। त्रसनाल की दिशा की अपेक्षा विदिशा का क्षेत्र अधिक है। अत: ऊर्ध्व अधो भंगले के जीव अधिक मिलेंगे। अधिक जीव आने वाले मिलने से घनता रहेगी तथा कम जीव आने वाले मिलने पर विरलता होगी। समुग्धाएणं सव्वलोए - समुद्घात की अपेक्षा बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिकों के स्थान सर्व लोक में होते हैं। इसका आशय इस प्रकार समझना चाहिये- पूर्वोक्त स्वरूप वाले दोनों ऊर्ध्व कपाटों के मध्य भाग में जो सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि जीव हैं वे बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिकों में उत्पन्न होते हुए मारणांतिक समुद्घात करते हैं उस समय वे विस्तार और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में उत्कृष्ट लोकान्त तक अपने आत्म-प्रदेशों को फैला देते हैं। जैसा कि आगे अवगाहना संस्थान पद में कहा जाएगा। यथा - प्रश्न - हे भगवन् ! मारणांतिक समुद्घात किये हुए पृथ्वीकायिक जीव जो कि तैजस कायिकों में उत्पन्न होने वाले हैं उनके तैजस शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? उत्तर - हे गौतम! विस्तार और मोटाई में शरीर परिमाण तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट लोकान्त तक होती है। ... उसके पश्चात् वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि जीव अपने उत्पत्ति देश (स्थान) तक दण्ड रूप में For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 米米米米米米米谢谢谢谢刊 दूसरा स्थान पद - वायुकाय स्थान आदेशों को फैलाते हैं और विग्रह गति में वर्तते हुए और बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक की आयु का वेदन करने के कारण बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक कहलाते हैं। वे समुद्घात अवस्था में ही विग्रह गति में वर्तते हुए तथा समुद्घात अवस्था में सर्वलोक को व्याप्त करते हैं । अतः इस प्रकार कहा जाता है कि समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में होते हैं। - दूसरे आचार्यों का कथन है कि बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक जीव बहुत हैं क्योंकि एक-एक पर्याप्तक के आश्रय में असंख्यात अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं । वे अपर्याप्तक सूक्ष्म में भी उत्पन्न होते हैं और सूक्ष्म जीव तो सर्वत्र व्याप्त है इसलिए बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक अपने भव के अंत में मारणांतिक समुद्घात करके सर्वलोक को पूर्ण करते हैं अतः समग्र दृष्टि से समुद्घात की अपेक्षा सकल व्यापी कहने में कोई दोष नहीं है । १६५ स्वस्थान की अपेक्षा बादर अपर्याप्तक तेजस्कायिक लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं क्योंकि पर्याप्तक जीवों के आश्रय से अपर्याप्तक जीवों की उत्पत्ति होती है। पर्याप्तक जीवों का स्थान मनुष्य क्षेत्र है जो कि संपूर्ण लोक का असंख्यातवां भाग मात्र है। इसलिए इन्हें लोक के असंख्यातवें भाग में कहना उचित ही है । कहते ! हुम उकाइयाणं पज्जत्तगाण य अपजत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता ? गोमा ! सुहुम ते काइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो ! ॥ ८५ ॥ - भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! सूक्ष्म तेजस्कायिकों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! सूक्ष्म तेजस्कायिक जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक हैं वे सब एक ही प्रकार के हैं अविशेष हैं, अनानात्व हैं । हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्वलोकव्यापी कहे गये हैं । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवों के स्थानों का निरूपण किया गया है। - वायुकाय-स्थान कहि णं भंते! बायर वाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु घणवाएसु, सत्तसु घणवायवलएसु, सत्तसु तणुवाएसु, सत्तसु तणुवायवलएसु, अहोलोए पायालेस, भवणेसु, भवणपत्थडेसु, भवणछिद्देसु, भवणणिक्खुडेसु, णिरएसु, णिरयावलियासु, णिरयपत्थडेसु, णिरयछिद्देसु, णिरयणिक्खुडेसु, उड्डलोए कप्पेसु, विमाणेसु, विमाणावलियासु, विमाणपत्थडेसु, विमापछिस, विमाणणिक्खुडेसु, For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ प्रज्ञापना सूत्र 42010-140-10- 2 00-400-40-10* ********* **** ****** - *-140-474-1024***************** तिरियलोए पाईण-पडीण दाहिण उदीण-सव्वेसु चेव लोगागासछिद्देसु, लोगणिक्खुडेसु य, एत्थ णं बायर-वाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु॥८६॥ कठिन शब्दार्थ - तणुवाय वलएसु - तनुवात वलयों में, भवण छिद्देसु - भवनों के छिद्रों में, भवण णिक्खुडेसु - भवनों के निष्कुटों में, लोगागास छिद्देसु - लोकाकाश के छिद्रों में, लोग णिक्खुडेसु- लोक के निष्कुटों में। निष्कुट का अर्थ है खिड़की के समान स्थान । इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार खिड़की के चारों तरफ दीवार होती है उसी प्रकार जिन भवनों का अन्तिम विभाग जिसके एक तरफ, दो तरफ या तीन तरफ अलोक आकाश आ गया हो अथवा बाधक स्थान आ गया हो उसको निष्कुट कहते हैं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान की अपेक्षा से सात घनवातों में, सात घनवात वलयों में, सात तनुवातों में, सात तनुवात वलयों में, अधोलोक में- पातालों में, भवनों में, भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में, भवनों के छिद्रों में, भवनों के निष्कुट प्रदेशों में, नरकों में, नरकावलियों में, नरकों के पाधडों में और नरकों के निष्कुट प्रदेशों में, ऊर्ध्वलोक में-कल्पों विमानों में, पंक्तिबद्ध विमानों में, विमानों के प्रस्तटों में, विमानों के छिद्रों में, विमानों के निष्कुट प्रदेशों में, तिर्यग्लोक में - पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में समस्त लोकाकाश के छिद्रों में, लोक के निष्कुट प्रदेशों में बादर वायुकायिक पर्याप्तक जीवों के स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यात भागों में, समदघात की अपेक्षा लोक के असंख्यात भागों में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यात भागों में पर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों के स्थान हैं। विवेचन - उपपात, समुद्घात और स्वस्थान तीनों की अपेक्षा से पर्याप्तक बादर वायुकायिक जीव लोक के असंख्यात भागों में हैं क्योंकि जहाँ भी खाली जगह है - पोल है वहाँ वायु बहती है। लोक में खाली जगह बहुत है इसलिए पर्याप्तक वायुकायिक जीव बहुत अधिक हैं। इस कारण तीनों अपेक्षाओं से बादर पर्याप्तक वायुकायिक जीव लोक के असंख्यात भागों में कहे गये हैं। ___यहाँ पर प्रत्येक में तीन-तीन बोल (आलापक) कह देने चाहिए। जैसे कि भवन, भवन प्रस्तट और भवनछिद्र एवं भवन निष्कुट। मूल पाठ में 'छिद्देसु' शब्द दिया है, जिसका अर्थ करते हुए टीकाकार ने लिखा है - "यतो यत्र सुषिरं तत्र वायुः" अर्थात् जहाँ जहाँ छिद्र हैं पोल है खाली जगह है वहाँ वहाँ सब जगह वायुकाय है। लोक में भरी हुई जगह की अपेक्षा खाली जगह बहुत है इसीलिए वायुकाय के स्वस्थान, उपपात और समुद्घात ये तीनों लोक के बहुत भागों में हैं। For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वनस्पतिकाय स्थान १६७ ********* *** * * ** * ********4040-244700 ** ** * ******** +10th anti .. कहि णं भंते! अपजत्त बायर वाउकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता! गोयमा! जत्थेव बायर-वाउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायर वाउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु॥८७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! जहाँ बादर वायु कायिकों के पर्याप्तकों के स्थान कहे गये हैं वहाँ बादर वायुकायिक जीवों के अपर्याप्तकों के स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यात भागों में है। विवेचन - उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से अपर्याप्तक बादर वायुकायिक जीव सर्वलोक में व्याप्त है क्योंकि देवों और नारकों को छोड़ शेष सभी स्थानों से आकर जीव बादर अपर्याप्तक वायुकाय में उत्पन्न होते हैं और बादर अपर्याप्तक वायुकाय के जीव अन्तराल (विग्रह) गति में भी होते हैं तथा उनके स्वस्थान बहुत है अत: व्यवहार नय की दृष्टि से उपपात की अपेक्षा उनका सर्वलोक व्यापीपना घटित हो सकता है। अतः कोई दोष नहीं है। समुद्घात की अपेक्षा बादर अपर्याप्तक वायकायिक जीव सर्वलोक व्यापित ही है, यह बात प्रसिद्ध ही है। क्योंकि सभी सक्ष्म जीवों की उत्पत्ति सर्व लोक में संभव है। कहिणं भंते! सुहम वाउकाइयाणं पजत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सुहम वाउकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपजत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोय परियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो!॥८८॥ ___ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सूक्ष्म वायुकायिक जीवों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! सूक्ष्म वायुकायिक जीवों के जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक हैं वे सभी एक ही प्रकार के हैं अविशेष (विशेषता रहित) और अनानात्व (नानात्व रहित) हैं और हे आयुष्मन श्रमणो! वे सर्वलोक में परिव्याप्त हैं। वनस्पतिकाय-स्थान कहि णं भंते! बायर वणस्सइ काइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सट्टाणेणं सत्तसु घणोदहीसु, सत्तसु घणोदहिवलएसु, अहोलोए पायालेसु, भवणेसु, भवण-पत्थडेसु, उडलोए कप्पेसु, विमाणेसु, विमाणावलियासु, विमाणपत्थडेसु, For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ तिरियलोए अगडेसु, तडागेसु, णदीसु, दहेसु, बावीसु, पुक्खरिणीसु, दीहियासु, गुंजालियासु, सरेसु, सरपंतियासु, सरसरपंतियासु, बिलेसु, बिलपंतियासु, उज्झरेसु, णिज्झरे, चिल्ललेसु, पल्ललेसु, वष्पिणेसु, दीवेसु, समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु, एत्थ णं बायर वणस्सइ काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइ भागे ॥ ८९ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान की अपेक्षा - सात घनोदधियों में, सात घनोदधिवलयों में, अधोलोक में - पातालों में, भवनों में और भवनों के प्रस्तटों में, ऊर्ध्वलोक में-कल्पों में विमानों में, आवलिकाबद्ध विमानों में और विमानों के प्रस्तटों में, तिर्यग्लोक में कुंओं में, तालाबों में, नदियों में, द्रहों में, वापियों (बावड़ियों) में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरसरपंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, उर्झरों में, निर्झरों में, तलैयों में, पोखरों में, क्यारियों में, द्वीपों में, समुद्रों में, सभी जलाशयों में तथा जल के स्थानों में इन पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं। ये उपपात की अपेक्षा सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। प्रज्ञापना सूत्र विवेचन उपपात की अपेक्षा पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीव सर्वलोक में है क्योंकि उनके स्वस्थान घनोदधि आदि हैं वहाँ शैवाल आदि बादर निगोद-साधारण वनस्पतिकायिक जीव संभव हैं। सूक्ष्म निगोद की भवस्थिति (आयुष्य) अंतर्मुहूर्त की है अतः वे पर्याप्तक बादर निगोद में उत्पन्न होते हुए पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक के रूप में कहलाते हैं और उपपात की अपेक्षा से वे सर्वदा समस्त लोक को व्याप्त करते हैं । - ***** - समुग्धाएणं सव्वलोए पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीव समुद्घात से सर्वलोक में होते हैं। क्योंकि जब बादर निगोद, सूक्ष्म निगोद का आयुष्य बांध कर अंत में मृत्यु के समय मारणांतिक समुद्घात करके आत्मप्रदेशों को उत्पत्ति देश तक फैलाते हैं तब पर्याप्तक बादर निगोद का आयुष्य ही वर्तमान है अतः पर्याप्तक बादर निगोद ही समुद्घात अवस्था में समस्त लोक में व्याप्त होते हैं इसलिये समुद्घात से सर्व लोक में व्याप्त होते हैं, ऐसा कहा गया है। स्वस्थान से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं क्योंकि घनोदधि आदि पूर्वोक्त सभी स्थान मिल कर भी लोक का असंख्यातवां भाग ही होते हैं। कहि णं भंते! बायर वणस्सइ काइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बायर वणस्सइ काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायर वणस्स For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - बेइन्द्रिय स्थान काइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोएं, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइ भांगे ॥ ९० ॥ भावार्थ- प्रश्न- हे भगवन् ! अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीवों के स्थान कहां कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! जहाँ पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं वहीं अपर्याप्तक बादर वनस्पति कायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं । उपपात की अपेक्षा सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं । कहि णं भंते! सुहुम वणस्सइ काइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सुहुम वणस्सइ काइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे गविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोय परियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो!॥ ९१ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहां कहे गये हैं ? ***************************** १६९ उत्तर - हे गौतम! सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव जो पर्याप्तक हैं और जो अपर्याप्तक हैं वे सभी एक ही प्रकार के हैं वे अविशेष (विशेषता रहित) और अनानात्व (भेद रहित ) हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्वलोक व्यापी कहे गये हैं । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों के स्थानों का निरूपण किया गया है। बेइन्द्रिय- स्थान ***************** कहिं णं भंते! बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उड्ढलोए तदेक्क देसभागे, अहोलोए तदेक्क देसभागे, तिरियलोए अगडेसु, तलाएसु, नदीसु, दहेसु, वावसु, पुक्खरिणीसु, दीहियासु, गुंजालियासु, सरेसु, सरपंतियासु, सरसरपंतियासु, बिलेसु, बिलपंतियासु, उज्झरेसु, णिज्झरेसु, चिल्ललेसु, पल्ललेसु, वष्पिणेसु, दीवेसु, समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु, जलट्ठाणेसु, एत्थ णं बेइंदिया पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे ॥ ९२ ॥ कठिन शब्दार्थ - एक्कदेसभागे एकदेश भाग में । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक बेइन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० प्रज्ञापना सूत्र ************** - उत्तर - हे गौतम! ऊर्ध्वलोक में उसके एक देश भाग में होते हैं, अधोलोक में उसके एक देश भाग में होते हैं । तिर्यग्लोक में कुओं में, तालाबों में, नदियों में, द्रहों में, वापियों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरसर पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जल प्रवाहों में, निर्झरों में, तलैयों में, पोखरो में, वनों में, द्वीपों में, समुद्रों में, सभी जलाशयों में तथा समस्त जल स्थानों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक बेइन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गये हैं । उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं । ***** विवेचन - बेइन्द्रिय जीवों के स्वस्थान, उपपात और समुद्घात ये तीनों लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। क्योंकि बेइन्द्रिय जीव प्रतर के असंख्यातवें भागवर्ती असंख्यात श्रेणियों के प्रदेश तुल्य ही होते हैं । तिरछे लोक का पानी भवन आदि में ले जाने पर उसमें विकलेन्द्रिय जीव हो सकते हैं क्योंकि ऊपर मूल पाठ में ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के एक देश में उनका होना माना गया है। बेइन्द्रिय आदि जीवों का स्वस्थान प्रायः तिर्यक् लोक में ही है ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के विभाग में तो अल्प ही होते हैं और वह भी तिर्यक् लोक स्थित मेरु आदि पर्वतों का जो भाग ऊर्ध्व अधोलोक में गया है उसमें भी मिल सकते हैं परन्तु देवलोक की बावड़ियों में तथा ऊर्ध्व-लोक में आये हुए तमस्काय के भाग में और घनोदधि आदि में नहीं मिलते हैं। ऊर्ध्व लोक की तमस्काय में मेरु पर्वत की हद तक कोई पर्वत आदि के स्वाभाविक कारण नहीं है। बिना कारणों से वहाँ तक त्रस जीवों का उत्पन्न होना और आगे नहीं होना ऐसा नहीं बनता है। अतः तिरछा लोक की सीमा के आगे इनका सामान्य रूप से स्वस्थान नहीं होने से ऊर्ध्वलोक की तमस्काय में बेइन्द्रिय आदि सजीवों की उत्पत्ति नहीं समझी जाती है। समुद्रों का सौ योजन का हिस्सा तथा सलितावती एवं वप्रा विजय आदि का जितना-जितना भाग अधोलोक में आया हुआ है, उनमें विकलेन्द्रिय जीव होने से अधोलोक के एक देश में बताया है, किन्तु अधोलोक में आये हुए भवनपतियों के भवनों आदि में बेइन्द्रिय आदि जीव नहीं होते हैं। तेइन्द्रिय-स्थान कहि णं भंते! तेइंदियाणं पज्जत्ता - पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उड्ढलोए तदेक्क देसभाए, अहोलोए तदेक्क देसभाए, तिरियलोए अगडेसु, तलाएसु, नदीसु, दहेसु, वावसु, पुक्खरिणीसु, दीहियासु, गुंजालियासु, सरेसु, सरपंतियासु, सरसरपंतियासु, बिलेसु, बिलपंतियासु, उज्झरेसु, णिज्झरेसु, चिल्ललेसु, पल्ललेसु, वपिणे, दीवेसु, समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु, जलट्ठाणेसु, एत्थ णं तेइंदियाणं For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - चउरिन्द्रिय स्थान १७१ ****** ***** ***** ************** ********************************************* पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे॥९३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक तेइन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! ऊर्ध्वलोक में उसके एक देश भाग में होते हैं, अधोलोक में उसके एक देश भाग में होते हैं। तिर्यग्लोक में - कुओं में, तालाबों में, नदियों में, द्रहों में, वापियों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरसर पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जल प्रवाहों में, निर्झरों में, तलैयों में, पोखरों में, वप्रों में, द्वीपों में, समुद्रों में, सभी जलाशयों में तथा समस्त जल स्थानों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक तेइन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। विवेचन - अपर्याप्तक और पर्याप्तक सभी तेइन्द्रिय जीवों के स्वस्थान, उपपात और समुद्घात ये तीनों आलापक लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं। चरिन्द्रिय-स्थान कहि णं भंते! चउरिदियाणं पज्जत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! उड्डलोए तदेक्क देसभागे, अहोलोए तदेक्क देसभागे, तिरियलोए अगडेसु, तलाएस, णदीसु, दहेसु, वावीसु, पुक्खरिणीसु, दीहियासु, गुंजालियासु, सरेसु, सरपंतियासु, सरसरपंतियासु, बिलेसु, बिलपंतियासु, उज्झरेसु, णिज्झेरेसु, चिल्ललेसु, पल्ललेसु, वप्पिणेसु, दीवेसु, समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु, जलढाणेसु, एत्थ णं चउरिदियाणं पजत्तापजत्त णं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइ भागे॥९४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक चउरिन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! ऊर्ध्वलोक में उसके एक देश भाग में होते हैं, अधोलोक में उसके एक देश भाग में होते हैं। तिर्यग्लोक में - कुओं में, तालाबों में, नदियों में, द्रहों में, वापियों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरसर पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जल प्रवाहों में, निझरों में, तलैयों में, पोखरों में, वप्रों में, द्वीपों में, समुद्रों में, सभी जलाशयों में तथा समस्त जल स्थानों में पर्याप्त और अपर्याप्त चउरिन्द्रिय जीवों के स्थान कहे For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२. प्रज्ञापना सूत्र ***************** * ***************** Sak a a * ** * * * * * * * * * * * * * गये हैं। उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। विवेचन - अपर्याप्तक और पर्याप्तक सभी चउरिन्द्रिय जीवों के स्वस्थान, उपपात और समुद्घात ये तीनों आलापक लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं। पंचेन्द्रिय-स्थान कहि णं भंते! पंचिंदियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! उड्डलोए तदेक्क देसभाए, अहोलोए तदेक्क देसभाए, तिरियलोए अगडेसु, तलाएसु, णदीसु, दहेसु, वावीसु, पुक्खरिणीसु, दीहियासु, गुंजालियासु, सरेसु, सरपंतियासु, सरसरपंतियासु, बिलेसु, बिलपंतियासु, उज्झरेसु, णिज्झरेसु, चिल्ललेसु, पल्ललेसु, वप्पिणेसु, दीवेसु, समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु, जलट्ठाणेसु, एत्थ णं पंचिंदियाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे॥९५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! ऊर्ध्वलोक में उसके एक देश भाग में होते हैं, अधोलोक में उसके एक देश भाग में होते हैं। तिर्यग्लोक में - कुओं में, तालाबों में, नदियों में, द्रहों में, वापियों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरसर पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जल प्रवाहों में, निर्झरों में, तलैयों में, पोखरों में, वप्रों में, द्वीपों में, समुद्रों में, सभी जलाशयों में तथा समस्त जल स्थानों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। ..., विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में क्रमशः बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों के स्थानों का निरूपण किया गया है। यहाँ पर सामान्य रूप से पंचेन्द्रिय जीवों का कथन किया गया है। नैरयिक मनुष्य और देव तो पंचेन्द्रिय ही होते हैं। तिर्यंचों में पांच भेद होते हैं। उनमें से एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरेन्द्रिय जीवों का कथन पहले किया जा चुका है। यहाँ पर सिर्फ तिर्यंचों में पंचेन्द्रिय तिर्यंच ही लिये गये हैं। इस प्रकार इन चारों प्रकार के पंचेन्द्रिय जीवों का स्वस्थान, उपपात और समुद्घात ये तीनों आलापक लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****************************** दूसरा स्थान पद नैरयिक स्थान - - नैरयिक-स्थान कहि णं भंते! णेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! रइया परिवसंति ? गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु पुढवीसु तंजहा रयणप्पभाए, सक्करप्पभाए, वालुयप्पभाए, पंकप्पभाए, धूमप्पभाए, तमप्पभाए, तमतमप्पभाए, एत्थ णं णेरइयाणं चउरासीइ णिरयावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं । ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्प संठाणसंठिया, णिच्चंधयार तमसा, ववगयगह- चंद-सूर-णक्खत्तजोइसियप्पहा, मेद- - वसा-1 - पूयपडल-२ - रुहिर-मंस- चिक्खिल्ललित्ताणु-लेवणतला, असुई( वीसा ) परमदुब्भिगंधा काउअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा णरगा, असुभा णरगेसु, वेयणाओ, एत्थ णं णेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, एत्थ णं बहवे णेरड्या परिवसंति । काला, कालोभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता 'समणाउसो ! ? ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्वं तत्था, णिच्चं तसिया, णिच्चं उव्विग्गा, णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति ॥ ९६ ॥ कठिन शब्दार्थ - खुरप्प संठाणसंठिया क्षुरप्र संस्थान संस्थित-उस्तुरे के आकार वाले, णिच्चंधार तमसा नित्यान्धकार तमस - गाढ अंधकार से ग्रस्त, ववगय गह-चंद-सूर-णक्खत्त जोइसियप्पहा - ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित, मेद-वसा - पूयपडल- रुहिर मंस चिक्खिल्ल लित्ताणुलेवणतला - मेद, वसा ( चर्बी), मवाद के पटल, रुधिर, मांस के कीचड के लेप से लिप्त तल भाग, असुई - अशुचि (अपवित्र), वीसा - विस्रा - बीभत्स, परमदुब्भिगंधा- अत्यंत दुर्गन्धित, काउ अगणि वण्णाभा कापोताग्निवर्णाभा - कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के, कक्खडफ़ासा - कर्कश स्पर्शा-कठोर स्पर्श वाले, दुरहियासा दुरध्यास- दुःसह, कालोभासा - काली आभा वाले, गंभीरलोमहरिसा - गंभीरलोमहर्षा-गंभीर रोमांच वाले, उत्तासणगा उत्तरासनक- उत्कट त्रास जनक, परमकिण्हा - परम कृष्ण, तत्था - त्रस्त, तसिया - त्रासित, उव्विग्गा - उद्विग्न ( खेदित) । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! नैरयिक कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान की अपेक्षा सात पृथ्वियों में रहते हैं । वे इस प्रकार हैं- १. रत्नप्रभा - For Personal & Private Use Only ******************** १७३ - - Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ प्रज्ञापना सूत्र ************************************* *************************** २. शर्कराप्रभा ३. वालुकाप्रभा ४. पंकप्रभा ५. धूमप्रभा ६. तमः प्रभा ७ तमः तमः प्रभा । नैरयिकों के चौरासी लाख नरकावास होते हैं। वे नरकावास अंदर से वृत्त - गोल और बाहर चौकोर होते हैं। नीचे सेक्षुरप्र-उस्तुरे के आकार वाले हैं। प्रकाश के अभाव में सतत अंधकार वाले और ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, तारे रूप ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तल भाग मेद, वसा ( चर्बी), मवाद के पटल (समूह) रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त, अशुचि - अपवित्र, बीभत्स, विस्र-अत्यंत दुर्गन्धित कापत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के, कर्कश (कठोर) स्पर्श वाले, दुःसह और अशुभ नरक हैं। उन नरकों में अशुभ- अत्यंत दुःख रूप वेदना हैं। ऐसे नरकावासों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं । वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। इनमें बहुत से नैरयिक निवास करते आयुष्मन् श्रमणो! वे नैरयिक काले, काली आभा वाले, गंभीर रोमांच वाले, भीम ( भयानक) उत्कट त्रास जनक तथा वर्ण से अतीव काले कहे गये हैं । वे नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य (परमाधार्मिक देवों द्वारा और परस्पर) त्रास पहुँचाए हुए, सदैव उद्विग्न तथा नित्य अत्यंत अशुभ रूप और संबद्ध-निरंतर नरक भय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं। विवेचन - प्रश्न- यहाँ मूल पाठ में "णेरइय" शब्द दिया है इसकी व्युत्पत्ति और अर्थ क्या है ? उत्तर - मूल शब्द णिरय है । जिसकी व्युत्पत्ति टीकाकार ने इस प्रकार की है - " निर्गतम् अविद्यमानम् अयम् इष्टफल देयम् कर्म सातावेदनीय आदि रूपं येभ्यः ते "निरया” निर्गतम् अयम् शुभम् अस्मात इति "निरयः " निरयेशुभवाः नैरयिकाः । अर्थ - वर्तमान में जिन जीवों के इष्ट फल देने वाला सातावेदनीय आदि कर्म विद्यमान नहीं है उनको निरय (नरक) वासी कहते हैं। प्रश्न - यहाँ मूल पाठ में " णरगा" शब्द दिया है उसकी व्युत्पत्ति और अर्थ क्या है ? उत्तर - "नरान् कायन्ति शब्दयन्ति योग्यताया अनतिक्रमेणा आकारयन्ति जन्तून् स्व स्व स्थाने इति नरकाः । कै, गै, रै शब्दे इति धातोः नरान् शब्दयन्तीत्यर्थः । ' अर्थ- कै, गै, रै इन तीन धातुओं का अर्थ है, शब्द करना । सब जीवों में मनुष्य श्रेष्ठ होता है। इसलिए यहाँ नर शब्द का अर्थ नरक में जाने वाले जीव ऐसा करना चाहिए। समुदायार्थ यह हुआ कि जिन स्थानों में जाकर जीव रोते चिल्लाते हैं अथवा परमाधार्मिक देव जिनकों नाना प्रकार के कष्ट देकर रुलाते हैं शब्द करवाते हैं, उन स्थानों को नरक कहते हैं। भवनपति देवों के पच्चीस भेद हैं। उनमें दस असुरकुमार, नागकुमार आदि तथा अम्ब अम्बरिश आदि पन्द्रह परमाधार्मिक देवों के भेद हैं। ये पन्द्रह भेद असुरकुमार जाति अन्तर्गत हैं। इनकी गति के विषय में भगवती सूत्र के तीसवें शतक के दूसरे उद्देशक में इस प्रकार प्रश्नोत्तर हैं: - For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - नैरयिक स्थान १७५ ****************** *****- 09-04the te *** ********** *** *********0 9 -10-14-9- %2** केवइयं च णं पभू ! ते असुरकुमाराणं देवाणं अहे गइविसए पण्णत्ते? गोयमा! जाव अहेसत्तमाए पुढवीए तच्चं पुण पुढविं गया य गमिस्संति य। किं पत्तियण्णं भंते! असुरकुमारा देवा तच्चं पुढविं गया य गमिस्संति य? ___ गोयमा! पुव्ववेरियस्स वा वेदण उदीरणयाए पुव्वसंगइयस्स वा वेदण उवसामणयाए, एवं खलु असुरकुमारा देवा तच्चं पुढत्रिं गया च गमिस्संति य। अर्थ - हे भगवन् ! असुरकुमार देवों का नीचे कहाँ तक गति का विषय है? उत्तर - हे गौतम ! सातवीं नरक तक असुरकुमार देवों का नीचे गति का विषय (शक्ति) है किन्तु तीसरी नरक तक गये हैं, जाते हैं और जायेंगे। प्रश्न - हे भगवन् ! वे तीसरी नरक तक क्यों जाते हैं ? उत्तर - हे गौतम! अपने पूर्वभव के वैरी नैरयिक जीव को दुःख देने के लिये और पूर्व भव के मित्र नैरयिक जीव को सुख उपजाने के लिए तीसरी नरक तक भूतकाल में गये हैं, वर्तमान में जाते हैं और भविष्यत्काल में भी जायेंगे। यही बात वाचकमुख्य उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ सूत्र के तीसरे अध्याय में कहीं है। यथा - परस्परोदीरितदुःखाः॥५॥ संक्लिष्टासुरोददीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः॥५॥ अर्थ - पहली नरक से लेकर सातवीं नरक तक के नैरयिक परस्पर लड़ कर झगड़ कर एक दूसरे को दुःख पहुँचाते हैं। अशुभ विचार वाले परमाधार्मिक देव चौथी नरक से पहले अर्थात् तीसरी नरक तक जाकर नैरयिक जीवों को कष्ट पहुँचाते हैं। उपरोक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि परमाधार्मिक देव तीसरी नरक तक ही जाते हैं। इससे आगे नहीं जाते। नोट - कुछ लोग नरक शब्द का अर्थ इस प्रकार कर देते हैं - - "न+अर्क" अर्थात् जहाँ सूर्य नहीं हैं उसको 'नर्क' कहते हैं। परन्तु यह अर्थ एकदम गलत है क्योंकि प्रथम तो यह बात है कि शब्द 'नर्क' नहीं है किन्तु 'नरक' है। दूसरी बात यह है कि ऊपर और नीचे दोनों तरफ मिलाकर सूर्य का प्रकाश उन्नीस सौ योजन ही तिरछा लोक में पड़ता है। ऊर्ध्वलोक में अर्थात् देवलोकों में सूर्य का प्रकाश नहीं पड़ता है परन्तु उनको 'नर्क' नहीं कहा जा सकता अतः ऊपर जो नरक का अर्थ दिया है वह यथार्थ है। . कहि णं भंते! रयणप्पभा पुढवी जेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! रयणप्पभा पुढवी जेरइया परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर-जोयण सयसहस्स बाहल्लाए उवरि एगं जोयण सहस्समोगाहित्ता For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ प्रज्ञापना सूत्र * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * ************ ************** हेट्ठा चेगं जोयण-सहस्सं वजित्ता मज्झे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं रयणप्पभा पुढवी जेरइयाणं तीसं णिरयावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्य संठाणसंठिया, णिच्चंधयार तमसा ववगय-गहचंद-सूर-णक्खत्त जोइसप्पहा, मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला, असुई (वीसा) परमदुब्भिगंधा, काऊअगणिवण्णाभा, कक्खडफासा, दुरहियासा, असुभा णरगा, असुभा णरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं रयणप्पभा पुढवी णेरइयाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता, उव्वाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्याएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे। तत्थ णं बहवे रयणप्पभा पुढवी रइया परिवसंति। काला, कालोभासा, गंभीर लोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो!। ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्चं तत्था, णिच्चं तसिया, णिच्चं उद्विग्गा, णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरग भयं पच्चणुभवमाणा विहरंति॥९७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक रत्नप्रभा नामक पहली पृथ्वी (नरक) के नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! इस एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई वाली रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन (प्रवेश) करने पर तथा नीचे एक हजार योजन छोड़ कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरक अंदर से गोल, बाहर से चौकोण और नीचे से क्षुरप्र-उस्तरे के आकार वाले हैं। वे प्रकाश के अभाव में सतत अंधकार वाले, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग में मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड के लेप से लिप्त अशुचि अपवित्र, बीभत्स अत्यंत दुर्गन्धित कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के तथा कर्कश (कठोर) स्पर्शवाले, दुःसह और अशुभ नरक हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। इनमें रत्नप्रभा पृथ्वी के पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समदघात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में है। वहाँ रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुत से नैरयिक निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे काले, काली आभा वाले, गंभीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयंकर), उत्कट त्रासजनक और अतीव काले वर्ण के कहे गये हैं। वे नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य (परमाधार्मिक देवों द्वारा और परस्पर) त्रास पहुँचाए For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - नैरयिक स्थान १७७ ***************** *** ** *********** ********** * ***--*-*-*-*-************************** हुए, सदैव उद्विग्न तथा नित्य अत्यंत अशुभ रूप और संबद्ध-निरंतर नरक भय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं। कहि णं भंते! सक्करप्पभा पुढवी जेरइयाणं पजत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! सक्करप्पभा पुढवी णेरइया परिवसंति? गोयमा! सक्करप्पभा पुढवीए बत्तीसुत्तर-जोयण सयसहस्स बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयण-सहस्सं वज्जित्ता मज्झे तीसत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं सक्करप्पभा पुढवी । णेरइयाणं पणवीसं णिरयावास सयसहस्सा हवंतीति मक्खायं। ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, णिच्चंधयारतमसा, ववगय-गह-चंदसूर-णक्खत्त-जोइसियप्पहा, मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला, असुई वीसा, परमदुब्भिगंधा, काउअगणिवण्णाभा, कक्खडफासा, दुरहियासा, असुभा णरगा, असुभा णरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं सक्करप्पभा पुढवी णेरइयाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखिजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखिजइभागे। तत्थ णं बहवे सक्करप्पभा पुढवी जेरइया परिवसंति। काला, कालोभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो!। ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्चं तत्था, णिच्चं तसिया, णिच्चं उव्विग्गा, णिच्चं परममसुह-संबद्ध णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति॥९८॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक शर्कराप्रभा नामक दूसरी पृथ्वी (नरक) के नैरयिकों के स्थान कहां कहे गये हैं ? हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहां निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! एक लाख बत्तीस हजार योजन मोटी शर्कराप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करने पर तथा नीचे भी एक हजार योजन छोड़ कर शेष एक लाख तीस हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में शर्कराप्रभा पृथ्वी के पच्चीस लाख नरकावास हैं। ऐसा कहा गया है। वे नरक अंदर से गोल, बाहर से चौकोण और नीचे से क्षुरप्र-उस्तुरे के आकार वाले हैं। वे प्रकाश के अभाव में सतत अंधकार वाले, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग में मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड के लेप से लिप्त, अशुचि अपवित्र, बीभत्स अत्यंत दुर्गन्धित, कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के, कर्कश (कठोर) स्पर्शवाले, दुःसह और अशुभ नरक हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। इनमें शर्कराप्रभा पृथ्वी के पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ प्रज्ञापना सूत्र ********* ******************* के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ शर्कराप्रभा पृथ्वी के बहुत से नैरयिक निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! वे काले, काली आभा वाले, गंभीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयंकर), उत्कट त्रासजनक और अतीव काले वर्ण के कहे गये हैं। वे नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य (परमाधार्मिक देवों द्वारा और परस्पर) त्रास पहुँचाए हुए, सदैव उद्विग्न तथा नित्य अत्यंत अशुभ रूप और संबद्ध-निरंतर नरक भय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं। कहि णं भंते! वालुयप्पभा पुढवी णेरइयाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! वालुयप्पभा पुढवी णेरड्या परिवसंति? गोयमा! वालुयप्पभा. पुढवीए अट्ठावीसुत्तरजोयण सयसहस्स-बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मझे छव्वीसुत्तरजोयण सयसहस्से एत्थ णं वालुयप्पभा पुढवी जेरइयाणं पण्णरस गरयावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, णिच्चंधयार तमसा, ववगय गहचंद-सूर-णक्खत्तजोइसियप्पहा, मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ल-लित्ताणुलेवणतला, असुई वीसा परमदुब्भिगंधा, काउअगणिवण्णाभा, कक्खडफासा, दुरहियासा, असुभा णरगा, असुभा णरगेसु वेयणाओ। एत्थ णं वालुयप्पभा पुढवी णेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइ भागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे, सहाणेणं लोयस्स असंखिजइ भागे। तत्थ णं बहवे वालुयप्पभा पुढवी जेरइया परिवसंति। काला, कालोभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो!। ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्चं तत्था, णिच्चं तसिया, णिच्चं उव्विग्गा, णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरग भयं पच्चणुभवमाणा विहरंति॥९९॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वालुकाप्रभा नामक तीसरी (नरक) पृथ्वी के नैरयिकों के स्थान कहां कहे गये हैं ? हे भगवन् ! वालुकाप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहां निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! वालुकाप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अट्ठाईस हजार योजन है उसमें ऊपर के एक हजार योजन अवगाहन (अंदर प्रवेश) कर और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर शेष एक लाख छब्बीस हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में वालुकाप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के पन्द्रह लाख For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - नैरयिक स्थान : १७९ ********* ************ ******** **** * **40 *** * ***** नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरक अंदर से गोल, बाहर से चौकोण और नीचे से क्षुरप्र-उस्तुरे के आकार वाले हैं। वे प्रकाश के अभाव में निरन्तर अंधकार वाले, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड के लेप से लिप्त अशुचि अपवित्र, बीभत्स अत्यंत दुर्गन्धित, कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के, कर्कश (कठोर) स्पर्शवाले, दुःसह और अशुभ नरक हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। इनमें वालुकाप्रभा पृथ्वी के पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में है। वहाँ वालुकाप्रभा पृथ्वी के बहुत से नैरयिक निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! वे काले, काली आभा वाले, गंभीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयंकर), उत्कट त्रासजनक और अतीव काले वर्ण के कहे गये हैं। वे नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य (परमाधार्मिक देवों द्वारा और परस्पर) त्रास पहुँचाए हुए. सदैव उद्विग्न तथा नित्य अत्यंत अशुभ रूप और संबद्ध-निरंतर नरक भय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं। कहि णं भंते! पंकष्पभा पुढवी जेरइयाणं पज्जत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! पंकप्पभा पुढवी जेरइया परिवसंति? गोयमा! पंकप्पभा पुढवीए वीसुत्तर जोयण सयसहस्स-बाहल्लाए उर्वरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अट्ठारसुत्तरें जोयणसयसहस्से, एत्थ णं पंकप्पभा पुढवी णेरइयाणं दस णिरयावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, णिच्चंधयार तमसा, ववगय गह-चंद-सूरणक्खत्तजोइसियप्पहा, मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ल-लित्ताणुलेवणतला, असुई वीसा परमदुब्भिगंधा, काउअगणिवण्णाभा, कक्खडफासा, दुरहियासा, असुभा । णरगा, असुभा णरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं पंकप्पभा पुढवी जेरइयाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखिजइ भागे, समुग्घाएणं. लोयस्स असंखिज्जइ भागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखिज्जइ भागे। तत्थ णं बहवे पंकप्पभा पुढवी णेरइया परिवति। काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो!। ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्चं तत्था, णिच्चं तसिया, णिच्चं उव्विग्गा, णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति॥१०॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंकप्रभा नामक चौथी पृथ्वी (नरक) के नैरयिकों के स्थान कहां कहे गये हैं ? हे भगवन् ! पंकप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहां रहते हैं? For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० प्रज्ञापना सूत्र उत्तर - हे गौतम! पंकप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख बीस हजार योजन है। उसमें ऊपर के भाग से एक हजार योजन प्रवेश कर नीचे एक हजार योजन छोड़ कर शेष एक लाख अठारह हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में पंकप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के दस लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरक अंदर से गोल, बाहर से चौकोण और नीचे से क्षुरप्र-उस्तुरे के आकार वाले हैं। वे प्रकाश के अभाव में निरन्तर अंधकार वाले, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र तारे आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड के लेप से लिप्त, अशुचि अपवित्र, बीभत्स अत्यंत दुर्गन्धित, कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के कर्कश (कठोर) स्पर्शवाले, दुःसह और अशुभ नरक हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। इनमें पंकप्रभा पृथ्वी के पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं । वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ पंकप्रभा पृथ्वी के बहुत से नैरयिक निवास करते हैं । हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे काले, काली आभा वाले, गंभीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयंकर), उत्कट त्रासजनक और अतीव काले वर्ण के कहे गये. हैं। वे नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य परस्पर एक दूसरे को त्रास पहुँचाए हुए, सदैव उद्विग्न तथा नित्य अत्यंत अशुभ रूप और संबद्ध-निरंतर नरक भय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं । कहि णं भंते! धूमप्पभा पुढवी णेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहिणं भंते! धूमप्पभा पुढवी णेरड्या परिवसंति ? गोयमा ! धूमप्पभा पुढवीए अट्ठारसुत्तर जोयण सयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्झे सोलसुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्ध णं धूमप्पभा पुढवी णेरइयाणं तिणि णिरयावास - सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं । ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, णिच्चंधयार तमसा, ववगय गह-चंद-सूरणक्खत्तजोइसियप्पहा, मेद - वसा - पूयपडल- रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणु लेवणतला, असुई वीसा, परमदुब्भिगंधा, काउअगणिवण्णाभा, कक्खडफासा, दुरहियासा, असुभा णरगा, असुभा णरगेसु, वेयणाओ, एत्थ णं धूमप्पभा पुढवी णेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखिज्जइभागे । तत्थ णं बहवे तमप्पभापुढवीणेरड्या परिवसंति । काला कालोभासा, गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो ! । ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्चं तत्था, 1 ***** For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - नैरयिक स्थान ** ******************** ******* ****** ****...............१८१ * **************** **** *** * णिच्चं तसिया, णिच्चं उव्विग्गा, णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति॥१०१॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक धूमप्रभा नामक पांचवीं पृथ्वी (नरक) के नैरयिकों के स्थान कहां कहे गये हैं ? हे भगवन् ! धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहां रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! धूमप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन है उसमें ऊपर के भाग से एक हजार योजन प्रवेश कर और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर शेष एक लाख सोलह हजार प्रमाण मध्य भाग में धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के तीन लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरक अंदर से गोल, बाहर से चौकोण और नीचे ले क्षुरप्र-उस्तुरे के आकार वाले हैं। वे प्रकाश के अभाव में निरन्तर अंधकार वाले, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग में मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड के लेप से लिप्त, अशुचि अपवित्र, बीभत्स अत्यंत दुर्गधित, कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के, कर्कश (कठोर) स्पर्शवाले, दुःसह और अशुभ नरक हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। इनमें धूमप्रभा पृथ्वी के पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में समदघात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में है। वहाँ धूमप्रभा पृथ्वी के बहुत से नैरयिक निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! वे काले, काली आभा वाले, गंभीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयंकर), उत्कट त्रासजनक और अतीव काले वर्ण के कहे गये हैं। वे नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य परस्पर एक दूसरे को त्रास पहुँचाए हुए, सदैव उद्विग्न तथा नित्य अत्यंत अशुभ रूप और संबद्ध-निरंतर नरक भय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं। कहि. णं भंते! तमप्पभा पुढवी जेरइयाणं पजत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! तमप्पभा पुढवी णेरइया परिवसंति?, गोयमा! तमप्पभाए पुढवीए सोलसुत्तर जोयण सयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं ज़ोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठा, चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे चउदसुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं तमप्पभा पुढवी णेरइयाणं एगे पंचूणे णरगावास सयसहस्से भवंतीति मक्खायं। ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, णिच्चंधयार तमसा ववगय गह-चंदसूर-णक्खत्तजोइसियप्पहा, मेद-वसा-पूयपटल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ल लित्ताणुलेवणतला, असुईवीसा, परमदुब्भिगंधा, कक्खडफासा, दुरहियासा, असुभा णरगा, असुभा णरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं तमप्पभा पुढवी रइयाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइ भागे, समुग्घाएणं For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ प्रज्ञापना सूत्र लोयस्स असंखिज्जइ भागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखिज्जइ भागे । तत्थ णं बहवे तमप्पभा पुढवी णेरड्या परिवसंति । काला कालोभासा गंभीर लोम हरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो ! । ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्चं तत्था, णिच्चं तसिया, णिच्चं उव्विग्गा, णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति ॥ १०२ ॥ ************************ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक तमः प्रभा नामक छठी पृथ्वी (नरक) के नैरयिकों के स्थान कहां कहे गये हैं ? हे भगवन् ! तमः प्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहां रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! तमः प्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन हैं उसमें ऊपर के भाग से एक हजार योजन प्रवेश कर और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर शेष एक लाख चौदह हजार प्रमाण मध्य भाग में तमः प्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के पांच कम एक लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरक अंदर से गोल, बाहर से चौकोण और नीचे से क्षुरप्र-उस्तुरे के आकार वाले हैं। वे प्रकाश के अभाव में निरन्तर अंधकार वाले, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड के लेप से लिप्त, अशुचि अपवित्र, बीभत्स, कर्कश (कठोर) स्पर्शवाले, दुःसह और अशुभ नरक हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। इनमें तम:प्रभा पृथ्वी के पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में है । वहाँ तमः प्रभा पृथ्वी के बहुत से नैरयिक निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे काले, काली आभा वाले, गंभीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयंकर), उत्कट त्रासजनक और अतीव काले वर्ण के कहे गये हैं। वे नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य परस्पर एक दूसरे को त्रास पहुँचाए हुए, सदैव उद्विग्न तथा नित्य अत्यंत अशुभ रूप और संबद्ध - निरंतर नरक भय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं । कहि णं भंते! तमतमप्पभा पुढवी णेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! तमतमप्पभापुढवीणेरड्या परिवसंति ? गोयमा ! तमतमप्पभाए पुढवीए अट्ठोत्तर- जोयण सयसहसस्सबाहल्लाए उवरि अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता हिट्ठा, वि अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साइं वज्जित्ता मज्झे तीसु जोयणसहस्सेसु एत्थ णं तमतमप्पभा पुढवी णेरड्याणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं पंचदिसिं पंच अणुत्तरा महइमहालया महाणिरया पण्णत्ता । तंजहा - काले महाकाले रोरुए महारोरुए अपइट्ठाणे । ते णं रगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, णिच्चंधयार - तमसा, For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - नैरयिक स्थान .... १८३ *************************** *********************** ********* ववगय-गहचंद-सूर-णक्खत्तजोइसियप्पहा, मेद-वसा-पूयपडल-रुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला, असुई वीसा परमदुब्भिगंधा, कक्खडफासा, दुरहियासा, असुभा णरगा, असुभा णरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं तमतमप्यभा पुढवी जेरइयाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइ भागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखिज्जइ भागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखिजइ भागे। तत्थ णं बहवे तमतमप्पभा पुढवी जेरइया परिवसंति। काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो! ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्चं तत्था, णिच्चं तसिया, णिच्चं उव्विग्गा, णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति। आसीयं बत्तीसं अट्ठावीसं च हंति वीसं च। अट्ठारस सोलसगं अटुत्तरमेव हिटिमिया॥१॥ अद्भुत्तरं च तीसं छव्वीसं चेव सयसहस्सं तु। अट्ठारस सोलसगं चउद्दसमहियं तु छट्ठीए॥२॥ अद्धतिवण्णसहस्सा उवरिमहे वजिऊण तो भणियं। मझे तिसहस्सेसं होंति उणरगा तमतमाए॥३॥ तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसेव सयसहस्साइं। तिण्णि य पंचूणेगं पंचेव अणुत्तरा णरगा॥४॥१०३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक तमःतमःप्रभा नामक सातवीं पृथ्वी (नरक) के नैरयिकों के स्थान कहां कहे गये हैं? हे भगवन । तमःतमःप्रभा पथ्वी के नैरयिक कहां रहते हैं उत्तर - हे गौतम! एक लाख आठ हजार योजन मोटाई वाली तम:तमःप्रभा पृथ्वी के ऊपर से साढ़े बावन हजार योजन अवगाहन (प्रवेश) कर और नीचे भी साढ़े बावन हजार योजन छोड़ कर शेष मध्य के तीन हजार योजन में तम:तमःप्रभा पृथ्वी के पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों के पांच दिशाओं में पांच अनुत्तर ऐसे बड़े बड़े महा नरकावास कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. काल २. महाकाल ३. रौरव ४. महारौरव और ५. अप्रतिष्ठान। वे नरक अंदर से गोल, बाहर से चौकोण और नीचे से क्षुरप्र-उस्तुरे के आकार वाले हैं। वे प्रकाश के अभाव में निरन्तर अंधकार वाले, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड के लेप से लिप्त अशुचि अपवित्र, बीभत्स अत्यंत दुर्गन्धित, कर्कश For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ प्रज्ञापना सूत्र *************** *********************************** *************** ****** (कठोर) स्पर्शवाले, दुःसह और अशुभ नरक हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। इनमें तमस्तमप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुदघात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में है। वहाँ तमस्तमप्रभा पृथ्वी के बहुत से नैरयिक निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! वे काले, काली आभा वाले, गंभीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयंकर), उत्कट त्रासजनक और अतीव काले वर्ण के कहे गये हैं। वे नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य परस्पर एक दूसरे को त्रास पहुँचाए हुए, सदैव उद्विग्न तथा नित्य अत्यंत अशुभ रूप और संबद्ध-निरंतर नरक भय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं। अब सातों पथ्वियों की मोटाई (जाडाई) तथा नरकावासों की संख्या जो गाथाओं में बताई गयी है वे इस प्रकार है - एक लाख अस्सी हजार, एक लाख बत्तीस हजार, एक लाख अठाईस हजार, एक लाख बीस हजार, एक लाख अठारह हजार, एक लाख सोलह हजार और एक लाख आठ हजार योजन क्रमशः सातों नरक पृथ्वियों की मोटाई है॥१॥ एक लाख अठहत्तर हजार, एक लाख तीस हजार, एक लाख छब्बीस हजार, एक लाख अठारह हजार, एक लाख सोलह हजार और छठी पृथ्वी के एक लाख चौदह हजार योजन में तथा सातवीं पृथ्वी के ऊपर नीचे साढ़े बावन साढ़े बावन हजार योजन छोड़ कर शेष तीन हजार योजन में नरकावास हैं।। २॥ तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पांच कम एक लाख और अनुत्तर (दुःखों की अत्यन्त तीव्रता की अपेक्षा) पांच नरकावास क्रमश: जानना चाहिए॥३॥ विवेचन - प्रश्न - नरक किसे कहते हैं? उत्तर - घोर पापाचरण करने वाले जीव अपने पापों को भोगने के लिये अधोलोक में जिन स्थानों में पैदा होते हैं उन्हें नरक कहते हैं। अथवा मनुष्य और तिर्यंच जहां अपने पापों के अनुसार भयंकर कष्ट उठाते हैं उन अधोलोक स्थित स्थानों को नरक कहते हैं। ' प्रश्न - सात नारकी के नाम और गोत्र कौन से हैं? उत्तर - १. घम्मा २. वंसा ३. सीला ४. अञ्जना ५. रिट्ठा (अरिष्ठा) ६. मघा और ७. माघवई (माघवती), ये सात नरकों के नाम हैं और १. रत्नप्रभा २. शर्कराप्रभा ३. बालुकाप्रभा ४. पंकप्रभा ५. धूमप्रभा ६. तमःप्रभा और ७. तमस्तमाप्रभा (महातमः प्रभा) ये सात नरकों के गोत्र हैं। प्रश्न - रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि नाम किस कारण से दिये गये हैं ? उत्तर - पहली नरक में रत्नकाण्ड है जिससे वहां रत्नों की प्रभा पड़ती है, इसलिए उसे रत्नप्रभा For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - नैरयिक स्थान १८५ ******** ******************************************40*2402020-244********** ************** कहते हैं। दूसरी नरक में शर्करा अर्थात् तीखे पत्थरों के टुकड़ों की अधिकता है इसलिए उसे शर्कराप्रभा कहते हैं। तीसरी नरक में बालुका अर्थात् बालू रेत अधिक है। वह भडभुंजा की भाड से अनन्तगुणा अधिक तपती है इसलिए उसे बालुकाप्रभा कहते हैं। चौथी नरक में रक्त मांस के कीचड़ की अधिकता है इसलिए उसे पङ्कप्रभा कहते हैं। पांचवीं नरक में धूम (धुंआ) अधिक है। वह सोमिल खार से भी अनन्त गुणा अधिक खारा है इसलिए उसे धूमप्रभा कहते हैं। छठी नरक में तमः (अंधकार) की अधिकता है, इसलिए उसे तमःप्रभा कहते हैं। सातवीं नरक में महातमस् अर्थात् गाढ़ अन्धकार है इसलिए उसे महातम:प्रभा कहते हैं। इसको तमस्तमःप्रभा भी कहते हैं जिसका अर्थ है जहां घोर अंधकार ही अन्धकार है। प्रश्न - सात नरकों में कितने नरकावास हैं ? उत्तर - पहली नारकी में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पांचवीं में तीन लाख, छठी में पांच कम एक लाख और सातवीं में पांच नरकावास है। सातवीं के पांच नरकावासों के नाम इस प्रकार हैं - १. पूर्व दिशा में काल २. दक्षिण दिशा में महाकाल ३. पश्चिम दिशा में रोसक (रौरव) ४. उत्तर दिशा में महारोसक (महारौरव) ५. इन चारों के बीच में अप्रतिष्ठान। कुल मिला कर चौरासी लाख नरकावास हैं।। प्रश्न - सात नरकों का बाहल्य (मोटाई) कितना है ? उत्तर - रत्नप्रभा का बाहल्य (मोटाई) एक लाख अस्सी हज़ार योजन का है। शर्कराप्रभा का एक लाख बत्तीस हजार, बालुकाप्रभा का एक लाख अट्ठाईस हजार, पङ्कप्रभा का एक लाख बीस हजार, धूमप्रभा का एक लाख अठारह हजार, तमःप्रभा का एक लाख सोलह हजार, महातमः प्रभा का एक लाख आठ हजार योजन का बाहल्य है। प्रश्न - नैरयिक जीवों का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श कैसा होता है ? उत्तर - वर्ण - नैरयिक जीव भयंकर रूप वाले होते हैं। अत्यंत काले, काली प्रभा वाले तथा भय . से उत्कट रोमाञ्च वाले होते हैं। प्रत्येक नैरयिक जीव का रूप एक दूसरे को भय उत्पन्न करता है। गन्ध - सांप, गाय, घोड़ा, भैंस आदि के सड़े हुए मृत शरीर से भी कई गुणा अधिक दुर्गन्ध नैरयिक जीवों के शरीर से निकलती है उनमें कोई चीज रमणीय और प्रिय नहीं होती। स्पर्श- तलवार की धार, उस्तुरे की धार, कदम्ब चीरिका (एक तरह का घास जो डाभ से भी बहुत तीखा होता है) शक्ति, सूइयों का समूह, बिच्छू का डंक, कपिकच्छू (खाज पैदा करने वाली बेल), अंगार, ज्वाला, छाणों की आग, आदि से भी अधिक कष्ट देने वाला नरक भूमि का स्पर्श होता है। प्रश्न - घनोदधि किसको कहते हैं ? उत्तर - बर्फ की तरह जमे हुए ठोस पानी को घनोदधि कहते हैं। वह सातों नरकों में प्रत्येक नरक के नीचे बीस-बीस हजार योजन का मोटा है। For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ प्रज्ञापना सूत्र ** *************** ******************************* * ************************** प्रश्न .. घनोदधि वलय किसको कहते हैं ? उत्तर - सातों पृथ्वियों की जितनी मोटाई (जाड़ाई) है उसके चौ तरफ थाली की किनारी की तरह घनोदधि आया हुआ है। उसका आकार वलय (चूड़ी) जैसा होने से उसे (घनोदधि वलय कहते हैं अर्थात् सातों पृथ्वियों के नीचे तो घनोदधि है और चारों तरफ धनोदधि वलय है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक स्थान कहि णं भंते! पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पज्जत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! उड्डलोए तदेक्क देसभाए, अहोलोए तदेक्क देसभाए, तिरियलोए अगडेसु, तलाएसु, णईसु (णदीसु), दहेसु, वावीसु, पुक्खरिणीसु दीहियासु, गुंजालियासु, सरेसु, सरपंतियासु, सरसरपंतियासु, बिलेसु, बिलपंतियासु, उज्झरेसु, णिज्झरेसु, चिल्ललेस, पल्ललेसु, वप्पिणेसु, दीवेसु, समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु, जलट्ठाणेसु, एत्थ णं पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखिज्जइभागे॥१०४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के स्थान कहां कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! ऊर्ध्वलोक में उसके एक देश भाग में, अधोलोक में उसके एक देश भाग में, तिर्यग्लोक में कुओ में, तालाबों में, नदियों में, वापियों में, द्रहों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर-सर पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जल स्रोतों में, झरनों में, छोटे गड्ढों में, पोखरों में, क्यारियों में अथवा खेतों में. द्वीपों में, समुद्रों में तथा सभी जलाशयों में एवं जल के स्थानों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। विवेचन - तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के स्थान ऊर्ध्व लोक के एक देश में अर्थात् मेरुपर्वत आदि की बावडियों में मत्स्य आदि होते हैं और अधोलोक के एक देश में अर्थात् अधोलौकिक ग्रामादि में होते हैं। अधोलोक में सलिलावती विजय और वप्रा विजय आदि की अपेक्षा समझना चाहिए। इनके स्वस्थान उपपात और समुद्घात इन तीनों आलापकों में लोक का असंख्यातवाँ भाग कहा गया है। जिस प्रकार जघन्य और मध्यम अवगाहना वाले असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय पानी, मिट्टी आदि योनि For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पदं मनुष्य स्थान - प्रायोग्य द्रव्यों का सहयोग पा कर उत्पन्न हो जाते हैं वैसे ही उत्कृष्ट अवगाहना वाले असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय भी पानी, मिट्टी आदि उत्पत्ति के प्रायोग्य योनि को प्राप्त करके उत्पन्न हो सकते हैं। अकर्म भूमि और अन्तरद्वीपों में स्थलचर और खेचर तो युगलिक तिर्यंच हो सकते हैं बाकी जलचर, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प तिर्यंच होते तो है किन्तु वे युगलिक नहीं होते हैं । उत्कृष्ट (एक हजार योजन की ) अवगाहना वाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय अढ़ाई द्वीप में नहीं होते किन्तु अढ़ाई द्वीप के बाहर ही होते हैं। इसी तरह उत्कृष्ट अवगाहना वाले असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय) भी अढ़ाई द्वीप के बाहर ही होते हैं, ऐसी संभावना है। १८७ મનુષ્ય-સ્થાન कहि णं भंते! मणुस्साणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अंतो मणुस्खेत्ते पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु, अड्डाइज्जेसु, दीवसमुद्देसु, पण्णरससु कम्मभूमीसु, तीसाए अकम्मभूमीसु, छप्पण्णाए अंतरदीवेसु, एत्थ णं मणुस्साणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखिज्जइभागे ॥ १०५ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक मनुष्यों के स्थान कहां कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! पैंतालीस लाख योजन प्रमाण मनुष्य क्षेत्र के अंदर ढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों में और छप्पन अंतरद्वीपों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक मनुष्यों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक और अपर्याप्तक मनुष्यों के स्थानों का निरूपण किया गया है। समुद्घात की अपेक्षा मनुष्य सर्वलोक में होते हैं यह कथन केवलिसमुद्घात की अपेक्षा समझना चाहिये । जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और पुष्करवरद्वीप का आधा भाग यह अढ़ाई द्वीप हैं। लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र ये दो समुद्र लिये गये हैं। पुष्करवरद्वीप सोलह लाख योजन का लम्बा चौड़ा है। इसके ठीक बीचोबीच में अर्थात् कालोदधि समुद्र की वेदिका से आठ हजार योजन आगे जाने पर मानुषोत्तर पर्वत है। उस पर्वत की अपेक्षा पुष्करवरद्वीप के दो भाग गये हैं। उसमें प्रथम भाग में मनुष्य हैं। यह पर्वत मनुष्यों की मर्यादा करता है। इसीलिये इन पर्वत का नाम मानुष्योत्तर पर्वत है । यहीं तक मनुष्यों का जन्म और मरण होता है। इसके आगे मनुष्यों का जन्म मरण नहीं होता । For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ************** प्रज्ञापना सूत्र लवण समुद्र में छप्पन अन्तरद्वीप हैं उनमें युगलिक मनुष्य रहते हैं। इस अपेक्षा से समुद्र में भी मनुष्यों का निवास माना गया है। प्रश्न- क्या सभी केवलीज्ञानी केवली समुद्घात करते हैं ? उत्तर - नहीं। सभी केवलज्ञानी केवल समुद्घात नहीं करते किन्तु जिन केवलज्ञानी भगवन्तों के नाम गोत्र और वेदनीय ये तीन कर्म अधिक रह जाते हैं और आयुष्य कर्म कम रह जाता है। तब इन तीन कर्मों को आयुष्य कर्म के बराबर करने के लिए केवली भगवान् केवली समुद्घात करते हैं । जिस मुनिराज का आयुष्य सिर्फ कुछ न्यून छह महिना बाकी रह जाता है उस समय उन्हें केवलज्ञान होवे, उन केवलज्ञानी मुनिराजों में से कोई कोई केवली केवली समुद्घात करते हैं, सभी नहीं । इसलिए केवली समुद्घात करके सिद्ध होने वाले सिद्धों से केवली समुद्घात किये बिना सिद्ध होने वाले सिद्ध बहुत ज्यादा अधिक हैं। प्रश्न- केवली समुद्घात में कितना समय लगता है ? उत्तर - केवली समुद्घात में आठ समय लगते हैं । पहले समय में केवली भगवान् अपने शरीर प्रमाण चौदह राजु तक अपने शरीर की लम्बाई रूप दण्ड करते हैं, दूसरे समय में कपाट, तीसरे समय में मन्थान (मथानी) करके चौथे समय में बीच के अन्तरालों को पूरित कर चौथे समय में आत्म प्रदेशों को सम्पूर्ण लोक परिमाण कर देते हैं । अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और एक जीव के भी. लोकाकाश जितने ही असंख्यात प्रदेश हैं इसलिये एक एक लोकाकाश प्रदेश पर एक एक आत्म प्रदेश फैला देता है। इसी अपेक्षा मनुष्य का समुद्घात सर्व लोक प्रमाण कहा है। जिस प्रकार आत्म-प्रदेशों को फैलाया है उसके उल्टे क्रम से आत्म-प्रदेशों को संकुचित कर लेता है । अर्थात् पांचवें समय में अन्तराल के आत्म प्रदेशों को, छठे समय में मन्थान को, सातवें समय में कपाट को और आठवें समय में दण्ड को संकुचित कर के स्वशरीरस्थ हो जाता है। नवमें समय में पूर्ववत् (शरीरस्थ) अवस्था हो जाती है। प्रश्न - क्या केवली भगवान् केवली समुद्घात करते हैं? या हो जाता है ? उत्तर छद्मस्थ का कोई भी कार्य असंख्यात के समय रूप अन्तरमुहूर्त से पहले नहीं होता किन्तु केवली भगवान् इन आठ समयों में केवली समुद्धात कर लेते हैं। क्योंकि मूल पाठ में "करेइ" शब्द दिया है। इसलिए केवली भगवान् केवली समुद्घात करते हैं, अपने आप नहीं होता है। प्रश्न- क्या केवली समुद्घात करने से केवली भगवान् को कोई कष्ट होता है ? उत्तर - नहीं, केवली समुद्घात करने से केवली भगवान् को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता है। - *************************** For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान १८९ ********************************************************************************* **** भवनवासी देवस्थान कहि णं भंते! भवणवासीणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! भवणवासी देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर जोयण सयसहस्स बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्झे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ बावत्तरि भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, अहे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिया, उक्किण्णंतर-विउल गंभीर खायफलिहा, पागारट्टालय कवाड तोरण पडिदुवार देसभागा, जंत-सयग्घि-मुसल-मुसंढि-परियारिया, अउज्झा, सयाजया, सयागुत्ता, अडयालकोट्ठग रइया, अडयाल कयवणमाला, खेमा, सिवा, किंकरामर दंडोवरक्खिया, लाउल्लोइयमहिया, गोसीस सरस रत्तचंदण दद्दर दिण्ण पंचंगुलितला, उवचिय चंदण कलसा, चंदण घड-सुकय तोरण पडिदुवार देसभागा, आसत्तोसत्त विउल वट्टवग्धारिय मल्लदामकलावा, पंचवण्ण सरस सुरभि मुक्त पुष्फ पुंजोवयार कलिया, कालागरु पवर कुंदुरुक्क तुरुक्क धूव मघमघंत गंधुद्धयाभिरामा, सुगंधवरगंधिया, गंधवट्टिभूया, अच्छरगण संघ संविगिण्णा, दिव्व तुडिय सद्द संपणइया, सव्व रयणामया, अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्ठा, मट्ठा, णीरया, णिम्मला, णिप्पंका, णिकंकडच्छाया, सप्पहा, सस्सिरीया, समरीइया, सउज्जोया, पासाईया, दरिसणिजा, अभिरूवा, पडिरूवा। एत्थ णं भवणवासिदेवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखिजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखिजइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखिजइभागे। तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवसंति। तंजहा - असुरा णाग सुवण्णा विज्जू अग्गी य दीव उदही य। दिसि पवण थणिय णामा दसहा एए भवणवासी॥ चूडामणि मउड रयणाभूसण णाग फड गरुल वइरपुण्णकलसंकि उप्फेसा, सीह-हयवर-गयंक मगर वर वद्धमाण णिज्जुत्त चित्तचिंधगया, सुरूवा, महिड्डिया, पी . For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० प्रज्ञापना सूत्र महज्जुइया, महब्बला, महायसा, महाणुभावा, महासोक्खा, हारविराइयवच्छा, कडगतुडिय थंभियभुया, अंगद - कुंडल - मट्ठ गंडतल कण्ण पीढधारी, विचित्त हत्थाभरणा, विचित्तमाला-मउलिमउडा, कल्लाणग पवर वत्थपरिहिया, कल्लाणग पवर मल्लाणु लेवणधरा, भासुरबोंदी, पलंब वणमालधरा । दिव्वेणं वण्णेणं, दिव्वेणं गंधेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिव्वेणं संघयणेणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए इड्डीए, दिव्वाए जुईए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चीए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा, पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं तायत्तीसाणं, साणं साणं लोगपालाणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं, साणं साणं परिसाणं, साणं साणं अणियाणं, साणं साणं अणियाहिवईणं, साणं साणं आयरक्ख देवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा ईसर सेणावच्चं कारेमाणा, पालेमाणा, महया हय - णट्ट - गीय-वाइय-तंति-तलतालतुडिय - घणमुइंग पडुप्पवाइय रवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति ॥ १०६ ॥ कठिन शब्दार्थ - पुक्खर कण्णिया संठाणसंठिया - पुष्कर कर्णिका संस्थान संस्थित-कमल की कर्णिका के आकार में संस्थित, उक्किण्णंतर विउल गंभीर खायफलिहा - उत्कीर्ण अंतर विपुल गंभीर खात परिखा अर्थात् खोदी हुई जिनका अंतर स्पष्ट दिखाई देता है ऐसी गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ और परिखाएं, पागार ट्टालय कवाड तोरण पडिदुवार देसभागा प्राकार, अट्टालक, कपाट, तोरण और प्रतिद्वार रूप देशभाग-विभाग जिसमें हैं, जंतसयग्घि- मुसल - मुसंढि परियारिया - यंत्र, शतघ्नी, मूसल, मुसंढी से परिवारित-युक्त, अउज्झा - अयोध्य - जहां दूसरों द्वारा युद्ध करना अशक्य हो, सयाजयासदाजयी, सयागुत्ता - सदा गुप्त, अडयाल कोट्ठग रइया - अडतालीस प्रकार की रचना युक्त कोष्ठक, अडयाल कय वणमाला - अडयालकृत वनमाला - अडतालीस प्रकार की भिन्न रचना वाली वनमाला या प्रशस्त रचना वाली वनमालाएँ, खेमा क्षेम-उपद्रव से रहित, सिवा - शिव - सदा मंगलयुक्त, किंकरामर दंडोवरक्खिया - किंकरामरदंडोपरक्षिता-चाकर रूप देवों द्वारा चारों ओर से रक्षित, लाउलोइयमहिया - लीपने और पोतने से सुशोभित, गोसीस - सरस रत्तचंदण दद्दरदिण्ण पंचगुलितलागोशीर्ष सरस रक्त चंदन दर्दर दत्त पंचागुलितल - गोशीर्ष चन्दन और रक्त चंदन से पांचों अंगुलियों द्वारा लगे हुए छापे, आसत्तोसत्त विडल वट्ट वग्घारिय मल्लदाम कलावा आसक्त उत्सक्त विपुल वृत्त - ****** For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान १९१ *************************************************************** ******************** वग्घारित (प्रलंबित) माल्यदाम कलाप-ऊपर से नीचे तक लटकती हुई विपुल युगल पुष्पमालाओं से युक्त, कालागरु-पवर कुंदुरुक्क-तुरुक्क धूव मघमघंत गंधुद्धयाभिरामा - कालागुरु-अगर, प्रधान चीडा लोबान तथा धूप की महकती हुई सुगंध से रमणीय, अच्छरगण संघसंविगिण्णा - अप्सरा गण के संघों से व्याप्त, दिव्व तुडिय सद्द संपणइया - दिव्य वाद्यों के शब्दों से शब्दायमान, महिड्डिया - महर्द्धिक-भवन परिवार आदि महान् ऋद्धिवाले, महज्जुइया - महाद्युति-शरीर और आभूषणों की महान् द्युति-कांति वाले, महब्बला - महाबल-महान बल वाले, महायसा - महान् यश वाले, महाणुभागा - महान् अनुभाग, महासोक्खा - महान् सुख वाले, हारविराइयवच्छा - हारविराजितवक्षा-जिनका वक्ष स्थल हार से सुशोभित है, कडग तुडिय थंभियभुया - कटकत्रुटित स्तम्भित भुजा-कड़ों और बाजुबन्दों से स्तम्भित भुजा वाले, अंगद कंडल मद गंड तल कण्णपीढधारी - अंगद. कण्डल और कपोलों को स्पर्श करने वाले कर्णपीठ को धारण करने वाले, विचित्त माला मउलि मउडा - विचित्र माला मौलि मुकुटा - जिनके मस्तक पर विचित्र माला और मुकुट हैं, कल्लाणग पवरवत्थ परिहिया - कल्याणक प्रवर वस्त्र परिहिता-कल्याणकारी श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, कल्लाणग पवर मल्लाणुलेवणधरा - कल्याणकारी उत्तम पुष्प की माला और विलेपन के धारक, भासुरबोंदि पलंब वणमालधरा - देदीप्यमान शरीर और लम्बी लटकती हुई वनमाला के धारक, साणं साणं - अपने अपने, महयाहय णट्ट गीय वाइय तंति तल ताल तुडिय घणमुइंग पडुप्पवाइय रवेणं - महान् आहत से (जोरों से) नृत्य, गीत, वादित तल, ताल, त्रुटित और घन मृदंग के बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ, आणाईसर - . आज्ञया ईश्वर आज्ञेश्वरः-अपनी आज्ञा को पालन कराने में समर्थ, सेणावच्चं - सेनापत्य-सेनापतिपना, आहेवच्चं - अधिपतिपना अर्थात स्वामीपना अर्थात रक्षक पणा, पोरेवच्चं - पौरपत्य-सब आत्मियजनों का अग्रेसरपना, सामित्तं - नायकपना अर्थात् नेतापना, महित्तं - भर्तृत्व अर्थात् पोषक, महत्तरगतं - बडप्पन, किंकरामर दंडोवरक्खिया - किंकरामर दण्डोपरक्षिताः-किंकर अर्थात् अभियोगिक देवों के दण्डों के द्वारा जिनकी रक्षा की हुई है। - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक भवनवासी देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? हे भगवन् ! भवनवासी देव कहाँ रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन कर और नीचे भी एक हजार योजन छोड़ कर एक लाख अठहत्तर हजार योजन मध्य भाग में भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवनावास हैं। ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल और भीतर से समचतुरस्र (चौकोण) तथा नीचे के भाग में कमल की कर्णिका के आकार के हैं। उन भवनों के चारों ओर जिनका अंतर स्पष्ट प्रतीत होता है ऐसी गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ और परिखाएँ हैं। वे भवन यथास्थान प्राकारों (परकोटों) अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ प्रज्ञापना सूत्र **************** ********* *++ सुशोभित हैं। यंत्रों, शतघ्नियों (ऐसी तोप जिसको एक वक्त चलाने पर एक साथ सौ आदमी मारे जाते हो उसको शतघ्नी कहते हैं), मूसलों, मुसुण्ढी नामक शस्त्रों से युक्त अयोध्य-शत्रुओं द्वारा युद्ध न कर सकने योग्य, सदाजय, सदागुप्त (सदैव सुरक्षित) अडतालीस प्रकोष्ठों-कमरों से रचित, अड़तालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय (उपद्रव रहित) शिव (मंगलमय) किंकर देवों के दण्डों से रक्षित हैं। जिनका भूमि तल गोबर आदि से लीपने और दीवारें चूने आदि से पोतने के कारण सुशोभित, उन भवनों की दीवारों पर गोशीर्ष चंदन और सरस रक्त चंदन से लिप्त हाथों से छापे लगे होते हैं। जहाँ चंदन के कलश रखे होते हैं। उनके तोरण और प्रतिद्वार चंदन के कलशों से सुशोभित होते हैं। वे ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी और विपुल पुष्पमालाओं के गुच्छों से युक्त तथा पंचवर्ण के सरस. सुगंधित पुष्पों की शोभा से युक्त होते हैं। काले अगुरु, श्रेष्ठ चीड़ा लोबान तथा धूप की महकती हुई सुगंध से रमणीय उत्तम सुगंधित होने से गंधवट्टी के समान लगते हैं। वे अप्सरागण के संघों से व्याप्त, दिव्य वादिन्त्रों के शब्दों से शब्दायमान, सर्व रत्नमय, अति स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे हुए, साफ किये हुए, रज रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण, कान्ति वाले, प्रभा वाले, किरणों से युक्त, उद्योत वाले, मन को प्रसन्न करने वाले दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होते हैं। ऐसे भवनों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक भवनवासी देवों के स्थान हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में है। वहाँ बहुत से भवनवासी देव निवास करते हैं। वे इस प्रकार हैं १. असुरकुमार २. नागकुमार ३. सुपर्णकुमार ४. विद्युतकुमार ५. अग्निकुमार ६. द्वीपकुमार ७. उदधिकुमार ८. दिक्कुमार ९. पवनकुमार और १० स्तनितकुमार-ये दस प्रकार के भवनवासी देव हैं। इनके मुकुट या आभूषणों में अंकित चिह्न क्रमश: इस प्रकार हैं - १. चूडामणि २. नाग का फण ३. गरुड ४. वज्र ५. पूर्ण कलश चिह्न से अंकित मुकुट ६. सिंह ७. श्रेष्ठ अश्व ८. हस्ती ९. मकर (मगरमच्छ) और १०. वर्द्धमानक (शरावसम्पुट) रूप चिह्नों से युक्त ऐसे क्रमश: असुरकुमार आदि भवनवासी देव हैं। वे सुरूप (सुंदर रूप वाले) महर्द्धिक (महान् ऋद्धि वाले) महान् कांति वाले, महान् बलशाली, महायशस्वी, महान् अनुभाग वाले, महान् सुख वाले, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, कडों और बाजुबंदों से स्तम्भित भुजा वाले, अंगद, कुण्डल और दोनों कपोलों को स्पर्श करने वाले कर्णपीठ के धारक, विचित्र हस्ताभरण वाले, विचित्र माला और मस्तक पर मुकुट धारण किये हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और विलेपन के धारक, देदीप्यमान शरीर वाले और लम्बी लटकती हुए वनमाला को धारण करने वाले, दिव्य वर्ण, दिव्य गंध, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन, दिव्य संस्थान, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य छाया, दिव्य अर्चि (ज्योति), दिव्य तेज एवं दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए (सुशोभित करते हुए) वे भवनवासी देव वहाँ For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान १९३ * * * अपने अपने लाखों भवनावासों, अपने अपने हजारों सामानिक देवों, अपने अपने त्रायस्त्रिंशक देवों, अपने अपने लोकपालों, अपनी अपनी अग्रमहिषियों, अपनी अपनी परिषदाओं, अपनी अपनी अनीकों (सेनाओं), अपने-अपने अनीकाधिपतियों (सेनाधिपतियों), अपने अपने आत्म रक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, अग्रेसरत्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महानता, आज्ञा से ईश्वरत्व (अपनी आज्ञा का पालन कराने का प्रभुत्व) एवं सेनापतित्व करते कराते हुए तथा पालन करते और दूसरों से कराते हुए नित्य प्रवर्तमान नृत्य, गायन, वादित, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित और घन मृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य प्रधान भोगने योग्य भोगों को भोगते हुए विचरते (रहते) हैं। विवेचन - रत्नप्रभा नामक पहली नरक के तेरह प्रस्तट और बारह अन्तर हैं। प्रस्तटों में नैरयिक जीव रहते हैं और बारह अन्तरों में से पहले और दूसरे अन्तर को छोड़ कर तीसरे अन्तर में असुरकुमार जाति के भवनपति देव रहते हैं। भवनपतियों के भवन रत्नों के बने हुए हैं। उन भवनों की सुन्दरता का वर्णन मूल पाठ के अनुसार भावार्थ में कर दिया गया है। वे भवन बाहर गोल हैं और भीतर चौकोण हैं। नीचे कमल की कर्णिका के आकार से स्थित हैं। उनके चारों और खाई और परिखा खदी हई है। जो ऊपर और नीचे समान विस्तार वाली हो, वह खाई कहलाती है और ऊपर चौड़ी तथा नीचे संकड़ी हो उसे परिखा कहते हैं। जिस तोप को एक वक्त चलाने पर एक सौ आदमी एक साथ मारे जाते हों उसे शतघ्नी कहते हैं। मूल में उन भवनों के लिए 'सण्हा''लण्हा' आदि सोलह विशेषण दिये हैं। जो वस्तु श्वत होती है, उसके लिये ये सोलह विशेषण दिये जाते हैं और अशाश्वत वस्तु के लिए "पासाईया" आदि चार विशेषण दिये जाते हैं। इन सोलह विशेषणों का सामान्य अर्थ भावार्थ में दे दिया गया है। विशेष शब्दार्थ इस प्रकार है - १. अच्छा- स्वच्छ-आकाश एवं स्फटिक के समान, ये बिलकुल सब तरफ से स्वच्छ अर्थात् निर्मल हैं। २. सण्हा - श्लक्ष्ण-सूक्ष्म स्कन्ध से बने हुए होने के कारण चिकने वस्त्र के समान हैं। ३. लण्हा - लक्ष्ण-इस्तिरी किये गये वस्त्र जिस प्रकार चिकने रहते हैं अथवा घोटे हुए वस्त्र जैसे चिकने होते हैं। ४. घट्टा - घृष्ट-पाषाण की पुतली जिस प्रकार खुरशाण से घिस कर एक सी और चिकनी कर दी जाती है, वैसे वे भवन हैं। ५. मट्ठा - मृष्ट-कोमल खुरशाण से घिसे हुए चिकने। ६. णीरया - नीरज-स्वाभाविक रज अर्थात् धूलि रहित। ७. णिम्मला - निर्मल-आगन्तुक मल रहित। For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ प्रज्ञापना सूत्र * * * * *************************** ********************** वितिमिरा - वितिमिर-तिमिर अर्थात् अन्धकार से रहित। ८.णिप्पंका - निष्पङ्क-कीचड़ रहित। ९. णिक्कंकडच्छाया - निष्कङ्कट छाया - आवरण रहित और उपघात रहित छाया अर्थात् दीप्ति वाले। विसुद्धा - विशुद्ध-निष्कलंक। १०. सप्पभा - सप्रभा स्वरूप से ही प्रभा (कान्ति) वाले अथवा स्वयं आभा-चमक से सम्पन्न। ११. सम्मिरिया (सस्सिरिया)- समरिचि-मरिचि अर्थात् किरणों से युक्त तथा शोभा युक्त। १२. सउज्जोया - सउद्योत=उद्योत अर्थात् प्रकाश सहित तथा समीपस्थ वस्तु को प्रकाशित करने वाले। १३. पासाईया - प्रासादीय=मन को प्रसन्न करने वाले। १४. दरिसणिजा - दर्शनीय देखने योग्य तथा देखते हुए आँखों को थकान मालूम नहीं होत हो ऐसे। १५. अभिरुवा - अभिरूव-अत्यन्त कमनीय-मन की प्रसन्नता के अनुकूल होने से मानो सम्मुख आ रहे हो। १६. पडिरूवा - प्रतिरूप प्रत्येक व्यक्ति के लिए रमणीय अथवा जितनी बार देखो उतनी बार नया नया रूप दिखाई देता है। ___भूमि को गोबर आदि से उपलेपन का आशय तथाप्रकार के विशिष्ट उपलेपन योग्य पुद्गलों को समझना चाहिये। लीपने की समानता बताने के लिए अर्थों में गोबर का उदाहरण दे दिया है। इसी प्रकार दीवारों को चुने से पोतने के समान विशिष्ट प्रकार के पुद्गलों से पोता हुआ समझना चाहिये। प्रश्न - भवनपति देवों के दस भेदों को 'कुमार' शब्द से विशेषित क्यों किया गया है? उत्तर - जिस प्रकार कुमार (बालक) क्रीड़ा, खेलकूद आति को पसन्द करते हैं, उसी प्रकार ये भवनपति देव भी क्रीड़ा में रत रहते हैं तथा सदा जवान की तरह जवान (युवा) बने रहते हैं। इसलिए इनको कुमार कहते हैं। प्रश्न - भवनों और आवासों में क्या फरक होता है ? उत्तर - भवन बाहर से गोल और अन्दर से चतुष्कोण होते हैं। उनके नीचे का भाग कमल की कर्णिका (बीजकोष) के आकार वाला होता है तथा शरीर परिमाण बड़े मणि तथा रत्नों के प्रकाश से चारों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले आवास (मण्डप) कहलाते हैं। भवनपति (भवनवासी) देव भवनों तथा आवासों दोनों में रहते हैं। मूल पाठ में यह कहा गया है कि एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी (जाड़ी) इस रत्नप्रभा For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान १९५ पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन कर और नीचे भी एक हजार योजन छोड़ कर एक लाख अठहत्तर हजार योजन मध्य भाग में भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवनावास हैं। ********************* यह बात सामान्य रूप से कही गई है अथवा शास्त्रकार की ऐसी शैली होने से इस प्रकार का समुच्चय पाठ दे दिया गया है क्योंकि भवनवासियों के भवन कहाँ पर हैं इसका उत्तर भगवती सूत्र दिया गया है। वह पाठ इस प्रकार है में - "अहे रयणप्पभाए पुढवीए चत्तालीसं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं चमरस्स असुरदिंस्स असुरकुमार रण्णो चमरचंचा णामं रायहाणी पण्णत्ता । " (भगवती सूत्र शतक - २ उद्देशक ८) इसी प्रकार भगवती सूत्र शतक १६ उद्देशक ९ में भी पाठ आया है"कहिण्णं भंते! बलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जे जहेव चमरस्स ।" अर्थ - १. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूमि भाग से चालीस हजार योजन नीचे जाने पर असुरों के इन्द्र, असुरों के राजा चमर की चमरचंचा नाम की राजधानी है। इसी प्रकार - वैरोचनेन्द्र, वैरोचनराजा बलि की बलिचंचा राजधानी भी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूमि भाग से चालीस हजार योजन नीचे जाने पर हैं। आशय यह है कि चमरेन्द्र और बलिन्द्र की राजधानी यहाँ से चालीस हजार योजन नीचे है। पहली रत्नप्रभा पृथ्वी जो कि एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी है उसके तेरह प्रस्तट और बारह अन्तर (अन्तराल) हैं। तीन हजार योजन का एक प्रस्तट होता है ११५८३ योजन का एक अन्तराल हैं। इस गणित के हिसाब से तीसरे अन्तराल में असुरकुमार जाति के देव हैं। इस क्रम से नागकुमार आदि चौथे आदि अन्तरालों में हैं। तात्पर्य यह है कि बारह अन्तरालों में से ऊपर के दो अन्तराल खाली हैं। तीसरे से लेकर बारहवें अन्तराल तक इन दस अन्तरालों में दस भवनपति जाति के देव रहते हैं। नोट - थोकड़े की पुरानी प्रतियों में इस प्रकार का वर्णन देखने में आता है कि बारह अन्तरालों में से पहला व बारहवां अन्तराल खाली है बीच के दस अन्तरालों में भवनपति देव रहते हैं परन्तु यह वर्णन आगमानुकूल नहीं है। कहि णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि भंते! असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ प्रज्ञापना सूत्र एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चउसट्टिं भवणा-वाससयसहस्सा भवतीति मक्खायं । *** ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, अहे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिया, उक्किण्णंतरविउल-गंभीरखायफलिहा, पागारट्टालय-कवाड - तोरण- पडिदुवारदेसभागा, जंतसयग्घी - मुसल-मुसुंढिपरियारिया, अउज्झा, सया जया, सया गुत्ता, अडयालकोट्ठगरइया, अडयालकयवणमाला, खेमा, सिवा, किंकरामरदंडोवरक्खिया, लाउल्लोइयमहिया, गोसीस - सरसरत्तचंदण - दद्दरदिण्णपंचंगुलितला, उवचियचंदणकलसा, चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा, आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावा, पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फ-पुंजोवयारकलिया, कालागुरुपवरकुंदुरुक्क तुरुक्क डज्झतधूवमघमघंतगंधुद्धया-भिरामा, सुगंधवरगंधिया, गंधवट्टिभूया, अच्छरगणसंघसंविगिण्णा, दिव्वतुडियसद्दसंपणइया, सव्वरयणामया । अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्टा, मट्ठा, णीरया, णिम्मला, णिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, सप्पभा, सस्सिरीया, समरीइया, सउज्जोया, पासाईया, दरिसणिज्जा, अभिरूवा, पडिरूवा । एत्थ णं, असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखिज्जइभागे । तत्थ णं बहवे असुरकुमारा देवा परिवसंति । काला, लोहियक्खबिंबोट्ठा, धवलपुप्फदंता, असियकेसा, वामेयकुंडलधरा, अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता, ईसीसिलिंधपुप्फप्पगासाइं असंकिलिट्ठाई सुहुमाई वत्थाई पवरपरिहिया, वयं च पढमं समइक्कंताबिइयं च वयं असंपत्ता, भद्दे जोव्वणे वट्टमाणा, तलभंगय- तुडियपवरभूसण- णिम्मल, मणिरयणमंडियभुया, दसमुद्दामंडियग्गहत्था, चूडामणिविचित्तचिंधगया, सुरूवा, महिड्डिया, महज्जुइया, महायसा, महब्बला, महाणुभागा, महासोक्खा, हारविराइयवच्छा, कडय-तुडियथंभियभुया, अंगय- कुंडलमट्ठगंडयलकण्णपीढधारी, विचित्तहत्था For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान १९७ *****************************-*-*-*-************* भरणा, विचित्तमालामउलिमउडा, कल्लाणग पवरवत्थपरिहिया, कल्लाणग पवरमल्लाणु-लेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा। दिव्वेणं वण्णणं, दिव्वेणं गंधेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिव्वेणं संघयणेणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए इड्डीए, दिव्वाए जुईए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चीए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेसाए, दस दिसाओ, उज्जोवेमाणा पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं तायत्तीसाणं, साणं साणं लोगपालाणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं, साणं साणं परिसाणं, साणं साणं अणियाणं, साणं साणं अणियाहिवईणं, साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा, पालेमाणा, महया हयणट्ट-गीय-वाइयतंती-तलताल-तुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरंति। - चमरबलिणो इत्थ दुवे असुरकुमारिंदा असुरकुमार-रायाणो परिवसंति। काला, महाणीलसरिसा, णीलगुलियगवलअयसिकुसुमप्यगासा, वियसियसयवत्तणिम्मलईसिसियरत्ततंबणयणा, गरुलाययउज्जुतुंग णासा, ओयविय-सिलप्पवालबिंबफलसंणिभाहरोट्ठा, पंडुरससिगलविमल-णिम्मलदहिघण-संख-गोक्खीर-कुंददगरय-मुणालियाधवलदंतसेढी, हुयवहणिद्धंतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा, अंजण-घणकसिणगरुयगरमणिजणिद्धके सा, वामेयकुंडलधरा, अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता ईसीसि-लिंधपुप्फप्पगासाइं असंकिलिट्ठाइं सुहुमाइं वत्थाई पवरपरिहिया, वयं च पढमं समइक्कंता, बिइयं च असंपत्ता, भद्दे जोव्वणे वट्टमाणा, तलभंगयतुडिय-पवरभूसण-णिम्मलमणि-रयणमंडियभुया, दसमुद्दामंडियग्गहत्था, चूडामणिचित्तचिंधगया, सुरूवा, महिड्डिया, महज्जुईया, महायसा, महाबला, महाणुभागा, महासोक्खा, हारविरा-इयवच्छा, कडयतुडियथंभियभुया, अंगद-कुंडलमढगंडतलकण्णपीढधारी, विचित्त-हत्थाभरणा, विचित्तमालामउलिमउडा, कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया, कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा, भासुरबोंदी, पलंबवणमालधरा, For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ प्रज्ञापना सूत्र ****** दिव्वेणं वण्णेणं, दिव्वेणं गंधेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिव्वेणं संघयणेणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए इड्डीए, दिव्वाए जुईए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चीए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा, पभासेमाणा। तेणं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं तायत्तीसाणं, साणं साणं लोगपालाणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं, साणं साणं परिसाणं, साणं साणं अणियाणं, साणं साणं अणियाहिवईणं, साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिंच बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा, पालेमाणा, महया हय-पट्टगीयवाइयतंति-तलताल-तुडिय-घणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति॥१०७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! असुरकुमार देव कहाँ रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अंदर प्रवेश (अवगाहन) कर और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन परिमाण मध्य भाग में असुरकुमार देवों के ६४ लाख भवनावास कहे गये हैं। वे भवन बाहर से गोल और भीतर से समचतुरस्र (चौकोण) तथा नीचे के भाग में कमल की कर्णिका के आकार के हैं। उन भवनों के चारों ओर जिनका अंतर स्पष्ट प्रतीत होता है ऐसी गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ और परिखाएं हैं। वे भवन यथास्थान प्राकारों (परकोटों) अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से सुशोभित हैं। यंत्रों, शतघ्नियों, मूसलों, मुसुण्ढी नामक शस्त्रों से युक्त अयोध्य-शत्रुओं द्वारा युद्ध न कर सकने योग्य, सदाजय, सदागुप्त (सदैव सुरक्षित), अडतालीस प्रकोष्ठों-कमरों से रचित, अड़तालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय (उपद्रव रहित) शिव (मंगलमय) किंकर देवों के दण्डों से रक्षित हैं। गोबर आदि से लीपने और चूने आदि से पोतने के कारण सुशोभित उन भवनों पर गोशीर्ष चंदन और सरस रक्त चंदन से लिप्त पांच अंगुलियों से युक्त हाथों से छापे लगे होते हैं। जहाँ चंदन के कलश रखे होते हैं। उनके तोरण और प्रतिद्वार चंदन के घड़ों से सुशोभित होते हैं। वे ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी और विपुल पुष्पमालाओं के गुच्छों से युक्त तथा पंचवर्ण के सरस सुगंधित पुष्पों की शोभा से युक्त होते हैं। काले अगर, श्रेष्ठ चीड़ा लोबान तथा धूप की महकती हुई सुगंध से रमणीय उत्तम सुगंधित होने से गंधवट्टी के समान लगते हैं। वे अप्सरागण के संघों से व्याप्त, दिव्य वादिन्त्रों के For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान शब्दों से शब्दायमान, सर्व रत्नमय, अति स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे हुए, साफ किये हुए, रज रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण, कान्ति वाले, प्रभा वाले, किरणों से युक्त, उद्योत वाले, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होते हैं। ***************************** १९९ ऐसे भवनावासों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक असुरकुमार देवों के स्थान कहे गए हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वे काले वर्ण वाले, लोहिताक्ष-पद्मरागमणि और बिम्बफल के समान ओठों वाले, श्वेत पुष्पों के समान दांतों वाले, काले केशों वाले, बायें भाग में एक कुंडल के धारक, गीले चंदन से लिप्त शरीर वाले, शिलिन्ध्र पुष्प के समान (किंचित् रक्त) वर्ण वाले, संक्लेश उत्पन्न न करने वाले सूक्ष्म और श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, प्रथम वय को पार किये हुए और द्वितीय वय को प्राप्त नहीं किये हुए, भद्र प्रशस्त यौवन में वर्तते हुए, तलभंग (भुजा का आभरण विशेष ) त्रुटित (बाजूबंद) और अन्य श्रेष्ठ आभूषणों में रहे हुए निर्मल मणि और रत्नों से सुशोभित भुजाओं वाले, दस मुद्रिकाओं (अंगूठियों) से सुशोभित अग्रहस्त वाले और चूडामणि रूप चिह्न वाले होते हैं। वे सुरूप (सुंदर रूप वाले), महर्द्धिक (महान ऋद्धि वाले), महान् कांति वाले, महान् बलशाली, महायशस्वी, महान् अनुभाग वाले, महान् सुख वाले, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, कडों और बाजुबंदों से स्तम्भित भुजा वाले, अंगद कुण्डल और दोनों कपोलों को स्पर्श करने वाले कर्णपीठ के धारक, विचित्र हस्ताभरण वाले, विचित्र माला और मस्तक पर मुकुट धारण किये हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और विलेपन के धारक, देदीप्यमान शरीर वाले और लम्बी लटकती हुए वनमाला को धारण करने वाले होते हैं। दिव्य वर्ण, दिव्य गंध, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन, दिव्य संस्थान, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य छाया, दिव्य अर्चि (ज्योति) दिव्य तेज एवं दिव्य लेश्या से दशो दिशाओं को प्रकाशित करते हुए सुशोभित करते हुए वे भवनवासी देव हाँ अपने अपने लाखों भवनावासों, अपने अपने हजारों सामानिक देवों, अपने अपने त्रायस्त्रिंशक देवों, अपने अपने लोकपालों, अपनी अपनी अग्रमहिषियों, अपनी अपनी परिषदाओं, अपनी अपनी मनीकों (सेनाओं), अपने-अपने अनीकाधिपतियों (सेनाधिपतियों), अपने अपने आत्म रक्षक देवों का था अन्य बहुत से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, अग्रेसरत्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महानता, आज्ञा से ईश्वरत्व (अपनी आज्ञा का पालन कराने का प्रभुत्व) एवं सेनापतित्व करते हुए और कराते ए तथा पालन करते हुए और दूसरों से पालन कराते हुए नित्य प्रवर्तमान नृत्य, गायन, वादित, तंत्री, ल, ताल त्रुटित और घन मृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य प्रधान भोगने योग्य भोगों को गते हुए विचरते (रहते हैं । यहाँ चमर और बली ये दो असुरकुमार के इन्द्र और असुरकुमार राजा रहते हैं। वे काले, For Personal & Private Use Only ******************* Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ महानील के समान, नील की गोली, गवल, अलसी के फूल के समान रंग वाले, विकसित कमल के समान निर्मल, श्वेत और लाल नेत्रों वाले, गरुड़ के समान विशाल सीधी और ऊँची नाक वाले, उपचित प्रवालशिल और बिंबफल के समान अधरोष्ठ वाले, श्वेत और निर्मलचन्द्रखंड घनरूप हुए दही, शंख, गाय के दूध, कुन्द, जलकण और मुणालिका के समान धवल (श्वेत) दंत पंक्ति वाले, अग्नि में तपाये हुए और निर्मल बने तप्त सुवर्ण के समान लाल तलवों, तालु तथा जिह्वा वाले, अंजन और मेघ के समान काले, रुचक रत्न के समान रमणीय एवं स्निग्ध केशों वाले. बायें भाग में एक कंडल के धारक. गीले चंदन से लिप्त शरीर वाले, शिलिन्ध्र पुष्प के समानं (किंचित् रक्त) वर्ण वाले, संक्लेश उत्पन्न न करने वाले सूक्ष्म और श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, प्रथम वय को पार किये हुए और द्वितीय वय को प्राप्त नहीं किये हुए, भद्र-प्रशस्त यौवन में वर्तते हुए, तलभंग (भुजा का आभरण विशेष) त्रुटित (बाजुबंद) और अन्य श्रेष्ठ आभूषणों में रहे हुए निर्मल मणि और रत्नों से सुशोभित भुजाओं वाले, दस मुद्रिकाओं (अंगूठियों) से सुशोभित अग्रहस्त वाले और चूडामणि रूप चिह्न वाले हैं। वे सुरूप (सुंदर रूप वाले) महर्द्धिक (महान् ऋद्धि वाले), महान् कांति वाले, महान् बलशाली, महायशस्वी, महान् अनुभाग वाले, महान् सुख वाले, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, कडों और बाजुबंदों से स्तम्भित भुजा वाले, अंगद कुण्डल और दोनों कपोलों को स्पर्श करने वाले, कर्णपीठ के धारक, विचित्र हस्ताभरण वाले, विचित्र माला और मस्तक पर मुकुट धारण किये हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और विलेपन के धारक, देदीप्यमान शरीर वाले और लम्बी लटकती हुए वनमाला को धारण करने वाले, दिव्य वर्ण, दिव्य गंध, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन, दिव्य संस्थान, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य छाया, दिव्य अर्चि (ज्योति), दिव्य तेज एवं दिव्य लेश्या से दशो दिशाओं को प्रकाशित करते हुए (सुशोभित करते हुए) वे भवनवासी देव वहाँ अपने अपने लाखों भवनावासों, अपने अपने हजारों सामानिक देवों, अपने अपने त्रायस्त्रिशक देवों, अपने अपने लोकपालों, अपनी अपनी अग्रमहिषियों, अपनी अपनी परिषदाओं, अपनी अपनी अनीको (सेनाओं), अपने-अपने अनीकाधिपतियों (सेनाधिपतियों) अपने अपने आत्म रक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, अग्रेसरत्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महानता, आज्ञा से ईश्वरत्व (अपनी आज्ञा का पालन कराने का प्रभुत्व) एवं सेनापतित्व करते हुए और कराते हुए तथा पालन करते हुए और दूसरों से पालन कराते हुए नित्य प्रवर्तमान नृत्य, गायन, वादित, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित और घन मृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य प्रधान भोगने योग्य भोगों को भोगते हुए विचरते (रहते) हैं। विवेचन - मूल पाठ में "दिव्येणं. संघयणेणं" पाठ लिखा है। जिसका अर्थ है दिव्य संहनन। .जीव के वज्र ऋषभनाराच आदि छह संहनन कहे गये हैं। वहाँ यह अर्थ किया गया है कि अस्थि (हड्डियों की) रचना विशेष को संहनन कहते हैं किन्तु जीवाभिगम सूत्र में यह पाठ है - For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************************* दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान "देवा असंघयणी, जम्हा तेसिं नेवट्ठी नेव सिरा ।" अर्थात् - देव असंहननी होते हैं अर्थात् इन छह संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता है । उनके शरीर में हड्डी और सिरा (मोटी नाड़ी) नहीं होती है अतः देवों में छह संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता किन्तु संहनन की तरह शक्ति विशेष होती है। अर्थात् उनके शरीर की मजबूती और दृढ़ता को ही संहनन समझना चाहिए। इसी अपेक्षा से यह मूल पाठ में " दिव्य संहनन" कहा है। कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति ?, गोमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर जोयण सयसहस्स - बाहल्लाए उवरिं एगं जोयण सहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं चउत्तीसं भवणावाससंयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। २०१ ******** **** णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा सो चेव वण्णओ जाव पडिरूवा । एत्थ दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । तिसुवि लोगस्स असंखिज्जइभागे । तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा देवीओ य परिवसंति । काला, लोहियक्खा तहेव जाव भुंजमाणा विहरंति । एएसि णं तहेव तायत्तीसग लोगपाला भवंति । एवं सव्वत्थ भाणियव्वं । भवणवासी णं चमरे इत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसइ काले महाणील सरिसे जाव पभासेमाणे । से णं तत्थ चउतीसाए भवणावास सयसहस्साणं, चउसट्ठीए सामाणिय साहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिन्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्ह य चउसट्ठीणं आयरक्ख देव साहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं देवाणं देवीणं च आहेवच्चं पोरेवच्चं जाव विहरइ ॥ १०८ ॥ कठिन शब्दार्थ - दाहिणिल्लाणं - दाक्षिणात्य - दक्षिण दिशा वाले । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक दक्षिण दिशा वाले असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! दक्षिण दिशा वाले असुरकुमार देव कहाँ रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! जंबूद्वीप नामक द्वीप में मेरुपर्वत की दक्षिण दिशा में एक लाख अस्सी हजार For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ******************************* प्रज्ञापना सूत्र **********************************: 1 योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के एक हजार योजन में अवगाहन कर तथा नीचे के एक हजार योजन छोड़ कर एक लाख अठहत्तर हजार योजन रूप मध्य भाग में दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों के चौतीस लाख भवन हैं। ऐसा कहा गया है । वे भवन बाहर से गोल और अंदर से चौरस इत्यादि वर्णन यावत् प्रतिरूप ( अत्यंत सुंदर ) हैं वहाँ तक समझना चाहिये । यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों के स्थान कहे गये हैं जो उपपात, समुद्घात और स्वस्थान तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से दक्षिण दिशा के असुरकुमार देव और देवियाँ रहते हैं। वे काल लोहिताक्ष-पद्मरागमणि और बिम्बफल के समान ओठों वाले हैं इत्यादि सब वर्णन यावत् भोगते हुए रहते हैं तक जानना चाहिये । इनके उसी प्रकार त्रायस्त्रिंशक और लोकपाल देव आदि होते हैं जिन पर वे आधिपत्य आदि करते-कराते, पालन करते-कराते हुए यावत् विचरण करते । इस प्रकार सर्वत्र भवनवासियों के समान समझना चाहिए। भवनवासी असुरकुमार का इन्द्र, असुरकुमार का राजा चमर यहाँ रहता है। वह काला, महानील के समान यावत् प्रभासित- सुशोभित करता हुआ तक जानना चाहिए। वहाँ चौतीस लाख भवनावासों का, चौसठ हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रास्त्रिशक देवों का, चार लोकपाल देवों का, सपरिवार (परिवार सहित ) पांच अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपतियों का, चार गुना चौसठ हजार अर्थात् दो लाख छप्पन हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से दक्षिण दिशा वाले असुरकुमार देवों और देवियों का आधिपत्य और अग्रेसरत्व करता हुआ यावत् विचरण करता है। विवेचन - जिस इन्द्र के जितने सामानिक देव होते हैं, आत्मरक्षक देव उससे चार गुणा होते हैं। जैसे कि यहाँ चमरेन्द्र के सामानिक देवों की संख्या चौसठ हजार बतलाई गयी है। उनको चार गुना करने से दो लाख छप्पन हजार होते हैं। चमरेन्द्र के इतने आत्म रक्षक देव होते हैं। इन्द्र को किसी शत्रु आदि का भय नहीं होता है तथापि इन आत्म रक्षक देवों का कर्त्तव्य होता है कि वे हाथ में शस्त्र लिये हुए इन्द्र के पास खड़े रहते हैं । दस प्रकार के भवनवासी और बारह प्रकार के वैमानिक देवों में प्रत्येक के दल-दस भेद होते हैं। अर्थात् प्रत्येक देव योनि दस विभागों में विभक्त हैं। आठ प्रकार के व्यंतर और पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों में त्रयस्त्रिंशक और लोकपाल इन दो भेदों के सिवाय आठ-आठ भेद ही पाये जाते हैं । १. इन्द्र - सामानिक आदि सभी प्रकार के देवों का स्वामी इन्द्र कहलाता है। २. सामानिक - आयु आदि में जो इन्द्र के बराबर होते हैं उन्हें सामानिक कहते हैं। केवल इन में इन्द्रत्व नहीं होता शेष सभी बातों में इन्द्र के समान होते हैं, बल्कि इन्द्र के लिए ये अमात्य, माता, पिता एवं गुरु आदि की तरह पूज्य होते हैं । ३. त्रायस्त्रिंशक - जो देव मंत्री और पुरोहित का काम करते हैं वे त्रायस्त्रिंशक कहलाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान भगवती सूत्र शतक तीन उद्देशक एक में त्रायस्त्रिंशक देवों का वर्णन आया है उसमें टीकाकार ने लिखा है कि त्रयस्त्रिंशक देव इन्द्र के लिये अमात्य (मंत्रीपन) पुरोहित के समान शान्तिकर्म करने वाले गुरुस्थानीय मान्य और पूज्य होते हैं । नोट - त्रायस्त्रिंशक देवों को "दोगुंदक देव" भी कहते हैं। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नीसवें अध्ययन में मृगापुत्र के लिए और इक्कीसवें अध्ययन में समुद्रपाल के लिये भोग भोगते समय दोदक देव की उपमा दी है। ४. पारिषद्य - जो देव इन्द्र के मित्र सरीखे होते हैं, वे पारिषद्य कहलाते हैं। ********** २०३ ५. आत्मरक्षक - जो देव शस्त्र लेकर इन्द्र के पीछे खड़े रहते हैं वे आत्म रक्षक कहलाते हैं। यद्यपि इन्द्र को किसी प्रकार की तकलीफ या अनिष्ट होने की सम्भावना नहीं है तथापि आत्म रक्षक देव अपना कर्त्तव्य पालन करने के लिए हर समय हाथ में शस्त्र लेकर खड़े रहते हैं । ६. लोकपाल - सीमा (सरहद ) की रक्षा करने वाले देव लोकपाल कहलाते हैं । ७. अनीक - जो देव सैनिक अथवा सेना नायक का काम करते हैं वे अनीक कहलाते हैं । ८. प्रकीर्णक- जो देव नगर निवासी अथवा साधारण जनता की तरह रहते हैं वे प्रकीर्णक. कहलाते हैं। ९. आभियोगिक - जो देव दास के समान होते हैं वे आभियोगिक (सेवक) कहलाते हैं । १०. किल्विषिक अन्त्यज ( चाण्डाल) के समान जो देव होते हैं वे किल्विषिक कहलाते हैं। वाचक मुख्य उमास्वाति ने भी अपने तत्त्वार्थ सूत्र के चौथे अध्याय में इस प्रकार लिखा है - इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः ॥ ४ ॥ . किन्तु आगे के सूत्र में इस प्रकार लिखा है - त्रायस्त्रिंशलोकपालवर्ज्या व्यंतरज्योतिष्काः ॥५॥ अर्थ ऊपर देवों के दस भेद बतलाये गये हैं । उनमें से त्रायस्त्रिंशक और लोकपाल ये दो भेद वाणव्यंतर और ज्योतिषी देवों में नहीं पाये जाते हैं । तात्पर्य यह है कि भवनपति और वैमानिक देवों में दस दस भेद होते हैं । किन्तु वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देवों में आठ-आठ भेद ही पाये जाते हैं । कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! उत्तरिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयण-सयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं उत्तरिल्लाणं - For Personal & Private Use Only ******************* Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ *********** Hal ***************************************************** प्रज्ञापना सूत्र ******************************************** असुरकुमाराणं देवाणं तीसं भवणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, सेसं जहा दाहिणिल्लाणं जाव विहरंति। बली एत्थ वइरोयणिंदे वइरोयणराया परिवसइ, काले महाणील सरिसे जाव पभासेमाणे। से णं तत्थ तीसाए भवणावास सयसहस्साणं, सट्ठीए सामाणिय साहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्ह य सट्ठीणं आयरक्खदेव साहस्सीणं, अण्णेसिंच बहूणं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं कुव्वमाणे विहरइ॥१०९॥ __कठिन शब्दार्थ - वइरोयणिंदे - 'विविधै रोचन्ते दीप्यन्ते इति विरोचनास्त एव वैरोचनाः। दाक्षिणात्यासुरकुमारेभ्यः सकाशाद् विशिष्टं रोचनं दीपनं येषामस्ति ते वैरोचनाः। ___ भावार्थ - वैरोचन का अर्थ है अग्नि। अग्नि की तरह जो दीप्त हो उन्हें वैरोचन कहते हैं अर्थात् दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों की अपेक्षा जो अधिक दीप्तिमान हों, उन्हें वैरोचन कहते हैं। तात्पर्य यह है कि उत्तर दिशा के देवों को वैरोचन कहते हैं। उन देवों का इन्द्र वैरोचनेन्द्र कहलाता है। उनके राजा को वैरोचनराजा कहते हैं। उत्तर दिशा के असुरकुमारों के अधिपति बली के ये दोनों (वैरोचनेन्द्र तथा वैरोचनराजा) विशेषण हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक उत्तरदिशा के असुरकुमारदेवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! उत्तरदिशा के असुरकुमार देव कहाँ रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! जंबूद्वीप नामक द्वीप में मेरु पर्वत के उत्तर में एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करके तथा नीचे एक हजार योजन छोड़ कर मध्य के एक लाख अठहत्तर हजार योजन भाग में उत्तरदिशा के असरकमार देवों के तीस लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल और अंदर से चौरस हैं शेष सब वर्णन यावत् विचरण करते हैं तक दक्षिण दिशा वाले असुरकुमार देवों के समान जानना चाहिये। यहाँ वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजा बली निवास करता है। वह काला है महानील के समान है इत्यादि सारा वर्णन यावत् प्रभासित करता हुआ रहता है। वह बलीन्द्र वहाँ तीस लाख भवनावासों का, साठ हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, परिवार सहित पांच अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपतियों का, चार गुणा साठ हजार (दो लाख चालीस हजार) आत्म रक्षक देवों का तथा अन्य बहत से उत्तरदिशा के असरकमार देवों और देवियों का आधिपत्य और अग्रेसरत्व करता हुआ विचरण करता है। For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान २०५ ********* ********* ********** ****** कहि णं भंते! णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! णागकुमारा देवा परिवसंति? ___गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर जोयण सयसहस्स बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्झे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं णागकुमाराणं देवाणं पजत्तापज्जत्तगाणं चुलसीइ भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा जाव पडिरूवा। तत्थ णं णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तीसुवि लोगस्स असंखिज्जइभागे।तत्थ णं बहवे णागकुमारा देवा परिवसंति, महिड्डिया, महजुइया, सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरंति। धरणभूयाणंदा एत्थ णं दुवे णागकुमारिंदा णागकुमाररायाणो परिवसंति महिड्डिया सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरंति॥११०॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक नागकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! नागकुमार देव कहां रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करके और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर मध्य के एक लाख अठहत्तर हजार योजन भाग में नागकुमार देवों के चौरासी लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल और अंदर से चौरस यावत् प्रतिरूप अत्यंत सुन्दर हैं। वहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक नागकुमार देवों के स्थान कहे गए हैं। उपपात, समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों अपेक्षाओं से वे लोक के असंख्यातवें भाग में है। वहाँ बहुत से नागकुमार देव निवास करते हैं। वे महाऋद्धि वाले और महाद्युति वाले हैं। शेष सारा वर्णन सामान्य भवनवासी देवों के संबंध में जैसा कहा है - उसी प्रकार यावत् विचरण करते हैं तक जानना चाहिये। यहाँ धरणेन्द्र और भूतानेन्द्र ये दो नागकुमारेन्द्र और नागकुमारराज रहते हैं। वे महाऋद्धि वाले इत्यादि सारा वर्णन सामान्य भवनवासी देवों के संबंध में कहा है वैसा यावत् विचरण करते हैं तक जानना चाहिये। कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णता? कहि णं भंते! दाहिणिल्ला णागकुमारा देवा परिवसंति?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर-जोयण सयसहस्स बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठा For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ************************************* प्रज्ञापना सूत्र ********************************* चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं चउयालीसं भवणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं । तेणं भवणा बाहिं वट्टा जाव पडिरूवा । एत्थ णं दाहिणिल्लाणं णागकुमाराणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता, तिसु वि लोयस्स असंखिज्जइभागे, एत्थ णं दाहिणिल्ला णागकुमारा देवा परिवसंति, महिड्डिया जाव विहरति । धरणे इत्थ णागकुमारिंदे णागकुमारराया परिवसइ, महिड्डिए जाव पभासेमाणे । से णं तत्थ चालीसा भवणावास सयसहस्साणं, छण्हं सामाणिय साहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, छण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिन्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चडव्वीसाए आयरक्ख देव साहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं णागकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं कुव्वमाणे विहरइ ॥ १११ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक दक्षिण के नागकुमारों के स्थान कहाँ कहे गये हैं? हे भगवन्! दक्षिण के नागकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! जंबूद्वीप नामक द्वीप में मेरु पर्वत की दक्षिण दिशा में एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन प्रवेश करके और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर एक लाख अठहत्तर हजार योजन परिमाण मध्य भाग में दक्षिण दिशा के नागकुमार देवों के ४४ चंवालीस लाख भवन है ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल, भीतर से चौरस यावत् प्रतिरूप - सुन्दर है । यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक दक्षिण दिशा के नागकुमार देवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात, समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों की अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। यहाँ दक्षिण के नागकुमार देव रहते हैं। वे महाऋद्धि वाले इत्यादि सारा वर्णन यावत् विचरण करते हैं तक जानना चाहिये । यहाँ नागकुमारों का इन्द्र और नागकुमारों का राजा धरण रहता है वह महाऋद्धि वाला इत्यादि सारा वर्णन यावत् प्रभासित (सुशोभित) होता हुआ विचरण करता है। वहाँ वह चंवालीस लाख भवनावासों का, छह हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, सपरिवार छह अग्रमहिषियों का तीन परिषदों का सात सैन्यों का सात सेनाधिपतियों का, चौबीस हजार आत्म रक्षक देवों का और अन्य बहुत से दक्षिण दिशा के नागकुमार देवों और देवियों का आधिपत्य और अग्रेसरत्व करता हुआ विचरण करता है। कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ *********** ******** AN.SIL.1भवनवासा व स्था...................२०. *****************************-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-* पण्णत्ता? कहि णं भंते! उत्तरिल्ला णागकुमारा देवा परिवसंति?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर जोयण सयसहस्स बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं चत्तालीसं भवणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा सेसं जहा दाहिणिल्लाणं जाव विहरंति। भूयाणंदे एत्थ णागकुमारिंदे णागकुमारराया परिवसइ, महिड्डिए जाव पभासेमाणे। से णं तत्थ चत्तालीसाए भवणावास सयसहस्साणं आहेवच्चं जाव विहरइ॥११२॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक उत्तर दिशा के नागकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! उत्तर दिशा के नागकुमार देव कहाँ रहते हैं ? । उत्तर - हे गौतम! जंबूद्वीप नामक द्वीप में मेरु पर्वत के उत्तर में एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करके तथा नीचे एक हजार योजन छोड कर एक लाख अठहत्तर हजार योजन परिमाण मध्य भाग में उत्तर दिशा के नागकुमार देवों के चालीस लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल हैं इत्यादि सारा वर्णन दक्षिण दिशा के नागकुमार देवों के वर्णन के अनुसार यावत् विचरण करते हैं तक समझ लेना चाहिये। यहां भूतानंद नाम का नागकुमारेन्द्र नागकुमार देवों का राजा रहता है। वह महाऋद्धि वाला यावत् प्रभासित (सुशोभित) होता हुआ चालीस लाख भवनावासों का यावत् आधिपत्य एवं अग्रेसरत्व करता हुआ विचरण करता है। कहि णं भंते! सुवण्णकुमाराणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति? - गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव एत्थ णं सुवण्णकुमाराणं देवाणं बावत्तरि भवणा-वाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा जाव पडिरूवा। तत्थ णं सुवण्णकुमाराणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोयस्स असंखिजइभागे। तत्थ णं बहवे सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति महिड्डिया सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरंति। वेणुदेवे वेणुदाली य इत्थ दुवे सुवण्णकुमारिंदा सुवण्णकुमार रायाणो परिवसंति, महिड्डिया जाव विहरंति॥११३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सुवर्ण (सुपर्ण) कुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! सुवर्णकुमार देव कहाँ रहते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रज्ञापना सूत्र २०८ *********** * * * * ** * * *-*-*-*-*-*-*-*--*-* *-*- *-*-*- * *-*-*-*-*-*-*-*-* -*-*-*-*-*-*-*- *-* उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे छोड़ कर शेष भाग में सुवर्ण कुमार देवों के ७२ लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल यावत् प्रतिरूप हैं। वहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक सुवर्णकुमार देवों के स्थान हैं यावत् वे उपपात, समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों की अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से सुवर्णकुमारदेव रहते हैं। वे महाऋद्धि वाले इत्यादि सारा वर्णन सामान्य भवनपतियों की तरह यावत् विचरण करते हैं तक जानना चाहिये। यहाँ वेणुदेव और वेणुदाली नाम के दो सुवर्ण कुमार देवों के इन्द्र और सुवर्ण कुमार देवों के राजा रहते हैं वे महाऋद्धि वाले यावत् विचरण करते हैं। कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! दाहिणिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे जाव मझे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं अट्ठत्तीसं भवणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा जाव पडिरूवा। एत्थ णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिजइभागे। एत्थ णं बहवे सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति। वेणुदेवे य इत्थ सुवण्णकुमारिंदे सुवण्णकुमार राया परिवसइ, सेसं जहा णागकुमाराणं॥११४॥ · भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक दक्षिण दिशा के सुवर्णकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! दक्षिण के सुवर्णकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के यावत् एक लाख अठहतर हजार योजन परिमाण मध्य भाग में दक्षिण दिशा के सुवर्णकुमारों के ३८ लाख भवनावास हैं। ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल यावत् प्रतिरूप अर्थात् अत्यंत सुन्दर हैं। यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक सुवर्णकुमार देवों के स्थान कहे गये हैं। उपपात, समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों अपेक्षाओं से वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। यहाँ बहुत से सुवर्णकुमार देव निवास करते हैं। यहाँ वेणुदेव नामक सुवर्णकुमार का इंद्र, सुवर्णकुमार देवों का राजा रहता है। शेष सारा वर्णन नागकुमारों की तरह जानना चाहिये। कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए जाव एत्थ णं उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं चउतीसं भवणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं भवणा जाव एत्थ णं बहवे उत्तरिल्ला For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***************** दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति, महिड्डिया जाव विहरंति । वेणुदाली इत्थ सुवण्णकुमारिंदे सुवण्णकुमार राया परिवसइ, महिड्डिए सेसं जहा णागकुमाराणं । एवं जहा सुवण्णकुमाराणं वत्तव्वया भणिया तहा सेसाण वि चउदसण्हं इंदाणं भाणियव्वा । वरं भवण णाणत्तं इंद णाणत्तं वण्ण णाणत्तं परिहाण णाणत्तं च इमाहिं गाहाहिं अणुगंतव्वं चउसट्ठि असुराणं चुलसीयं चेव होंति णागाणं । बावत्तरं सुवणे वाकुमाराण छण्णउई ॥ १ ॥ दीव - दिसा - उदहीणं विज्जुकुमारिंद - थणिय-मग्गीणं । छण्हंपि जुयलयाणं छावत्तरिमो सयसहस्सा ॥ २ ॥ चउतीसा चउयाला अट्ठत्तीसं च सयसहस्साइं । पण्णा चत्तालीसा दाहिणओ हुंति भवणाई ॥ ३॥ तीसा चत्तालीसा चडतीसं चेव सयसहस्साइं । छायाला छत्तीसा उत्तरओ हुंति भवणाई ॥ ४ ॥ चट्टी सट्ठी खलु छच्च सहस्साइं असुरवज्जाणं । सामाणिया उ एए चउग्गुणा आयरक्खा उ ॥५॥ चमरे धरणे तह वेणुदेवे हरिकंत अग्गिसीहे य । पुणे जलकंते य अमिय-विलंबे य घोसे य ॥ ६ ॥ बलि-भूयाणंदे वेणुदाली-हरिस्सहे अग्गिमाणव विसिट्ठे । • जलपह तह अमियवाहणे पभंजणे य महाघोसे ॥ ७ ॥ उत्तरिल्लाणं जाव विहरति । काला असुरकुमारा, णागा उदही य पंडुरा दो वि । वर- कणग-हिस-गोरा हुंति सुवण्णा दिसा थणिया ॥ ८ ॥ उत्तत्त-कणग-वण्णा विज्जू अग्गी य होंति दीवा य । सामापियंगु वण्णा वाउकुमारा मुणेयव्वा ॥ ९ ॥ असुरेस हुंति रत्ता सिलिंध- पुप्फप्पभा य णागुदही । आसासग-वसणधरा होंति सुवण्णा दिसा थणिया ॥ १० ॥ २०९ For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० प्रज्ञापना सूत्र ****************************** ***** *akshaakakkakk ** kalatak ** * * * ** * * * * * * णीलाणु-राग-वसणा विज अग्गी यहंति दीवा य। संझाणु राग वसणा वाउकुमारा मुणेयव्वा॥११॥११५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक उत्तर दिशा के सुवर्णकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! उत्तर के सुवर्णकुमार देव कहाँ रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के यावत् मध्य भाग में उत्तर दिशा के सुवर्णकुमार देवों के ३४ लाख भवन हैं। ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल हैं इत्यादि यावत् यहाँ बहुत से उत्तर के सुवर्णकुमार देव रहते हैं। वे महाऋद्धि वाले यावत् विचरण करते हैं। यहाँ वेणुदाली नामक सुवर्णकुमार देवों का इन्द्र, सुवर्णकुमार देवों का राजा रहता है। वह महान् ऋद्धि वाला है। शेष सारा वर्णन नागकुमारों की तरह जानना चाहिये। जिस प्रकार सुवर्णकुमार देवों के इन्द्र की वक्तव्यता कही है उसी प्रकार शेष चौदह इन्द्रों की भी कहनी चाहिये। विशेषता यह है 'कि उनके भवनों की संख्या, इन्द्रों के नामों में, उनके वर्गों में तथा परिधानों (वस्त्रों) में अन्तर है जो इन गाथाओं के अनुसार जान लेना चाहिए_असुरकुमारों के चौसठ लाख, नागकुमारों के चौरासी लाख, सुवर्णकुमारों के बहोत्तर लाख, वायुकुमारों के छियानवें लाख, द्वीपकुमारों के, दिशाकुमारों के, उदधिकुमारों के, विद्युत्कुमारों के, स्तनितकुमारों और अग्निकुमारों के इन छहों युगलों के प्रत्येक के ७६ लाख - ७६ लाख भवन हैं ॥१-२॥ अर्थात् तात्पर्य यह है कि द्वीपकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक छह जाति के भवनपति देवों के दक्षिण दिशा के और उत्तर दिशा के दोनों दिशाओं के मिल कर ७६ लाख ७६ लाख भवन हैं। अर्थात् इन छह के दक्षिण दिशा में ४० लाख ४० लाख और उत्तर दिशा में ३६ लाख ३६ लाख भवन हैं। इस प्रकार दोनों दिशों के मिलाने से ७६ लाख ७६ लाख भवन हो जाते हैं। (३६+४०=७६) दक्षिण दिशा के असुरकुमारों के ३४ लाख, नागकुमारों के ४४ लाख, सुवर्णकुमारों के ३८ लाख, वायुकुमारों के ५० लाख। द्वीपकुमारों, दिशाकुमारों, उदधिकुमारों विद्युत्कुमारों, स्तनितकुमारों और अग्निकुमारों के प्रत्येक के ४० लाख-४० लाख भवन हैं ॥३॥ उत्तर दिशा के असुरकुमारों के ३० लाख, नागकुमारों के ४० लाख, सुवर्णकुमारों के ३४ लाख, वायुकुमारों के ४६ लाख। द्वीपकुमारों, दिशाकुमारों, उदधिकुमारों, विद्युत्कुमारों, स्तनितकुमारों और अग्निकुमारों के प्रत्येक के ३६ लाख ३६ लाख भवन हैं ॥४॥ दक्षिण दिशा के असुरेन्द्र के ६४ हजार और उत्तर दिशा के असुरेन्द्र के ६० हजार सामानिक देव हैं। असुरेन्द्र को छोड़ कर शेष दक्षिण दिशा और उत्तर दिशा के इन्द्रों के प्रत्येक के छह छह For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान २११ ************************************************************************* *********** हजार सामानिक देव हैं। प्रत्येक इन्द्र के सामानिक देवों की अपेक्षा आत्म रक्षक देव चौगुने चौगुने होते हैं ॥५॥ दक्षिण दिशा के इन्द्रों के नाम - १. असुरकुमारों का इन्द्र चमर २. नागकुमारों का रण ३. सुवर्णकुमारों का वेणुदेव ४. विद्युत्कुमारों का हरिकान्त ५. अग्निकुमारों का अग्निशिख ६. द्वीपकुमारों का पूर्ण ७. उदधिकुमारों का जलकांत ८. दिशाकुमारों का अमित ९. वायुकुमारों का वेलम्ब और १०. स्तनितकुमारों का इन्द्र घोष है॥६॥ उत्तर दिशा के इन्द्रों के नाम - १. असुरकुमारों का इन्द्र बलि २. नागकुमारों का भूतानंद ३. सुवर्णकुमारों का वेणुदाली ४. विद्युत्कुमारों का हरिस्सह ५. अग्निकुमारों का अग्निमाणव ६. द्वीपकुमारों का वशिष्ठ ७. उदधिकुमारों का जलप्रभ ८. दिशाकुमारों का अमित वाहन ९. वायुकुमारों का प्रभंजन १०. स्तनितकुमारों का इन्द्र महाघोष है ॥७॥ इस प्रकार उत्तर दिशा के इन्द्र यावत् विचरण करते हैं। असुरकुमार काले वर्ण के हैं। नागकुमार और उदधिकुमार पाण्डुर अर्थात् श्वेत वर्ण के हैं। सुवर्णकुमार दिशाकुमार और स्तनितकुमार श्रेष्ठ सुवर्ण की कसौटी पर बनी हुई रेखा के समान लाल पीले वर्ण के हैं ॥८॥ .. विद्युतकुमार अग्निकुमार और द्वीपकुमार तपे हुए सोने के समान और वायुकुमार प्रियंगुवृक्ष के वर्ण जैसे समझने चाहिये॥९॥ असुरकुमारों के वस्त्र लाल होते हैं, नागकुमारों और उदधि कुमारों के वस्त्र शिलिन्ध्र वृक्ष के पुष्प जैसे नीले वर्ण के हैं। सुवर्णकुमारों दिशाकुमारों और स्तनितकुमारों के वस्त्र अश्व के मुख के फेन के सदृश श्वेत होते हैं ॥१०॥ विद्युत्कुमारों, द्वीपकुमारों, अग्निकुमारों के वस्त्र नीले रंग के और वायुकुमारों के वस्त्र संध्या के . रंग जैसे होते हैं ॥११॥ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में असुरकुमार आदि दस भवनपति देवों के स्थानों, दक्षिण और उत्तर दिशा के इन्द्रों के स्वरूप एवं वैभव प्रभाव आदि का वर्णन किया गया है। गाथा क्रं. १ से ११ में भवनवासी देवों के भवनों की संख्या, सामानिक देवों और आत्मरक्षक देवों की संख्या, दक्षिण और उत्तरदिशा के १०-१० इन्द्रों के नाम, देवों के वर्ण और उनके वस्त्रों के वर्णों आदि का उल्लेख किया गया है। भवनपतियों के दस भेद बतलाये गये हैं। उनके भवन कहां हैं ? और वे कहाँ निवास करते हैं ? इन दोनों प्रश्नों के उत्तर में मूल पाठ में ऐसा वर्णन दिया गया है कि इस पहली नरक का नाम रत्नप्रभा है। इसकी मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है। इसमें से एक हजार योजन ऊपर और एक For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************** ********************** हजार योजन नीचे छोड़ कर शेष एक लाख अट्ठहत्तर हजार योजन में इन दस ही. भवनपतियों के भवन हैं और वे वहीं निवास करते हैं। यह जो उत्तर दिया गया है वह समुच्चय की अपेक्षा दिया गया है। इसका आशय इस प्रकार समझना चाहिए - इसके पूर्व में भगवती सूत्र शतक दो और उद्देशक आठ तथा शतक सोलह उद्देशक नौ में यह बतलाया गया है कि यहाँ समतल भूमि भाग से चालीस हजार योजन नीचे जाने पर असुरकुमारों के इन्द्र चमरेन्द्र की चमरचंचा राजधानी और बलिन्द्र की बलिचंचा राजधानी है। जीवाजीवाभिगम सूत्र में बतलाया गया है कि सातों नरकों के उनपचास प्रस्तट (प्रतर-पाथड़ा) हैं उनमें रत्नप्रभा के तेरह प्रस्तट हैं। दूसरी नरक के ग्यारह, तीसरी के नौ, चौथी के सात, पांचवीं के पांच, छठी के तीन और सातवीं का एक। इस तरह ये कुल उनपचास प्रस्तट हैं। एक प्रस्तट से दूसरे प्रस्तटं तक बीच में जो खाली जगह (पोलार) है। उसको अन्तर (अन्तराल) कहते हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी के जब तेरह प्रस्तट हैं। तो बारह अन्तराल है यह स्वतः ही सिद्ध हो जाता है। एक प्रस्तट की मोटाई तीन हजार योजन की है उसमें एक हजार योजन नीचे और एक हजार योजन ऊपर छोड़ कर बीच के एक हजार योजन में नैरयिक जीव निवास करते हैं। उस प्रस्तट के बाद दूसरे प्रस्तट तक बीच का अन्तराल गणित के अनुसार ग्यारह हजार पांचसों तीयाँसी एक बटा तीन (११५८३२) योजन का मोटा होता है। उस अन्तराल में भवनपति देव रहते हैं। इस प्रकार दो प्रस्तट और दो अन्तराल की मोटाई २९१६६० योजन की आती है। इसके बाद तीन हजार योजन मोटाई वाला तीसरा प्रस्तट आता है ( २९१६६२ + ३०००=३२१६६२) इसके बाद ३२१६६० योजन के बाद तीसरा अन्तराल प्रारम्भ होता है। जो ४३७५० योजन तक गया है। इस दृष्टि से असुर कुमार जाति के देव इस तीसरे अन्तराल में वसते हैं। इसके बाद चौथा प्रस्तट तीन हजार योजन का आता है। फिर चौथा अन्तराल आता है उसमें दूसरे भवनपति नागकुमार जाति के देवों के भवन हैं। इस प्रकार इस गणित के अनुसार १४५८३२ योजन के बाद पांचवाँ अन्तराल आता है। इसी क्रम से छठा, सातवाँ आदि अन्तराल गिनते हुए बारहवें अन्तराल में दसवीं जाति के भवनपति स्तनितकुमार देव रहते हैं। जो कि यहाँ से १६३४१६० योजन नीचे समतल भूमि से नीचे जाने पर बारहवाँ अन्तराल आता है। उस अन्तराल में स्तनितकुमार देव निवास करते हैं। . For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वाणव्यंतर देवों के स्थान २१३ ************************- *-*-*-*-*-* *-*-*-*-*-*-*-* वाणव्यंतर देवों के स्थान कहि णं भंते! वाणमंतराणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! वाणमंतरा देवा परिवसंति?, गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयण सहस्स बाहल्लस्स उवरि एगं जोयणसयं ओगाहित्ता, हिट्ठा वि एगं जोयणसयं वजित्ता मझे अट्ठसु जोयणसएसु एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा भोमिज्ज णयरावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। __ ते णं भोमिज्जा णयरा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, अहे पुक्खरकण्णिया संठाण संठिया, उक्किण्णंतर-विउल गंभीर खायफलिहा, पागारट्टालय-कवाड-तोरणपडिदुवारदेसभागा, जंतसयग्धिमुसल-मुसुंढिपरिवारिया, अउज्झा, सयाजया, सदागुत्ता, अडयाल कोट्ठग रइया, अडयाल कयवणमाला, खेमा, सिवा, किंकरामरदंडोवरक्खिया, लाउल्लोइयमहिया, गोसीस सरस रत्तचंदण दद्दर दिण्ण पंचंगुलितला, उवचिय चंदण कलसा, चंदण घड सुकय तोरण पडिदुवार देसभागा, आसत्तोसत्त विउल वट्टवग्धारिय मल्ल दाम कलावा, पंच वण्ण सरस सुरहि मुक्क पुष्फ पुंजोवयार कलिया, कालागरु पवर कुंदुरुक्क तुरुक्क धूव मघमघंत गंधुद् धुयाभिरामा, सुगंधवरगंधिया, गंधवट्टिभूया, अच्छरगणसंघसंविकिण्णा, दिव्व तुडिय सद्द संपणइया, पडागमालाउलाभिरामा, सव्वरयणामया, अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्ठा, मट्ठा, णोरया, णिम्मला, णिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, सप्पहा, सस्सिरीया, समरीइया, सउज्जोया, पासाईया, दरिसणिजा, अभिरूवा, पडिरूवा। एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं पज्जत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोयस्स असंखिजइभागे।तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा परिवसंति। तंजहा - पिसाया, भूया, जक्खा, रक्खसा, किंणरा, किंपुरिसा, भुयगवइणो य महाकाया, गंधव्व गणा य णिउणगंधव्व गीयरइणो, अणवण्णिय पणवण्णिय-इसिवाइय भूयवाइय कंदिय-महाकंदिया य कुहंड For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना सूत्र ***** * * * * * * * * ************************* ******* * * * * * * * * * * * * * * पयंगदेवा चंचल चल चवल चित्त कीलण दवप्पिया गहिर हसियगीयणच्चणाई वणमाला मेलमउडकुंडल सच्छंदविउव्वियाभरणचारुभूसणधरा, सव्वोउय सुरभि कुसुमसुरइय-पलंब-सोहंत-कंत-वियसंत-चित्त-वणमालरइयवच्छा, कामगमा (कामकामा), कामरूवदेहधारी, णाणाविह वण्ण राग वर वत्थ विचित्त चिल्ललग णियंसणा, विविह देसी णेवत्थ गहियवेसा पमुइय कंदप्प कलह केलि कोलाहलप्पिया हासबोलबहुला, असिमुग्गरसत्तिकुंतहत्था, अणेग मणिरयण विविह-णिज्जुत्त विचित्त चिंधगया, महिड्डिया, महज्जुइया, महायसा, महाबला, महाणुभागा, महासुक्खा, हारविराइयवच्छा, कडय तुडिय थंभिय भुया, अंगय कुंडल मट्ठ गंडयल कण्णपीढधारी, विचित्तहत्थाभरणा, विचित्तमाला-मउलिमउडा, कल्लाणग पवर वत्थपरिहिया, कल्लाणग पवर मल्लाणुलेवणधरा, भासुरबोंदी, पलंब वणमालधरा, दिव्वेणं वण्णेणं, दिव्वेणं गंधेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिव्वेणं संघयणेणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए इड्डीए, दिव्वाए जुईए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चीए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेस्साए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा, पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं असंखिज भोमिज णयरावास सयसहस्साणं, साणं साणं सामाणिय साहस्सीणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं, साणं साणं परिसाणं, साणं साणं अणियाणं, साणं साणं अणियाहिवईणं, साणं साणं आयरक्ख देव साहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टित्तं, महत्तरगत्तं, आणाईसरसेणावच्चं, कारेमाणा, पालेमाणा, महया-हयणट्टगीयवाइयतंतितलतालतुडियघण मुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरंति॥११६॥ ____ कठिन शब्दार्थ - चंचल चल चवल चित्त कीलण दवप्पिया - चंचल (अनवस्थित) और चलचपल (अतिशय चपल) चित्त वाले, क्रीडा और हास्य प्रिय, गहिर हसिय गीय णच्चण रई - गंभीर हास्य, गीत और नृत्य में रत, वणमाला मेलमउड कुंडल-सच्छंद विउव्वियाभरण चारुभूसणधरा - वनमाला, कलंगी, मुकुट, कुण्डल और इच्छानुसार विकुर्वित सुंदर आभूषणों को धारण करने वाले, सव्वोउय सुरभि कुसुम सुरइय पलंब सोहंत कंत विहसंत चित्त वणमालरइयवच्छा - सभी ऋतुओं For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वाणव्यंतर देवों के स्थान २१५ *********** ****************************************************************** में होने वाले सुगंधित पुष्पों से सुरचित (अच्छी तरह गूंथी हुई) लम्बी शोभनीय, कांत-प्रिय खिलती हुई विचित्र वनमाला से सुशोभित वक्ष स्थल वाले, कामरूव देहधारी - इच्छानुसार रूप और देह के धारक, णाणा विहवण्ण राग वर वत्थ विचित्त चिल्लल गणियंसणा - नाना प्रकार के वर्णों वाले श्रेष्ठ विचित्र देदीप्यमान वस्त्रों को पहनने वाले, विविह देसिणेवत्थ गहियवेसा - विविध देशों की वेशभूषा धारण करने वाले, पमुइय कंदप्प कलह केलि कोलाहलप्पिया - प्रमुदित कन्दर्प, कलह केलि (क्रीड़ा) और कोलाहल जिन्हें प्रिय है, असि मुग्गर सत्ति कुंतहत्था - तलवार मुद्गर, शक्ति (शस्त्र विशेष) और भाला जिनके हाथ में है। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वाणव्यंतर देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! वाणव्यंतर देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय कांड के ऊपर एक सौ योजन अवगाहन (प्रवेश) करके तथा नीचे एक सौ योजन छोड़ कर मध्य के आठ सौ योजन में वाणव्यंतर देवों के तिरछे असंख्य भूमिगृह के समान लाखों नगरावास हैं। ऐसा कहा गया है। वे भूमि संबंधी नगर बाहर से गोल, अंदर से चौरस तथा नीचे से कमल की कर्णिका के आकार वाले हैं। उन नगरावासों के चारों ओर गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ एवं परिखाएँ हैं, जिनका अंतर स्पष्ट प्रतीत होता है। वे नगरावास यथा स्थान प्राकारों, अट्टालकों, कपाटों, तोरणों एवं प्रतिद्वारों से युक्त हैं जो विविध यंत्रों, शतघ्नियों, मूसलों एवं मुसुण्ढियों आदि से युक्त हैं। वे शत्रुओं द्वारा अयोध्य, सदा जयी, सदागुप्त, ४८ कोष्ठकों से रचित, ४८ वनमालाओं से सुसज्जित क्षेम (उपद्रव रहित) और शिवमय किंकरदेवों के दण्डों से रक्षित है। गोबर आदि से लीपने और चूने आदि से पोतने के कारण सुशोभित उन नगरावासों पर गोशीर्ष चन्दन और सरस रक्त चंदन से लिप्त हाथों से छापे लगे हुए होते हैं। जहाँ चंदन के कलश रखे हुए होते हैं। उनके तोरण और प्रतिद्वार चंदन के घड़ों से सुशोभित होते हैं। वे ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी और विपुल पुष्पमालाओं के गुच्छों से युक्त तथा पंच वर्ण के सरस सुगंधित पुष्पों की शोभा से युक्त होते हैं। वे काले अगर श्रेष्ठ चीड़ा, लोबान तथा धूप की महकती हुई सुगंध से रमणीय और सुगंधित बने हुए होते हैं। जो गंध की बट्टी के समान हैं। अप्सरागण के संघों से व्याप्त, दिव्य वादिन्त्रों के शब्दों से शब्दायमान, पताकाओं की पंक्ति से मनोहर, सर्व रत्नमय हैं, ___ अति स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे हुए साफ किये हुए, रज रहित निर्मल, निष्पंक, निरावरण कांतिवाले, प्रभा वाले किरणों से युक्त, उद्योत वाले, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप होते हैं। ऐसे नगरावासों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक वाणव्यन्तर देवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात, समुद्घात और स्वस्थान तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं जहाँ बहुत से . For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ प्रज्ञापना सूत्र वाणव्यंतर देव निवास करते हैं। वे इस प्रकार हैं - १. पिशाच २. भूत ३. यक्ष ४. राक्षस ५. किन्नर ६. किम्पुरुष ७. महाकाय भुजगपति महोरग ८. निपुण गन्धर्व गायन में अनुरक्त गन्धर्व गण । इनके आठ अवान्तर भेद १. अणपनिक २. पणपन्त्रिक ३. ऋषिवादित ४. भूतवादित ५.. क्रन्दित ६. महाक्रन्दित ७. कूष्माण्ड और ८. पतंग देव । ये सभी चंचल और अत्यंत चपल चित्त वाले क्रीड़ा में तत्पर और हास्य प्रिय होते हैं। गंभीर हास्य गीत और नृत्य में प्रीति वाले, वनमाला, कलंगी, मुकुट तथा इच्छानुसार विकुर्वित सुंदर आभूषणों के धारक, सभी ऋतुओं में होने वाले सुगंधित पुष्पों से सुरचित लम्बी शोभनीय सुंदर और खिलती हुई विचित्र वनमाला से जिनका वक्षस्थल सुशोभित रहता है। स्वेच्छा से कामभोगों का सेवन करने वाले, इच्छानुसार रूप और देह के धारक, नाना प्रकार के वर्णों वाले श्रेष्ठ विचित्र देदीप्यमान वस्त्रों को करने वाले और विविध देशों की वेशभूषा धारण करने वाले होते हैं। प्रमुदित तथा कंदर्प, कलह, क्रीड़ा और कोलाहल जिन्हें प्रिय हैं, पुष्कल हास्य और कोलाहल करने वाले, जिनके हाथों में तलवार, मुद्गर, शक्ति और भाले हैं। ये अनेक प्रकार के मणियों और विविध रत्नों से युक्त विचित्र चिह्नों वाले. महर्द्धिक, महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाबली, महासामर्थ्यशाली, महासुखी और सुशोभित वक्षस्थल वाले होते हैं। जिनकी भुजाएँ कड़ों और बाजूबंद से स्तब्ध है । अंगद, कुंडल और कपोल प्रदेशों को स्पर्श करने वाले कर्णपीठ - कर्णाभरणों को धारण करने वाले, जिनके हाथों में विचित्र आभूषण और मस्तक में विचित्र मालाएँ होती है। ये कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और विलेपन के धारक, देदीप्यमान शरीर वाले और लम्बी लटकती हुई वनमाला को धारण करने वाले, दिव्य वर्ण, दिव्य गंध, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन, दिव्य संस्थान, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति दिव्य प्रभा, दिव्य छाया, दिव्य अर्चि, दिव्य तेज एवं दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को प्रकाशित सुशोभित करते हुए वे वाणव्यंतर देव वहाँ अपने अपने लाखों भौमेय नगरावासों का, अपने अपने हजारों सामानिक देवों का अपनी अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी अपनी परिषदों का, अपनी अपनी सेवाओं का अपने अपने सेनाधिपति देवों का अपने अपने आत्म रक्षक देवों का और अन्य बहुत वाणव्यंतर देवों और देवियों का आधिपत्य, अग्रेसरत्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महानता, आज्ञा से ईश्वरत्व एवं सेनापतित्व करते हुए और कराते हुए तथा उनका पालन करते हुए और कराते हुए वे नित्य प्रर्वतमान नृत्य, गायन वादिंत्र, तंती, तल, ताल, त्रुटित और घन मृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य प्रधान भोगने योग्य भोगों को भोगते हुए विचरण करते रहते हैं । ********* * * * * * * * * * प्रश्न- मूल पाठ में " वाणमंतर" शब्द दिया है सो शुद्ध शब्द वाणमंतर है या वाणव्यन्तर और इसकी व्युत्पति क्या है ? उत्तर - इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है- "विगतमन्तरं मनुष्येभ्यः येषां ते व्यन्तराः, तथाहि For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वाणव्यंतर देवों के स्थान मनुष्यान् अपि चक्रवर्ती वासुदेव प्रभृतीन भृत्यवत् उपचरन्ति केचित् व्यन्तरा इति मनुष्येभ्यः विगतान्तराः, यदि वा विविधमन्तरं शैलान्तर कन्दरान्तरं वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां वे व्यन्तराः, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे वाणमन्तरा इति पाठः । यदि वानमन्तरा इति पदसंस्कारः, तत्रेयं व्युत्पत्तिःवनानामन्तराणि वनान्तराणि तेषु भवा वानमन्तराः । अर्थ - मनुष्य तिर्च्छा लोक में रहते हैं और व्यन्तर देव भी तिच्र्च्छा लोक में ही रहते हैं । इसलिये इनका और मनुष्यों का परस्पर अन्तर नहीं है तथा सोलह हजार व्यन्तर देव चक्रवर्ती की सेवा में और आठ हजार व्यन्तर देव वासुदेव की सेवा में रहते हैं और एक नौकर की तरह इन पुरुषोत्तमों की सेवा करते हैं । इस तरह से मनुष्य और इन देवों में परस्पर कोई अन्तर नहीं रहता इसलिए इनको व्यन्तर कहते हैं। वाणमन्तर (वाणव्यन्तर) भी इनको कहते हैं इसका कारण यह है कि ये देव वनों (जङ्गलों) पहाड़ तथा गुफाओं के अन्तराल में भी रहते हैं । इसलिये इनको वाणव्यन्तर देव कहते हैं । प्राकृत का पाठ होने से बीच में मकार का आगम हो जाता है। इसलिए इनको वाणमन्तर देव भी कहते हैं । २१७ वाणव्यन्तर देवों के नगर द्वीपों के नीचे ही समझना चाहिये। समुद्रों के नीचे नहीं । क्योंकि समुद्र तो स्वयं एक हजार योजन के गहरे (ऊण्डे) होते हैं । अतः समुद्रों के नीचे वाणव्यन्तर देवों के नगर संभव नहीं है। क्योंकि यहाँ पर दूसरे पद में व्यन्तर देवों के स्थान ८०० योजन में तिर्यग्लोक में ही बताये हैं। जिस प्रकार असुरकुमार आदि भवनवासी एक - एक अन्तर में रहने वाले होते हुए भी उन्हें एक लाख ७८ हजार योजन के क्षेत्र में होना बताया गया है। उसी प्रकार वाणव्यन्तर की १६ जातियाँ भी आठ सौ योजन के क्षेत्र में बताई गई हैं। वहाँ पर भी उन्हें ऊपर नीचे समझना उचित ध्यान में आता है अतः व्यंतर नगरों के ऊपर ८०० योजन का खुला आकाश होने की संभावना कम है क्योंकि व्यंतर देव की अपेक्षा ज्योतिषी संख्यात गुणा ही अधिक होते हुए भी ११० योजन की मोटाई (ऊंचाई) में वह लगभग एक रज्जु की तिरछाई तक ऊपर नीचे सर्वत्र है। जबकि वाणव्यंतरों के नगर तो द्वीपों के नीचे ही है। समुद्रों के नीचे नहीं है। समुद्रों का भाग ही अधिक होता है अतः उन्हें आठ ऊपर नीचे मानने पर ही उनका समावेश हो सकता है। दस योजन में 1 ******* यद्यपि भवनपति के भवन व वैमानिक के विमान नगरवत् होते हैं तथापि आगमकारों ने वाणव्यंतरों के लिए ही नगरावास शब्द प्रयुक्त किया है । भवनपति के भवनों एवं वैमानिक के विमानों के लिए नहीं । जैसे आज भी बिल्डिंग, बंगला, हवेली आदि में अंतर होता है वैसे ही इनके आकार प्रकार में कुछ भिन्नता होगी, अतः भिन्न-भिन्न शब्द का प्रयोग किया है। कहि णं भंते! पिसायाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! पिसाया देवा परिवसंति ? For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८१, ******************************* प्रज्ञापना सूत्र गोमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयण सहस्स 'बाहल्लस्स उवरि एगं जोयणसयं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसयं वज्जित्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु, एत्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा भोमेज णयरावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं । ते णं भोमेज्ज णयरा बाहिं वट्टा जहा ओहिओ भवण वण्णओ तहा भाणियव्वो जाव पडिरूवा । एत्थ णं पिसायाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइभागे। तत्थ णं बहवे पिसाया देवा परिवसंति, महिड्डिया जहा ओहिया जाव विहरति । काल महाकाला इत्थ दुवे पिसाइंदा पिसाय रायाणो परिवसंति, महिड्डिया महज्जुइया जाव विहति ॥ ११७ ॥ भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं । हे भगवन् ! पिशाच देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर एक सौ योजन अवगाहन कर तथा नीचे एक सौ योजन को छोड़ कर मध्य के आठ सौ योजन में पिशाच देवों के तिरछे भूमि संबंधी असंख्यात लाख नगर हैं। ऐसा कहा गया है - वे भूमि सम्बन्धी नगर बाहर से गोल हैं इत्यादि वर्णन सामान्य भवन वर्णन प्रमाण यावत् प्रतिरूप - नवीन नवीन रूप को धारण करने वाले हैं तक कह देना चाहिए। वहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से पिशाच देव रहते हैं । वे महाऋद्धि वाले इत्यादि सामान्य वर्णन यावत् - विचरण करते हैं वहाँ तक जानना चाहिए । यहाँ काल और महाकाल नाम के दो पिशाच इन्द्र और पिशाच राजा रहते हैं । वे महाऋद्धि त्राले महाद्युति वाले यावत् विचरण करते हैं तक जानना चाहिये। कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ता पंज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति ? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयण सहस्स बाहल्लस्स उवरिं एगं जोयणसयं ओगाहित्ता हेट्ठा गंजोयणसयं वज्जित्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएस एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा भोमेज्ज णयरा वास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं । ते णं भवणा जहा ओहिओ भवण वण्णओ तहा भाणियव्वो जाव पडिरूवा । एत्थ णं For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वाणव्यंतर देवों के स्थान २१९ ********* *-*-*-*-* *-*-*-*-*. . ******************** *-*-*-*- *- * दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइभागे। तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति, महिड्डिया जहा ओहिया जाव विहरंति। कोले एत्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसइ, महिड्डिए जाव पभासेमाणे। से णं तत्थ तिरियमसंखिजाणं भोमेज णयरावास सयसहस्साणं, चउण्हं सामाणिय साहस्सीणं, चउण्ह य अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, सोलसण्हं आयरक्ख देव साहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव विहरइ। उत्तरिल्लाणं पुच्छा। गोयमा! जहेव दाहिणिल्लाणं वत्तव्वया तहेव उत्तरिल्लाणं पि। णवरं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं। महाकाले एत्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसइ जाव विहरइ। एवं जहा पिसायाणं तहा भूयाणं पि जाव गंधव्वाणं। णवरं इंदेसु णाणत्तं भाणियव्वं इमेण विहिणा-भूयाणं सुरूव पडिरूवा, जक्खाणं पुण्णभद्द माणिभद्दा, रक्खसाणं भीम महाभीमा, किण्णराणं किण्णर किंपुरिसा, किंपुरिसाणं सप्पुरिस महापुरिसा, महोरगाणं अइकाय महाकाया, गंधव्वाणं गीयरइ गीयजसा जाव विहरइ।. काले य महाकाले सुरूव पडिरूव पुण्णभद्दे य। तह चेव * माणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे॥१॥ किण्णर किंपुरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे। अइकाय महाकाए गीयरई चेव गीयजसे॥२॥११८॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! दक्षिण दिशा के पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के पिशाच देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! जंबूद्वीप नामक द्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिण में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर एक सौ योजन अवगाहन करके तथा नीचे एक सौ योजन छोड़ कर मध्य के आठ सौ योजन में दक्षिण दिशा के पिशाच देवों के तिरछे असंख्यात लाख भौमेय (भूमि संबंधी) नगर हैं, ऐसा कहा गया है। वे नगर बाहर से गोल इत्यादि सारा वर्णन सामान्य भवनों के वर्णन अनुसार यावत् प्रतिरूप है तक जानना चाहिए। यहाँ दक्षिण दिशा के पर्याप्तक और अपर्याप्तक *"तह चेव' के स्थान पर 'अमरवइ' पाठ भी मिलता है। For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ********** प्रज्ञापना सूत्र पिशाच देवों के स्थान हैं। वे उपपात, समुद्घात और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से दक्षिण दिशा के पिशाच देव रहते हैं । वे महाऋद्धि वाले इत्यादि औधिक - सामान्य वर्णन यावत् विचरण करते हैं वहाँ तक जानना चाहिए । यहाँ काल नामक पिशाच देवों का इन्द्र और पिशाच देवों का राजा रहता है वह महा ऋद्धि वाला यावत् दशों दिशाओं को प्रकाशित करता है। वहाँ तिरछे असंख्यात लाख भौमेय ( भूमि संबंधी) नगरों का, चार हजार सामानिक देवों का, परिवार सहित चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात प्रकार की सेना का, सात सेनाधिपतियों का, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से वाणव्यंतर देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। 1 केके के केके के के **** उत्तरदिशा के पिशाच देवों संबंधी प्रश्न ? हे गौतम! जिस प्रकार दक्षिण दिशा के पिशाच देवों संबंधी वक्तव्यता कही है उसी प्रकार उत्तर दिशा के पिशाच देवों का वर्णन समझना चाहिये। विशेषता यह है कि इनके नगरावास मेरु पर्वत के उत्तर में हैं । यहाँ महाकाल नामक पिशाच देवों का इन्द्र, पिशाच देवों का राजा रहता है यावत् विचरण करता है। इस प्रकार जैसे दक्षिण दिशा और उत्तर दिशा के पिशाच देवों और उनके इन्द्रों के स्थानों का वर्णन किया गया है। उसी तरह भूत देवों का यावत् गंधर्व देवों तक का वर्णन समझना चाहिए। परन्तु इन्द्रों संबंधी विशेषता इस प्रकार कहनी चाहिए-भूतों के सुरूप और प्रतिरूप दो इन्द्र हैं। यक्षों के पूर्णभद्र और माणिभद्र, राक्षसों के भीम और महाभीम, किन्नरों के किन्नर और किम्पुरुष, किंपुरुषों के सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगों के अतिकाय और महाकाय तथा गंधर्वों के गीत रति और गीतयश इन्द्र यावत् विचरण करता है तक जानना चाहिए । नीचे दी हुई दो गाथाओं में भी वाणव्यन्तर देवों के इन्द्रों के नाम हैं । उन गाथाओं का अर्थ इस प्रकार है। आठ प्रकार के वाणव्यंतर देवों के दो दो इन्द्र क्रमश: इस प्रकार हैं - १. काल और महाकाल २. सुरूप और प्रतिरूप ३. पूर्णभद्र और माणिभद्र ४. भीम तथा महाभीम ५. किनर और किम्पुरुष ६. सत्पुरुष और महापुरुष ७. अतिकाय और महाकाय ८. गीत रति और गीतयश । कहि णं भंते! अणवण्णियाणं देवाणं ठाणा पज्जत्ता पज्जत्तगाणं पण्णत्ता ? कहि णं भंते! अणवणिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरि हेट्ठा य एगं जोयणसयं वज्जित्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु । एत्थ णं अणवणियाणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा णयरा वास सयसहस्सा भवतीति मक्खायं । ते णं जाव पडिरूवा । एत्थ णं अणवण्णियाणं देवाणं ठाणा पण्णत्ता । For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वाणव्यंतर देवों के स्थान उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखिज्जइभागे । तत्थ णं बहवे अणवण्णिया देवा परिवसंति । महिड्डिया जहा पिसाया जाव विहरति । सण्णिहियसामाणा इत्थ दुवे अणवण्णिंदा traणरायाणो परिवसंति। महिड्डिया, एवं जहा कालमहाकालाणं दोन्हं पि दाहिणिल्लाणं उत्तरिल्लाण य भणिया तहा सण्णिहियसामाणाणं पि भाणियव्वा । संगही गाहा ****************** अणवण्णिय-पणवण्णिय इसिवाइय- भूयवाइया चेव । कंदिय महाकंदिय कोहंड पयंगए चेव ॥ १॥ इमे इंदा - संणिहिया सामाणा धायविधाए इसी य इसिवाले । ईसर महेसरे विय हवइ सुवच्छे विसाले य ॥ २ ॥ हासे हासरई चेव * सेए तहा भवे महासेए । पयए पयगवई विय णेयव्वा आणुपुव्वीए ॥ ३ ॥ ११९॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अणपत्रिक देवों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! अणपन्त्रिक देव कहाँ रहते हैं ? २२१ उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर एक . सौ योजन और नीचे एक सौ योजन छोड़ कर मध्य में आठ सौ योजन में अणपन्त्रिक देवों के तिरछे असंख्यात लाख नगरावास है, ऐसा कहा गया है। वे नगरावास यावत् प्रतिरूप हैं। वहाँ अणपत्रिक देवों के स्थान हैं। वे उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से अणपत्रिक देव रहते हैं। वे महाऋद्धि वाले इत्यादि वर्णन पिशाच देवों की तरह यावत् विचरण करते हैं तक जानना चाहिए । यहाँ सन्निहित और सामान्य ये दो अणपन्निकों के इन्द्र और अणपत्रिक देवों के राजा रहते हैं। वे महाऋद्धि वाले इस प्रमाण जैसे दक्षिण और उत्तर दिशा के पिशाच इन्द्र काल और महाकाल के संबंध में कहा गया है उसी प्रकार सन्निहित और सामान्य इन्द्र संबंधी भी कहना चाहिये । संग्रहणी गाथाओं का अर्थ वाणव्यंतर देवों के आठ अवान्तरं भेद १. अणपन्निक २. पणपन्निक ३. ऋषिवादित ४. भूतवादित ५. क्रंदित ६. महाक्रंदित ७. कुस्माण्ड और ८. पतंगदेव । * पाठान्तर 'विय' । - For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ******** ************************ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************ इनके दो दो इन्द्र इस प्रकार हैं - १. सन्निहित और सामान्य २. धाता और विधाता ३. ऋषि और ऋषिपात ४. ईश्वर और महेश्वर ५. सुवत्स और विशाल ६. हास और हासरति ७. श्वेत और महाश्वेत ८. पतंग और पतंगपति । ये क्रमशः जानने चाहिये । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वाणव्यंतर देवों के स्थानों, दक्षिण और उत्तरदिशा के देवों के इन्द्रों के स्वरूप एवं वैभव प्रभाव आदि का वर्णन किया गया है। 'वाणमंतर' शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है - - "वनानाम् अन्तराणि वनान्तराणि तेषु भवा वानमन्तराः । " अर्थ - वनों के बीच-बीच में जिनके भवन हैं उन्हें वाणव्यन्तर कहते हैं। इनका दूसरा नाम 'व्यन्तर' भी है। जिसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है - " विगतं अन्तरं मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः, तथाहि मनुष्यान् अपि चक्रवर्तिवासुदेव प्रभृतीन्, भृत्यवत् उपचरन्ति, केचित् व्यन्तरा इति मनुष्येभ्यो विगतान्तराः, यदि वा विविधं अन्तरं शैलान्तरं, कन्दरान्तरं, वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते व्यन्तराः । " अर्थ - मनुष्यों से जिनका भेद (पृथक्पना) नहीं है, उन्हें व्यन्तर कहते हैं क्योंकि कितने ही व्यन्तर देव महान् पुण्यशाली चक्रवर्ती वासुदेव आदि मनुष्यों की सेवा नौकरों की तरह किया करते हैं अथवा व्यन्तर देवों के भवन, नगर और आवास रूप निवास स्थान विविध प्रकार के होते हैं तथा पहाड़ों और गुफाओं के अन्तरों में तथा वनों के अन्तरों में ये वसते हैं। इसलिये भी इन्हें व्यन्तर देव कहते हैं । व्यन्तर देवों के आवास तीनों लोकों में हैं । सलिलावती विजय की अपेक्षा अधोलोक में, जम्बूद्वीप के द्वाराधिपति विजय देव की राजधानी यहाँ से असंख्यात द्वीप समुद्र उल्लंघन करने के बाद अन्य जम्बू द्वीप आता है। उस जम्बू द्वीप में है । इस अपेक्षा तिच्र्च्छा लोक में तथा मेरु पर्वत के पण्डक वन आदि में व्यन्तर देवों के आवास होने से ऊर्ध्व लोक में भी व्यन्तर देवों के आवास हैं । इस प्रकार व्यन्तर देवों का आवास तीनों लोक में है तथापि मुख्य आवास तो तिरछा लोक में ही है। अणपणिक आदि आठ भेद किसमें समाविष्ट होते हैं, इसका वर्णन तो नहीं मिलता है परन्तु इनके भी स्वतंत्र इन्द्र बताये हैं अतः मूल भेद ज्ञानी गम्य है, किन्तु पिशाच आदि आठ भेदों की अपेक्षा कुछ हीन ऋद्धि वाले तो होते ही हैं तथा अणपण्णिक आदि देवों से जृंभक देव हीन जाति के समझना चाहिये । यद्यपि व्यंतरों के १६ भेदों में दस जृंभकों का अन्तर्भाव हो जाने के कारण यहाँ जृंभकों के अलग स्थान नहीं बताये हैं तथापि ये वेश्रमण लोकपाल के पुत्र स्थानीय होने से भगवती सूत्र में इनके विशिष्ट स्थान (चित्र, विचित्र पर्वत और दो जमक पर्वत आदि) बताये गये हैं। जृंभक के इन्द्र नहीं बताये गये हैं तथापि ये जिस जाति में समाविष्ट होते होंगे उस जाति के इन्द्र उनके अधिपति हो सकते हैं तथा जृंभकों की संख्या भी बहुत कम होती है । For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - ज्योतिषी देवों के स्थान २२३ ** * * ** ** ************************************************************************ ज्योतिषी देवों के स्थान कहि णं भंते! जोइसियाणं देवाणं पजत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! जोइसिया देवा परिवसंति? ___ गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सत्त णठए जोयणसए उड्डं उप्पइत्ता दसुत्तरजोयणसयबाहल्ले तिरियमसंखिजे जोइस विसए। एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा जोइसिय विमाणा वास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। __ ते णं विमाणा अद्ध कविठ्ठग संठाणसंठिया, सव्वफालिहमया, अब्भुग्गयमूसियपहसिया इव विविहमणिकणगरयणभत्तिचित्ता, वाउद्धयविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइछत्त-कलिया, तुंगा, गगणतलमहिलंघमाणसिहरा( गगणतलमणुलिहमाण सिहरा) जालंतर-रयण-पंजलुम्मिलियव्व-मणि-कणग-थूभियागा, वियसिय-सयवत्तपुंडरीया, तिलय-रयणद्ध-चंदचित्ता, णाणामणिमयदामालंकिया, अंतो बाहिं च सण्हा, तवणिज-रुइल-वालुया-पत्थडा, सुहफासा, सस्सिरीया, सुरूवा, पासाईया, दरिसणिजा, अभिरूवा, पडिरूवा। एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं पजत्ता-पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिजइभागे। तत्थ णं बहवे जोइसिया देवा परिवसंति। तंजहा - बहस्सई, चंदा, सूरा, सुक्का, सणिच्छरा, राहू, धूमकेऊ, बुहा, अंगारगा, तत्त तवणिज कणगवण्णा जे य गहा जोइसम्मि चारं चरंति केऊ य गइरइया अट्ठावीसइविहा णक्खत्त देवयगणा, णाणा संठाणसंठियाओ पंच वण्णाओ तारयाओ ठियलेसाचारिणो, अविस्साम मंडलगई, पत्तेय णामंक पागडिय चिंधमउडा महिड्यिा जाव पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसहस्साणं, साणं साणं सामाणिय साहस्सीणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, साणं साणं परिसाणं, साणं साणं अणियाणं, साणं साणं अणियाहिवईणं, साणं साणं आयरक्खदेव साहस्सीणं, अण्णेसिंच बहूणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव विहरंति। चंदिम सूरिया इत्थ दुवे जोइसिंदा जोइसिय रायाणो परिवसंति, महिड्डिया जाव For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ प्रज्ञापना सूत्र ************** *************************** **************************************** पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं जोइसिय विमाणावास सयसहस्साणं, चउण्हं सामाणिय-साहस्सीणं, चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणीयाणं, सत्तण्हं अणीयाहिवईणं, सोलसण्हं आयरक्ख देवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव विहरंति॥१२०॥ ___ कठिन शब्दार्थ - बहुसम रमणिज्जाओ भूमिभागाओ - बहुत सम रमणीय भूमि भाग से, उप्पइत्ता- ऊपर जाने पर, जोइसविसए - ज्योतिषियों का विषय, अब्भुग्गयमूसियपहसिया - चारों दिशाओं में फैली हुई कांति से उज्वल, विविह मणि रयण भत्तिचित्ता - अनेक प्रकार की मणियों एवं रत्नों से चित्रित, वाउछ्य विजय वेजयंती पडागा - वायु से प्रेरित विजय वैजयंती पताकाओं से युक्त तथा, छत्ताइछत्त कलिया - छत्रातिछत्रों से अर्थात् एक छत्र के ऊपर दूसरा छत्र और दूसरे के ऊपर तीसरा छत्र। इस प्रकार छत्रों से सुशोभित, तुंगा - तुंग-बहुत ऊँचे, गगणतलंम अहिलंघमाणसिहरा - उनके शिखर आकाश तल को छूने वाले, जालंतर रयण पंजलुम्मिलियव्व - जालियों में रत्न जड़े हुए है पंजर यानी डिब्बे में से निकाले हुए के समान चमकदार, मणि कणगथूभियागा - सोने के शिखरों पर मणिया जड़ी हुई, वियसिय सयवत्त पुंडरीया - विकसित शत पत्र पुण्डरीक कमल के समान, तिलय रयणद्धचंद चित्ता - रत्नों के तिलक और अर्द्ध चन्द्रादि छापों से चित्रित, तवणिजरुइल वालुया पत्थडा - तपनीय सोने की बालु का के प्रस्तट। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक ज्योतिषी देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! ज्योतिषी देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अत्यंत सम एवं रमणीय भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन की ऊंचाई पर एक सौ दस योजन विस्तृत एवं तिरछे असंख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में ज्योतिषी देवों का विषय-निवास है। यहाँ ज्योतिषी देवों के तिरछे असंख्यात लाख ज्योतिषी विमान है। ऐसा कहा गया है। वे विमान आधे कवीठ के आकार के हैं और सर्व स्फटिकमय हैं। वे चारों ओर से निकली हुई और सभी दिशाओं में फैली हुई प्रभा से श्वेत हैं। विविध प्रकार के मणि स्वर्ण और रत्नों की छटा से चित्र-विचित्र हैं। वायु से उड़ी हुई विजय वैजयंती पताका और छत्र के ऊपर दूसरे छत्र आदि से युक्त, बहुत ऊँचे गगन तल चुम्बी शिखरों वाले हैं। उनकी जालियों के बीच लगे हुए रत्न ऐसे लगते हैं मानों पिंजरे से बाहर निकाले गए हों। मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं (शिखरों) से युक्त जिनमें शतपत्र और पुंडरीक कमल खिले हुए हैं। तिलकों और रत्नमय अर्द्धचन्द्रों से चित्र विचित्र, अनेक प्रकार की मणिमय मालाओं से सुशोभित अंदर और बाहर से कोमल (चिकने) हैं। उनके प्रस्तट (भूमि पीठ) तपनीय-सुवर्ण की मनोहर बालु वाले हैं। वे सुखद स्पर्श वाले, श्री-शोभा युक्त सुंदर रूप For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - ज्योतिषी देवों के स्थान २२५ ****************************** **************************************************** वाले, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक ज्योतिषिक देवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात समुद्घात और स्व स्थान इन तीनों की अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से ज्योतिषी देव रहते हैं। वे इस प्रकार हैं-बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहू, धूमकेतु, बुध एवं अंगारक (मंगल) ये तपे हुए तपनीय स्वर्ण जैसे वर्ण वाले हैं। जो ग्रह ज्योतिष चक्र में गति करते हैं। गति में रत, केतु तथा अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्र देव गण हैं। वे सब नाना प्रकार की आकृति वाले हैं। तारे पांच वर्ण के हैं और वे सब स्थित लेश्या वाले हैं। जिनका स्वभाव चर है वे विश्राम रहित निरंतर मंडल रूप गति करने वाले हैं। इन सब में प्रत्येक के मुकुट में अपने अपने नाम का चिह्न होता है। महान् ऋद्धि वाले यावत् प्रभासित करते हुए रहते हैं। यहाँ तक का सारा वर्णन पूर्ववत समझना चाहिये। - वे ज्योतिषी देव अपने अपने लाखों विमानावासों का, अपने अपने हजारों सामानिक देवों का, अपने अपने परिवार सहित अग्रमहिषियों का, अपनी अपनी सेनाओं का, अपने अपने सेनाधिपतियों का, अपने अपने हजारों आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य भी बहुत से ज्योतिषी देवों और देवियों का, आधिपत्य अग्रेसरत्व करते हुए यावत् विचरण करते हैं। यहाँ चन्द्र और सूर्य ये दो ज्योतिषी इन्द्र और ज्योतिषी राजा रहते हैं। जो महान् ऋद्धि वाले यावत् प्रभासित करते हुए तक पूर्ववत् समझना चाहिए। वे वहाँ अपने अपने लाखों ज्योतिषी विमानावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, सपरिवार चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपतियों का, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से देवों और देवियों का आधिपत्य अग्रेसरत्व करते हुए यावत् विचरण करते हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में ज्योतिषी देवों, उनके स्थानों चन्द्र और सूर्य इन दो देवों की ऋद्धि आदि का वर्णन किया गया है। प्रश्न - ज्योतिषी किसे कहते हैं इस की व्युत्पत्ति क्या है ? उत्तर - द्योतन्ते इति ज्योतींषि विमानानि, तन्निवासिनो ज्योतिष्काः।। ग्रहनक्षत्राऽऽदिषु ज्योतिष्षु नक्षत्रेषु भवा ज्योतिष्काः, शब्द व्युत्पत्ति एव इयं प्रवत्तिनिमित्ताऽऽश्रयणात त चन्द्राऽऽदयो ज्योतिष्का इति। . अर्थात् - जिनके विमान चमकते हैं। चमकीले विमान होने से उन्हें ज्योतिषी कहते हैं। उन चमकीले विमानों में रहने वाले देवों को ज्योतिषी देव कहते हैं। यह तो ज्योतिषी शब्द की व्युत्पत्ति मात्र है। प्रवृत्ति से तो चन्द्र, सूर्य आदि को ज्योतिषी देव कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ *********** प्रज्ञापना सूत्र **************************** ********* **************************** ज्योतिषी देवों के वर्णन में सर्व प्रथम 'बहु सम रमणीय भूमि भाग' शब्द आया है। उसका अर्थ यह है कि - मेरु पर्वत जमीन पर दस हजार योजन का जाड़ा (मोटा) है। उसके ठीक बीचों बीच में आठ रुचक प्रदेश हैं। उनको बहु सम रमणीय भूमि भाग कहा गया है। उस बहु सम रमणीय भूमिभाग से ७९० योजन पर तारा मण्डल है। वह तारा मण्डल ११० योजन में विस्तृत है। उसमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि ज्योतिषी देवों का वर्णन है। विशेष विवरण जीवाजीवाभिगम सूत्र के "ज्योतिष्क" नामक उद्देशक से जानना चाहिये। इस लोक का आकार नाचते हुए भोपे के आकार का है जो जामा पहनकर कमर पर दोनों हाथ रख कर तथा दोनों पैरों को कछ फैलाकर नाचता है। इस लोक की लम्बाई चौदह रज (राज) परिमाण है। इसका मध्य भाग पहली नरक के आकाशान्तर में है। अत: यह स्पष्ट होता है कि ऊर्ध्वलोक की लम्बाई सात राजु से कुछ कम है और अधोलोक की लम्बाई सात राजु से कुछ अधिक है। इन दोनों के . बीच में ति लोक आया हुआ है। अर्थात् मेरु पर्वत के मध्यभाग में आये हुए आठ रुचक प्रदेशों से ऊपर नौ सौ योजन तथा नीचे नौ सौ योजन इस प्रकार अठारह सौ योजन की मोटाई वाला ति लोक है। समतल भूमिभाग पर मनुष्य तथा तिर्यंच पशुपक्षी आदि निवास करते हैं। ज्योतिषी देव भी ति लोक में ही आये हुए हैं। बहुसम रमणीय भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर जाने पर तारामण्डल आता है। वहाँ से दस योजन ऊपर जाने पर सूर्य का मण्डल आता है जो कि समतल से (८००) आठ सौ योजन ऊँचा है। फिर अस्सी योजन ऊपर जाने पर चन्द्र मण्डल (चन्द्र विमान) आता है। आठ सौ चौरासी (८८४) योजन ऊपर जाने पर नक्षत्र मण्डल आता है फिर आठ सौ इठयासी (८८८) योजन पर बुध का विमान, आठ सौ इकराणु (८९१) योजन पर शुक्रग्रह का विमान, आठ सौ चोराणु (८९४) योजन पर बृहस्पति का विमान, आठ सौ सत्ताणु (८९७) योजन पर मंगल का विमान और नौ सौ योजन ऊपर जाने पर शनिश्चर का विमान आता है। इस प्रकार एक सौ दस योजन की मोटाई में सब ज्योतिषी देव रहते हैं। अढाई द्वीप के अन्दर वाले और बाहर वाले ज्योतिषी देवों के विमान का संस्थान आधे कविठ के आकार का है। अढ़ाई द्वीप के अन्दर वाले ज्योतिषी देवों के ताप (प्रकाश) क्षेत्र का आकार ऊर्ध्व मुंह किये हुए कदम्ब वृक्ष के पुष्प जैसा है और अढाई द्वीप के बाहर वाले ज्योतिषी देवों के ताप क्षेत्र का संस्थान पकी हुई ईंट के आकार का होता है। ज्योतिषी देवों के और अलोक के ग्यारह सौ ग्यारह (११११) योजन की दूरी है अर्थात् ज्योतिषी देवों से ग्यारह सो ग्यारह (११११) योजन दूरी पर अलोक है। सब ज्योतिषी देवों के विमान स्फटिक रत्नमय हैं। किन्तु लवण समुद्र के उदक शिखा के अन्दर वाले ज्योतिषी देवों के विमान दक स्फटिक रत्नमय है। For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - ज्योतिषी देवों के स्थान २२७ **************************************************************** प्रश्न - ज्योतिषी देवों के विमानों में परस्पर कितना अन्तर है? उत्तर - अढाई द्वीप के बाहर एक चन्द्रमा के विमान का दूसरे चन्द्रमा के विमान से एक लाख योजन का अन्तर है। इसी तरह एक सूर्य के विमान से दूसरे सूर्य के विमान का अन्तर एक लाख योजन का है। चन्द्रमा का और सूर्य के बीच का अन्तर पचास हजार योजन है। अढाई द्वीप के अन्दर ज्योतिषी देवों ताराओं के विमान का अन्तर दो प्रकार का है - व्याघात आसरी और निर्व्याघात आसरी। व्याघात आसरी जघन्य अन्तर दो सौ छासठ (२६६) योजन का है वह इस प्रकार है कि निषध पर्वत और नीलवन्त पर्वत चार-चार सौ योजन के ऊंचे हैं उनके ऊपर पांच पांच सौ योजन के कूट हैं। वे अढाई सौ अढाई सौ योजन के मोटे हैं। उनसे आठ-आठ योजन की दूरी पर ज्योतिषी चक्र है। इस प्रकार दो सौ छासठ (२६६) (८+८+२५०-२६६) योजन का जघन्य अन्तर है। उत्कृष्ट अन्तर बारह हजार दो सौ बयालीस (१२२४२) योजन का है वह इस प्रकार है कि मेरु पर्वत दस हजार योजन का चौड़ा है उससे ज्योतिषी चक्र ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर है इस प्रकार १२२४२ (११२१+११२१+१००००=१२२४२) योजन का उत्कृष्ट अन्तर है। निर्व्याघात आसरी जघन्य पांच सौ धनुष और उत्कृष्ट दो गाऊ का अन्तर है। प्रश्न - चन्द्र और सूर्य का ग्रहण कैसे होता है ? और कब होता है? उत्तर - सूर्य के विमान के नीचे राहू ग्रह का विमान है। गति में फर्क आने से जब वह सूर्य के विमान के आडा (सामने) आ जाता है तो सर्य ग्रहण होता है। सर्य ग्रहण जघन्य छह महीनों में और उत्कृष्ट अड़तालीस वर्षों में होता है। राहू का विमान पांचों वर्णों वाले रत्नों का है। चन्द्रमा के विमान के नीचे राहु का विमान है। वह भी पांचों वर्णों वाले रत्नों का है। राहु दो प्रकार का है - १. नित्य राहु और २. पर्व राहु । नित्य राहु कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन चन्द्रमा की एक-एक कला को ढकता जाता है। यावत् अमावस्या के दिन सब कलाओं को ढक देता है। शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन एक-एक कला को खुली करता जाता है। यावत् पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण चन्द्रमा खुला हो जाता है। जब पर्व राहु चन्द्रमा के आडा (सामने) आ जाता है तब चन्द्र ग्रहण होता है। चन्द्र ग्रहण जघन्य छह महीनों में और उत्कृष्ट बयालीस महीनों में होता है। सूर्य के एक सौ चौरासी मण्डल हैं। उनमें से ११९ (एक सो उगणीस) मण्डल लवण समुद्र में हैं और ६५ (पैसष्ट) मण्डल जम्बूद्वीप में हैं। एक मण्डल से दूसरे मण्डल में दो योजन की दूरी है। चन्द्रमा के पन्द्रह मण्डल हैं उनमें से दस मण्डल लवण समुद्र में हैं और पांच मण्डल जम्बूद्वीप में हैं। एक मण्डल से दूसरे मण्डल की दूरी पैंतीस योजन झाझेरी (अधिक) है। . चन्द्र, सूर्य, ग्रहण, नक्षत्र और तारा विमान इन सब का आकार आधा कविठ के आकार का है। चन्द्र का विमान, योजन लम्बा चौड़ा है। सूर्य का विमान 1, योजन, ग्रह का विमान आधा योजन, For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ नक्षत्र का विमान एक कोस और तारा का विमान आधा कोस का लम्बा चौड़ा है। सब की परिधि अपनी लम्बाई चौड़ाई से तिगुनी से अधिक है। चन्द्र विमान को १६००० और सूर्य विमान को १६००० देव, ग्रह विमान को ८००० देव, नक्षत्र विमान को ४००० देव और तारा विमान को २००० देव चारों दिशाओं में सिंह, हाथी, घोड़ा और बैल का रूप धारण कर उठाते हैं। यह उनका जीताचार है एवं उनके रुचि का विषय है। टीकाकार लिखते हैं कि इन का विस्तृत वर्णन चन्द्र प्रज्ञप्ति और सूर्य प्रज्ञप्ति की टीका में शंका समाधान सहित दिया गया है। अतः विशेष जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिए। चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा ये पांचों ज्योतिषी देव के भेद हैं। इन पांचों के दो भेद हैं - चर (चलने वाले) और अचर (नहीं चलने वाले अर्थात् स्थिर)। जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, अर्द्धपुष्करवर द्वीप ये अढ़ाई द्वीप तथा लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र इस प्रकार अढाई द्वीप और दो समुद्र यह मनुष्य लोक कहलाता है। इसमें जो चन्द्र आदि ज्योतिषी देव हैं वे सब चर हैं। उनके चर होने से ही समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन-रात आदि का ज्ञान होता है इसीलिए इनको (अढाई द्वीप और दो समुद्र) समय क्षेत्र भी कहते हैं। इसके बाद असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्रों में जो ज्योतिषी देव हैं वे सब स्थिर हैं। इसलिए वहाँ दिन-रात, घण्टा, मिनिट, घडी, पल आदि का व्यवहार नहीं होता है। जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं। लवण समुद्र में चार चन्द्र और चार सूर्य हैं। धातकी खण्ड द्वीप में बारह चन्द्र और बारह सूर्य हैं। कालोदधि समुद्र में बयालीस चन्द्र और बयालीस सूर्य हैं। अर्द्धपुष्करवर द्वीप में बहत्तर चन्द्र और बहत्तर सूर्य हैं। इस प्रकार अढ़ाई द्वीप में एक सौ बत्तीस चन्द्र और एक सौ बत्तीस सूर्य हैं। ये सब चर हैं। एक चन्द्र का परिवार इस प्रकार है - ८८ (इठयासी) महाग्रह, अठाईस नक्षत्र और ६६९७५ कोड़ाकोडी तारा गण हैं। इतना ही परिवार एक सूर्य का भी है अर्थात् एक एक चन्द्रमा सूर्य का सम्मिलित रूप से इतना परिवार होता है। असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्रों में असंख्यात चन्द्र और असंख्यात सूर्य हैं। वे सब ज्योतिषी देवों के इन्द्र हैं परन्तु ज्योतिषियों के एक चन्द्र और एक सूर्य ऐसे दो इन्द्र ही चोसष्ट इन्द्रों में गिने गये हैं इसलिए इन्हें ज्योतिषी देवों की जाति की अपेक्षा दो इन्द्र ही समझना चाहिए। चौसठ इन्द्रों में ज्योतिषी देवों के दो इन्द्र गिने गये हैं वे सभी द्वीप समुद्रों के चन्द्र व सूर्य की अपेक्षा समझना चाहिये। चन्द्र और सूर्य की द्वीप समुद्रों में संख्या निकालने का तरीका (पद्धति) यह है कि - जम्बूद्वीप में दो, लवण समुद्र के चार और धातकीखण्ड द्वीप के बारह। इसके आगे इस संख्या को तिगुना करके पिछली संख्या को जोड़ देना चाहिए जैसे कि धातकी खण्ड के बारह चन्द्र हैं। इनको तीन से गुणा करने पर (१२४३) छत्तीस होते हैं। इनमें पिछले छह (दो जम्बूद्वीप के तथा चार लवणसमुद्र के) जोड़ देने से बयालीस की संख्या होती है। यह कालोदधि समुद्र के चन्द्रों की संख्या हुई। इसके आगे का For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - ज्योतिषी देवों के स्थान २२९ ***** * * * * * * * * * **************************** ************************************** द्वीप है, पुष्करवर द्वीप। उसमें चन्द्रों की संख्या निकालने के लिए - बयालीस को तीन से गुणा करना और पिछली संख्या (४२४३-१२६+१२+४+२=१४४) को जोड़ देने से एक सौ चवालीस की संख्या आती है। इस प्रकार आगे के द्वीप और समुद्रों में चन्द्र और सूर्य की संख्या निकालने का यही तरीका है। यथा १४४४३=४३२+४२+१२+४+२=४९२। सूर्यों की संख्या निकालने का तरीका भी यही है। जितने चन्द्र हैं उतने ही सूर्य हैं। नोट - जो लोग यह कहते हैं कि - वैज्ञानिक लोग चन्द्रमण्डल पर पहुँच गये हैं। किन्तु तारामण्डल तो अभी बहुत दूर है। यह उनका कथन इस आगम पाठ से मेल नहीं खाता है। क्योंकि यहाँ से ऊपर जाने वाले मनुष्यों को सबसे पहले तारा मण्डल आयेगा। इसके बाद सूर्य मण्डल आयेगा। उससे ८० योजन ऊँचा जाने पर चन्द्रमण्डल आयेगा। जो तारामण्डल एवं सूर्य मण्डल तक नहीं पहुँचा वह व्यक्ति एकदम सीधा चन्द्र मण्डल पर कैसे पहुंच सकता है ? ज्योतिषियों के सब विमान रत्नों के बने हुए हैं। इसलिये वहाँ से मिट्टी लाने की बात भी उचित नहीं लगती है। अनुमान ऐसा लगता है कि ये तथाकथित वैज्ञानिक किसी चमकीली पहाड़ी पर पहुँचे होंगे और वहाँ से मिट्टी भी लाई जा सकती है। दूसरी बात यह है कि - आगम की बात तो त्रिकाल नित्य, ध्रुव और सत्य है। वैज्ञानिकों की मान्यता तो उनकी खोज के अनुसार बदलती रहती है तथा सब वैज्ञानिकों का मत भी एक नहीं है। आगमों का सिद्धान्त तो सदा सर्वदा एक ही है। सर्वज्ञों द्वारा कथित होने से सर्वथा सत्य है। ज्योतिषियों के स्थान - कइयों का कहना है कि ज्योतिषी की उपपात शय्या राजधानी में बताई हुई होने से जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि में अलग-अलग रूप से ज्योतिषी के दस भेद नहीं मानना चाहिए किन्तु यहाँ पर मूलपाठ में तो ज्योतिषी विमानों में पांचों भेदों के पर्याप्त और अपर्याप्त के स्थान बताये हैं अतः जीव धड़ा आदि थोकड़ों में भी जम्बूद्वीप आदि में दस चर ज्योतिषियों के भेद बताये गये हैं। चन्द्र एवं सूर्य इन्द्र तो राजधानियों में उत्पन्न होते हैं किन्तु इनके प्रजा स्थानीय देव विमानों में भी उत्पन्न होते हैं उनकी अपेक्षा जम्बूद्वीप आदि में इनके भेद गिने जा सकते हैं। यद्यपि सभी ज्योतिषी विमान अर्द्ध कबीठ के आकार के ही हैं तथापि मूल पाठ में जो 'णाणासंठाण संठिया' कहा है उसका आशय यह हो सकता है कि ताराओं की गति आदि से इनका परस्पर कुछ आकार बनता होगा। अनेक ताराओं से बने नक्षत्र आदि के भी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में भिन्न-भिन्न आकार बताये ही है। क्योंकि इनकी गति करने की व्यवस्था से यां अपनी-अपनी प्रभा के कारण भी भिन्न-भिन्न आकार बन सकते हैं जैसे एक तारे वाले नक्षत्रों के भी भिन्न-भिन्न संस्थान बताये हैं। अलग-अलग फलादेश के कारण भी भिन्न-भिन्न संस्थान बनते हैं। आगमकारों की दृष्टि में और भी अनेक कारण होने से नाना संस्थान वाले बता दिया जाना संभव है। For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० प्रज्ञापना सूत्र * * * * - - - * * * * * वैमानिक देवों के स्थान कहि णं भंते! वेमाणियाणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! वेमाणिया देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसम रमणिज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढे चंदिम सूरिय गह णक्खत्त तारारूवाणं बहूई जोयणसयाई बहूइं जोयणसहस्साई बहूइं जोयणसयसहस्साइं बहुगाओ जोयणकोडीओ बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उर्दू दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं सोहम्मीसाण सणंकुमार-माहिंद बंभलोय लंतग-महासुक्कसहस्सार-आणय-पाणय-आरणच्चुय गेवेजणुत्तरेसु एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं चउरासीइ विमाणा वास सयसहस्सा सत्ताणउइं च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीति मक्खायं। ते णं विमाणा सव्वरयणामया, अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्ठा, मट्ठा, णीरया, णिम्मला, णिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, सप्पभा, सस्सिरीया, सउज्जोया, पासाईया, दरिसणिजा, अभिरूवा, पडिरूवा। एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता।तिसु वि लोयस्स असंखिज्जइभागे। तत्थ णं बहवे वेमाणिया देवा परिवसंति। तंजहा - सोहम्मीसाणसणंकु मार-माहिंद-बंभलोग-लंतग-महासुक्क-सहस्सार-आणय-पाणयआरणच्चुयगेवेज्जणुत्तरोववाइया देवा। ते णं मिग-महिस-वराह-सीह-छगल-दहुर हय-गयवइ-भुयग खग्ग उसभ* विडिम-पागडिय चिंधमउडा, पसिढिल वर मउड किरीडधारिणो, वरकुंडलुज्जोइयाणणा, मउडदित्तसिरया, रत्ताभा, पउमपम्ह गोरा, सेया, सुहवण्ण गंधफासा, उत्तमवेउव्विणो, पवर वत्थ गंध मल्लाणुलेवणधरा, महिड्डिया, महज्जुइया; महायसा, महाबला, महाणुभागा, महासोक्खा, हारविराइयवच्छा, कडय तुडिय थंभियभुया, अंगद कुंडल मट्ठ गंडतल कण्णपीढधारी, विचित्त हत्थाभरणा, विचित्त मालामउलिमउडा, कल्लाणग पवर वत्थपरिहिया, कल्लाणग पवर मल्लाणुलेवणा, भासुरबोंदी, पलंब वणमालधरा, ___ * पाठान्तर - उसभंक For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान २३१ * * * * * ** * * *************************** दिव्वेणं वण्णेणं, दिव्वेणं गंधेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिव्वेणं संघयणेणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए इड्डीए, दिव्वाए जुईए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चीए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेसाए, दस दिसाओ उज्जोवेमाणा, पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं विमाणा वास सयसहस्साणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं तायत्तीसगाणं, साणं साणं लोगपालाणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, साणं साणं परिसाणं, साणं साणं अणियाणं, साणं साणं अणियाहिवईणं, साणं साणं आयरक्ख देव साहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं जाव दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरंति॥१२१॥ ___.भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! वैमानिक देव कहाँ रहते हैं? उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहु सम एवं रमणीय भूमिभाग से अर्थात् मेरु पर्वत के ठीक बीचोबीच रहे हुए आठ रुचक प्रदेशों से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारक रूप ज्योतिषिकों से अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटि योजन ऊपर दूर जाने पर सौधर्म ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में वैमानिक देवों के चौरासी लाख सत्तानवें हजार तेईस विमान है, ऐसा कहा गया है। - वे विमान सर्व रत्नमय, स्वच्छ, कोमल, स्निग्ध, घिसे हुए, साफ किये हुए, रज रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण, दिप्ति वाले, प्रभा सहित, शोभा सहित, उद्योत सहित, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। - यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान कहे गये हैं। उपपात, समुद्घात और स्व स्थान इन तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से वैमानिक देव निवास करते हैं। वे इस प्रकार हैं - सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत आरण, अच्युत, ग्रैवेयक और अनुत्तरौपपातिक देव हैं। वे क्रमशः मृग, महिष, वराह, सिंह, बकरा, दर्दुर (मेंढक), अश्व, हाथी, भुजंग (सर्प), गेंडा, वृषभ (बैल) और विडिम (मृगविशेष) के प्रकट चिह्म से युक्त मुकुट वाले, शिथिल और श्रेष्ठ मुकुट और किरीट के धारक, श्रेष्ठ कुण्डलों से उद्योतित मुख वाले, मुकुट से शोभा युक्त रक्त प्रकाश वाले, पद्म के समान गौर, श्वेत, शुभ वर्ण, गंध और स्पर्श वाले, उत्तम वैक्रिय शरीर वाले, श्रेष्ठ वस्त्र, गंध, माला और विलेपन धारण करने वाले, महाऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, महायशस्वी, महाबली, महानुभाग, महासुखी, हार से सुशोभित For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ प्रज्ञापना सूत्र ************** ************************************************** **************** वक्षस्थल वाले हैं। कडे और बाजूबंदों से मानों भुजाओं को स्तब्ध कर रखा है। अंगद कुण्डल आदि आभूषण उनके कपोलों को सहला रहे हैं, कानों में कर्णपीठ और हाथों में विचित्र आभूषण धारण किये हुए हैं। विचित्र पुष्पमालाएं मस्तक पर शोभायमान हैं। वे कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और लेपन धारण किये हुए होते हैं। उनका शरीर देदीप्यमान होता है। वे लम्बी माला धारण किये हुए होते हैं तथा दिव्य वर्ण, दिव्य गंध, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन, दिव्य संस्थान, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्यप्रभा, दिव्य छाया, दिव्य अर्चि, दिव्य तेज और दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित प्रभासित करते हुए वे वहाँ अपने अपने लाखों विमानावासों का, अपने अपने हजारों सामानिक देवों का, अपने अपने त्रायस्त्रिंशक देवों का, अपने अपने लोकपालों का, सपरिवार अपनी अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी अपनी परिषदाओं का, अपनी अपनी सेनाओं का, अपने अपने सेनाधिपतियों का, अपने अपने हजारों आत्म रक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से वैमानिक देवों और देवियों का, आधिपत्य अग्रेसरत्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व, आज्ञा ईश्वरत्व तथा सेनापतित्व करते हुए और कराते हुए तथा पालते हुए और पलवाते हुए निरन्तर होने वाले महान् नाट्य, गीत, वादिन्त्र, तल, ताल, त्रुटित घन मृदंग आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ दिव्य कामभोगों को भोगते हुए विचरण करते हैं। प्रश्न - मूल पाठ में "वेमाणिय" शब्द दिया है उसकी व्युत्पत्ति और अर्थ क्या है? उत्तर-विविधं मन्यन्ते उपभुज्यन्ते पुण्य व भिः जीवैः इति विमानानि, तेषु भवा: वैमानिकाः अर्थ - पुण्यवान जीव जहाँ पर अनेक प्रकार से सुख भोगते हैं उनको “विमान" कहते हैं। उन विमानों में देव रूप से उत्पन्न होने वाले जीवों को वैमानिक देव कहते हैं। " कहि णं भंते! सोहम्मग देवाणं पजत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! सोहम्मग देवा परिवसंति? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसम रमणिजाओ भूमिभागाओ जाव उड्डे दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं सोहम्मे णामं कप्पे पण्णत्ते। पाईण पडीणायए, उदीण दाहिण वित्थिण्णे, अद्धचंद संठाणसंठिए, अच्चिमालि भासरासिवण्णाभे, असंखिजाओ जोयण कोडीओ असंखिजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम विक्खंभेणं, असंखिज्जाओ जोयणकोडा-कोडीओ परिक्खेवेणं, सव्व रयणामए, अच्छे जाव पडिरूवे। तत्थ णं सोहम्मगदेवाणं बत्तीस विमाणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं विमाणा सव्व रयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान २३३ ********** **************************************************************** तेसि णं विमाणाणं बहुमज्झदेसभागे पंच वडिंसया पण्णत्ता, तंजहा - असोग वडिंसए, सत्तवण्ण वडिंसए, चंपग वर्डिसए, चूय वडिंसए, मज्झे इत्थ सोहम्म वडिंसए। ते णं वडिंसया सव्व रयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। एत्थ णं सोहम्मग देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइभागे। तत्थ णं बहवे सोहम्मग देवा परिवसंति महिड्डिया जाव पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावास सयसहस्साणं, साणं साणं सामाणिय साहस्सीणं, एवं जहेव ओहियाणं तहेव एएसि पि भाणियव् जाव आयरक्ख देव साहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं सोहम्मग कप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव विहरंति। सक्के इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, वजपाणी, पुरंदरे, सयक्कऊ, सहस्सक्खे, मघवं, पागसासणे, दाहिणड्डलोगाहिवई, बत्तीस विमाणावास सयसहस्साहिवई, एरावणवाहणे, सुरिंदे, अरयंबर वत्थधरे, आलइयमालमउडे, णव हेम चारु चित्त चंचल कुंडलविलिहिज्जमाणगंडे, महिड्डिए जाव पभासेमाणे। से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावास सयसहस्साणं, चउरासीए सामाणिय साहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्हं चउरासीणं आयरक्ख-देवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं कुव्वमाणे जाव विहरइ॥१२२॥ कठिन शब्दार्थ - अच्चिमालिभासरासिवण्णाभे - अर्चिमालि - सूर्य के समान प्रकाश पुंज के वर्ण की शोभा वाले। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सौधर्म देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! सौधर्म देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिण में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहु सम एवं रमणीय भू भाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तथा तारा रूप ज्योतिषियों के अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटि योजन ऊपर जाने पर सौधर्म नामक कल्प कहा गया है। वह पूर्व पश्चिम में लम्बा, उत्तर दक्षिण में चौड़ा अर्द्ध चन्द्र के For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आकार में संस्थित, अर्चियों की माला तथा दीप्तियों की राशि के समान वर्ण कांति वाला है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई असंख्यात कोटि योजन की ही नहीं असंख्यात कोटाकोटि योजन की है तथा परिधि भी असंख्यात कोटाकोटि योजन की है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है इत्यादि सब वर्णन यावत् प्रतिरूप है तक समझना चाहिये। प्रज्ञापना सूत्र वहाँ सौधर्म देवों के बत्तीस लाख विमानावास हैं ऐसा कहा गया है। वे विमान पूर्ण रूप से रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं तक समझना चाहिये। इन विमानों के बिल्कुल मध्य भाग में पांच अवतंसक (आभूषण रूप या शिखर रूप सर्व श्रेष्ठ) विमान कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - १. अशोकावतंसक २. सप्तपपर्णावतंसक ३. चंपकावतंसक ४. चूत (आम्र) अवतंसक और इन चारों के मध्य में पांचवाँ सौधर्मावतंसक। ये अवतंसक पूर्णतया रत्नमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक सौधर्म देवों के स्थान कहे गये हैं। वे तीनों - उपपात समुद्घात और स्व स्थान की अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वहाँ बहुत से सौधर्म देव रहते हैं जो कि महाऋद्धि वाले यावत् प्रकाशित करते हुए वे अपनेअपने लाखों विमानों का, अपने अपने हजारों सामानिक देवों का अपने अपने त्रायस्त्रिंशक देवों का इस प्रकार जैसे सामान्य देवों का वर्णन कहा है उसी प्रकार सौधर्म देवों का भी जानना चाहिए यावत् हजारों आत्म रक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से सौधर्म कल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरण करते हैं। यहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र निवास करता है जो वज्रपाणि (हाथ में वज्र लिये हुए) पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन और लोक के दक्षिणार्द्ध का अधिपति है । वह बत्तीस लाख विमानों का अधिपति, ऐरावत हाथी जिसका वाहन है, देवों का इन्द्र है और रज रहित स्वच्छ वस्त्रों का धारक है संयुक्त माला और मुकुट पहनता है तथा जिसके कपोल स्थल नवीन स्वर्णमय सुंदर विचित्र एवं चंचल कुंडलों से विलिखित होते हैं। महा ऋद्धि वाला यावत् दशों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ बत्तीस लाख विमानों का, चौरासी हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, सपरिवार आठ अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, चार चौरासी हजार अर्थात् तीन लाख छत्तीस हजार आत्म रक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से सौधर्म कल्पवासी वैमानिक देव और देवियों का आधिपत्य एवं अग्रेसरत्व करता हुआ यावत् विचरण करता है। विवेचन - प्रश्न शक्रेन्द्र को 'सयक्कड' ( शतक्रतु) क्यों कहा गया है ? उत्तर - 'शतक्रतु' शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है - "शतं क्रतूनां प्रतिमानाम् - अभिग्रह - विशेषाणां श्रमणोपासक पञ्चम प्रतिमारूपाणां वा - For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान २३५ ********** ************* ************************************** यस्याऽसौ शतक्रतुः । इदं हि कार्तिक श्रेष्ठि भवापेक्षया, तथाहि पृथिवीभूषणनगरे प्रजापालो नाम राजा कार्तिक नामा श्रेष्ठी। तेन श्राद्धप्रतिमानां शतं कृतं ततः शतक्रतुरिति ख्यातिः।" अर्थ - कार्तिक सेठ ने श्रावक की पांचवीं प्रतिमा का १०० बार पालन किया था। फिर दीक्षा लेकर काल धर्म (मृत्यु) को प्राप्त कर पहले देवलोक का इन्द्र बना है। इसलिये पूर्वभव की अपेक्षा इस इन्द्र के 'शतक्रतु' विशेषण लगता है। यह शतक्रतु विशेषण इसी शक्रेन्द्र के लिये लगता है। दूसरों के लिये नहीं। प्रश्न - हे भगवन् ! शक्रेन्द्र के लिये 'सहस्सक्ख' (सहस्राक्ष) यह विशेषण क्यों लगता है ? उत्तर - टीकाकार ने इस शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है - "सहस्रमणां यस्यासौ. सहस्राक्षः। शके, इन्द्रे। इन्द्रस्य हि किल मन्त्रिणां पञ्च शतानि सन्ति तदीयानां चाणांमिन्द्रप्रयोजने गवृत्ततया इन्द्रसम्बन्धित्वेन विवक्षणात् सहस्राक्षत्वमिन्द्रस्य।" अर्थ - शक्रेन्द्र के पांच सौ मंत्री हैं। उनकी एक हजार आँखें हैं। वे सब आँखें इन्द्र का हित देखने और करने रूप प्रयोजन में लगी रहती हैं। इसलिये वे सब आँखें इन्द्र की कहलाती हैं। इसलिए इन्द्र को सहस्राक्ष (एक हजार आँखों वाला) कहते हैं। __शक्रेन्द्र हाथ में वज्र रखता है। इसलिये उसको वज्रपाणि (पाणि का अर्थ हाथ होता है) कहते हैं। असुर आदि देवों के पुरों (नगरों) का विदाहरण (विनाश) करता है। इसलिये उसको पुरन्दर कहते हैं। मघ का अर्थ है "महामेघ"। वे महामेघ शक्रेन्द्र के वश में रहते हैं। इसलिये उसको मघवान् कहते हैं। पाक नाम का बलवान शत्रु उसका निकारण (पराभव) करने से इसको पाक शासन कहते हैं। रज रहित स्वच्छ वस्त्रों को धारण करता है इसलिये "अरजोऽम्बरवस्त्रधर' कहलाता है। कहि णं भंते! ईसाणाणं देवाणं पजत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! ईसाणग देवा परिवसंति? ___ गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहु सम रमणिजाओ भूमिभागाओ उड़े चंदिम सूरिय गह णक्खत्त तारारूवाणं बहूइं जोयणसयाई बहूइं जोयणसहस्साइं जाव उड्ढे उप्पइत्ता एत्थ णं ईसाणे णामं कप्पे पण्णत्ते। पाईण पडीणायए, उदीण दाहिणवित्थिपणे, एवं जहा सोहम्मे जाव पडिरूवे। तत्थ णं ईसाणगदेवाणं अट्ठावीसं विमाणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं विमाणा सव्व रयणामया जाव पडिरूवा। तेसि णं बहुमज्झदेस-भागे पंच वडिंसया For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ प्रज्ञापना सूत्र *************************************** * * * * * * * ** * * * * * * * * * * * * * * * * * * ******* पण्णत्ता। तंजहा - अंकवडिंसए, फलिहवडिंसए, रयणवडिंसए, जायरूववडिंसए, मज्झे इत्थ ईसाणवडिंसए। ते णं वडिंसया सव्व रयणामया जाव पडिरूवा। एत्थ णं ईसाणग देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिजइभागे। सेसं जहा सोहम्मग देवाणं जाव विहरंति। - ईसाणे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, सूलपाणी, वसहवाहणे, उत्तरड्डुलोगाहिवई, अट्ठावीस विमाणावास-सयसहस्साहिवई, अरयंबरवत्थधरे, सेसं जहा सक्कस्स जाव पभासेमाणे। से णं तत्थ अट्ठावीसाए विमाणावास सयसहस्साणं, असीईए सामाणिय साहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्हं असीईण आयरक्खदेव साहस्सीणं, अण्णेसिंच बहूणं ईसाण कम्पवासीण वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव विहरइ॥१२३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक ईशान देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! ईशान देव कहाँ निवास करते हैं? उत्तर - हे गौतम! जंबूद्वीप नामक द्वीप में मेरु पर्वत के उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहु सम और रमणीय भू भाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिषिकों से अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक करोड़ योजन और बहुत कोटा-कोटि योजन ऊपर जाने पर ईशान नामक कल्प कहा गया है। वह पूर्व पश्चिम में लम्बा और उत्तर दक्षिण में चौड़ा है इत्यादि सौधर्म कल्प के विषय में जैसा कहा गया है उसी प्रकार यावत् प्रतिरूप है तक कह देना चाहिये। वहाँ ईशान देवों के २८ अट्ठावीस लाख विमान हैं। वे विमान सर्व रत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं उनके ठीक मध्यभाग में पांच अवतंसक विमान कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अंकावतंसक २. स्फटिकावतंसक ३. रत्नावतंसक ४. जात रूपावतंसक और इनके मध्यभाग में ५. ईशानावतंसक है। वे अवतंसक विमान सर्व रत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं। यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक ईशान देवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात, समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों की अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में है। शेष सारा वर्णन सौधर्म देवलोक के विषय में जैसा कहा गया है उसी प्रकार यावत् विचरण करते हैं वहाँ तक समझना चाहिये। यहाँ ईशान नामक देवेन्द्र देवराज निवास करता है जो शूल पाणि (हाथ में शूल लिए हुए) वृषभवाहन, लोक के उत्तरार्द्ध का अधिपति, अट्ठाईस लाख विमानों का स्वामी और रज रहित स्वच्छ For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान २३७ * * * ** *************** ** *********************************** ************* वस्त्रों का धारक है। शेष सारा वर्णन शक्र के समान यावत् प्रकाशित करता है वहाँ तक कह देना चाहिए। वह ईशानेन्द्र वहाँ अट्ठाईस लाख विमानों का, अस्सी हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, आठ परिवार सहित अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपतियों का, अस्सी हजार से चार गुणा अर्थात् तीन लाख बीस हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से ईशान कल्पवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, अग्रेसरत्व करता हुआ यावत् विचरण करता है। - विवेचन - सौधर्म देवलोक और ईशान देवलोक दोनों बराबरी में आये हुए हैं। सौधर्म देवलोक मेरु पर्वत से दक्षिण की तरफ है और ईशान देवलोक उत्तर की तरफ है। पहले देवलोक के इन्द्र का नाम शक्र है और दूसरे देवलोक के इन्द्र का नाम ईशान है। शक्र दक्षिणार्ध लोक का अधिपति कहलाता है और ईशान उत्तरार्ध लोक का अधिपति कहलाता है। शक्रेन्द्र हाथ में वज्र रखता है और ईशानेन्द्र हाथ में त्रिशूल रखता है। शक्रेन्द्र का वाहन एरावण (एरावत) हाथी है तो ईशानेन्द्र का वाहन वृषभ (बैल) है। देवलोक में तिर्यंच पंचेन्द्रिय नहीं है इसलिये एरावण हाथी और वृषभ ये तिर्यंच पंचेन्द्रिय नहीं हैं किन्तु इन्द्रों के अभियोगिक देव ही वैक्रिय शक्ति से ऐसा वैक्रिय (हाथी और बैल का) रूप धारण करते हैं। ___कहि णं भंते! सणंकुमार देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! सणंकमारा देवा परिवसंति? ____ गोयमा! सोहम्मस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं बहूई जोयणाई, बहूई जोयणसयाई, बहूइं जोयणसहस्साई, बहूइं जोयणसयसहस्साइं, बहुगाओ जोयणकोडीओ, बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उड्ढे दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं सणंकुमारे णामं कप्पे पण्णत्ते। पाईण पडीणायए, उदीण दाहिणवित्थिपणे जहा सोहम्मे जाव पडिरूवे। तत्थ णं सणंकुमाराणं देवाणं बारस विमाणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं विमाणा सव्व रयणामया जाव पडिरूवा। तेसि णं विमाणाणं बहुमज्झदेसभागे पंच वडिंसगा पण्णत्ता। तंजहा- असोगवडिंसए, सत्तवण्णवडिंसए, चंपगवडिंसए, चूयवडिंसए, मज्झे एत्थ सणंकुमारवडिंसए। ते णं वडिंसया सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। ____एत्थ णं सणंकुमारदेवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेजइभागे। तत्थ णं बहवे सणंकुमारदेवा परिवसंति, महिड्डिया जाव पभासेमाणा. For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ******************************** प्रज्ञापना सूत्र विहरंति। णवरं अग्गमहिसीओ णत्थि । सणकुमारे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ । अरयंबर वत्थधरे, सेसं जहा सक्कस्स । से णं तत्थ बारसण्हं विमाणावास सयसहस्साणं, बावत्तरीए सामाणिय साहस्सीणं, सेसं जहा सक्कस्स अग्गमहिसीवज्जं । णवरं चउण्हं बावत्तरीणं आयरक्खदेव साहस्सीणं जाव विहरइ ॥ १२४ ॥ कठिन शब्दार्थ - सपक्खिं सपक्ष-चारों दिशाओं में समान, सपडिदिसिं सप्रतिदिक्- चारों विदिशाओं में समान । - ******************************** भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सनत्कुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! सनत्कुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! सौधर्म देवलोक के ऊपर सपक्ष चारों दिशाओं में और सप्रतिदिक्- चारों विदिशाओं में बहुत योजन, अनेक सौ योजन अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटि योजन ऊपर जाने पर सनत्कुमार नामक कल्प कहा गया है, जो पूर्व पश्चिम लम्बा और उत्तर दक्षिण में चौड़ा है इत्यादि सारा वर्णन सौधर्म कल्प के समान यावत् प्रतिरूप है तक कह देना चाहिए । वहाँ सनत्कुमार देवों के बारह लाख विमान हैं ऐसा कहा गया है। वे विमान सर्व रत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं। उन विमानों के ठीक मध्यभाग में पांच अवतंसक विमान हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अशोकावतंसक २. सप्तपर्णावतंसक ३. चंपकावतंसक ४. चूतावतंसक और इन सब के मध्य में ५ सनत्कुमारावतंसक हैं। वे अवतंसक विमान सर्व रत्नमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक सनत्कुमार देवों के स्थान कहे गये हैं । उपपात, समुद्घात और स्व स्थान इन तीनों अपेक्षाओं से वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वहाँ बहुत से सनत्कुमार देव रहते हैं। वे महा ऋद्धि वाले यावत् दशों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए विचरण करते हैं तक पूर्ववत् समझना चाहिये किन्तु विशेषता यह है कि यहाँ अग्रमहिषियाँ नहीं हैं । यहाँ देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार निवास करता है जो रज रहित स्वच्छ वस्त्रों को धारण करता है शेष सारा वर्णन शक्रेन्द्र के अनुसार जानना चाहिये। वह बारह लाख विमानों का, बहत्तर हजार सामानिक देवों का इत्यादि सारा वर्णन शक्रेन्द्र के अनुसार अग्रमहिषियों को छोड़ कर कहना चाहिये । विशेषता यह है कि चार गुणा बहत्तर हजार अर्थात् दो लाख अठासी हजार आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। विवेचन - भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी विमानों में देवियाँ उत्पन्न होती हैं। इसी तरह पहले सौधर्म देवलोक में और दूसरे ईशान देवलोक में देवियाँ उत्पन्न होती हैं। दूसरे देवलोक से आगे देवियों की उत्पत्ति नहीं होती हैं। For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान २३९ कहि णं भंते! माहिंदाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! माहिंदग देवा परिवसंति? गोयमा! ईसाणस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खिं सपडिदिसिं बहूई जोयणाइं जाव बहुयाओ जोयणकोडाकोडीओ उड्डे दूरं उप्पइत्ता एत्थं णं माहिंदे णामं कप्पे पण्णत्ते पाईण पडीणायए जाव एवं जहेव सणंकुमारे। णवरं अट्ठ विमाणावाससयसहस्सा। वडिंसया जहा ईसाणे। णवरं मझे इत्थ माहिंद वडिंसए, एवं जहा सणंकुमाराणं देवाणं जाव विहरंति। माहिदे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, अरयंबर वत्थधरे, एवं जहा सणंकुमारे जाव विहरइ। णवरं अट्ठण्हं विमाणा-वाससयसहस्साणं, सत्तरीए सामाणिय साहस्सीणं, चउण्हं सत्तरीणं आयरक्खदेव साहस्सीणं जाव विहरइ॥१२५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक माहेन्द्र देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! माहेन्द्र देव कहाँ निवास करते हैं? उत्तर - हे गौतम ! ईशान देवलोक के ऊपर समान दिशाओं में और समान विदिशाओं में बहुत योजन यावत् बहत कोटाकोटि योजन ऊपर जाने पर माहेन्द्र नामक कल्प कहा गया है, वह पूर्व पश्चिम में लम्बा इत्यादि सारा वर्णन सनत्कुमार की तरह जानना चाहिये परन्तु इसमें आठ लाख विमान हैं। ईशान के समान अवतंसक जानने चाहिये किन्तु विशेषता यह है कि इनके मध्य में माहेन्द्र अवतंसक है। इस प्रकार शेष सारा वर्णन सनत्कुमार देवों के समान यावत् विचरण करते हैं तक कह देना चाहिये। यहाँ देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र निवास करता है जो रज रहित स्वच्छ वस्त्रों को धारण करता है। इस प्रकार सारा वर्णन सनत्कुमारेन्द्र की तरह यावत् विचरण करता है तक समझना चाहिये। विशेषता यह है कि माहेन्द्र आठ लाख विमानों का, सत्तर हजार सामानिक देवों का, चार गुणा सत्तर हजार अर्थात् दो लाख अस्सी हजार आत्म रक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ, अग्रेसरत्व करता हुआ यावत् विचरण करता है तक कह देना चाहिये। विवेचन - ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा चार के अन्दर इस प्रकार का पाठ है - हेट्ठिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिया पण्णत्ता तं जहा - सोहम्मे, ईसाणे, सणंकुमारे, माहिंदे मग्झिल्ला चत्तारि कप्पा पडिपुण्णचंद संठाणसंठिया पण्णत्ता तं जहा - बंभलोगे, लंतए, महासुक्के, सहस्सारे उवरिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंद संठाणसंठिया पण्णत्ता तं जहा - आणए, पाणए, आरणे, अच्चुए For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० प्रज्ञापना सूत्र * * * -*-*-*-*-*-*- -* -* * * * * * * * * * * * * अर्थ - यहाँ बारह देवलोकों का संस्थान बतलाया गया है। पहले के चार देवलोकों का संस्थान अर्धचन्द्राकार हैं। पहला और दूसरा देवलोक बराबरी में आमने सामने आये हुए हैं। दोनों मिलकर पूर्ण चन्द्राकार बनते हैं। इसी तरह पहले देवलोक के ऊपर तीसरा देवलोक और दूसरे देवलोक के ऊपर चौथा देवलोक आया हुआ है। ये दोनों भी बराबरी में आमने सामने आये हुए हैं और इन दोनों का संस्थान भी अर्धचन्द्राकार है। दोनों मिलकर पूर्ण चन्द्राकार बनते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. सौधर्म २. ईशान ३. सनत्कुमार ४. माहिन्द्र। तीसरे, चौथे के ऊपर पांचवाँ, पांचवें के ऊपर छट्ठा, छठे के ऊपर सातवाँ और सातवें के ऊपर आठवाँ देवलोक आये हुए हैं। जैसे पणिहारी पानी लाते समय एक घड़े के ऊपर दूसरा घड़ा रखती है इसी प्रकार ये चारों देवलोक एक घड़े के ऊपर दूसरे घड़े की तरह ऊपरा ऊपरी आये हुए हैं। इनका संस्थान पूर्ण चन्द्र के आकार का है। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. ब्रह्मलोक २. लान्तक ३. महाशुक्र ४. सहस्रार। __आठवें देवलोक के ऊपर नववाँ और दसवाँ देवलोक आये हुए हैं ये दोनों देवलोक भी पहले दूसरे देवलोक की तरह आमने सामने बराबरी में आये हुए हैं। इनका संस्थान भी अर्ध चन्द्राकार है। दोनों का मिलकर पूर्ण चन्द्राकार बनता है। इन दोनों के ऊपर ग्यारहवाँ और बारहवाँ देवलोक आये हुए हैं। ये दोनों भी तीसरे और चौथे देवलोक की तरह आमने सामने बराबरी में आये हुए हैं। इन दोनों के संस्थान अर्ध चन्द्राकार है। दोनों के मिलकर पूर्ण चन्द्राकार बनता है। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. आणत २. प्राणत ३. आरण ४. अच्युत। कहि भंते! बंभलोग देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! बंभलोग देवा परिवसंति? ____ गोयमा! सणंकुमार माहिंदाणं कप्पाणं उप्पिं सपक्खिं सपडिदिसिं बहूई जोयणाई जाव उप्पइत्ता एत्थ णं बंभलोए णामं कप्पे पण्णत्ते, पाईण पडीणायए, उदीणदाहिण वित्थिपणे, पडिपुण्ण चंदसंठाणसंठिए, अच्चिमालीभासरासिप्पभे, अवसेसं जहा सणंकुमाराणं।णवरं चत्तारि विमाणावास सयसहस्सा, वडिंसया जहा सोहम्मवडिंसया, णवरं मझे इत्थ बंभलोयवडिंसए। एत्थ णं बंभलोग देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता सेसं तहेव जाव विहरंति। बंभे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, अरयंबर वत्थधरे, एवं जहा सणंकुमारे जाव For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ ***** दसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान *********************** विहरइ। णवरं चउण्हं विमाणावास सयसहस्साणं, सट्टीए सामाणिय साहस्सीणं, चउण्ह यं सट्ठीए आयरक्खदेव साहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं जाव विहरइ॥१२६॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक ब्रह्मलोक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! ब्रह्मलोक देव कहाँ निवास करते हैं ? । उत्तर - हे गौतम! सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के ऊपर समान दिशाओं में और समान विदिशाओं में बहुत योजन यावत् ऊपर जाने पर ब्रह्मलोक नामक कल्प है। जो पूर्व पश्चिम में लंबा और उत्तर दक्षिण में चौड़ा, परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार का ज्योतिवाला तथा दीप्ति राशि की प्रभा वाला है। शेष सारा वर्णन सनत्कुमार की तरह जानना चाहिये। विशेषता यह है कि इसमें चार लाख विमान है। इनके अवतंसक सौधर्म देवलोक के अवतंसकों की तरह समझना किन्तु उनके मध्य भाग में ब्रह्मलोक अवतंसक है। यहाँ ब्रह्मलोक देवों के स्थान कहे गये हैं। शेष सारा वर्णन यावत विचरण करते हैं वहाँ तक कह देना चाहिये। यहाँ ब्रह्मनामक देवों का इन्द्र, देवों का राजा निवास करता है जो रज रहित स्वच्छ वस्त्रों को धारण करता है। इत्यादि सारा वर्णन सनत्कुमार की तरह यावत् विचरण करता है तक कह देना चाहिये परन्तु च लाख विमानों का. साठ हजार सामानिक देवों का. चार गणा साठ हजार (दो लाख चालीस हजार) आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत से देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। . कहि णं भंते! लंतग देवाणं पजत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! लंतगदेवा.परिवसंति? गोयमा! बंभलोगस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं बहुइं जोयणाइं जाव बहुगाओ जोयण कोडाकोडीओ उड्डे दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं लंतए णामं कप्पे पण्णत्ते, पाईण पडीणायए, जहा बंभलोए। णवरं पण्णासं विमाणावास सहस्सा भवंतीति मक्खायं। वडिंसगा जहा ईसाण वडिंसगा, णवरं मझे इत्थ लंतग वडिंसए, देवा तहेव जाव विहरंति। ___ लंतए एत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, जहा सणंकुमारे। णवरं पण्णासाए विमाणावास सहस्साणं, पण्णासाए सामाणिय साहस्सीणं चउण्ह य पण्णासाणं आयरक्खदेव साहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं जाव विहरइ॥१२७॥ For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक लान्तक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! लान्तक देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! ब्रह्मलोक कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में बहुत योजन यावत् बहुत कोटाकोटि योजन ऊपर जाने पर लान्तक नामक कल्प (देवलोक) कहा गया है जो पूर्व पश्चिम में लम्बा इत्यादि ब्रह्मलोक की तरह जानना किन्तु विशेषता यह है कि यहाँ पचास हजार विमान हैं, ऐसा कहा गया है। अवतंसक ईशान कल्प के अवतंसकों के समान कह देना चाहिये किन्तु यहाँ मध्य भाग में लान्तकावतंसक है। यहाँ लान्तक यावत् विचरण करते हैं। यहाँ लान्तक नामक देवों का इन्द्र देवों का राजा निवास करता है इत्यादि सारा वर्णन सनत्कुमार की तरह जानना किन्तु पचास हजार विमानों का, पचास हजार सामानिक देवों का, पचास हजार से चार गुणा (दो लाख) आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत से देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। कहि णं भंते! महासुक्काणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! महासुक्का देवा परिवसंति?, गोयमा! लंतगस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खिं सपडिदिसिं जाव उप्पइत्ता एत्थ णं महासुक्के णामं कप्पे पण्णत्ते, पाईण पडीणायए, उदीण दाहिण वित्थिपणे, जहा बंभलोए। णवरं चत्तालीसं विमाणावास सहस्सा भवंतीति मक्खायं। वडिंसगा जहा सोहम्मवडिंसए जाव विहरंति। महासुक्के इत्थ देविंदे देवराया जहा सणंकुमारे। णवरं चत्तालीसाए विमाणावाससहस्साणं, चत्तालीसाए सामाणियसाहस्सीणं, चउण्ह य चत्तालीसाणं आयरक्खदेव साहस्सीणं जाव विहरइ॥१२८॥ ___ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक महाशुक्र देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं? हे भगवन! महाशक्र देव कहाँ रहते हैं? उत्तर - हे गौतम! लांतक कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में यावत् ऊपर जाने पर महाशुक्र नामक कल्प (देवलोक) कहा गया है। जो पूर्व पश्चिम में लम्बा और उत्तर दक्षिण में चौड़ा है इत्यादि ब्रह्मलोक कल्प की तरह कह देना चाहिये। विशेषता यह है कि इसमें चालीस हजार विमान हैं। ऐसा कहा गया है। अवतंसक, सौधर्मावतंसक के समान कह देना चाहिये किन्तु इनके मध्य में महाशुक्रावतंसक है शेष सारा वर्णन यावत् विचरण करते हैं तक समझना चाहिये। यहाँ महाशुक्र नामक देवेन्द्र देवराज निवास करता है शेष सारा वर्णन सनत्कुमारेन्द्र के समान जानना चाहिये विशेषता For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान यह है कि वह चालीस हजार विमानों का, चालीस हजार सामानिकों का और चार गुणा चालीस हजार (एक लाख साठ हजार) आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है । कहि णं भंते! सहस्सार देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! सहस्सारदेवा परिवसंति ? २४३ गोयमा! महासुक्कस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं जाव उप्पइत्ता एत्थ णं सहस्सारे णामं कप्पे पण्णत्ते । पाइण पडीणायए जहा बंभलोए, णवरं छव्विमाणावास सहस्सा भवतीति मक्खायं । देवा तहेव जाव वडिंसगा जहा ईसाणस्स वडिंसगा । णवरं मझे इत्थ सहस्सार वडिंस जाव विहरंति । सहस्सारे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ जहा सणंकुमारे। णवरं छण्हं विमाणावास सहस्साणं, तीसाए सामाणिय साहस्सीणं, चउण्ह य तीसाए आयरक्खदेव साहस्सीणं जाव आहेवच्चं कारेमाणे विहरइ ॥ १२९ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सहस्रार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! सहस्रार देव कहाँ निवास करते हैं ? ********** उत्तर - हे गौतम! महाशुक्र कल्प (देवलोक ) के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में यावत् ऊपर जाने पर सहस्रार नामक कल्प कहा गया है जो पूर्व पश्चिम में लम्बा है इत्यादि सारा वर्णन ब्रह्मलोक कल्प की तरह कह देना चाहिये विशेषता यह है कि इसमें छह हजार विमान है ऐसा कहा गया है यावत् अवतंसक ईशान कल्प के अवतंसकों की तरह जानना चाहिए किन्तु उनके मध्य भाग में सहस्रारावतंसक है। यहाँ बहुत से देव यावत् विचरण करते हैं। यहाँ सहस्रार नाम का देवेन्द्र देवराज निवास करता है इत्यादि सारा वर्णन सनत्कुमारेन्द्र की तरह कह देना चाहिये किन्तु विशेषता यह है कि वह छह हजार विमानों का, तीस हजार सामानिक देवों का और चार गुणा तीस हजार (एक लाख बीस हजार) आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है । कहि णं भंते! आणय-पाणयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! आणय - पाणया देवा परिवसंति ? गोयमा! सहस्सारस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं जाव उप्पइत्ता एत्थ णं आणय पाणय णामा दुवे कप्पा पण्णत्ता । पाईण पडीणायया उदीण दाहिण वित्थिण्णा, अद्धचंद संठाणसंठिया, अच्चिमालीभासरासिप्पभा, सेसं जहा सणंकुमारे जाव पडिरूवा । For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ प्रज्ञापना सूत्र तत्थ णं आणयपाणयदेवाणं चत्तारि विमाणावाससया भवतीति मक्खायं जाव पडिरूवा । वडिंसगा जहा सोहम्मे कप्पे । णवरं मज्झे इत्थ पाणयवडिंसए । ते णं वडिंसगा सव्व रयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । एत्थ णं आणय पाणय देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइभागे । तत्थ णं बहवे आणय पाणय देवा परिवसंति महिड्डिया जाव पभासेमाणा । ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावास सयाणं जाव विहरंति । पाणए इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ जहा सणकुमारे। णवरं चउण्हं विमाणावास सयाणं, वीसाए सामाणिय साहस्सीणं, असीईए आयरक्खदेव साहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं जाव विहरइ ॥ १३० ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक आनत और प्राणत देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! आनत और प्राणत देव कहाँ रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! सहस्रार कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में यावत् ऊपर जाने पर आनत और प्राणत नामक कल्प कहे गये हैं। जो पूर्व पश्चिम में लम्बे और उत्तर दक्षिण में चौड़े अर्द्ध चन्द्रमा के आकार के ज्योतिमाला और दीप्तिराशि की प्रभा के समान है, शेष सारा वर्णन सनत्कुमार कल्प की तरह यावत् प्रतिरूप है तक समझना चाहिये । ************** वहाँ आनत और प्राणत देवों के चार सौ विमान है ऐसा कहा गया है यावत् प्रतिरूप हैं। अवतंसक सौधर्म कल्प के अवतंसकों की तरह जानना चाहिये । विशेषता यह है कि इनके मध्य भाग में प्राणतावतंसक है वह सभी अवतंसकों में सर्व रत्नमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप । यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक आनत प्राणत देवों के स्थान कहे गये हैं । जो उपपात समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से आनत - प्राणत देव निवास करते हैं जो महान् ऋद्धि वाले यावत् दशों दिशाओं को प्रभासित- प्रकाशित करते हुए अपने-अपने सैकड़ों विमानों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरण करते हैं । यहाँ प्राणत नामक देवों का इन्द्र देवों का राजा निवास करता है इत्यादि सारा वर्णन सनत्कुमारेन्द्र की तरह कह देना चाहिये विशेषता यह है कि यह चार सौ विमानों का, बीस हजार सामानिक देवों का तथा अस्सीहजार आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत से देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। कहि णं भंते! आरणच्चुयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! आरणच्या देवा परिवसंति ? For Personal & Private Use Only . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वमानिक देवों के स्थान २४५ ** गोयमा! आणयपाणयाणं कप्पाणं उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं एत्थ णं आरणच्च्या णामं दुवे कप्या पण्णत्ता। पाईण पडीणायया, उदीण दाहिण वित्थिण्णा, अद्धचंद संठाणसंठिया, अच्चिमालीभासरासिवण्णाभा, असंखिज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं, असंखिजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं, सव्व रयणामया। __ अच्छा, सहा, लण्हा, घट्टा, मट्ठा, णीरया, णिम्मला, णिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, सप्पभा, सस्सिरीया, सउज्जोया, पासाईया, दरिसणिज्जा, अभिरूवा, पडिरूवा। एत्थ णं आरणच्चुयाणं देवाणं तिण्णि विमाणावास सया भवंतीति मक्खायं। ते णं विमाणा सव्व रयणामया, अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्ठा, मट्ठा, णीरया, णिम्मला, णिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, सप्पभा, सस्सिरीया, सउज्जोया, पासाईया, दरिसणिज्जा अभिरूवा, पडिरूवा। तेसि णं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पच वडिंसया पण्णत्ता। तंजहा - अंकवडिंसए, फलिहवडिंसए, रयणवडिंसए, जायरूववडिंसए मज्झे एत्थ अच्चुयवडिंसए। ते णं वडिंसया सव्वरयणामया जाव पडिरूवा। एत्थ णं आरणच्चुयाणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिजइभागे। तत्थ णं बहवे आरणच्चुया देवा परिवसंति। अच्चुए इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, जहा पाणए जाव विहरइ। णवरं तिण्हं विमाणावास सयाणं, दसण्हं सामाणिय साहस्सीणं, चत्तालीसाए आयरक्खदेव साहस्सीणं आहेवच्चं कुव्वमाणे जाव विहरइ। बत्तीस अट्ठवीसा बारस अट्ठ चउरो(य) सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे॥१॥ आणयपाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिण्णि। सत्त विमाणसयाइं चउसु वि एएसु कप्पेसु॥२॥ सामाणिय संगहणी गाहाचउरासीइ असीई बावत्तरि सत्तरी य सट्ठी य। पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा॥१॥ एए चेव आयरक्खा चउग्गुणा॥१३१॥ For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक आरण और अच्युत देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! आरण और अच्युत देव कहाँ निवास करते हैं? उत्तर - हे गौतम! आनत और प्राणत कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में आरण और अच्युत नामक दो कल्प कहे गये हैं जो पूर्व पश्चिम में लम्बे और उत्तर दक्षिण में चौड़े, अर्द्ध चन्द्रमा की आकृति वाले, अर्चिमाली की तेजोराशि के समान प्रभा वाले हैं। उनकी लम्बाई और चौड़ाई असंख्यात कोटाकोटि योजन तथा परिधि भी असंख्यात कोटाकोटि योजन की है। वे सर्व रत्नमय, स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे हुए तथा चिकने किये हुए, रज से रहित निर्मल, निष्पंक, निरावरण कांति से युक्त, प्रभामय, श्री संपन्न, उद्योतमय, प्रसन्नता देने वाले दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन विमानों के ठीक मध्यभाग में पांच अवतंसक विमान कहे गये हैं जो इस प्रकार हैं - १. अंकावतंसक २. स्फटिकावतंसक ३. रत्नावतंसक ४. जातरूपावतंसक और उनके मध्य भाग में अच्युतावतंसक है। ये अवतंसक सर्व रत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं। यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक आरणअच्युत देवों के स्थान कहे गये हैं। उपपात, समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में है। वहाँ बहुत से आरण और अच्युत देव रहते हैं। यहाँ अच्युत नामक देवेन्द्र देवराज निवास करता है इत्यादि प्राणतेन्द्र की तरह यावत् विचरण करता है तक समझना चाहिए किन्तु विशेषता यह है कि वह तीन सौ विमानों का, दस हजार सामानिक देवों का और चालीस हजार आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। विमान संख्या - १. बत्तीस लाख २. अठाईस लाख ३. बारह लाख ४. आठ लाख ५. चार लाख, ६. पचास हजार ७. चालीस हजार ८. छह हजार ९-१० में चार सौ तथा ११-१२ में तीन सौ इस प्रकार अन्तिम के इन चार कल्पों में कल मिलाकर ७०० (४००+३००) विमान होते हैं। सामानिकों की संख्या - १. चौरासी हजार २. अस्सी हजार ३. बहत्तर हजार ४. सत्तर हजार ५. साठ हजार ६. पचास हजार ७. चालीस हजार ८. तीस हजार ९-१०. बीस हजार और ११-१२. दस हजार सामानिक देव हैं। इनसे चार चार गुणे आत्मरक्षक देव हैं। कहि णं भंते! हिटिम गेविजगाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! हिट्ठिमगेविजगा देवा परिवसंति? ___ गोयमा! आरणच्चुयाणं कप्पाणं उप्पिं जाव उडूं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं हिडिमगेविजगाणं देवाणं तओ गेविजग विमाण पत्थडा पण्णत्ताः। पाईणपडीणायया, उदीण दाहिण वित्थिण्णा, पडिपुण्ण-चंदसंठाणसंठिया, अच्चिमाली For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान २४७ भासरासिवण्णाभा, सेसं जहा बंभलोगे जाव पडिरूवा। तत्थ णं हेट्ठिम गेविजगाणं देवाणं एक्कारसुत्तरे विमाणावास सए भवंतीति मक्खायं। ते णं विमाणा सव्व रयणामया जाव पडिरूवा। ___ एत्थ णं हेट्ठिम-गेविज्जगाणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिजइभागे। तत्थ णं बहवे हेट्ठिमगेविज्जगा देवा परिवसंति। सव्वं समिड्डिया, सव्वे समजुइया, सव्वे समजसा, सव्वे समबला, सव्वे समाणुभावा, महासुक्खा, अणिंदा, अपेस्सा, अपुरोहिया, अहमिंदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो!॥१३२॥ . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक नीचे (अधस्तन) ग्रैवेयक देवा के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! नीचे के ग्रैवेयक देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! आरणं और अच्युत कल्प के ऊपर यावत् ऊर्ध्व दूर जाने पर नीचे के रोवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट-पाथड़े हैं। जो पूर्व पश्चिम में लम्बे और उत्तर दक्षिण में चौड़े प्रतिपूर्ण चन्द्र के आकार में सूर्य की तेजो राशि जैसे वर्ण वाले हैं। शेष वर्णन ब्रह्मलोक कल्प की तरह यावत् प्रतिरूप है तक समझना चाहिये। वहाँ नीचे के ग्रैवेयक देवों के एक सौ ग्यारह (१११) विमान है, ऐसा कहा गया है। वे विमान सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं। यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक अधस्तन (नीचे के) ग्रैवेयक दवा के । स्थान कहे गये हैं। ये स्थान तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में कहे गये हैं। उनमें बहुत से अधस्तन ग्रैंवेयक देव निवास करते हैं। वे सभी समान ऋद्धि वाले, समान द्युति वाले, समान यस वाले, समान बल वाले, समान प्रभाव वाले, महान् सुखी, इन्द्र रहित, प्रेष्य (चाकर) रहित, पुरोहित रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमण ! वे देवगण अहमिन्द्र नाम से कहे गये हैं। __कहि णं भंते! मज्झिम गेविजगाणं देवाणं पज्जत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! मज्झिम गेविजगा देवा परिवसंति? गोयमा! हेड्रिम गेविजगाणं उप्पिं सपक्खिं सपडिदिसिं जाव उप्पइत्ता एत्थ णं मज्झिम गेविजग देवाणं तओ गेविजग विमाण पत्थडा पण्णत्ता। पाईणपडीणायया जहा हेट्ठिम गेविनगाणं। णवरं सत्तुत्तरे विमाणावास सए भवंतीति मक्खायं। ते णं विमाणा जाव पडिरूवा। एत्थ णं मज्झिम-गेविजगाणं जाव तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइभागे। तत्थ णं For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ फैट के क ************* प्रज्ञापना सूत्र बहवे मज्झिमगेविज्जगा देवा परिवसंति जाव अहमिंदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो!॥ १३३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक मध्यम ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! मध्यम ग्रैवेयक देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! नीचे ग्रैवेयक देवों के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा से यावत् ऊपर जाने पर मध्यम ग्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट कहे गये हैं। जो पूर्व पश्चिम में लम्बे हैं इत्यादि वर्णन नीचे के ग्रैवेयक देवों के समान समझना चाहिये । विशेषता यह है कि इनके एक सौ सात (१०७) विमान कहे गये हैं । वे विमान् यावत् प्रतिरूप हैं। I यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक मध्यम ग्रैवेयक देवों के स्थान हैं। ये स्थान तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में है । वहाँ बहुत से मध्यम ग्रैवेयक देव निवास करते हैं यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे देवगण अहमिन्द्र नाम से कहे गये हैं । कहि णं भंते! उवरिम गेविज्जगा णं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! उवरिम गेविज्जगा देवा परिवसंति ? गोयमा ! मज्झिम गेविज्जगाणं उप्पिं जाव उप्पइत्ता एत्थ णं उवरिम- गेविज्जगाणं तओ गेविज्जग विमाण पत्थडा पण्णत्ता । पाईण-पडीणायया, सेसं जहा हेट्टिम - गेविज्जगाणं । णवरं एगे विमाणावास एवं मक्खायं, सेसं तहेव भाणियव्वं जाव अहमिंदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो ! एक्कारसुत्तरं हेट्टिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥ १३४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक ऊपर के ( उपरितन ) ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! ऊपर के ग्रैवेयक देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! मध्यम ग्रैवेयकों के ऊपर यावत् ऊर्ध्व जाने पर ऊर्ध्व के ग्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट कहे गये हैं । जो पूर्व पश्चिम में लम्बे हैं इत्यादि सारा वर्णन नीचे के ग्रैवेयकों के समान जानना चाहिये । विशेषता यह है कि इनके एक सौ (१००) विमान है, ऐसा कहा गया है। शेष वर्णन पूर्वोक्तानुसार है। यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे देवगण अहमिन्द्र नाम से कहे गये हैं । नीचे के ग्रैवेयकों में एक सौ ग्यारह, मध्यम ग्रैवेयकों में एक सौ सात, ऊपर के ग्रैवेयकों में एक सौ और अनुत्तरोपपातिक देवों के पांच विमान हैं। कहि णं भंते! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहिणं भंते! अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति ? For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान २४९ ************************-*-*-*-*-*-*-*-*-********** गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसम-रमणिज्जाओ भूमिभागाओ उर्ल्ड चंदिम-सूरिय-गहगण-णक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोयणसयाई, बहूई जोयणसहस्साई, बहूई जोयणसयसहस्साई, बहुगाओ जोयणकोडीओ, बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ, उड्ढे दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण सणंकुमार जाव आरणच्चुयकप्या, तिण्णि अट्ठारसुत्तरे गेविजग विमाणा-वाससए वीईवइत्ता तेण परं दूरं गया णीरया, णिम्मला, वितिमिरा, विसुद्धा, पंचदिसिं पंच अणुत्तरा महइमहालया महाविमाणा पण्णत्ता। तंजहा - विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए, सव्वट्ठसिद्धे। ते णं विमाणा सव्व रयणामया, अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्टा, मट्ठा, णीरया, णिम्मला, णिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, सप्पभा, सस्सिरीया, सउज्जोया, पासाईया, दरिसणिज्जा, अभिरूवा, पडिरूवा। एत्थ णं अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइभागे। तत्थ णं बहवे अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति। सव्वे समिडिया सव्वे समज्जुइया, सव्वे समजसा सव्वे समबला, सव्वे समाणुभावा, महासुक्खा, अणिंदा, अपेस्सा, अपुरोहिया, अहमिंदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो!॥१३५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं? हे भगवन! अनत्तरौपपातिक देव कहाँ रहते हैं? उसर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुत सम एवं रमणीय भूमि भाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिषी देवों से अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक कोटि योजन और बहुत से कोटाकोटि योजन ऊपर दूर जाकर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार यावत् आरण-अच्युत कल्पों और उसके बाद ग्रैवेयकों के तीन सौ अठारह विमानों को उल्लंघन (पार) करके वहाँ से बहुत दूर, रज रहित, निर्मल, अंधकार रहित और विशुद्ध पांच दिशाओं में पांच महा अनुत्तर विमान कहे गये हैं जो इस प्रकार हैं - १. विजय २. वैजयंत ३. जयंत ४. अपराजित और सर्वार्थ सिद्ध। वे विमान सर्व रत्नमय स्फटिक समान स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, चिकने किये हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण, प्रभा से युक्त, श्री संपन्न, उद्योत युक्त, प्रसन्नता देने वाले, दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप है। वहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात और समुद्घात तथा स्वस्थान इन तीनों की अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से अनुत्तरौपपातिक देव रहते For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० **** 44 हैं। वे सब समान ऋद्धि वाले, समान बली, समान प्रभाव वाले महापुरुष, इन्द्र रहित, प्रेष्य (चाकर) रहित, पुरोहित रहित हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे देवगण अहमिन्द्र कहे जाते हैं। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सौधर्म आदि बारह देवलोकों, नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देवों के स्थानों, विमानों की संख्या, उनमें रहने वाले देवों, इन्द्रों और अहमिन्द्रों की ऋद्धि प्रभाव आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। वैमानिक देवों के कुल मिला कर ८४ लाख ९७ हजार २३ विमान होते हैं। बारह देवलोकों के देवों के पृथक्-पृथक् मुकुट चिह्न इस प्रकार हैं १. सौधर्म कल्प के देवों के मुकुट में मृग का २. ईशान देवों के मुकुट में भैंसे का ३. सनत्कुमार देवों के मुकुट में शूकर का ४. माहेन्द्र देवों के मुकुट में सिंह का ५. ब्रह्मलोंक के देवों के मुकुट में बकरे का ६. लान्तक देवों के मुकुट में मेंढक का ७. महाशुक्र के देवों के मुकुट में अश्व (घोड़े का ८. सहस्रार देवों के मुकुट में हाथी का ९. आनतदेवों के मुकुट में सर्प का १०. प्राणत देवों के मुकुट में गेंडे का और ११. आरण देवों के मुकुट में बैल का १२. अच्युत देवों के मुकुट में विडिम (मृग विशेष या शाखा विशेष) का चिह्न होता है। बारह देवलोकों के दस इन्द्र होते हैं क्योंकि आठवें देवलोक तक तो आठ इन्द्र होते हैं। फिर नौवें, दसवें दोनों देवलोकों का एक इन्द्र ( प्राणतेन्द्र ) है । ग्यारहवें, बारहवें दो देवलोकों का एक इन्द्र (अच्युतेन्द्र) होता है । प्रत्येक इन्द्र के विमानों में से पांच पांच विमान श्रेष्ठ होते हैं जिनको 'अवतन्सक" (आभूषण रूप ) कहते हैं। संख्या दो प्रकार की हैं- सम संख्या और विषम संख्या १, ३, ५, ७ आदि विषम संख्या है और २, ४, ६, ८ आदि सम संख्या है। विषम विषम संख्या वाले देवलोकों में प्रथम देवलोक के समान अवतन्सक विमान होते हैं। इसी प्रकार समसंख्या वाले देवलोकों में दूसरे देवलोक के समान नाम वाले अवतन्सक होते हैं। सिर्फ मध्य का अवतन्सक अपने अपने देवलोक के समान नाम वाला होता है। ये पांच-पांच अवतंसक इस प्रकार कहे गये हैं. मध्य में पूर्वदिशा में दक्षिणदिशा में पश्चिमदिशा में उत्तरदिशा में सौधर्मावतंसक अशोकावतंसक सप्तपर्णावतंसक चम्पकावतंसक चूतावतंसक ईशानावतंसक अंकावतंसक स्फटिकावतंसक रत्नावतंसक जातरूपावतंसक सनत्कुमारावतंसक अशोकावतंसक सप्तपर्णावतंसक चम्पकावतंसक चूतावतंसक माहेन्द्रावतंसक अंकावतंसक स्फटिकावतंसक रत्नावतंसक जातरूपावतंसक ब्रह्मलोकावतंसक अशोकावतंसक सप्तपर्णावतंसक चम्पकावतंसक चूतावतंसक लान्तकावतंसक अंकावतंसक स्फटिकावतंसक रत्नावतंसक जातरूपावतंसक महाशुक्रावतंसक अशोकावतंसक सप्तपर्णावतंसक चम्पकावतंसक चूतावतंसक क्रम १ २ 3 ४ ५ ६ ७ कल्प का नाम सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक प्रज्ञापना सूत्र महाशुक्र 台诺米案省装密密 For Personal & Private Use Only - Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान २५१ *********************************************************************************** सहस्रार क्रम कल्प का नाम मध्य में मध्य में पूर्वदिशा में दक्षिणदिशा में पश्चिमदिशा में उत्तरदिशा में सहस्रारावतंसक अंकावतंसक स्फटिकावतंसक रत्नावतंसक जातरूपावतंसक (९-१०) आनत प्राणत प्राणतावतंसक अशोकावतंसक सप्तपर्णावतंसक चम्पकावतंसक चूतावतंसक (११-१२)आरण अच्युत अच्युतावतंसक अंकावतंसक स्फटिकावतंसक रत्नावतंसक जातरूपावतंसक जिस प्रकार सात नरकों के गुणपचास (४९) प्रस्तट (पाथड़ा) होते हैं। इसी प्रकार छब्बीस (२६) ही देवलोकों के बासठ (६२) प्रस्तट होते हैं। यथा - पहले दूसरे देवलोक के तेरह प्रस्तट (प्रतर-पाथड़ा) होते हैं। तीसरे और चौथे देवलोक में बारह प्रस्तट होते हैं। पांचवें देवलोक में छह, छठे में पांच, सातवें में चार, आठवें में चार, नौवें और दसवें में चार तथा ग्यारहवें और बारहवें में चार प्रस्तट होते हैं। नव ग्रैवेयक के नौ.और पांच अनुत्तर विमान का एक। इस तरह से बासठ प्रतर होते हैं। प्रश्न - इन प्रस्तटों में देवों की कितनी स्थिति होती है ? उत्तर - सभी (२६) देवलोकों के अपने अपने सभी प्रतरों में जघन्य स्थिति अपने अपने देवलोक की जघन्य स्थिति के समान समझना चाहिये। उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार है-पहले प्रतर में एक सागर के तेरह भागों में से दो भाग २६ , दूसरे प्रतर में १३ , तीसरे प्रतर में १३ , चौथे में १३ , पांचवें में १० , छठे में १९, की स्थिति है। सातवें में एक सागर और एक सागर के तेरह भाग में से एक भाग १६३ , की स्थिति है। आठवें में १३ , नववें में १५३ , दसवें में १३ , ग्यारहवें में १२३, बारहवें में ११३ , तेरहवें में पूरे दो सागर की स्थिति है। तीसरे चौथे देवलोक में बारह प्रतर हैं। पहले प्रतर में दो सागर और एक सागर के बारह भागों में से पांच भाग २६३ की स्थिति है। दूसरे में २३६ , तीसरे में ३३३, चौथे में २६६ , पांचवें में ४३३, छठे में ४६६ , सातवें में ४१३ आठवें में ५३३, नववे में ५३ , दसवें में ६३३ , ग्यारहवें में ६५, बारहवें में पूरे सात सागर की स्थिति है। पांचवें देवलोक में छह प्रतर हैं। पहले प्रतर में ७३ , सागर की स्थिति है। दूसरे प्रतर में ८ (आठ) सागर, तीसरे में ८ - , चौथे में ९ सागर पांचवें में ९२, और छठे प्रतर की १० सागर की स्थिति है। पांचवें देवलोक के तीसरे प्रतर में रहने वाले नौ लोकान्तिक देवों की जघन्य स्थिति सात For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ******** ******** प्रज्ञापना सूत्र सागरोपम की (सामान्य देवों की अपेक्षा) उत्कृष्ट स्थिति आठ सागरोपम की होती है। मुखिया देवों की तो सभी की स्थिति जघन्य उत्कृष्ट के बिना आठ सागरोपम की ही होती है। ४ छठे देवलोक में पांच प्रतर हैं। पहले प्रतर में १० - ५ पांचवें प्रतर में १४ सागर की स्थिति है । " चौथे प्रतर में १३ सातवें देवलोक में चार प्रतर है। पहले प्रतर में १४- दूसरे में १५, तीसरे में १६, और चौथे प्रतर की १७ सागर की स्थिति है । दूसरे प्रतर ११ ३, तीसरे प्रतर में १२· , **************** , आठवें देवलांक में चार प्रतर हैं। पहले प्रतर में १७, दूसरे में १७, तीसरे में १७, चौथे १८ सागर की स्थिति है । नववें और दसवें दो देवलोक को मिलाकर दोनों के चार प्रतर हैं। पहले प्रतर में १८ दूसरे में १९, तीसरे में १९ ई, चौथे में (बीस) २० सागर की स्थिति है। ग्यारहवें और बारहवें देवलोक दोनों को मिलाकर चार प्रतर हैं- पहले प्रतर में २०, दूसरे में २१ सागर, तीसरे में २१- चौथे में २२ सागर की स्थिति है। नवग्रैवेयक में नौ प्रतर हैं। पहले प्रतर में तेईस सागर, दूसरे में चौबीस तीसरे में पच्चीस, चौथे में छब्बीस, पांचवें में सत्ताईस, छठे में अठ्ठाईस, सातवें में उनतीस, आठवें में तीस और नववें में ३१ सागर की स्थिति है। पांच अनुत्तर विमानों में एक प्रतर है। उसमें विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजीत इन चार विमानों में जघन्य इगतीस और उत्कृष्ट तेतीस सागर की स्थिति है। सर्वार्थ सिद्ध विमान में जघन्य उत्कृष्ट के बिना तेतीस सागर की स्थिति है। नोट : इस प्रकार प्रत्येक प्रतर की स्थिति का वर्णन संग्रहणी आदि ग्रन्थों में तथा टीका ग्रन्थों में मिलता है। मूल आगमों में इनका वर्णन देखने में नहीं आता है। प्रश्न- सम रमणीय भूमि भाग से कितनी ऊँचाई पर ये देवलोक हैं ? उत्तर - सम रमणीय भूमि भाग से डेढ़ राजु परिमाण ऊंचाई पर पहला, दूसरा देवलोक हैं । अढ़ाई राजु परिमाण ऊँचाई पर तीसरा चौथा देवलोक है। सवा तीन राजु परिमाण पर पांचवाँ साढे तीन राजु For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान पर छठा देवलोक, पौणे चार राजु पर सातवाँ और चार राजु पर आठवाँ देवलोक हैं । साढे चार राजु पर नौवाँ दसवाँ तथा पांच राजु पर ग्यारहवाँ और बारहवाँ देवलोक है। नवग्रैवेयक की पहली त्रिक साढ़े पांच राजु ऊँची है। पौणे छह राजु पर दूसरी त्रिक और छह राजु पर तीसरी त्रिक है। सात राजु माठेरा (कुछ कम ) ऊँचाई पर पांच अनुत्तर विमान हैं। प्रश्न - ये विमान किसके आधार पर रहे हुए हैं ? उत्तर पहला और दूसरा देवलोक घनोदधि के आधार पर हैं। तीसरा, चौथा और पांचवाँ देवलोक घनवात के आधार पर हैं। छठा, सातवाँ और आठवाँ देवलोक घनोदधि और घनवात के आधार पर हैं। नववाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ और बारहवाँ देवलोक नवग्रवेयक और पांच अनुत्तर विमान ये सब आकाश के आधार पर रहे हुए हैं। पहले दूसरे देवलोक के २७०० सौ योजन का आंगण ( आंगण की मोटाई नींव ) है और महल पांच सौ योजन के ऊंचे हैं। तीसरे चौथे देवलोक में २६०० सौ योजन का आंगण है और छह सौ योजन का ऊँचा महल हैं। पांचवें छठे देवलोक में २५०० सौ योजन का आंगण है और सात सौ योजन के ऊँचे महल है। सातवें, आठवें देवलोक में २४०० सौ योजन का आगण है और आठ सौ योजन के ऊंचे महल हैं। नववें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें देवलोक में २३०० योजन का आंगण है और नौ सो योजन के ऊँचे महल हैं। नवग्रैवेयक में २२०० योजन का आंगण है और एक हजार योजन के ऊँचे महल हैं। प्रश्न- देवों के शरीर की ऊँचाई कितनी होती है ? उत्तर - भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, पहला, दूसरा देवलोक के देवों के शरीर की ऊँचाई सात हाथ की होती है। तीसरे, चौथे देवलोक के देवों के शरीर की ऊँचाई छह हाथ। पांचवें छठे में पांच हाथ। सातवें आठवें में चार हाथ । नौवे, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें में तीन हाथ । नवग्रैवेयक में दो हाथ और पांच अनुत्तर विमान में एक हाथ, यह भवधारणीय अवगाहना है। उत्तर वैक्रिय सभी देवों में बारहवें देवलोक तक जघन्य अङ्गुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है। नवग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमान के देवों में उत्तर वैक्रिय करने की शक्ति तो है परन्तु करते नहीं हैं। प्रश्न- रज्जु (राजु) किसको कहते हैं ? उत्तर - यहाँ से असंख्यात द्वीप समुद्र उल्लन्धन कर आगे जाने से सब से अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र आता है वह चूड़ी आकार जैसा गोल है। वह असंख्यात द्वीप समुद्रों को घेरे हुए है। उसकी पूर्व वेदिका (पूर्वी किनारे) से लेकर पश्चिम वेदिका (पश्चिम किनारे) तक की दूरी को एक रज्जु कहते हैं। तत्त्वार्थाधिगम भाष्य की टिप्पणी में लिखा है कि लोक की अवगाहना (दूरी) चौदह राजु परिमाण है। यहाँ राजु दो प्रकार का बतलाया गया है। पारमार्थिक और औपचारिक। साधारण लोगों को समझाने के लिये दृष्टान्त देना औपचारिक राजु है। जैसे कि - - For Personal & Private Use Only २५३ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ प्रज्ञापना सूत्र ************* ******* ************************************ जोयण लक्खपमाणं, निमेसमित्तेण जाइ जो देवो। ता छम्मासे गमणं, एवं रज्जु जिणा विति॥ अर्थ - कल्पना की जाय कि एक देव एक निमेष (आँख की पलक गिरने में जितना समय लगता है उसे निमेष कहते हैं।) मात्र में एक लाख योजन जाता है। यदि वह छह मास तक लगातार इसी गति से चलता रहे तो वह एक राजु होता है। यह औपचारिक राजु का परिमाण है। पारमार्थिक राजु के परिमाण का स्पष्टीकरण आगमिक परिपेक्ष्य में इस प्रकार समझना चाहिये - ___तिर्यक् लोक की ऊँचाई (मोटाई-१८०० योजन) के बहुमध्य भाग में दो क्षुल्लक (लम्बाई चौड़ाई में सबसे छोटे) प्रतर बताये गये हैं। उनकी लम्बाई (पूर्व से पश्चिम तक) और चौड़ाई (उत्तर से दक्षिण तक) 'एक रज्जु परिमाण' ग्रन्थों में बताई है। नोट - यद्यपि आगमों में रजु शब्द व उसके परिमाण का वर्णन नहीं आया है। तथापि ग्रन्थों में बताये हुए रज्जु का परिणाम-आगम पाठों के फलितार्थों से स्पष्ट हो सकता है। एक रज्जु के परिमाण को समझने के लिए सबसे पहले हमें द्वीप समुद्रों की संख्या (परिमाण) व उनकी लम्बाई-चौड़ाई जानना आवश्यक होता है। अनुयोग द्वार सूत्र में (सूक्ष्म उद्वार पल्योपम सागरोपम का प्रयोजन बताते हुए) द्वीप समुद्रों की कुल संख्या (परिमाण) अढ़ाई उद्धार सागरोपम के समयों जितनी बताई है। एक उद्धार सागरोपम में दस कोड़ाकोड़ी (एक पद्म) पल्योपम होते हैं। अतः अढ़ाई उद्धार सागरोपम में २५ कोडी (१०कोडाकोडी x अढाई) उद्धार पल्योपम हो जाते हैं। इन सभी द्वीप समद्रों में सबसे पहला व सबसे छोटा जम्बूद्वीप है उसकी लम्बाई एक लाख योजन की बताई है। (सभी द्वीप समुद्रों में लम्बाई के समान ही चौड़ाई होती है तथा यह सभी माप प्रमाण अंगुल के योजन से बताया गया है।) उनसे आगे-आगे के द्वीप व समुद्र क्रमश: दुगुने-दुगुने परिमाण वाले बताये गये हैं। इस आगमिक माप के अनुसार जम्बूद्वीप की लम्बाई चौड़ाई के मध्य केन्द्र (रुचक प्रदेशों) से एक दिशा (पूर्व या पश्चिम) की तरफ से मापने पर जम्बूद्वीप के ५० हजार योजन (जम्बूद्वीप-पूर्णवृत होने से एक दिशा में आधा भाग ही आता है। शेष द्वीप समुद्र वलयाकार होने से उनका चक्रवाल विष्कंभ दोनों दिशाओं में उतना-उतना ही होता है यहाँ पर तो सभी द्वीप समुद्रों का एक दिशा की तरफ से ही चक्रवाल विष्कंभ-लम्बाई या चौड़ाई मापना है)। लवण समुद्र के २ लाख योजन, धातकी खण्ड द्वीप के ४ लाख योजन यावत् आगे आगे के द्वीप समुद्रों का परिमाण दुगुना-दुगुना करना है इस तरह क्रमश: अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र तक दुगुना-दुगुना करना है। इस विधि से सबसे पहले ५० हजार योजन, फिर दो लाख योजन, फिर ४ लाख योजन इस प्रकार २५ कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्योपम के समयों जितनी बार दुगुना दुगुना करके उस राशि का योग करने (जोड़ने) पर आधा रज्जु का परिमाण आता है। यह एक दिशा की तरफ का माप हुआ। इतना ही कोडाक For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - सिद्धों के स्थान २५५ ********* ***************** *************** माप दूसरी दिशा (पश्चिम) में भी होने से उन दोनों तरफ की दिशाओं (पूर्व से पश्चिम तक) के माप को शामिल करने पर एक रज्जु का परिमाण होता है। इस प्रकार आगमिक वर्णन से रज्जु का परिमाण समझना चाहिये। प्रश्न - योजन किसे कहते हैं ? उत्तर - चौबीस अङ्गल का एक हाथ होता है। चार हाथ का एक धनुष होता है। दो हजार धनुष का एक गाऊ होता है। चार गाऊ का एक योजन होता है। सिद्धों के स्थान कहि णं भंते! सिद्धाणं ठाणा पण्णत्ता? कहिणं भंते! सिद्धा परिवसंति? गोयमा! सव्वट्ठसिद्धस्स महाविमाणस्स उवरिल्लाओ थूभियग्गाओ दुवालस जोयणे उड़े अबाहाए एत्थ णं ईसीपब्भारा णामं पुढवी पण्णत्ता। पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साइं तीसं च सहस्साई दोण्णि य अउणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ता। ईसीपब्भाराए णं पुढवीए बहुमझदेसभाए अट्ठजोयणिए खेत्ते अट्ठ जोयणाइं बाहल्लेणं पण्णत्ते। तओ अणंतरं च णं मायाए मायाए पएसपरिहाणीए परिहायमाणी परिहायमाणी सव्वेसु चरमंतेसु मच्छियपत्ताओ तणुययरी, अंगुलस्स असंखेजइभागे बाहल्लेणं पण्णत्ता। ईसीपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस णामधिजा पण्णत्ता। तंजहा - ईसी इ वा, ईसीपब्भारा इ वा, तणू इ वा, तणुतणू इ वा, सिद्धि इ, वा सिद्धालए इ वा, मुत्ती इ वा, मुत्तालए इ वा, लोयग्गे इ वा, लोयग्गथूभिया इ वा, लोयग्गपडिवुज्झणा इ वा सव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहा इ वा। ईसीपब्भारा णं पुढवी सेया संखदल विमल-सोत्थिय-मुणाल-दगरय-तुसारगोक्खीरहारवण्णा, उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया सव्वज्जुण-सुवण्णमई, अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्ठा, मट्ठा, णीरया, णिम्मला, णिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, सप्पभा, सस्सिरिया, सउज्जोया, पासाईया, दरिसणिजा, अभिरूवा, पडिरूवा। ईसीपब्भाराए णं पुढवीए सीआए जोयणम्मि लोगंतो, तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छब्भागे, एत्थ णं सिद्धा भगवंतो For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ प्रज्ञापना सूत्र ************************* ********************************* साइया अपज्जवसिया अणेगजाइ-जरामरण-जोणिसंसारकलंकलीभावपुणब्भवगब्भवासवसही-पवंचसमइक्कंता सासयमणागयद्धं कालं चिटुंति। कठिन शब्दार्थ - थूभियग्गाओ - स्तूपिका के अग्रभाग से, अबाहाए - बिना व्यवधान के, मायाए - मात्रा से, परिहायमाणी - हीन होते हुए, मच्छियपत्ताओ - मक्खी के पंख से, तणुययरी - अधिक पतली, लोयग्गथूभिया - लोकाग्र स्तूपिका, लोयग्गपडिबुज्झणा - लोकाग्र प्रतिबोधना, सव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहा - सर्व प्राण भूत जीव सत्त्व सुखावहा - सभी प्राण भूत जीव सत्त्व के लिये सुखकारी, संखदलविमलसोस्थिय मुणाल-दगरय-तुसारगोक्खीरहारवण्णा - शंखदल के निर्मल चूर्ण के स्वस्तिक, मृणाल, जलकण, तुषार (हिम) गो दुग्ध तथा हार के समान वर्ण वाली, उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया - उलटे किये हुए छत्र के संस्थान में स्थित, सव्वजुणसुवण्णमई - पूर्ण रूप से अर्जुन स्वर्ण के समान। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सिद्धों के स्थान कहाँ कहे गये हैं? हे भगवन ! सिद्ध कहाँ निवास करते हैं? . उत्तर - हे गौतम! सर्वार्थसिद्ध महाविमान के ऊपरी स्तूपिका के अग्रभाग से बारह योजन ऊपर बिना व्यवधान (बाधा) के ईषत्प्राग्भारा नामक पृथ्वी कही गई है जिसकी लम्बाई चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन और उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक है। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बहुत मध्यदेश भाग में आठ योजन का क्षेत्र है जिसकी आठ योजन मोटाई कही गयी है। उसके अनन्तर (सभी दिशाओं और विदिशाओं में) मात्रा मात्रा से प्रदेशों की कमी होते जाने से हीन हीन होती हुई वह सब से अंत में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली, अंगुल के असंख्यातवें भाग मोटी कही गयी है। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम कहे गये हैं जो इस प्रकार हैं - १. ईषत् २. ईषत् प्राग्भारा ३. तनु ४. तनु-तनु ५. सिद्धि ६. सिद्धालय ७. मुक्ति ८. मुक्तालय ९. लोकाग्र १०. लोकाग्र स्तूपिका ११. लोकाग्र प्रति बोधना (प्रतिवाहिनी) १२. सर्व प्राण भूत जीव सत्त्व सुखावहा। . ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी श्वेत है। शंख दल के निर्मल चूर्ण के स्वस्तिक, मृणाल, जलकण, हिम, गोदुग्ध तथा हार के समान वर्ण वाली, उलटे किये हुए छत्र के आकार में स्थित, पूर्ण रूप से अर्जुन सुवर्ण के समान श्वेत, स्वच्छ, चिकनी, कोमल, घिसी हुई, चिकनी की हुई, निर्मल, निष्पंक, निरावरण, कांति युक्त, प्रभायुक्त, श्री संपन्न, उद्योतमय, प्रसन्नता देने वाली दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी से निसरणी की गति से एक योजन पर लोक का अन्त है। उस योजन का जो ऊपरी गाऊ है उस गाऊ का जो ऊपरी छठा भाग है वहाँ सादि अनन्त अनेक जन्म जरा मरण और For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद सिद्धों के स्थान योनियों के परिभ्रमण का क्लेश, पुनर्भव और गर्भावास में रहने के प्रपंच से रहित सिद्ध भगवान् शाश्वत अनागत काल तक रहते हैं । विवेचन - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम हैं। जैसे- १. ईषत् - अल्प, हलकी या छोटी, २. ईषत्प्राग्भारा-अल्प, ३. तनु-पतली, ४. तनुतनु- विशेष पतली ५ सिद्धि ६. सिद्धालय-सिद्धों का घर ७. मुक्ति, ८. मुक्तालय ९ लोकाग्र, १०. लोकाग्रस्तूपिका- लोकाग्र का शिखर ११. लोकाग्रप्रतिबोधना ( प्रतिवाहिनी) - जिसके द्वारा लोकाग्र जाना जाता हो ऐसी और १२. सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को सुखावह (सुखदाता) । सिद्ध भगवन्तों के समीप होने के कारण इस पृथ्वी को सिद्धि, सिद्धालय, मुक्तालय आदि शब्दों से कहा गया है। प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । · जीवाः पंचेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषा सत्त्वा उदीरिताः ॥ अर्थ - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को प्राण कहते हैं, वनस्पति को भूत कहते हैं, पंचेन्द्रिय को जीव कहते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय इन चार स्थावरों को सत्त्व कहते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीव जो वहाँ पृथ्वी आदि रूप से उत्पन्न होते हैं, उन सब जीवों लिए बह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी सुखदायी होती है क्योंकि वहाँ शीत ताप आदि दुःखों का अभाव है। तत्थ विय ते अवेया, अवेयणा णिम्ममा असंगा य । २५७ संसारविप्पमुक्का, पएसणिव्वत्तसंठाणा ॥ १ ॥ वहाँ वे सिद्ध भगवान् वेद रहित, वेदना रहित, ममत्व रहित, संग से रहित, संसार से सर्वथा विमुक्त एवं आत्म-प्रदेशों से बने हुए आकार वाले हैं ॥ १ ॥ कहिँ पsिहया सिद्धा ? कहिं सिद्धा पइट्टिया ? कहिं बोंदिं चइत्ताणं ? कत्थ गंतूण सिज्झइ ? ॥ २ ॥ भावार्थ सिद्ध कहाँ जाकर रुकते हैं ? सिद्ध कहाँ स्थित होते हैं ? और कहाँ देह को त्याग कर, कहाँ जा कर सिद्ध होते हैं ? - विवेचन - जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगामी है। अतः यह शङ्का उठना सहज है कि सिद्ध हमेशा भ्रमणशील ही रहते हैं या कहीं रुकते हैं ?-यदि रुकते हैं तो रुकने का क्या कारण है ? जिसका निमित्त मिलने पर रुकते हैं, तो क्या उससे टकरा कर वापिस लौटते हैं या कहीं स्थित रहते हैं ? वे जहाँ स्थित होते हैं-वहीं शरीर छोड़ते हैं या अन्यत्र ? अर्थात् उनका जो स्थान है, वहाँ जाकर देह छोड़ते हैं या अन्यत्र ? जहाँ देह त्यागते हैं, वहीं कृतकृत्य हो जाते हैं या अन्यत्र ? प्रायः ऐसी जिज्ञासाएँ इन प्रश्नों के मूल में रही हुई है। For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ प्रज्ञापना सूत्र * ** * * * ********************************************* अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया। इहं बोंदि चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिन्झइ॥३॥ भावार्थ - सिद्ध अलोक से रुकते हैं। लोकाग्र पर स्थित होते हैं और मनुष्य लोक में देह को छोड़ कर वहाँ-लोकान पर जा कर, सिद्ध अर्थात् कृतकृत्य होते हैं। विवेचन - प्रतिहत अर्थात् आनन्तर्यवृत्ति मात्र का स्खलन। सिद्धों की अलोक में गति बन्द हो जाने के कारण-१ गतिसहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय का अभाव २. शरीर-त्याग के प्रयोग से इतनी ही गति होना, ३. सिद्ध जीवों का लौकिक द्रव्य होना-आदि। तिरछे या नीचे गति नहीं करने का कारणजीवद्रव्य का मुक्तता के कारण ऊर्ध्वगमन स्वभाव। देहादि से मुक्ति तो मनुष्य लोक में ही हो जाती है। पूर्णतः मुक्ति और सिद्ध में एक समय का भी अन्तर नहीं होता है। किन्तु निश्चयदृष्टि से लोकाग्र पर प्रतिष्ठित हो जाने के बाद ही उन्हें सिद्ध माना जाता है। दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हविज संठाणं। तत्तो तिभाग हीणा, सिद्धाणोगाहणा भणिया॥४॥ भावार्थ - छोटा या बड़ा, जैसा भी अन्तिमभव में आकार होता है, उससे तीसरे भाग जितने कम स्थान में सिद्धों की व्याप्ति-जिनेश्वर देव के द्वारा कही गई है। विवेचन - प्रश्न - सिद्ध अवस्था में आत्म प्रदेशों की अवगाहना कितनी होती है ? और इसका क्या नियम है ? उत्तर - उपरोक्त प्रश्न का उत्तर इस गाथा में दिया गया है। वह यह है कि-सिद्ध होने वाले जीव के शरीर की अवगाहना इस चरम भव में जितनी होती है, उसका एक तिहाई भाग कम होकर दो तिहाई भाग प्रदेशों की सिद्ध अवस्था में अवगाहना होती है। जैसे कि यहाँ से तीन हाथ के शरीर की अवगाहना वाला जीव सिद्ध होता है, तो सिद्ध अवस्था में उसके आत्म प्रदेशों की अवगाहना दो हाथ की रहती है। इसी प्रकार छह हाथ वाले की चार हाथ और नौ हाथ वाले की छह हाथ की अवगाहना रहती है। इसी प्रकार सात हाथ वाले की चार हाथ सोलह अंगुल (२४ अंगुल का एक हाथ होता है) की अवगाहना सिद्ध अवस्था में रहती है। जं संठाणं तु इहं, भवे चयंतस्स चरिमसमयंमि। आसा तसठाणताह.तस्स।।५॥ ताहातस्सा 5भावार्थ - मनुष्यलोक के शव के देह में जो प्रदेशघन आकार अन्तिम समय में बना था, वही आकार उनका वहा पर होता है। A r fai IS FIRE IT .., For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - सिद्धों के स्थान २५९ ********************************* ************************************** तिणि सया तेत्तीसा, धणुत्तिभागो य होइ बोधव्वा। एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया॥६॥ भावार्थ - तीन सौ तैंतीस धनुष और धनुष का तीसरा भाग अर्थात् ३२ अंगुल, यह सर्वज्ञ कथित सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना जानना चाहिए। चत्तारि य रयणीओ, रयणित्तिभागणिया य बोधव्वा। एसा खलु सिद्धाणं, मझिम ओगाहणा भणिया॥७॥ भावार्थ - चार हाथ और तीसरा भाग कम एक हाथ अर्थात् सोलह अंगुल यह सिद्धों की मध्यम अवगाहना जानना चाहिए। एगा य होइ रयणी, अद्वेव य अंगुलाई साहीया। एसा खलु सिद्धाणं, जहण्ण ओगाहणा भणिया॥८॥ भावार्थ - एक हाथ और आठ अंगुल अधिक-यह सर्वज्ञकथित सिद्धों की जघन्य अवगाहना है। विवेचन - प्रश्न - अधिक से अधिक कितनी ऊँचाई वाले सिद्ध हो सकते हैं ? उत्तर - छठी गाथा के अनुसार उत्कृष्ट ५०० धनुष की अवगाहना वाले सिद्ध हो सकते हैं। प्रश्न - टीकाकार ने मरुदेवी माता की ५२५ धनुष की अवगाहना बताई हैं, यह कैसे ? उत्तर - मरुदेवी माता की अवगाहना ५०० सौ धनुष की ही थी इससे अधिक नहीं इसलिए टीकाकार का ५२५ धनुष लिखना यह आगम सम्मत नहीं है तथा वृद्ध अवस्था के कारण उनका शरीर सिकुड गया था अथवा वे बैठी हुई सिद्ध हुई थी इसलिए अवगाहना कम हो गई थी टीकाकार का यह लिखना भी आगमानुकूल नहीं है, क्योंकि सिद्ध होने वाला जीव चाहे बैठा हुआ हो, सोया हुआ हो या आडा टेडा हो अथवा देव द्वारा संहरण करके समुद्र या कुएं तालाब आदि पानी में ऊपर से ऊँधा डाला जाता हुआ हो अर्थात् सिद्ध होने वाले जीव किसी भी अवस्था में हो किन्तु सिद्ध गति में जाते समय आत्मा के प्रदेश मनुष्य के शरीर के आकार में खड़े हो जाते हैं। सब सिद्धों के आत्म-प्रदेश खड़े मनुष्य के शरीर के आकार के होते हैं। प्रश्न - सिद्ध भगवन्तों की मध्यम अवगाहना चार हाथ सोलह अंगुल कैसे समझना चाहिए ? उत्तर - गाथा नंबर ७ में सिद्ध भगवन्तों की जो यह मध्यम अवगाहना बताई है वह वास्तव में मध्यम अवगाहना नहीं है किन्तु तीर्थंकर भगवन्तों की अपेक्षा यह जघन्य अवगाहना है यह ऊपर के गद्य पाठ से स्पष्ट हो जाता है क्योंकि वहाँ सिद्ध होने वाले जीव की जघन्य अवगाहना सात हाथ की बतलाई है। इसकी टीका में स्पष्ट कर दिया है कि यह जघन्य अवगाहना तीर्थंकर भगवन्तों की अपेक्षा समझनी चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०. प्रज्ञापना सूत्र प्रश्न- ऊपर के प्रश्न के उत्तर में गद्य पाठ का उल्लेख किया है, वह गद्य पाठ कौन सा है ? उत्तर - उपरोक्त गद्य पाट उववाई सूत्र का वह इस प्रकार हैजीता णं भंते! सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चत्ते सिज्झति ? डीपीपी गोयमा ! जहणणे सत्तरयणीओ, उक्कोसेणं पंचधणुस्सए सिज्झति ॥ अर्थ - हे भगवन्! शरीर की कितनी ऊँचाई वाले सिद्ध होते है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य सात हाथ की ऊँचाई वाले और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष्य की ऊँचाई वाले सिद्ध होते हैं । इस गद्य पाठ से यह बात स्पष्ट होती हैं कि सात हाथ की ऊँचाई वाले अर्थात् जघन्य अवगाहनी 1 वाले तीर्थङ्कर ही होते हैं। यह अवगाहना अवसर्पिणी काल के धोबीसवें तीर्थङ्कर और उत्सर्पिणी काल के पहले तीर्थङ्कर की अपेक्षा समझना चाहिए। प्रश्न - गाथा नम्बर आठ में सिद्धों की जघन्य अवगाहना एक हाथ आठ अङ्गुल की बताई है, उसकी संगति कैसे होगी ? उत्तर - उववाई सूत्र में अन्त में सिद्धों से सम्बन्धित २२ (बाईस) गाथाएँ दी गयी हैं। वे बाईस गाथाएँ ज्यों कि त्यों इस पण्णवणा सूत्र में दी गयी है। इस आठवीं गाथा में सिद्धों की अवगाहना जो एक हाथ आठ अङ्गुल बतलाई गयी है, वह दो हाथ की ऊँचाई से सिद्ध होने वाले जीवों के लिए बतलाई गयी है। इसके लिए टीकाकार ने कूर्मापुत्र का दृष्टान्त दिया है जो कि दो हाथ की ऊंचाई वाले सिद्ध हुए थे । अतः यह स्पष्ट हो गया कि गाथा नम्बर सात में चार हाथ सोलह अङ्गुल की सिद्धों की जो मध्यम अवगाहना बताई है वह तीर्थङ्कर भगवन्तों की अपेक्षा जघन्य अवगाहना समझनी चाहिए। यह बात टीकाकार ने भी स्पष्ट कर दी है। उत्तर - प्रश्न- सिद्ध भगवन्तों की अवगाहना जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट किस प्रकार समझना चाहिए ? सिद्ध भगवन्तों की जघन्य अवगाहना एक हाथ आठ अङ्गुल होती है और उत्कृष्ट अवगाहना ३३३ धनुष और बत्तीस अङ्गुल (एक हाथ आठ अङ्गुल) इसके बीच की सब अवगाहना मध्यम अग्गाहना कहलाती है। अर्थात् एक हाथ आठ अङ्गुल से कुछ अधिक अवगाहना से लेकर पांच सौ धनु में कुछ कम तक सब अवगाहना मध्यम अवगाहना होती है। प्रश्न - सिद्ध भगवन्तों की अवगाहना किस प्रकार बोलना चाहिये ? उत्तर - सिद्ध भगवन्तों की अवगाहना में जघन्य अवगाहना दो प्रकार से बोलना चाहिये यथासामान्य केवलियों की अपेक्षा जघन्य अवगाहना एक हाथ आठ अंगुल और तीर्थंकर भगवन्तों की For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 台南樂樂樂樂樂怡安南市省省 - दूसरा स्थान पद सिद्धों के स्थान अपेक्षा जघन्य अवगाहना चार हाथ सोलह अंगुल तथा उत्कृष्ट अवगाहना ३३३ धनुष और ३२ अंगुल नोट जघन्य ( ३३३ धनुष १ हाथ और ८ अंगुल ) होती है इस प्रकार सिद्ध भगवन्तों की अवगाहना बोलना चाहिये। यहाँ पर उपर्युक्त गाथाओं में एवं उववाई सूत्र में सिद्धों की अवगाहना के तीन प्रकार ( जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट ) बताये गये हैं। अन्यत्र आगमों में भगवती सूत्रादि में ( शतक ९ उद्देशक ३१ सोच्चा, असोच्चा केवली के वर्णन में) सिद्धों की अवगाहना के दो भेद - 'जघन्य, उत्कृष्ट' किये हैं । अतः अपेक्षा से अवगाहना के तीन प्रकार एवं दो प्रकार दोनों कहे जा सकते हैं। दोनों तरह से कहना अनुचित नहीं है। तीन प्रकार कहते समय उसका स्पष्टीकरण कर देना चाहिये। जैसे अवगाहना १ हाथ, ८ अंगुल - सामान्य केवली (२ हाथ वालों) की अपेक्षा समझना । मध्यम अवगाहना४ हाथ, १६ अंगुल - सामान्य केवली की अपेक्षा मध्यम व तीर्थंकर केवली की अपेक्षा जघन्य अवगाहना समझना। उत्कृष्ट अवगाहना ३३३ धनुष ३२ अंगुल सभी केवलियों (सामान्य केवली व तीर्थंकर केवली सभी) की अपेक्षा उत्कृष्ट अवगाहना समझना । निष्कर्ष यह है कि अवगाहना के दोनों प्रकार के विभाग (तीन या दो) आगमों में बताये हुए होने से अपेक्षा विशेष से दोनों प्रकारों से कहने में कोई बाधा नहीं है। दोनों प्रकार उचित ही है। अतः दो भेद को सही कहना एवं तीन भेद को गलत कहना उचित नहीं है। किसी का भी आग्रह नहीं करते हुए आगमोक्त दोनों तरीकों से अवगाहना को बताना उचित ही लगता है 1 २६१ *********** - प्रश्न- दो हाथ के अवगाहना वाले कौन सिद्ध हुये ? उत्तर पण्णवणा सूत्रों आदि की टीका तथा प्रवचन सारोद्धार आदि ग्रन्थों में कूर्मापुत्र का उदाहरण दिया है जिनकी शरीर की अवगाहना दो हाथ थी । सिद्ध अवस्था में उनकी अवगाहना एक हाथ आठ अंगुल है। प्रश्न - तीर्थंकरों में जघन्य अवगाहना का उदाहरण कौनसा है ? उत्तर - अवसर्पिणी काल के अंतिम चौवीसवें तीर्थंकर और उत्सर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर के शरीर की अवगाहना सात हाथ की होती है। सिद्ध अवस्था में उनकी अवगाहना चार हाथ सोलह अंगुल होती है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सिद्ध अवस्था की अवगाहना चार हाथ सोलह अंगुल है। यह अवगाहना तीर्थंकर भगवन्तों की अपेक्षा जघन्य अवगाहना है। प्रश्न - उत्कृष्ट अवगाहना का उदाहरण क्या है ? For Personal & Private Use Only उत्तर - अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर और उत्सर्पिणी काल के चौवीसवें तीर्थंकर के शरीर की अवगाहना तथा पांचों महाविदेह क्षेत्र के सभी तीर्थंकरों के शरीर की अवगाहना ५०० धनुष की होती है तथा सामान्य केवलियों की उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष की हो सकती है। जैसे कि भगवान् ऋषभदेव के पुत्र भरत - बाहुबली आदि सौ पुत्रों की अवगाहना ५०० धनुप की थी। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ प्रश्न - मरुदेवी माता और नाभि राजा के शरीर की अवगाहना कितनी थी ? उत्तर - मरुदेवी माता के शरीर की अवगाहना ५०० धनुष की थी। नाभि राजा को कुलकर माना है इसलिए ग्रन्थकार उनके शरीर की अवगाहना ५२५ धनुष लिखते हैं। प्रश्न - नाभि कुलकर का आयुष्य कितना था और वे काल धर्म को प्राप्त कर कहां गये थे? उत्तर - नाभि कुलकर का आयुष्य एक करोड़ पूर्व से कुछ अधिक था और वे कुलकर रूप युगलिक थे। इसलिए काल करके वे देवलोक में गये अर्थात् भवनपति देवों में उत्पन्न हुये थे। वहाँ का आयुष्य पूरा करके मनुष्य रूप से उत्पन्न हुये और दीक्षा लेकर संयम का पालन करके भगवान् ऋषभदेव के शासन में ही मोक्ष में पधार गये। प्रश्न - मरुदेवी माता का आयुष्य कितना था और उनकी शरीर की ऊँचाई कितनी थी। वे काल करके कहाँ गये? उत्तर - मरुदेवी माता का आयुष्य एक करोड़ पूर्व था। उनके शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष की थी। भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान होने के एक अन्तर्मुहूर्त बाद केवलज्ञान प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्त में . ही मोक्ष पधार गई। प्रश्न - मरुदेवी माता के लिए टीकाकार का लिखना यह है कि - "मरुदेवी तु आश्चर्यकल्पाइत्येवमपि न विरोधः।" सो क्या यह कहना ठीक है? उत्तर - टीकाकार का उपरोक्त कथन ठीक नहीं है। क्योंकि मरुदेवी माता का मोक्षगमन आश्चर्य रूप नहीं है। स्थानांग सूत्र के दसवें ठाणे में दस आश्चर्य बताये गये हैं। उनमें मरुदेवी माता का मोक्ष गमन आश्चर्य नहीं बतलाया है और यह आश्चर्य है भी नहीं क्योंकि पण्णवणा सूत्र के प्रथम पद में सिद्धों के पन्द्रह भेद बताये हैं उसमें स्त्री लिंग सिद्ध भी बतलाया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में स्त्री का मोक्ष गमन निराबाध रूप से मान्य है। प्रश्न-क्या दिगम्बर सम्प्रदाय स्त्री की मुक्ति नहीं मानता है ? उत्तर - हाँ ! दिगम्बर सम्प्रदाय स्त्री की मुक्ति नहीं मानता है, किन्तु उनके मान्य ग्रन्थों में स्त्री का मोक्ष बतलाया गया है यथा श्रीमन् नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक चक्रवर्ति विरचित गोम्मटसार (जीवकाण्ड) पण्डित खूबचन्द जी जैन द्वारा रचित संस्कृत छाया तथा बालबोधिनी टीकासहित होति खवगा इगिसमये, बोहियबुद्धा य पुरिसवेदा य। उक्कस्सेण?त्तरसयप्पमा सग्गदो य चुदा॥ For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - सिद्धों के स्थान २६३ पत्तेयबुद्धतित्थयरस्थिणंउसयमणोहिणाणजुदा। दसछक्कवीसदसवीसट्ठावीसं जहाकमसो॥ जेट्ठावरबहुमज्झिम, ओगाहणगा दु चारि अटेव। जुगवं हवंति खवगा, उवसमगा अद्धमेदेसिं॥ अर्थ - युगपत्-एक समय में क्षपक श्रेणी वाले जीव अधिक से अधिक होते हैं तो कितने होते हैं ? इसका परिमाण इस प्रकार है कि बुद्ध बोधित एक सौ आठ, पुरुष वेदी एक सौ आठ, स्वर्ग से चवकर मनुष्य होकर क्षपक श्रेणी मांडने वाले एक सौ आठ, प्रत्येक बुद्ध ऋद्धि के धारक दश, तीर्थंकर. छह, स्त्रीवेदी बीस, नपुंसकवेदी दश, मनःपर्यवज्ञानी बीस, अवधिज्ञानी अट्ठाईस, मुक्त होने के योग्य शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना के धारक दो, जघन्य अवगाहना के धारक चार, समस्त अवगाहनाओं की मध्यवर्ती अवगाहना के धारक आठ। ये सब मिलकर चार सौ बत्तीस होते हैं। उपशम श्रेणी वाले इसके आधे (२१६) होते हैं। ओगाहणाए सिद्धा, भवत्तिभागेण होइ परिहीणा। संठाणमणित्थंथं, जरामरणविप्पमुक्काणं॥९॥ भावार्थ - सिद्ध अन्तिम भव की अवगाहना से तीसरे भाग जितनी कम अवगाहना वाले होते हैं। जरा और मरण से बिलकुल मुक्तों का आकार किसी भी लौकिक आकार से नहीं मिलता है-इत्थं-इस प्रकार-थं-स्थित, अणित्थंथं-इस प्रकार के आकारों में नहीं रहा हुआ हो ऐसा। __ विवेचन - जीव के समचतुरस्र आदि छह संस्थान बताये गये हैं। इन छह संस्थानों में से किसी भी संस्थान में रहा हुआ जीव इत्थंस्थ (इस प्रकार का) आकार वाला कहलाता है। सिद्ध भगवन्तों में इन छह संस्थानों में से कोई भी संस्थान नहीं है। इसलिए उनका संस्थान "अन+इत्थंस्थ-अनित्थंस्थ" कहलाता है जैसा कि वनस्पति का एक प्रकार का संस्थान नहीं होने से उसका संस्थान भी अनित्थंस्थ कहलाता है। जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अण्णोण्णसमोगाढा, पुट्ठा सव्वे वि लोगंते॥१० ।। भावार्थ - जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ भव के क्षय से विमुक्त, धर्मास्तिकायादिवत् अचिन्त्य परिणामत्व से परस्पर अवगाढ़ अनन्तं सिद्ध हैं और सब लोकान्त का अर्थात् लोकाग्र भाग का स्पर्श किये हुए हैं। फुसइ अणंते सिद्धे, सव्व पएसेहिं णियमसो सिद्धा। ते वि असंखिजगुणा, देस-पएसेहिं जे पुट्ठा॥११॥ भावार्थ - सिद्ध भगवान्, निश्चय ही सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों से अनन्त सिद्ध भगवन्तों का स्पर्श For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ *嚳米米帝嚳帝※※嚳嵌嚳楽楽谢谢谢 *******宗宗宗宗案件 प्रज्ञापना सूत्र ***密密宗豪帝豪豪豪出嚳事案案图案来常常面卡奶来电我未来常常和带来安金 करते हैं और उन सर्वात्म प्रदेशों से स्पृष्ट सिद्धों से असंख्येय गुण वे सिद्ध हैं- जो देश प्रदेशों से स्पृष्ट हैं। विवेचन - एक-एक सिद्ध समस्त आत्म- प्रदेशों द्वारा अनन्त सिद्धों का सम्पूर्ण रूप से स्पर्श किये हुए हैं इस प्रकार एक सिद्ध की अवगाहना में अनन्त सिद्धों की अवगाहना रही हुई है और एक में अनन्त अवगाढ हो जाते हैं, उनसे भी असंख्यात गुण सिद्ध ऐसे हैं जो देशों और प्रदेशों कितनेक भागों एक दूसरे में अवगाढ हैं। तात्पर्य यह है कि अनन्त सिद्ध तो ऐसे हैं जो पूरी तरह एक दूसरे में समाये हुए हैं और उनसे भी असंख्यात गुण सिद्ध ऐसे हैं जो देश प्रदेशों से अर्थात् कतिपय अंशों में एक दूसरे समाये हुए हैं। सिद्ध भगवान् अरूपी अमूर्त होने के कारण उनकी एक दूसरे में अवगाहना होने में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती है। जिस प्रकार अनेक दीपकों की ज्योति एक दूसरे में समाई हुई होती हैं, उसी प्रकार सिद्ध भगवान् भी ज्योति में ज्योति स्वरूप विराजमान हैं। असरीरा जीवघणा, उवउत्ता दंसणे य णाणे य । सागारमणागारं, लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ १२ ॥ भावार्थ- वे सिद्ध अशरीरी, जीवघन और दर्शन तथा ज्ञान-इन दोनों उपयोगों में क्रमशः स्थित हैं । साकार विशेष उपयोग ज्ञान और अनाकार - सामान्य उपयोग-दर्शन चेतना-सिद्धों का लक्षण है। विवेचन - वस्तु के भेद युक्त ज्ञान को साकार उपयोग कहते हैं और वस्तु के अभेद ज्ञान को अनाकार उपयोग। सिद्धान्त पक्ष इन दोनों उपयोगों की प्रवृत्ति सिद्धों में भी क्रमशः मानता है। इस पक्ष के पोषक जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्य । कुछ आचार्य दोनों उपयोगों को युगपद् मानते हैं और सिद्धसेन दिवाकर तर्क बल से इस मत की स्थापना करते हैं कि- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में, केवली अवस्था में किसी प्रकार का भेद नहीं है। दिगम्बर सम्प्रदाय में युगपद् उपयोग का ही प्रतिपादन है। स्थानकवासी सम्प्रदाय सिद्धांत पक्ष को ही मान्यता देता हैं। सैद्धांतिकों की दृष्टि में - ' जानने में प्रवृत्त होना' और 'देखने में प्रवृत्त होना' अर्थात् 'विशेष ज्ञानोपयोग की स्थिति' और 'सामान्य ज्ञानोपयोग की स्थिति' ये आत्मा के एक ही गुण की दो पर्यायें हैं। पर्यायें क्रमवर्ती ही हो सकती हैं। अतः सिद्धों को भी विशेषज्ञान और सामान्यज्ञान क्रमशः ही होते हैं । साकार और अनाकार उपयोग ही सिद्धों का लक्षण है। केवलणाणुवत्ता, जाणंति सव्वभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु, केवलदिट्ठी हिं अणंताहिं ॥ १३ ॥ भावार्थ - अनन्त केवलज्ञानांपयोग से सभी वस्तुओं के गुण और पर्यायों को जानते हैं और अनन्त केवलदृष्टि से सर्वतः - चारों ओर से देखते हैं। For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - सिद्धों के स्थान २६५ विवेचन - (अ) इस गाथा के द्वारा केवलज्ञान और केवलदर्शन का भेद स्पष्ट किया गया है। जब पदार्थों को सर्वतः देखा जाता है, तब वे पदार्थ सावयव होते हुए भी अभिन्न रूप से दिखाई देते हैं और जब उनके गुणादि की ओर दृष्टि रहती है, तब उनमें भेद ही भेद दिखाई देता है। (आ) द्रव्य-गुण और पर्याय का आश्रय भूत द्रव्य होता है। गुण-पदार्थव्यापी अंश अर्थात् पदार्थव्यापी ऐसा अंश, जो वैसे ही अन्य अंशों के साथ पदार्थ में अविरोधी रूप से रहता है, उसे गुण कहते हैं। पर्याय-पदार्थ की क्रमवर्ती अवस्था को पर्याय कहते हैं। (इ) सिद्ध अन्तर्मुख ही होते हैं-बहिर्मुख नहीं। यह जो सर्व-द्रव्यादि का ज्ञान होता है, वह उनकी अन्तर्मुखता के कारण ही होता है। आत्मा तो स्व-उपयोग का ही स्वामी है। अर्थात् स्व-उपयोग की लीनता में ही यह विशेषता है कि-उसमें सभी द्रव्यादि का ज्ञान स्वतः होता है। आगम काल के पश्चात् जो ये भेद हुए हैं कि केवली व्यवहार दृष्टि से ही सर्व द्रव्यादि को जानते हैं और निश्चयदृष्टि से तो अपनी आत्मा को ही जानते हैं-वे मात्र समझने के लिये ही है। वस्तुतः स्व-उपयोग में व्यवहारनिश्चय रूप भिन्न दृष्टियों से कोई विशेष. अन्तर नहीं है। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी-केवली भगवान् “सर्व द्रव्य, सर्व क्षेत्र, सर्व काल, सर्व भाव जानते देखते हैं" - इसका आशय यह समझना कि - केवलज्ञान व केवल दर्शन के पर्याय सर्वाधिक स्तर के (सभी अनन्त के प्रकारों में सबसे ऊंचा दर्जा अर्थात् मध्यम अनन्तानंत आठवें अनन्त का बहुत ऊंचा दर्जा) होते हैं। उस ज्ञान दर्शन के द्वारा सभी ज्ञेय पदार्थ (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) के सभी अविभाज्य अंश-सम्पूर्ण रूप से संख्या आदि सभी दृष्टि से जाने देखे जाते हैं। अतः केवलियों के लिए कोई भी द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव अनजाना अनदेखा नहीं होता है अतः उसका आदि अन्त भी जानते देखते हैं। केवलज्ञान, केवलदर्शन ज्ञाता द्रष्टा होने से भाजन के समान आधार भूत है - सभी द्रव्यादि उसके विषय रूप (ज्ञेय रूप) होने से आधेय गिने जाते हैं। आधार हमेशा बड़ा ही होता है। थाली के समान के ज्ञान, दर्शन और कटोरियों के समान द्रव्यादि। 'अनादि अनंत' शब्दों का व्यवहार छद्मस्थों को समझाने के लिए किया है। केवलियों के लिए कोई भी द्रव्यादि अनादि अनंत' नहीं होते हैं। भगवती सूत्र शतक ५ उद्देशक ४ के अनुसार केवलज्ञानी मित अमित सभी को जानते देखते हैं। भगवती सूत्र शतक २५ में बताई हुई . लोक-अलोक के पूर्वादि दिशाओं की श्रेणियों से यह स्पष्ट हो जाता है। णवि अत्थि माणुसाणं, तं सोक्खं ण वि य सव्वदेवाणं। जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उवगयाणं॥१४॥ भावार्थ - न तो मनुष्यों को ही वह सुखानुभव है और न सभी देवों को ही, जो सौख्य अव्याबाध-बाधा-पीड़ा रहित अवस्था को प्राप्त सिद्धों को ही प्राप्त होता है। For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ प्रज्ञापना सूत्र सुरगणसुहं समत्तं, सव्वद्धापिंडियं अणंतगणं। ण वि पावइ मुत्तिसुहं, णंताहिं वग्गवग्गहिं॥१५॥ भावार्थ - तीनों काल से गुणित जो देवों का सौख्य है, उसे अनन्त बार वर्गवर्गित किया जाय, ऐसा वह अनन्तगुण सौख्य मुक्तिसौख्य के बराबर नहीं हो सकता है। विवेचन - जितनी संख्या हो, उतनी संख्या से गुणित करने पर जो गुणनफल आता है, उसे वर्ग कहा जाता है। जैसे-दो से दो को गुणित करने पर 'चार' वर्ग हुआ। जो उस वर्ग का भी वर्ग हो, उसे वर्गवर्ग कहते हैं। जैसे-दो का वर्ग चार और चार का वर्ग सोलह। ऐसे अनन्त बार वर्गवर्गित देवों का सुख, सिद्धों के सौख्य के तुल्य नहीं हो सकता। चूर्णिकार ने-'णंताहि.....' पद का सम्बन्ध 'मुत्तिसुहं' के साथ जोड़कर यह अर्थ किया है'अनन्त खण्ड खण्डों से खण्डित सिद्धसुख-अर्थात् सिद्धों के सुख के अनन्तानन्ततम खण्ड की समता भी, देवों का सर्वकालिक सुख, नहीं कर सकता है। क्योंकि देवों का सुख पौद्गलिक सुख से मिश्रित है। जबकि सिद्धों का सुख विशुद्ध आत्मिक है। सिद्धस्स सुहो रासी, सव्वद्धापिंडिओ जइ हविज्जा। सो अणंतवग्गभइओ, सव्वागासे ण माएजा॥१६॥ भावार्थ - एक सिद्ध के सुख को तीनों काल से गुणित करने पर जो सुख की राशि हो, उसे अनन्तवर्ग से भाजित करने पर जो सुख की राशि उपलब्ध होती है, वह सुखराशि भी सम्पूर्ण आकाश में नहीं समा सकती। विवेचन - यहाँ विशिष्ट आह्लाद रूप सुख ग्रहण किया है। शिष्ट जनों की सुख शब्द की प्रवृत्ति जिसके लिये होती है, उस आलाद की अवधि करके वहाँ से आरम्भ करके, एक-एक गुण की वृद्धि के तारतम्य के द्वारा, उस आह्लाद की यहाँ तक वृद्धि करे कि वह अनन्तगुण वृद्धि के द्वारा निरतिशय निष्ठा को प्राप्त हो जाय अर्थात् कल्पनातीत राशि हो जाय। ऐसा वह अत्यन्त, उपमा से रहित और एकान्तिक औत्सुक्य निवृत्ति रूप, निश्चलतम महोदधि के समान चरम आहलाद ही सिद्धों के सदा होता है। उस प्रथम चार से-संभवतः सुखानुभव के पहले स्तर से ऊपर तक के अन्तरालवर्ती आह्लाद के तारतम्य के द्वारा जो विशेष-विशेष रूप से स्तर बनते हैं, वे समस्त आकाश प्रदेशों से भी अधिक होते हैं। अतः कहा-'सव्वागासे ण माएज्जा'। यदि अन्यथा हो तो उनकी प्रतिनियत देश में अवस्थिति किस प्रकार हो सकती है-यों आचार्य कहते हैं। ___इस गाथा का वृद्धोक्त विवरण का यह आशय है कि -'यह जो सुखभेद है, वे सिद्ध सुख के पर्यायरूप से कहे गये हैं। उस अपेक्षा से क्रम से उत्कृष्ट करते हुए उस सुख के भेद को उपचार से For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - सिद्धों के स्थान २६७ **** ************** *************************** ************************************* अनन्ततम स्थानवर्तिता की प्राप्ति होती है। असद्भाव स्थापना से उस सुखराशि को हजार मान लिया जाय और संमयराशि को सौ। हजार को सौ से गुणित किया तो लाख हुए। यह गुणन किया गया-सर्व समय संबंधी सुख पर्यायों की उपलब्धि के लिए तथा अनंत राशि को 'दश' से मान लिया जाय। उसका वर्ग हुआ सौ। वर्ग से प्राप्त संख्या सौ के द्वारा लक्ष को अपवर्तित किया तो हजार ही हुए। अतः पूज्यों ने कहा कि -'समीभूत-तुल्यरूप ही है-यह आशय है।' यहाँ जो यह सुखराशि का गुणन और अपवर्तन हुआ है, उसकी हम इस प्रकार संभावना करते हैं कि-यहाँ अनन्त राशि से गुणित होने पर भीअनन्तवर्ग अर्थात् अनन्तानन्त रूप अतीव महास्वरूप से अपवर्तित होने पर, किंचिद् अवशेष रहता है, वह राशि भी अति महान् है। उससे भी सिद्धों की सुखराशि महान् है-ऐसी बुद्धि शिष्य में उत्पन्न करने के लिये अथवा गणितमार्ग से व्युत्पत्ति करने के लिये-यह प्रयास है। अन्य इस गाथा की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि - सिद्ध के सुखों की पर्यायराशि xxx जो सर्वसमयों से सम्बन्धित है, उसे सङ्कलित की-उस सङ्कलित राशि को अनन्तबार वर्गमूल से अपवर्तित की अर्थात् अत्यन्त लघु बनाई। जैसे-सर्वसमय सम्बन्धी सिद्धों की सुखराशि ६५५३६ है। इसे वर्ग से अपवर्तित करने पर २५६ हुई। वह स्ववर्ग से अपवर्तित होने पर १६, सोलह से चार और चार से दोयह अतिलघु राशि प्राप्त हुई। वह भी सम्पूर्ण आकाश प्रदेशों में भी नहीं समा सकती है। सांसारिक जीवों के सुखों की पर्यायों को परस्पर मिलाने पर संख्या में वृद्धि होती है जैसे दो व्यक्तियों की सुखों की पर्यायें एक-एक लाख है उन्हें मिलाने पर दो लाख हुई। किन्तु सिद्धों के सुखों की पर्याय भौतिक नहीं होकर आत्मिक अव्याबाध सुख रूप होती है। सभी सिद्धों की तीनों काल के सुख की पर्यायें मिलाने पर या मात्र एक सिद्ध की वर्तमान काल की सुख की पर्याय दोनों समान ही होती है जैसे शून्य (०) को शून्य से कितनी ही बार गुणा करे या जोड़, बाकी, भाग आदि करे तो भी उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है वैसे ही सिद्धों में भी समझना चाहिये। जह णाम कोइ मिच्छो, णगरगुणे बहुविहे वियाणंतो। ण चएइ परिकहेउं, उवमाए तहिं असंतीए॥१७॥ भावार्थ - जैसे कोई म्लेच्छ-जंगली मनुष्य बहुत तरह के नगर के गुणों को जानते हुए भी, वहाँ-जंगल में-नगर के तुल्य कोई पदार्थ नहीं होने से, नगर के गुणों को कहने में समर्थ नहीं हो सकता है। इय सिद्धाणं सोक्खं, अणोवमं णत्थि तस्स ओवम्म। किंचि विसेसेणेत्तो, सारिक्खमिणं सुणह वोच्छं॥१८॥ भावार्थ - वैसे ही सिद्धों का सुख अनुपम है। यहाँ उसकी बराबरी का कोई पदार्थ नहीं है। फिर भी कुछ विशेष रूप से उसकी उपमा कहता हूँ-सो सुनो। For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ प्रज्ञापना सूत्र ************************** *************** *** * ********************************* विवेचन - म्लेच्छः कोऽपि महारण्ये, वसति स्म निराकुलः। अन्यदा तन्त्र भषालो, दष्टाश्वेन प्रवेशितः॥१॥ म्लेच्छेनासौ नृपो दृष्टः, सत्कृतश्च यथोचितम्। प्रापितश्च निजं देशं, सोऽपि राज्ञा निजं पुरम्॥२॥ ममायमुपकारीति, कृतो राज्ञाऽतिगौरवात्। विशिष्ट भोगभूतीनां, भाजन जनपूजितः ॥३॥ ततः प्रासावभंगेषु, रम्येषु, काननेषु च। वृत्तो विलासिनीसाथै भुंक्ते भोगसुखान्यसौ॥४॥ अन्यदा प्रावृषः प्राप्तौ मेघाडम्बर मण्डितम्। व्योम दृष्ट्वा ध्वनिं श्रुत्वा, मेघानां स मनोहरम्॥५॥ जातोत्कण्ठो दृढं जातो-ऽरण्यवासगमं प्रति। विसर्जितश्च राज्ञाऽपि, प्राप्तोऽरण्यमसौ ततः॥६॥ पृच्छन्त्यरण्यवासास्तं, नगरं तात ! कीदृशम्?। स स्वभावान् पुरः सर्वान्, जानात्येव हि केवलम्॥७॥ न शशाक तकां(तरां) तेषां, गदितुं स कृतोद्यमः। वने वनेचराणां हि, नास्ति सिद्धोपमा यतः (तथा)॥ भावार्थ - एक म्लेच्छ किसी महारण्य में रहता था। राजा दुष्ट अश्व के द्वारा वहाँ पहुँच गया अर्थात् जंगल को प्राप्त हो गया।।१॥ उस म्लेच्छ ने राजा को देखा और उसका यथोचित सत्कार किया। जब वह राजा स्वदेश को लौटा तो उस म्लेच्छ को भी साथ ले गया॥२॥ राजा ने अपना उपकारी जानकर, उसे विशिष्ट भोग साधन दिये और उसे जन-पूजित बनाया ॥३॥ उसने प्रासाद-शिखरों पर और रम्य बगीचों में विलासिनियों से घिरे रह कर, भोगसुखों को भोगा।। ४ ॥ ___वर्षा ऋतु आई। बादलों से गगन मण्डित हो गया। वह आकाश को देख कर और मनोहर मेघध्वनि को सुन कर, अरण्य में जाने के लिये उत्सुक हुआ। राजा ने भी उसे विसर्जित किया और वह जंगल में गया ।। ५॥६॥ जंगल निवासी उसे पूछते हैं-'तात ! नगर कैसा है?' वह नगर के सभी स्वभावों को जानता है ही। किन्तु उद्यम करने पर भी, वह वन में वनचरों को कहने में समर्थ नहीं हो सका। ऐसे ही सिद्ध भगवन्तों के सुखों की उपमा भी किसी भी सांसारिक पदार्थो से नहीं दी जा सकती है॥७॥८॥ For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा स्थान पद - सिद्धों के स्थाम ******* २६९ * * * ********* * * * * * * * * * RA LA ** *** ****+ 7... 1 0 . जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोइ। तहा-छुहा-विमुक्कों, अच्छिज जहा अमियतित्तो॥१८॥ भावार्थ - जैसे कि-कोई पुरुष सभी इच्छित गुणों से युक्त भोजन को करके, भूख-प्यास से रहित होकर, जैसे अमित तृप्त-विषयों की प्राप्ति हो जाने से, उत्सुकेता की निवृत्ति से उत्पन्न प्रसन्नता से युक्त-हो जाता है। इय सव्वकालतित्ता, अतुलं णिव्वाणमुवगया सिद्धा। सासय मव्वाबाहं, चिटुंति सुही सुहं पत्ता॥१९।। भावार्थ - वैसे ही सर्वकाल तृप्त, अतुल शान्ति को प्राप्त हुए सिद्ध भगवन्त शाश्वत और अव्याबाध सुख को प्राप्त होकर-सुखी होकर स्थित रहते हैं। विवेचन - वहाँ पर सम्पूर्ण दुःखों की सर्व प्रकार से निवृत्ति रूप अतुल, अनुपम, अव्याबाध सुख सदा काल होता है। ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म के क्षय होने से सकारात्मक (विधि रूप) गुण क्रमशः केवलज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न होता है। शेष छह कर्मों के क्षय होने से निषेधात्मक (उन उन कर्मों के पूर्ण अभाव रूप) गुण उत्पन्न होता है ऐसा अनुयोग द्वार आदि सूत्रों में बताया है अतः यहाँ पर भी वेदनीय कर्म के पूर्ण क्षय हो जाने से 'अव्याबाध सुख' रूप गुण उत्पन्न होता है। अनन्त सुख के रूप में शास्त्रकार नहीं बताना चाहते हैं। अतः सर्वत्र सिद्धों के सुखों के लिए अतुल, अनुपम, अव्याबाध शब्दों से ही बताया है। सिद्धत्ति य, बुद्धत्ति य, पारगयत्ति य परंपरगयत्ति। उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य॥२१॥ भावार्थ - वे सिद्ध-कृतकृत्य हैं। बुद्ध-केवलज्ञान से सम्पूर्ण विश्व को जानने वाले हैं। पारगतभव-सागर से पार पहुंचे हुए हैं। परम्परागत-क्रम से प्राप्त मुक्ति के उपायों के द्वारा पार पहुँचे हुए हैं। उन्मुक्त कर्म कवच-समस्त कर्म रूपी कवच से मुक्त हैं। अजर- बुढ़ापे से रहित हैं। अमर-मरण से रहित हैं और असंग-सभी क्लेशों से रहित हैं। णिच्छिण्ण-सव्व-दुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का। अव्वाबाहं सोक्खं, अणुहंति सासयं सिद्धा॥२२॥ ॥१३६॥ भावार्थ - सिद्ध भगवन्त सभी दुःखों से रहित होकर, जन्म, जरा, मरण और बन्धन से मुक्त होकर, अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हुए अपने स्वरूप में स्थित हैं। . विवेचन - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी (सिद्ध शिला) उल्टे छत्र के आकार की है। इससे यह स्पष्ट होता For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ********* प्रज्ञापना सूत्र ************ ************************** ***** ** * *********************** है कि वह कुछ झुकी हुई है। क्योंकि बीच में उसकी आठ योजन की मोटाई (जाडाई) है तथा साडे बाईस लाख योजन में क्रमश: पतली होती हुई किनारे पर मक्खी के पांख से भी पतली हो गयी है अर्थात् अंगुल के असंख्यातवें भाग की पतली हो गयी है। प्रश्न - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी से लोकान्त कितना दूर है ? उत्तर - यद्यपि सभी शाश्वत वस्तुएं, प्रमाणाङ्गल से नापी जाती है किन्तु ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी से लोकान्त एक योजन की दूरी पर है। यह योजन उत्सेधाङ्गल से लेना चाहिए क्योंकि उस योजन के चौबीस भाग करने पर चौबीसवें भाग में सिद्ध भगवन्तों की अवगाहना बतलाई गयी है। जीवों की अवगाहना उत्सेधाङ्गल से नापी जाती है। अतः तीन सौ तेतीस धनुष बत्तीस अङ्गल (एक हाथ आठ अङ्गुल) की सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना होती है। वह अवगाहना ऊपर का एक योजन उत्सेधाङ्गुल से लिया जाय तभी ठीक बैठ सकती है। प्रश्न - क्या सिद्धों का संस्थान होता है ? उत्तर - छह संस्थानों में से कोई भी संस्थान सिद्धों में नहीं होता है। वे निरंजन-निराकार होते हैं। ग्रन्थों में उनके प्रदेशों का आकार बतलाया गया है क्योंकि मनुष्य ही सिद्ध होता है। इसलिये उनके प्रदेशों का आकार मनुष्य के आकार का होता है। इसलिये उनको नराकार (नर+आकार-नराकार) कहते हैं। अर्थात् निराकार होते हुए भी नराकार (आत्मप्रदेशों का अपेक्षा) होते हैं। प्रश्न - क्या सिद्धि स्थान में कर्मों के पुद्गल हैं ? उत्तर - सिद्धि स्थान में कर्मों के पुदगल अवश्य हैं। किन्तु वे कर्म पुद्गल सिद्ध भगवंतों को नहीं लगते हैं। क्योंकि कर्म के पुद्गलों को सकर्मक (कर्म सहित) जीव ही अपनी तरफ खींचता है अकर्मक नहीं। जैसे लावण दुःखती हुई आँख को ही लगती है, स्वस्थ आँख को नहीं तथा जैसे महतरानी राजा के महलों में जाने पर भी रानी नहीं बनती है इसी प्रकार सिद्ध क्षेत्र में सिद्ध भगवान् एवं एकेन्द्रिय जीवों के रहने पर भी सिद्धों के कर्म बन्ध नहीं होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के होते हैं। सिद्ध भगवन्तों के बीच में पृथ्वीकाय आदि पांचों प्रकार के सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव हैं। उनके कर्म बन्ध होता है। शुद्ध चेतन के साथ कर्म रूपी जड़ का बन्ध नहीं होता है। कर्म जड़ हैं अत: जड़ (कर्म) सहित चेतन के साथ ही कर्मों का बन्ध होता है। सिद्ध भगवान् कर्म (जड़) रहित हैं अतः उनके साथ कर्मों का बन्ध नहीं होता है। ॥पण्णवणाए भगवईए बिइयं ठाणपयं समत्तं॥ ॥ प्रज्ञापना सूत्र का द्वितीय स्थान पद समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं बहुवत्तव्वयं (अप्पाबहुयं) पयं तीसरा बहुवक्तव्यता (अल्पबहुत्व) पद उत्क्षेप (उत्थानिका) - प्रथम पद और द्वितीय पद की व्याख्या कर दी गयी। अब यह तीसरा पद प्रारम्भ होता है। इसके दो नाम हैं। बहुवक्तव्य पद और अल्प बहुत्व पद। बहुवक्तव्य पद इसलिए कहा गया है कि इसमें द्रव्यों की संख्या की दृष्टि से विचार किया गया है क्योंकि ब्रह्माद्वैतवादी एक परम ब्रह्म को ही मानते हैं। उनकी मान्यता है कि तत्त्व एक ही है, बाकी दृश्यमान जगत् तो उसकी पर्याय (विवर्त-परिणाम) मात्र है। सांख्य मतावलम्बियों की मान्यता है कि जीव तो अनेक हैं परन्तु अजीव एक ही है। बौद्ध दर्शन अनेक चित्त और अनेक रूप मानता है परन्तु सब को क्षणिक मानता है। जैन दर्शन में द्रव्यों की संख्या छह बताई गयी है। यथा - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और छठा काल। इन छह द्रव्यों में परस्पर अल्प बहुत्व का निरूपण भी किया गया है। अर्थात् कौन सा द्रव्य किस द्रव्य से अल्प है, बहुत है, तुल्य है या विशेषाधिक है इसका पृथक्-पृथक् अनेक तरह से विचार किया गया है। ___ अल्प बहुत्व - इस पद में दिशा, गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि से लेकर महादण्डक तक २७ (सत्ताईस) द्वारों से अल्प बहुत्व का विचार किया गया है। २७. वें द्वार का नाम महादण्डक है। जिसका अर्थ है ९८ बोल का अल्पबहुत्व बतलाया गया है जिसको थोकड़े वाले "अट्ठाणु बोल का बासठिया" कहते हैं। इसको बासठिया इसलिये कहते हैं कि एक मूल भेद को लेकर अन्य इकसठ बातों का विचार किया गया है यथा जीव के चौदह भेद गुणस्थान योग उपयोग लेश्या मूलक का एक बोल ०६ For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ प्रज्ञापना सूत्र *** * ***************** ******* ******************************** ************* इस महादण्डक द्वार में सब जीवों की अल्प बहुत की प्ररूपणा की गयी है। मनुष्य हो, देव हो या तिर्यच हो सभी में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक बतलाई गयी है। अधोलोक में पहली नरक से सातवीं नरक तक क्रमशः जीवों की संख्या घटती जाती हैं। इसी प्रकार अर्ध्वलोक में भी पहले सुधर्म देवलोक से लेकर सर्वार्थ सिद्ध विमान तक देवों की संख्या घटती जाती है। मनुष्य लोक के नीचे भवनपति देव हैं उनकी संख्या सौधर्म देवलोक के देवों से अधिक है। उनसे ऊँचे होते हुए भी वाणव्य॑न्तर और ज्योतिषी देवों की संख्या उत्तरोसर अधिक है। सब से कम संख्या मनुष्यों की है। इसी कारण से ज्ञानियों ने मनुष्य भवे की दुर्लभता बतलाई है। जैसे जैसे इन्द्रियों कम होती गयी है वैसे-वैसे जीवों की संख्या अधिक होती गयी है। जैसे कि - नरक, देव, मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय इन सभी पंचेन्द्रिय जीवों से चउरिन्द्रिय जीवों की संख्या अधिक है। चउरेन्द्रिय की अपेक्षा तेन्द्रिय की, तेइन्द्रिय की अपेक्षा बेन्द्रिय की और बेइन्द्रिय की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवों की संख्या क्रमशः अधिक होती गयी है। यहाँ तक कि सिद्धों की अपेक्षा एकेन्द्रिय की संख्या अधिक है। दूसरे स्थान पर्दे की व्याख्या करने के बाद सूत्रकार तीसरे अल्पबहुत्व पद की व्याख्या करते हैं। . प्रथम पद में पृथ्वीकायिक आदि जीवों का स्वरूप बतलाया गया है तो दूसरे पद में उन जीवों के स्वस्थान आदि का निरूपण किया गया है। इस तीसरे पद में दिशाओं के भेद से उन जीवों के अल्पबहुत्व का वर्णन किया जाता है। जो इस प्रकार है दिसि-गई-इंदिय-काए जीए बेए कसाय-लेसा य। सम्मत्त-णाण-दसण-सैजेय-उबओग-आहारे॥ १॥ भासग-परित्त-पजत्त-सुहुम-सण्णी भवअथिए चरिमे। जीवे य खित्तबंधे पुग्गल महदंडए चेव॥ २॥ भावार्थ - १. दिशा २. गति ३. इन्द्रिय ४. काय ५. योग ६. वेद ७. कषाय ८. लेश्या ९. सम्यक्त्व १०. ज्ञान ११. दर्शन १२. संयत १३. उपयोग १४. आहार १५. भाषक १६. परित्त १७. पर्याप्त १८. सूक्ष्म १९. संज्ञी २०. भव-भवसिद्धिक २१. अस्तिकाय २२. चरम २३. जीव २४. क्षेत्र २५. बन्ध २६. पुद्गल और २७. महादंडक। इस प्रकार तीसरे पद में ये २७ द्वार हैं। विवेचन - दोनों संग्रहणी गाथाओं में दिशा से लगा कर महादंडक पर्यन्त २७ द्वार कहे गये हैं जिनके माध्यम से पृथ्वीकाय आदि जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की जायगी। सोलहवें परित्त द्वार में प्रत्येक शरीरी और शुक्लपाक्षिक कहे गये हैं क्योंकि परित्त के दो भेद हैं - १. काय परित्त और २. भव परित्त। काय परित्त यानी प्रत्येक शरीर वाला और भव परित्त अर्थात् शुक्ल पाक्षिक। For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार २७३ 4-24-hite* ************************************************************************10-12- 2 १. प्रथम दिशा द्वार दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा जीवा पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया॥१३७॥ कठिन शब्दार्थ - दिसाणुवाएणं - दिशाअनुपात-दिशाओं की अपेक्षा से, सव्वत्थोवा - सब से थोड़े, विसेसाहिया - विशेषाधिक, पुरच्छिम - पूर्व दिशा। पूर्व दिशा के लिए आगम में दो शब्दों का प्रयोग होता है। जैसे कि - पुरच्छिम, पुरथिम। पच्छिमेणं - पश्चिम दिशा। पश्चिम दिशा के लिए भी आगम में दो शब्दों का प्रयोग होता है। जैसे कि - पच्छिम और पच्चत्थिम। भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े जीव पश्चिम दिशा में है, उनसे पूर्व दिशा में विशेषाधिक हैं, उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं और उनसे उत्तरदिशा में विशेषाधिक हैं। विवेचन - आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध में अनेक प्रकार की दिशाएं कही गई हैं उनमें से यहां प्रमुखता से क्षेत्र दिशाओं का ही ग्रहण किया गया है क्योंकि वे नियत हैं। ज्योतिषी देव देवियों की अल्प बहुत्व ताप दिशा की अपेक्षा से एवं वेमानिक देव देवियों की अल्प बहुत्व प्रज्ञापक दिशा की अपेक्षा समझना चाहिये। इसके सिवाय अन्य दिशाएं अनवस्थित एवं यहाँ अनुपयोगी होने से उनका यहां ग्रहण नहीं किया गया है। क्षेत्र दिशाओं का उत्पत्ति स्थान तिर्यक् लोक के मध्य भाग में रहे हुए आठ रुचक प्रदेश हैं और वे ही दिशाओं और विदिशाओं के उत्पत्ति स्थान हैं। जिज्ञासुओं की जिज्ञासा का समाधान करने के लिए यहाँ आचाराङ्ग कथित दिशाओं का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है - 'प्रज्ञापक' अर्थात् कथन करने वाले पुरुष की अपेक्षा जो अठारह दिशाएँ बतलाई गयी हैं, वे इस प्रकार हैं - अधोदिशा-सातों नरक अधो (नीचे) भाव दिशा में लिये गये हैं। ऊर्ध्व दिशा (ऊपर की दिशा) - सभी ज्योतिषी और वैमानिक देव ऊपर की दिशा में हैं (यद्यपि भवनपति और वाणव्यन्तर देव नीची दिशा में है तथापि उनकी संख्या अल्प होने से अलग नहीं गिना गया है।) इसीलिये ऊर्ध्व दिशा एक गिनी गयी है। पृथ्वी आदि काया नरक और देव की तरह सम्मिलित नहीं है किन्तु भिन्न होने से पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय और वायुकाय, ये चार भाव दिशा हैं। इस तरह से ये छह भाव दिशाएँ हुई। वनस्पतिकाय के अधिक भेद होने से अग्रबीज, मूलबीज, स्कन्धबीज, पर्व बीज ये चार भाव दिशाएँ लेने से कुल दस भाव दिशाएँ हुई। मनुष्य में स्वभाव, दृष्टि, गतागत आदि की भिन्नता होने के कारण इनकी चार भाव दिशाएँ ली गयी यथा-कर्म भूमि का मनुष्य, अकर्मभूमि का मनुष्य, अन्तरद्वीप का मनुष्य और सम्मूछिम मनुष्य। ये चौदह भाव दिशाएँ हुयी। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय इस तरह से कुल अठारह भाव दिशाएँ हुई। इन अठारह भेदों में वनस्पति के सूक्ष्म और बादर आदि भेद नहीं किये गये हैं किन्तु अग्रबीज For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ प्रज्ञापना सूत्र ****************** **************** ******************** ******************* आदि चार भेद किये गये हैं। इसका कारण यह है कि आचाराङ्ग सूत्र की नियुक्ति में भाव दिशा के निक्षेप में इस प्रकार के भेद बतलाये गये हैं। जीवों की बहुलता एवं अधिक काल तक जीवों का वनस्पति में रहना आदि अनेक कारण इस प्रकार के भेद करने में रहे हए हो सकते हैं। प्रश्न - दिशा किसको कहते हैं ? उत्तर - दिशति इति दिक्।अथवा दिश्यते व्यपदिश्यते पूर्वादितया अनया सा दिक् (दिश् )। अर्थ - संस्कृत में 'दिश्' अतिसर्जने धातु है उससे दिशा शब्द बनता है। जिसका अर्थ है, जो संकेत करे अथवा जिससे पूर्व, पश्चिम आदि रूप से निर्देश किया जाय उसको दिशा कहते हैं। दिशा के दो भेद हैं-द्रव्य दिशा और भाव दिशा। प्रश्न - भाव दिशा किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसमें जीव उत्पन्न होते हैं वह भाव दिशा कहलाती है। प्रश्न - द्रव्य दिशा किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसके द्वारा पदार्थों का विभाजन होने का कथन किया जाय उसको द्रव्य दिशा कहते हैं। उसके नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, ताप, प्रज्ञापक और भाव ये सात निक्षेप होते हैं। १. किसी व्यक्ति विशेष का "दिशा कुमार" ऐसा नाम रख दिया जाय यह नाम निक्षेप है। २. किसी वस्तु विशेष में अथवा पुस्तक आदि पर दिशा का चित्र बना दिया जाय उसे स्थापना निक्षेप कहते हैं। ३. द्रव्य दिशा - १३ प्रदेशी और १३ प्रदेशावगाढ़ द्रव्य में दसों दिशों का समावेश होता है उसको द्रव्य दिशा कहते हैं। ४. क्षेत्र दिशा - मेरुपर्वत के आठ रुचक प्रदेशों से प्रारम्भ होने वाली दिशा को क्षेत्र दिशा कहते हैं। ५. जिधर सूर्य का उदय होता है उस दिशा को पूर्व दिशा मान कर दूसरी दिशाओं का विभाजन करना ताप दिशा कहलाती है। ६. दिशा की प्रज्ञापना करने वाले पुरुष के मुख की तरफ पूर्व दिशा मानकर दूसरी दिशाओं का विभाजन करना प्रज्ञापक दिशा कहलाती है। प्रज्ञापक की अपेक्षा ही मस्तक से ऊपर ऊर्ध्व दिशा और पैरों के नीचे अधोदिशा कहलाती है। ७. भाव दिशा-पृथ्वीकाय आदि रूप से संसारी जीवों को अठारह भागों में विभक्त करना भाव दिशा कहलाती है। अठारह द्रव्य दिशा की जगह ताप दिशा, क्षेत्र दिशा, प्रज्ञापक दिशा समझना चाहिए। सूक्ष्म जीव किसी भी दिशा में नियत रूप से कम ज्यादा नहीं होते हैं किन्तु अनियत रूप से कम ज्यादा होते रहते हैं। अतः सूक्ष्म जीवों के अल्प बहुत्व का विचार यहाँ पर नहीं किया गया है। क्योंकि सभी दिशाओं में वे जीव बहुत-बहुत हैं। ___दिशाओं की अपेक्षा से सब से थोड़े जीव पश्चिम दिशा में हैं क्योंकि उस दिशा में बादर वनस्पति की कमी है। यहां बादर जीवों की अपेक्षा से ही अल्पबहुत्व कहा गया है। सूक्ष्म जीवों की अपेक्षा से नहीं क्योंकि सूक्ष्म जीव तो सर्व लोक में व्याप्त हैं और प्रायः सभी स्थानों में समान हैं। बादर जीवों में For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार २७५ * * * * * * ************************************************* भी वनस्पतिकाय के जीव सब से अधिक हैं क्योंकि वे हमेशा अनन्त संख्या रूप होते हैं। ऐसी स्थिति में जहां वनस्पति अधिक हैं वहां जीवों की संख्या अधिक है और जहां वनस्पति कम है वहां जीवों की संख्या भी कम है। जहां जल की प्रचुरता है वहां वनस्पतिकायिक जीव अधिक हैं क्योंकि 'जत्थ जलं तत्थ वणं' - जहां जल होता है वहां वनस्पतिकाय होती है-ऐसा शास्त्र वचन है। जहां जल होता है वहां एनक शैवाल आदि अवश्य होती है। पनक और शैवाल आदि बादर नाम कर्म के उदय वाली होने पर भी अत्यंत सूक्ष्म अवगाहना वाली होने से एवं अनेक जीवों की पिण्ड रूप होने से चक्षुओं द्वारा दृष्टिगोचर नहीं हो सकती। इस विषय में अनुयोगद्वार में भी कहा है - 'ते णं वालग्गा मुहुम पणगजीवस्स सरीरोगाहणाहिंतो असंखिज्जगुणा' - वे वाल के अग्रभाग पर आवे उतने सूक्ष्म पनक जीव के शरीर की अवगाहना से असंख्यात गुणा हैं अत: जहां पर वे दिखाई नहीं देते हैं वहां पर भी हैं, ऐसा मानना चाहिये। ___ "जहां अप्काय है वहां नियम से वनस्पतिकायिक होते हैं" - इस हेतु से वनस्पतिकायिकों की बहुलता है। समुद्र आदि में प्रचुर जल होता है और द्वीप से समुद्र दुगुने विस्तार वाले हैं। उन समुद्रों में भी प्रत्येक में पूर्व और पश्चिम में क्रमशः चन्द्र और सूर्य के द्वीप हैं। जितने भाग में चन्द्र और सूर्य के द्वीप स्थित हैं उतने भाग में जल का अभाव है अत: वनस्पति का भी अभाव है। इसके अतिरिक्त पश्चिम दिशा में लवण समुद्र के अधिपति सुस्थित देव का आवास गौतम नामक द्वीप है जो लवण समुद्र में अधिक है वहां भी जल का अभाव होने से वनस्पति का अभाव है। अत: सब से थोड़े वनस्पतिकायिक जीव पश्चिम दिशा में हैं उनसे पूर्व दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां गौतम द्वीप नहीं है अत: उतने अंश में अधिक जीव हैं। उनसे भी दक्षिण दिशा में विशेषाधिक जीव हैं क्योंकि वहां चन्द्र और सूर्य के द्वीप नहीं हैं। चन्द्र सूर्य के द्वीप नहीं होने से वहां प्रचुर जल है। जल की अधिकता से वनस्पतिकायिक भी. अधिक है। दक्षिण दिशा से भी उत्तर दिशा में विशेषाधिक जीव हैं क्योंकि उत्तर दिशा में संख्यात योजन वाले द्वीपों में से एक द्वीप में संख्यात कोटि योजन प्रमाण लम्बा चौडा एक मानस सरोवर है जिसमें पानी की प्रचुरता होने से वनस्पतिकायिक जीवों की बहुलता है, शंख आदि बेइन्द्रिय जीव हैं, तट पर पडे हुए शंखादि के कलेवर पर आश्रित चींटी आदि बहुत से तेइन्द्रिय जीव हैं, पद्म आदि में बहुत से भ्रमर आदि चउरिन्द्रिय जीव हैं और मत्स्य आदि पंचेन्द्रिय जीव भी बहुत अधिक हैं इसलिये उत्तर दिशा में विशेषाधिक जीव कहे गये हैं। प्रश्न - गौतम द्वीप कहाँ पर हैं? उत्तर - जम्बू द्वीप को घेरे हुए लवण समुद्र है। वह दो लाख योजन का लम्बा चौड़ा है। जम्बूद्वीप की जगती से पश्चिम दिशा में लवण समुद्र में बारह हजार योजन जाने पर गौतम द्वीप आता है। वह गौतम द्वीप बारह हजार योजन का लम्बा चौड़ा है। लवण समुद्र के अधिपति सुस्थित देव का वहाँ भवन है। For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************* ********************************** दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पुढवीकाइया दाहिणेणं, उत्तरेणं विसेसाहिया, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, पच्छिमेणं विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा आउक्काइया पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा तेउक्काइया दाहिणुत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखेज्जगुणा, पच्छिमेणं विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा वाउक्काइया पुरच्छिमेणं, पच्छिमेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया॥१३८॥ भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सब से थोड़े पृथ्वीकायिक जीव दक्षिण दिशा में हैं, उनसे उत्तर . दिशा में विशेषाधिक हैं, उनसे पूर्व दिशा में विशेषाधिक हैं, उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सब से थोड़े अप्कायिक जीव पश्चिम दिशा में हैं, उनसे पूर्व में विशेषाधिक हैं, उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं और उनसे उत्तर में विशेषाधिक हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सब से थोड़े तेजस्कायिक जीव दक्षिण और उत्तरदिशा में हैं, उनसे पूर्व दिशा में संख्यात गुणा हैं, उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सब से थोड़े वायुकायिक जीव पूर्व दिशा में हैं, उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं, उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं और उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सब से थोड़े वनस्पतिकायिक जीव पश्चिम दिशा में हैं, उनसे पूर्व दिशा में विशेषाधिक हैं, उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं और उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं। विवेचन - १. पृथ्वीकायिक जीवों का अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक जीव दक्षिण दिशा में हैं क्योंकि जहां घन (ठोस) भाग है वहां पृथ्वीकायिक जीव अधिक होते हैं और जहां ठोस भाग कम है, छिद्र और पोलार है वहां पृथ्वीकायिक जीव थोड़े होते हैं। दक्षिण दिशा में बहुत से भवनपतियों के भवन और नरकावास हैं अत: वहां पोलार अधिक होने से पृथ्वीकायिक जीव थोड़े हैं। उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि उत्तर दिशा में दक्षिण दिशा की अपेक्षा थोड़े भवन और नरकावास हैं जिससे सघन भाग अधिक होने से पृथ्वीकायिक जीव भी अधिक हैं अतः विशेषाधिक कहे गये हैं। उनसे भी पूर्व दिशा में पृथ्वीकायिक जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां चन्द्र सूर्य के द्वीप For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार २७७ Hea d i 4400**4440********* ******** *****400-10041-42-00-100-11-42-40-1000-40-11-145-242-2 हैं। पूर्व दिशा से भी पश्चिम दिशा में पृथ्वीकायिक जीव विशेषाधिक कहे गये हैं क्योंकि वहां चन्द्र और सूर्य के द्वीप के अतिरिक्त गौतम नामक द्वीप भी है। २. अपकायिक जीवों का अल्पबहुत्व - सब से थोड़े अप्कायिक जीव पश्चिम दिशा में हैं क्योंकि वहां गौतम द्वीप होने से अप्काय कम हैं। उनसे पूर्व दिशा में अप्कायिक जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां गौतमद्वीप नहीं है। उनसे भी विशेषाधिक दक्षिण दिशा में हैं क्योंकि वहां चन्द्र और सूर्य के द्वीप नहीं हैं। उनसे भी उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां मानस सरोवर है। ३. तेजस्कायिक जीवों का अल्पबहुत्व - दक्षिण दिशा और उत्तर दिशा में सबसे थोड़े तेजस्कायिक जीव हैं क्योंकि मनुष्य क्षेत्र में ही बादर तेजस्कायिक है अन्य स्थानों में नहीं हैं उसमें भी जहां मनुष्य अधिक है वहां तेजस्कायिक जीव अधिक हैं क्योंकि वहां पचन पाचन की क्रिया विशेष संभव है जहां मनुष्य थोड़े हैं वहां तेजस्कायिक जीव भी थोड़े हैं। दक्षिण दिशा में पांच भरत क्षेत्रों में और उत्तर दिशा में पांच ऐरवत क्षेत्रों में क्षेत्र की अल्पता होने से मनुष्य थोड़े हैं अतएव दक्षिण और उत्तर में तेजस्कायिक जीव सब से थोड़े हैं और स्वस्थान की अपेक्षा प्रायः समान है। उनसे पूर्व दिशा में संख्यात गुणा हैं क्योंकि क्षेत्र संख्यात गुणा है। उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में मनुष्य अधिक हैं। सलिलावती विजय और वप्रा विजय एक हजार योजन की ऊंडी है नौ सौ योजन तक तो तिर्छा लोक है और सौ योजन अधोलोक में हैं। ४. वायुकायिक जीवों का अल्पबहुत्व - जहां पोलार है वहां वायु है और जहां घन (ठोस) भाग है वहां वायु नहीं है। पूर्व दिशा में घन भाग आधिक होने से वायुकायिक जीव थोड़े हैं। उनसे पश्चिम दिशा में वायुकायिक विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां अधोलौकिक ग्राम हैं। उनसे उत्तर दिशा में वायुकायिक जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां बहुत से भवन और नरकावास हैं और भवनों और नरकावासों की अधिकता होने से वहां पोलार अधिक हैं। उनसे भी दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां उत्तर दिशा की अपेक्षा अधिक भवन और नरकावास हैं। ५. वनस्पतिकायिक जीवों का अल्पबहुत्व - वनस्पतिकायिक जीवों का अल्पबहुत्व अप्कायिक जीवों की तरह समझना क्योंकि जहां अधिक जल है वहां पनक शैवाल आदि बहुत अनंतकायिक वनस्पति होती है। पृथ्वीकाय के जीव पूर्व दिशा की अपेक्षा पश्चिम दिशा में विशेषाधिक बताया है। इसका कारण यह है कि पश्चिम दिशा में लवण समुद्र में गौतम द्वीप है। वह पृथ्वीकाय का है। इसलिये पृथ्वीकायिक जीव बढ़े। यद्यपि पश्चिम दिशा में अधोलौकिक ग्राम (जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में सलिलावती विजय और वप्रा विजय) एक हजार योजन ऊँडे हैं। परन्तु "खातपूरित न्याय" से पृथ्वीकाय विशेष सम्भवित नहीं हो सकते हैं। तथापि पूर्व दिशा में भी बहुत रूबड़खाबड़ खड्डे आदि होने से मेरु पर्वत से For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ प्रज्ञापना सूत्र • लेकर अधोलौकिक ग्रामों के पूर्व तक की पोलार तक तो पूर्व दिशा में भी समान हैं। अत: कल्पना से गौतम द्वीप को अधोलौकिक ग्रामों में डाल दिया जाय तो भी गौतम द्वीप का कुछ भाग बच जाता है इसलिये पश्चिम दिशा में पृथ्वीकाय के जीव पूर्व दिशा से तुल्य नहीं किन्तु विशेषाधिक हैं। I यद्यपि टीकाकार ने पूर्व दिशा में खड्डे आदि बताये हैं किन्तु ये कितने ऊँडे हैं, इसका स्पष्टीकरण नहीं किया है। तो भी अनुमान से उनकी ऊंड़ाई अपेक्षा से समझी जा सकती है । अतः पूर्व महाविदेह की विजयें भी नौ सौ योजन की ऊँड़ी हो सकती हैं, किन्तु अधोलोक का स्पर्श नहीं करने से पूर्व दिशा में अधोलौकिक ग्राम नहीं बताये गये हैं ऐसी सम्भावना लगती है। इसी प्रकार धातकीखण्ड और अर्धपुष्कर द्वीप की विजयें भी क्रमशः नौ सो योजन की उंडी होने में कोई बाधा नहीं आती है।' प्रश्न - अप्काय के वर्णन में "मानस सरोवर" का कथन किया गया है, अतः मानस सरोवर कहाँ पर आया हुआ है ? उत्तर - आगमों के मूल पाठ में "मानस सरोवर" का वर्णन देखने में नहीं आता। टीकाकार ने उसका उल्लेख किया है यथा - "उदीच्यां हि दिशि सङ्ख्येययोजनेषु द्वीपेषु मध्ये कस्मिंश्चित् द्वीपे आयामविष्कम्भाभ्यां सङ्घयेययोजन कोटी प्रमाणं मानसं सरः समस्ति " अर्थ - यहाँ जम्बूद्वीप से आगे संख्यात योजन वाले द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करने के बाद किसी एक संख्यातवें द्वीप में मानससरोवर नाम का सरोवर है । वह संख्यात करोड़ों योजन का लम्बा चौड़ा है। इसका शुद्ध नाम तो मानस सरोवर है परन्तु बोलचाल की भाषा में इसे मान सरोवर कह देते हैं। पानी में ( अप्काय में) साता बोलों की जो नियमा कही जाती है उसकी अपेक्षा समझने की आवश्यकता है, क्योंकि कभी कभी पानी में त्रस जीव और निगोद के जीव नहीं भी होते हैं। जैसे कि तत्काल का वर्षा हुआ पानी तथा नदी नाले आदि के अशाश्वत पानी में और राजगृह नगर के वैभार पर्वत पर गरम पानी का द्रह है उसमें निगोद के जीव नहीं है, क्योंकि निगोद जीवों की योनि शीत योनि है । इस कारण से निगोद के जीव वहाँ पर उत्पन्न नहीं होते हैं । शाश्वत पानी के सभी स्थानों में सात बोलों की नियमा प्रायः समझी जाती है। दिसावाणं सव्वत्थोवा बेइंदिया पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दक्खिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । दिसावाणं सव्वत्थोवा तेइंदिया पच्चत्थिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा चउरिदिया पच्चत्थिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया ॥ १३९॥ For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार २७९ *********************************************************** ************************ भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े बेइन्द्रिय जीव पश्चिम दिशा में हैं उनसे पूर्व में विशेषाधिक, उनसे दक्षिण में विशेषाधिक और उनसे उत्तर में विशेषाधिक हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े तेइन्द्रिय जीव पश्चिम दिशा में, उनसे पूर्व दिशा में विशेषाधिक, उनसे दक्षिण में विशेषाधिक और उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं। दिशाओं की अपेक्षा से चउरिन्द्रिय जीव सबसे थोड़े पश्चिम दिशा में, उनसे पूर्व दिशा में विशेषाधिक, उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक और उनसे भी उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं। विवेचन - जहां पानी कम होता है वहां शंख आदि बेइन्द्रिय जीव कम होते हैं और जहां पानी अधिक होता है वहां शंख आदि जीव अधिक होते हैं। पश्चिम दिशा में गौतम द्वीप होने से वहां जल कम है। अत: सबसे थोड़े बेइन्द्रिय जीव पश्चिम दिशा में कहे गये हैं। उनसे पूर्व दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां गौतम द्वीप नहीं होने से जल की अधिकता है। इसलिये शंख आदि बेइन्द्रिय जीवों की प्रचुरता है उससे भी दक्षिण दिशा में बेइन्द्रिय जीव विशेषाधिक कहे गये हैं क्योंकि वहां चन्द्र और सूर्य के द्वीप नहीं होने से जल की प्रचुरता है इस कारण शंख आदि अधिक हैं। उत्तर दिशा में मानस सरोवर होने से जल अत्यधिक है इसलिये वहां बेइन्द्रिय जीव विशेषाधिक कहे गये हैं। बेइन्द्रिय की तरह ही तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय की अल्पबहुत्व भी समझनी चाहिये। . दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा णेरइया पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखिज्ज गुणा। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा रयणप्पभा पुढवी णेरड्या पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखिज्ज गुणा। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा सक्करप्पभा पुढवी णेरड्या पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणणं असंखिज्ज गुणा। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा वालुयप्पभा पुढवी णेरड्या पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखिज्ज गुणा। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पंकप्पभा पुढवी णेरइया पुरच्छिम पच्चस्थिम उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखिज्ज गुणा। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा धूमप्पभा पुढवी जेरइया पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखिज्ज गुणा। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा तमप्पभा पुढवी णेरइया पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखिज्ज गुणा। For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० प्रज्ञापना सूत्र * -*- * * -*-*-*-***** **** *** * *** *** दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा अहेसत्तमा पुढवी णेरइया पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखिज्ज गुणा। दाहिणिल्लेहितो अहेसत्तमा पुढवी जेरइएहिंतो छट्ठीए तमाए पुढवीए णेरड्या पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं असंखिज गुणा, दाहिणेणं असंखिज गुणा। दाहिणिल्लेहिंतो तमा पुढवी णेरइएहितो पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए णेरइया पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं असंखिज गुणा दाहिणेणं असंखिज्ज गुणा दाहिणिल्लेहितो धूमप्पभा पुढवी जेरइएहितो चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए णेरइया पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं असंखिज गुणा, दाहिणेणं असंखिज गुणा। दाहिणिल्लेहिंतो पंकप्पभा पुढवी रइएहितो तइयाए वालुयप्पभाए पुढवीए णेरड्या पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं असंखिज गुणा, दाहिणेणं असंखिज्ज गुणा, दाहिणिल्लेहिंतो वालुयप्पभा पुढवी णेरइएहितो दोच्चाए सक्करप्पभाए पुढवीए णेरइया पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं असंखिज्ज गुणा, दाहिणेणं असंखिज गुणा। दाहिणिल्लेहिंतो सक्करप्पभा पुढवी जेरइएहिंतो इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं असंखिज गुणा, दाहिणेणं असंखिज गुणा।। १४०॥ भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े नैरयिक पूर्व पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े वालुकाप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े पंकप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। _ दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े तमःप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************* तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े अधः सप्तम ( तमस्तम: प्रभा) पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। दक्षिण के अधः सप्तम नरक पृथ्वी के नैरयिकों से छठी तमः प्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। दक्षिण दिशा के तमः प्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। दक्षिण दिशा के धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। दक्षिण के पंकप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से तीसरी वालुकाप्रभा के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं । दक्षिण के वालुकाप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं t 1. दक्षिण के शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - सबसे थोड़े नैरयिक पूर्व, उत्तर और पश्चिम दिशा में हैं क्योंकि वहां पुष्पावकीर्ण नरकावास कम हैं और वे प्रायः संख्यात योजन के विस्तार वाले हैं। उनसे दक्षिण दिशा में रहे हुए नैरयिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि दक्षिण दिशा में कृष्णपाक्षिक जीवों की उत्पत्ति विशेष होती है। प्रश्न- कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक किसे कहते हैं ? उत्तर जिन जीवों का संसार परिभ्रमण अर्द्ध पुद्गल परावर्तन शेष (बाकी) रहा हैं । वे शुक्लपाक्षिक कहलाते हैं और जिन जीवों का संसार परिभ्रमण अर्द्ध पुद्गल परावर्तन से अधिक बाकी है वे कृष्णपाक्षिक कहलाते हैं। जैसा कि कहा है - २८१ * * * * * * * * ***** * * * * * * * * * * * * * * * •जेसिं अवड्ढो पुग्गल परियट्टो, सेसओ य संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिए पुण कण्हपक्खी उ ॥ प्रश्न- शुक्ल पाक्षिक बनने के लिए क्या प्रयत्न करना पड़ता है ? उत्तर - किसी भी कार्य को सिद्ध करने के लिए पांच समवाय निमित्त कारण बनते हैं । यथा - काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ ( पुरुषकार पराक्रम) । समकित की प्राप्ति और यहाँ तक कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए भी पांच समवाय कारण बनते हैं। उनके लिए पुरुषार्थ करना आवश्यक होता है । परन्तु शुक्ल पाक्षिक बनने के लिए इन की आवश्यकता नहीं होती है। उसमें काल की प्रधानता रहती है। बाकी सब गौण हो जाते हैं। इसके लिए किसी प्रकार का पुरुषार्थ करने की For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ****************** ********** प्रज्ञापना सूत्र ************************************ आवश्यकता नहीं है। शुक्ल पाक्षिक, भव्य जीव ही बनते हैं अभवी नहीं। जिस भवी जीव का संसार परिभ्रमण अर्द्ध पुद्गल परावर्तन बाकी रह जाता है तब वह स्वतः शुक्ल पाक्षिक कहलाने लग जाता है। शुक्ल पाक्षिक बनने के बाद परित्त संसारी, समकिती, देशविरति और सर्व विरति आदि बनता है । इसलिये शुक्लपाक्षिक (अल्प संसारी) जीव थोड़े हैं और कृष्णपाक्षिक जीव अधिक कृष्णपाक्षिक जीव तथास्वभाव से दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं। कृष्णपाक्षिक जीव दीर्घ ससारी होते हैं और दीर्घ संसारी बहुत पापकर्म के उदय वाले क्रूरकर्मी होते हैं ऐसे क्रूरकर्मी दीर्घ संसारी जीव स्वभावतः दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार दक्षिण दिशा में बहुत नरकावास होने से और बहुत नरकावास असंख्यात योजन के विस्तार वाले होने से तथा कृष्णपाक्षिक जीवों की उत्पत्ति होने से दक्षिण दिशा में पूर्व, पश्चिम उत्तर दिशा की अपेक्षा असंख्यात गुणा नैरयिक अधिक कहे गये हैं। जिस प्रकार सामान्यतः नैरयिकों का दिशा की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार रत्नप्रभा आदि सातों नरक पृथ्वियों का अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिये । सात नरक पृथ्वियों के जीवों का परस्पर अल्पबहुत्व- सातवीं नरक पृथ्वी में पूर्व पश्चिम और उत्तर दिशा के नैरयिकों से सातवीं नरक पृथ्वी के दक्षिण दिशा के नैरयिक असंख्यात गुणा हैं । उनसे तमः प्रभा नामक छठी पृथ्वी के पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं। इसका कारण यह है कि सर्वोत्कृष्ट पाप करने वाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य सातवीं नरक पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं और उनसे हीन, अधिक हीन पाप करने वाले छठी आदि नरक पृथ्वियों में उत्पन्न होते हैं। सर्वोत्कृष्ट पाप करने वाले सबसे थोड़े हैं और क्रमश: कुछ हीन, हीनतर आदि पाप करने वाले बहुत हैं अतः सातवीं पृथ्वी के दक्षिण दिशा के नैरयिकों से छठी पृथ्वी के पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा के नैरयिक असंख्यात गुणा हैं। इसी प्रकार शेष सभी नरक पृथ्वियों के विषय में समझ लेना चाहिये। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पंचिंदिया तिरिक्खजोणिया पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया ॥ १४१ ॥ भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव पश्चिम दिशा में हैं उनसे पूर्व दिशा में विशेषाधिक, उनसे दक्षिण में विशेषाधिक और उनसे भी उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं। विवेचन - तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व अप्कायिक जीवों की तरह समझना चाहिये । दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा मणुस्सा दाहिणउत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखिज्जगुणा, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया ॥ १४२ ॥ भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े मनुष्य दक्षिण और उत्तर दिशा में हैं उनसे पूर्व दिशा में असंख्यात गुणा हैं और उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं। For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार २८३ * ** * * * * * * * * * * ** * ************************************************* विवेचन - सबसे कम मनुष्य दक्षिण और उत्तर दिशा में हैं क्योंकि इन दिशाओं में पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्र छोटे हैं उनसे पूर्व दिशा में संख्यात गुणा हैं क्योंकि वहां क्षेत्र संख्यात गुणे बड़े हैं। उनसे भी पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां अधोलौकिक ग्राम हैं और वहां मनुष्यों की संख्या बहुत है। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा भवणवासी देवा पुरच्छिम पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखिज्ज गुणा, दाहिणेणं असंखिज गुणा। भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े भवनवासी देव पूर्व और पश्चिम में हैं। उनसे उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा और उनसे भी दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - सबसे थोड़े भवनवासी देव पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं क्योंकि इन दोनों दिशाओं में उनके भवन थोड़े हैं। उनसे उत्तर में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि स्वस्थान होने से वहां उनके बहुत भवन हैं। उनसे भी दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वहां प्रत्येक निकाय के चार चार लाख भवन अधिक हैं तथा बहुत से कृष्णपाक्षिक जीव वहां उत्पन्न होते हैं अत: वे असंख्यात गुणा अधिक कहे गये हैं। . दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा वाणमंतरा देवा पुरच्छिमेणं, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया। भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े वाणव्यन्तर देव पूर्व दिशा में हैं, उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक, उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक और उनसे भी दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं। विवेचन - जहां पोलार (पोले स्थान) भाग हैं वहां वाणव्यंतर देवों का संचरण होता है, ठोस भाग में नहीं। पूर्व दिशा में सघन (ठोस) भाग अधिक होने से वहां वाणव्यंतर देव थोड़े हैं। उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां अधोलौकिक ग्रामों में पोलार अधिक है उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां स्वस्थान होने से नगरावासों की बहुलता है। उनसे भी दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां बहुत से नगर हैं। प्रश्न - वाणव्यन्तर देवों का अल्प-बहुत्व वायुकाय के समान कैसे है? क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों के कारण वायुकाय तो बढ़ी परन्तु वाणव्यन्तर देवों के नगरों की संख्या घट जायेगी। उत्तर - समय क्षेत्र (अढ़ाई द्वीप) में वाणव्यन्तर देवों के नगर कम होने की सम्भावना लगती है क्योंकि पूर्व महाविदेह की विजयें भी नौ सौ योजन की ऊँडाई वाली हो सकती है अतः वहाँ वाणव्यन्तर देवों के नगर नहीं रह सकते हैं। यदि होवे भी तो उत्तर और दक्षिण दिशा में हो सकते हैं। अतः वाणव्यन्तरों के नगर कम होने की सम्भावना नहीं है। अधोलौकिक ग्रामों में वृक्ष आदि अधिक For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ . प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************ **** ** ********* होने से उन पर निवास करने वाले वाणव्यन्तर देव भी अधिक मिलते हैं। ऐसा बताया जाता है। पूर्व महाविदेह से पश्चिम महाविदेह का क्षेत्र अधिक है क्योंकि सलिलावती विजय और वप्रा विजय एक हजार योजन उंडी होने से क्षेत्र बढ़ा है। अन्यथा दोनों समान हैं। पूर्व में धरती कठोर होने से व्यन्तर नगर नहीं हैं। पश्चिम में विशेषाधिक-वृक्ष अधिक होने से उन पर वाणव्यन्तर देव रहते हैं। उत्तर में विशेषाधिक व्यन्तर नगर अधिक होने से। दक्षिण में विशेषाधिक-इस दिशा में बहुत अधिक व्यन्तर नगर होने से व्यन्तर देव अधिक हैं। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा जोइसिया देवा पुरच्छिम पच्चत्थिमेणं, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। ___ भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े ज्योतिषी देव पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं। विवेचन - सबसे थोड़े ज्योतिषी देव पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं क्योंकि वहां चन्द्र सूर्य के उद्यान जैसे द्वीपों में थोड़े ही ज्योतिषी देव हैं। उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां उनके विमान अधिक हैं और वहाँ कृष्णपाक्षिक जीव भी उत्पन्न होते हैं। उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि उत्तर में मानस सरोवर होने से वह ज्योतिषी देवों का क्रीड़ा स्थल है और क्रीड़ा प्रेमी बहुत से ज्योतिषी देव वहां सदैव रहते हैं। इसके अलावा मानस सरोवर में जो मत्स्यादि जलचर हैं उन्हें नजदीक में रहे विमानों को देख कर जातिस्मरण ज्ञान होता है जिससे वे कुछ व्रत अंगीकार करके, अनशन आदि करके नियाणा पूर्वक ज्योतिषी में उत्पन्न होते हैं इसलिये दक्षिण दिशा की अपेक्षा उत्तर दिशा में ज्योतिषी देव विशेषाधिक कहे गये हैं। पूर्व और पश्चिम दिशा में ज्योतिषी देव कम हैं क्योंकि वहाँ पर ज्योतिषी देवों के विमान कम हैं। चन्द्र और सूर्य की पंक्ति चारों दिशाओं में तुल्य होते हुए भी उनके परिवार भूत तारा आदि के विमान चारों दिशाओं में तुल्य नहीं हैं। जैसे आज भी चारों दिशाओं में तारा माडल समान नहीं देखे जाते हैं। उत्तर दिशा में स्थित आकाशगंगा में बहुत अधिक तारे दिखाई देते हैं, ऐसी स्थिति अढ़ाई द्वीप के बाहर भी हो सकती है। तथा तारा विमानों का अन्तर जघन्य पांच सौ धनुष और उत्कृष्ट दो कोस का बताया गया है। अतः पूर्व और पश्चिम के तारा विमानों में अधिक अन्तर तथा उत्तर और दक्षिण दिशा के विमानों का अन्तर कम (जघन्य) हो सकता है। अतः पूर्व और पश्चिम में कम विमान हो सकते हैं। पूर्व और पश्चिम दिशा में चन्द्र और सूर्य के द्वीप और राजधानी है। फिर भी उत्तर दिशा में ज्योतिषी देव अधिक बतलाये हैं इसका कारण यह है कि सभी विमानों में प्रकीर्णक (प्रजास्थानीय) देव अधिक उत्पन्न होते हैं। अतः इन दिशाओं में देवों की संकीर्णता अधिक है। तथा मानस सरोवर में For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार २८५ ** * * * * ** ******** ***************************************************** भी प्रजास्थानीय देव अधिक होते हैं तथा अढ़ाई द्वीप के बाहर भी इधर उधर आते जाते देव इन दिशाओं में अधिक मिलते हैं। जिस दिशा में देव और नैरयिक अधिक बतलाये गये हैं. उस दिशा में देवों के विमान और नैयिकों के नरकावास बहुत हैं और वे अधिक विस्तृत हैं तथा उनमें संकीर्णता भी अधिक होती होगी ऐसा समझना चाहिए। जैसे कि वर्तमान में दिखाई देने वाले सम्पूर्ण संसार के दो विभाग किये जाय तो दक्षिण की आबादी अधिक है। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा सोहम्मे कप्पे पुरच्छिम पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखिज गुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा ईसाणे कप्पे पुरच्छिम पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखिज्ज गुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा सणंकुमारे कप्पे पुरच्छिम पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखिज गुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा माहिदे कप्पे पुरच्छिम पच्चत्थिमेणं उत्तरेणं असंखिज गुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया। . दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा बंभलोए कप्पे पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखिज गुणा। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा लंतए कप्पे पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं दाहिणणं असंखिज्ज गुणा। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा महासुक्के कप्पे पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखिज गुणा। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा सहस्सारे कप्पे पुरच्छिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखिज गुणा। तेण परं बहुसमोववण्णगा समणाउसो!॥१४३॥ भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े देव सौधर्म कल्प में पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं उनसे उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं और उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं। दिशाओं की अपेक्षा सबसे थोड़े देव ईशान कल्प में पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं उनसे उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं। . दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े देव सनत्कुमार कल्प में पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं उनसे उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं और उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं। For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ प्रज्ञापना सूत्र ******************************* ******************** *-***** ******************** दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े देव माहेन्द्र कल्प में पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं उनसे उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं और उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े देव ब्रह्मलोक कल्प में पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं उनसे उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं और उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े देव लांतक कल्प में पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं उनसे उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं और उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े देव महाशुक्र कल्प में पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं उनसे उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं और उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े देव सहस्रार कल्प में पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं उनसे उत्तर . दिशा में असंख्यात गुणा हैं और उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं। . हे आयुष्मन् श्रमण! उससे आगे बहुत समानपणे-समान रूप से उत्पन्न होने वाले देव हैं। विवेचन - सौधर्म कल्प में वैमानिक देव सबसे थोड़े, पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं क्योंकि आवलिकाप्रविष्ट विमान तो चारों दिशाओं में समान हैं किन्तु पुष्पावकीर्ण विमानों में बहुत से विमान असंख्यात योजन के विस्तार वाले हैं जो दक्षिण और उत्तर दिशा में है अन्य दिशाओं में नहीं। अतः सबसे थोड़े वैमानिक देव पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं। उनसे उत्तर दिशा में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वहां असंख्यात योजन के विस्तार वाले पुष्पावकीर्ण विमान बहुत हैं। उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि वहां कृष्णपाक्षिक जीव अधिक उत्पन्न होते हैं। सौधर्म कल्प की तरह ही ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प का अल्पबहुत्व समझना चाहिये। ब्रह्मलोक कल्प में सबसे थोड़े देव पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं क्योंकि कृष्णपाक्षिक तिर्यंच दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं। शुक्लपाक्षिक जीव थोड़े हैं अतः पूर्व पश्चिम और उत्तर दिशा में देव थोड़े हैं उनसे दक्षिण दिशा में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वहां कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार लांतक, शुक्र और सहस्रार कल्प के विषय में समझना चाहिये। इससे आगे आणत आदि कल्पों में तथा नवग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमानों में देव चारों दिशाओं में समान हैं क्योंकि वहां मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं। नवमें देवलोक से अनुत्तर विमान तक के देवों को मूलपाठ में चारों दिशाओं के लिए बहुसम बताया है अर्थात् चारों दिशाओं में प्रायः करके समान होते हैं। कभी कुछ जीव पूर्व दिशा में अधिक कभी अन्य दिशाओं में अधिक इस प्रकार हो सकते हैं परन्तु बहुलता की अपेक्षा तो चारों दिशाओं में तुल्य ही होते हैं। ___ यहाँ पर तथा पहले भी पुष्पावकीर्ण विमानों का वर्णन आया है। परन्तु आगमों का अवलोकन करने से पता चलता है कि पुष्पावकीर्ण विमान किस दिशा में अधिक है और किस दिशा में कम हैं For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार २८७ ******************************** ** * * * * * * * * * * * * * * * ** * * ** ** ******************* ऐसा दिशाओं के विभाग सम्बन्धी विधि निषेध आगमों में देखने में नहीं आता है क्योंकि दिशानुपात का अल्पबहुत्व तो विमानों के छोटे बड़े होने से तथा उनमें रहने वाले देवों के संकीर्ण विकीर्ण होने पर भी बैठे सकता है। "बृहत् संग्रहणी" नामक ग्रन्थ में पुष्पावकीर्ण विमानों का दिशा सम्बन्धी विधि निषेध देखने में आता है और उससे आगम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती है। इसीलिए उस ग्रन्थ के अनुसार पुष्पावकीर्ण विमानों का दिशा सम्बन्धी विभाग मानने में कोई बाधा नहीं है। सहस्रार नामक आठवें देवलोक तक सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं। उसके आगे नववें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें (आणत, प्राणत, आरण, अच्युत) देवलोक तथा नवौवेयक और पांच अनुत्तर विमानों में सिर्फ मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए ये चारों दिशाओं में प्रायः समान हैं। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा सिद्धा दाहिणउत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखिज्ज गुणा, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया॥ पढमं दारं समत्तं॥१४४॥ भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े सिद्ध दक्षिण और उत्तर दिशा में हैं। उनसे पूर्व दिशा में संख्यात गुणा हैं और पश्चिम में विशेषाधिक हैं। विवेचन - सिद्ध, दक्षिण दिशा में और उत्तर दिशा में थोड़े हैं क्योंकि मनुष्य ही सिद्ध होते हैं अन्य जीव नहीं। मनुष्य भी सिद्ध होते चरम समय में जिन आकाश प्रदेशों में अवगाह कर रहे होते हैं उन्हीं आकाश प्रदेशों को अवगाह कर सम श्रेणी से उसी सीध में ऊपर जाते हैं और लोकाग्र पर स्थित होते हैं। दक्षिण दिशा में पांच भरत और उत्तर दिशा में पांच ऐरवत क्षेत्रों से अल्प मनुष्य सिद्ध होते हैं क्योंकि क्षेत्र अल्प है और सुषमसुषमादि काल में तो सिद्धि का अभाव है। अतः दक्षिण और उत्तर दिशा में सिद्ध सबसे थोड़े हैं। उनसे पूर्व दिशा में संख्यात गुणा हैं क्योंकि भरत और ऐरवत क्षेत्र की अपेक्षा पूर्व महाविदेह क्षेत्र संख्यात गुणा हैं जिससे उसमें रहे हुए मनुष्य संख्यात गुणा अधिक हैं और वहां से सर्वकाल में सिद्ध होते हैं। उनसे भी पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में मनुष्यों की संख्या अधिक है और वहाँ से भी सिद्ध होते हैं। क्योंकि वहाँ भी तीर्थङ्करों का जन्म होता है, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चारों तीर्थ होते हैं। तीर्थङ्कर तो उसी भव में मोक्ष जाते हैं। दूसरे जीव भी करणी करके सामान्य केवली के रूप में मोक्ष जाते हैं। सलिलावती विजय और वप्रा विजय ये दोनों एक हजार योजन ऊँडी है और ये दोनों विजय पश्चिम दिशा में आयी हुई है। इसलिए क्षेत्र की अधिकता होने के कारण वहाँ से सिद्ध होने वाले जीव अधिक हैं। इसलिए पश्चिम दिशा में सिद्ध विशेषाधिक कहे गये हैं। || प्रथम दिशा द्वार समाप्त। For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ प्रज्ञापना सूत्र ******************************************* Kashikatha - २. द्वितीय गति द्वार एएसि णं भंते! णेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं देवाणं सिद्धाणं च पंचगइ समासेणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? . गोयमा! सव्वत्थोवा मणुस्सा, णेरइया असंखिज गुणा; देवा असंखिज गुणा, सिद्धा अणंत गुणा, तिरिक्खजोणिया अणंत गुणा॥१४५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों, तिर्यंचों, मनुष्यों, देवों और सिद्धों की पांच गतियों की अपेक्षा से संक्षेप में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे देव असंख्यात गुणा हैं, उनसे सिद्ध अनंत गुणा हैं और उनसे भी तिर्यंच अनंत गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - गति किसे कहते हैं ? उत्तर - गमनं गतिः, अथवा गमनं गतिर्गम्यत इति वा गतिः क्षेत्रविशेषः । अथवा गम्यते वा अनया कर्मपुद्गलसंहत्या इति गति मकर्मोत्तर प्रकृतिरुपा तत्कृता वा जीवावस्थितिः इति। अर्थ - संस्कृत में 'गम' धातु है। जिसका अर्थ है, गति करना। अथवा नाम कर्म की उत्तर प्रकृति रूप 'गति' है। उससे गमन करना गति कहलाता है। जीव अवस्थिति रूप अर्थात् जहाँ जाकर जीव ठहरता है। ऐसी आवागमन रूप चार गतियाँ है। यथा - नरक गति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। पांचवीं गति सिद्धिगति है। वहाँ जाकर जीव कभी नहीं लौटता है। दिशा द्वार का वर्णन करने के बाद अब सूत्रकार गतिद्वार कहते हैं। गति की अपेक्षा से सबसे थोड़े मनुष्य हैं क्योंकि वे अंगुल मात्र श्रेणी के प्रथम वर्गमूल को तीसरे वर्गमूल से गुणा करने पर जितने प्रदेश आते हैं उनको घनीकृत लोक की एक श्रेणी के प्रदेशों में भाग देने पर जो संख्या आती है उसमें से एक कम जितने होते हैं। यहाँ पर मनुष्य शब्द से गर्भज मनुष्य और सम्मुछिम मनुष्य दोनों का ग्रहण हुआ है। गर्भज मनुष्यों की राशि तो छिन्नु छेदनक दाई राशि से कुछ अधिक ही है। इसके सिवाय शेष असंख्यात गुणी राशि सम्मुर्छिम मनुष्यों की होती है। मनुष्यों से नैरयिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अंगुल मात्र क्षेत्र में जितने आकाश प्रदेशों की संख्या है उसके प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल से गुणा करने पर जितनी संख्या होती है उतनी घनीकृत लोक की एक प्रदेश की श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने नैरयिक हैं। उनसे देव असंख्यात गुणा हैं क्योंकि व्यन्तर और ज्योतिषी देव प्रत्येक प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई श्रेणियों के आकाश प्रदेशों की राशि प्रमाण है। उनसे सिद्ध अनन्त गुणा हैं क्योंकि वे अभव्यों से अनंत गुणा हैं। उनसे For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - गति द्वार २८९ ***********************************************************-*-*-*-*-*-*-*-***** ********** तिर्यंच अनन्त गुणा हैं क्योंकि सिद्धों से वनस्पतिकायिक अनन्त गुणा हैं। इस प्रकार नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्धों का अल्पबहुत्व कहा गया है। ' एएसि णं भंते! णेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं मणुस्साणं मणुस्सीणं देवाणं देवीणं सिद्धाणं च अट्ट गइ समासेणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवाओ मणुस्सीओ, मणुस्सा असंखिज गुणा, णेरड्या असंखिज्ज गुणा, तिरिक्खजोणिणीओ असंखिज गुणाओ, देवा असंखिज गुणा, देवीओ संखिज्ज गुणाओ, सिद्धा अणंत गुणा, तिरिक्खजोणिया अणंत गुणा॥२ दारं॥१४६॥ __ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन नैरयिकों, तिर्यंचयोनिकों, तिर्यंचयोनिक स्त्रियों, मनुष्यों, मनुष्यस्त्रियों, देवों, देवियों और सिद्धों में इन आठ गतियों की अपेक्षा से संक्षेप में कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे कम मनुष्यस्त्रियाँ हैं, उनसे मनुष्य असंख्यात गुणा हैं, उनसे नैरयिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे तिर्यंचयोनिक स्त्रियाँ असंख्यात गुणी है, उनसे देव असंख्यात गुणा हैं, उनसे देवियाँ संख्यात गुणी हैं, उनसे सिद्ध अनंतगुणा हैं और उनसे भी तिर्यंचयोनिक जीव अनंत गुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में नैरयिक, तिर्यंच, तिर्यंच स्त्री, मनुष्य, मनुष्य स्त्री, देव, देवी और सिद्ध इन आठ का अल्पबहुत्व कहा गया है-सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियाँ हैं क्योंकि वे संख्यात कोटाकोटि प्रमाण हैं उनसे मनुष्य असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वेद की विवक्षा नहीं होने से सम्मूर्च्छिम मनुष्यों का भी इनमें समावेश है। १४ सम्मूर्छिम स्थानों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य असंख्यात हैं। उनसे नैरथिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि मनुष्य की उत्कृष्ट संख्या घनीकृत लोक की एक प्रदेश की श्रेणि के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतनी है और नैरयिक अंगुल प्रमाण क्षेत्र में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उसके प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल से गुणा करने पर जितनी संख्या होती है उतने श्रेणियों के आकाश प्रदेश की राशि प्रमाण है अतः असंख्यात गुणा हैं। उनसे तिर्यंच स्त्रियाँ असंख्यात गुणी हैं क्योंकि प्रतर के असंख्यातवें भाग के असंख्यात जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतनी है। उनसे भी देव असंख्यात गुणा हैं क्योंकि असंख्यात गुणा प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्याती श्रेणियों के आकाशप्रदेश की राशि प्रमाण है। उनसे देवियाँ संख्यात गुणी हैं क्योंकि देव से देवियां बत्तीसगुणी और बत्तीस अधिक हैं, उनसे सिद्ध अनंत गुणा हैं, उनसे भी तिर्यंचयोनिक जीव अनन्त हैं। ।। द्वितीय गतिद्वार समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ******************************************************************************** प्रज्ञापना सूत्र ३. तृतीय इन्द्रिय द्वार एएसि णं भंते! सइंदियाणं एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाणं पंचिंदियाणं अणिंदियाणं च कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा पंचिंदिया, चउरिदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, अणिंदिया अणंतगुणा, एगिंदिया अणंतगुणा, सइंदिया विसेसाहिया॥१४७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सइन्द्रिय (इन्द्रिय वाला) एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय (इन्द्रिय रहित) जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चउरिन्द्रिय विशेषाधिक है, उनसे तेइन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे बेइन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे अनिन्द्रिय अनंत गुणा हैं, उनसे एकेन्द्रिय अनन्त गुणा हैं, उनसे सइन्द्रिय विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रश्न - इन्द्रिय किसे कहते हैं ? उत्तर - "इन्दति परमैश्वर्यम् भुनक्ति इति इन्द्रः, आत्मा (जीवः )। तस्य जीवस्य लिंगं चिहूं इति इन्द्रियम्।" ___अर्थ - संस्कृत में 'इदि' धातु है। जिसका अर्थ है परम ऐश्वर्य को भोगना। परम ऐश्वर्य को भोगने वाले को इन्द्र कहते हैं। यहाँ इन्द्र शब्द का अर्थ है आत्मा क्योंकि वह परम ऐश्वर्यशाली है। उस आत्मा के चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियाँ पांच हैं। इसलिए यहाँ इन्द्रिय की अपेक्षा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीवों के पांच भेद किये गये हैं। सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं क्योंकि असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण विष्कंभ सूची जितने प्रतर श्रेणि के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्याती श्रेणि के आकाश प्रदेश की राशि प्रमाण है। उनसे चउरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं क्योंकि उनकी विष्कंभ सूची प्रचुर-बहुत असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण है। उनसे तेइन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि उनकी विष्कंभ सूची प्रचुरतर असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण है। उनसे भी बेइन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि उनकी विष्कंभ सूची प्रचुरतम असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण है, उनसे अनिन्द्रिय अनन्त गुणा हैं क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं, उनसे भी एकेन्द्रिय अनन्त गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्त गुणा हैं, उनसे भी सइन्द्रिय-इन्द्रिय सहित विशेषाधिक हैं क्योंकि उसमें बेइन्द्रिय आदि सभी जीवों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार सामान्य जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है। For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - इन्द्रिय द्वार २९१ ******************* ***************************** एएसि णं भंते! सइंदियाणं, एगिदियाणं, बेइंदियाणं, तेइंदियाणं, चउरिदियाणं पंचिंदियाणं अपजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा पंचिंदिया अपज्जत्तगा, चउरिदिया अपजत्तगा विसेसाहिया, . तेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिंदिया अपजत्तगा विसेसाहिया, सइंदिया अपजत्तगा विसेसाहिया॥१४८॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्तक सइन्द्रिय, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक हैं उनसे चउरिन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, उनसे तेइन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं उनसे बेइन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं उनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्तक अनंत गुणा हैं और उनसे सइन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं। विवेचन - सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक हैं क्योंकि वे एक प्रतर में अंगुल के असंख्यात भाग मात्र जितने खण्ड होते हैं उतने ही हैं। उनसे चउरिन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि वे प्रचुर (बहुत) अंगुल के असंख्यात भाग मात्र जितने खंड होते हैं उतने हैं। उनसे तेइन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि वे एक प्रतर में प्रचुरतर अंगुल के असंख्यात भाग मात्र जितने खड होते हैं उतने हैं। उनसे बेइन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि वे एक प्रतर में प्रचुरतम अंगुल के असंख्यातवें भाग खण्ड प्रमाण हैं। उनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्तक अनन्त गुणा हैं क्योंकि अपर्याप्तक वनस्पतिकायिक सदैव अनन्त पाये जाते हैं। उनसे सइन्द्रिय अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि इसमें बेइन्द्रिय आदि अपर्याप्तकों का भी समावेश है। एएसि णं भंते! सइंदियाणं, एगिंदियाणं, बेइंदियाणं, तेइंदियाणं, चउरिदियाणं, पंचिंदियाणं पजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा चउरिदिया पज्जत्तगा, पंचिंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया पजत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया पजत्तगा विसेसाहिया, एगिंदिया पज्जत्तगा अणंत गुणा, सइंदिया पजत्तगा विसेसाहिया॥१४९॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक सइन्द्रिय, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? . . For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ प्रज्ञापना सूत्र **************************** ** * ** * * * * ** * * * * * * * ** * * * * * * * * ************************ उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े चउरिन्द्रिय पर्याप्तक हैं उनसे पंचेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं उनसे बेइन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं उनसे तेइन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं उनसे एकेन्द्रिय पर्याप्तक अनंत गुणा हैं उनसे सइन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। विवेचन - सबसे थोड़े पर्याप्तक चउरिन्द्रिय जीव हैं क्योंकि चउरिन्द्रिय जीव की आयु बहुत अल्प होती है अतः अधिक काल तक नहीं रहने से वे प्रश्न के समय थोड़े ही पाये जाते हैं। उनसे पर्याप्तक पंचेन्द्रिय विशेषाधिक हैं क्योंकि वे प्रचुर प्रतर अंगुल के संख्येय भाग खण्ड प्रमाण हैं। उनसे पर्याप्तक बेइन्द्रिय विशेषाधिक हैं क्योंकि वे प्रचुरतर प्रतर अंगुल के संख्येय भाग खण्ड प्रमाण हैं। उनसे पर्याप्तक तेइन्द्रिय विशेषाधिक हैं क्योंकि वे स्वभाव से ही प्रचुरतम प्रतर अंगुल के संख्यात भाग खण्ड प्रमाण हैं। उनसे पर्याप्तक एकेन्द्रिय अनन्त गुणा हैं क्योंकि पर्याप्तक वनस्पतिकायिक अनन्त हैं उनसे पर्याप्तक सइन्द्रिय विशेषाधिक है क्योंकि पर्याप्तक बेइन्द्रिय आदि का भी उनमें समावेश है। एएसि णं भंते! सइंदियाणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा सइंदिया अपजत्तगा, सइंदिया पजत्तगा संखिज गुणा॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सइन्द्रिय पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े सइन्द्रिय अपर्याप्तक हैं उनसे सइन्द्रिय पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। विवेचन - सइन्द्रियों (इन्द्रियाँ सहित) में एकेन्द्रिय बहुत हैं और उनमें भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय बहुत हैं क्योंकि वे सर्वलोक व्यापी हैं। उनमें अपर्याप्तक थोड़े हैं। इसलिए सइन्द्रिय अपर्याप्तक थोड़े हैं और सइन्द्रिय पर्याप्तक उनसे असंख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! एगिंदियाणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा एगिंदिया अपजत्तगा, एगिंदिया पजत्तगा संखिज गुणा॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! एकेन्द्रिय पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े एकेन्द्रिय अपर्याप्तक हैं उनसे एकेन्द्रिय पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। विवेचन - जिस प्रकार सइन्द्रिय का अल्पबहुत्व कहा गया है उसी प्रकार एकेन्द्रिय के पर्याप्तक और अपर्याप्तक का भी अल्प बहुत्व समझ लेना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - इन्द्रिय द्वार २९३ ************** * * * * * * ** * ** ****************************************************** बादर एकेन्द्रिय में पर्याप्तक थोडे हैं और अपर्याप्तक अधिक हैं। किन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिों में इससे विपरीत समझना चाहिए अर्थात् सूक्ष्म एकेन्द्रिय में अपर्याप्तक थोड़े हैं और पर्याप्तक अधि हैं। एएसि णं भंते! बेइंदियाणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बेइंदिया पजत्तगा बेइंदिया अपजत्तगा असंखिज गुणा॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर- हे गौतम! सबसे थोड़े बेइन्द्रिय पर्याप्तक हैं उनसे बेइन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! तेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा तेइंदिया पजत्तगा, तेइंदिया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! तेइन्द्रिय पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर- हे गौतम! सबसे थोड़े तेइन्द्रिय पर्याप्तक हैं उनसे तेइन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! चउरिदियाणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? - गोयमा! सव्वत्थोवा चउरिदिया पजत्तगा, चउरिदिया अपजत्तगा असंखिज गुणा॥ ... भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! चउरिन्द्रिय पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर-हे गौतम! सबसे थोड़े चउरिन्द्रिय पर्याप्तक हैं उनसे चउरिन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यातगुणा हैं। एएसि णं भंते! पंचिंदियाणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा पंचेंदिया पजत्तगा, पंचेंदिया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा ॥१५०॥ प्रश्न - हे भगवन्! पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ प्रज्ञापना सूत्र * * * * * * * * RAHARI उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय पर्याप्तक हैं उनसे पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े सइन्द्रिय अपर्याप्तक जीव हैं क्योंकि सइन्द्रिय जीवों में एकेन्द्रिय जीव अधिक हैं उनमें भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय ज्यादा हैं क्योंकि वे सर्व लोक में व्याप्त हैं किन्तु उनमें सूक्ष्म अपर्याप्तक थोड़े हैं उनसे पर्याप्तक संख्यात गुणा अधिक हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय अपर्याप्तक सबसे कम और पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। बेइन्द्रिय पर्याप्तक सबसे थोड़े हैं क्योंकि वे प्रतर अंगुल के संख्यात भाग मात्र खण्ड प्रमाण हैं उनसे बेइन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे प्रतर अंगुल के असंख्यात भाग मात्र खण्ड प्रमाण होते हैं इसी प्रकार तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों के पर्याप्तकों और 'अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व समझना चाहिए। ___ एकेन्द्रिय में दो भेद हैं - बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय। बादर एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। इन सब में पर्याप्तक थोड़े हैं और अपर्याप्तक अधिक हैं। किन्तु सिर्फ सूक्ष्म एकेन्द्रिय में इससे विपरीत है। अर्थात् सूक्ष्म एकेन्द्रिय में अपर्याप्तक थोड़े हैं और पर्याप्तक उनसे अधिक हैं। एएसि णं भंते! सइंदियाणं, एगिंदियाणं, बेइंदियाणं, तेइंदियाणं, चउरिदियाणं, पंचिंदियाणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा चउरिदिया पजत्तगा, पंचिंदिया पजत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया पजत्तगा विसेसाहिया, पंचिंदिया अपजत्तगा असंखिज गुणा, चउरिदिया अपजत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया अपजत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिंदिया अपज्जत्तगा अणंत गुणा, सइंदिया अपजत्तगा विसेसाहिया, एगिंदिया पजत्तगा संखिज गुणा, सइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सइंदिया विसेसाहिया॥३ इंदिय दारं॥१५१॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सइन्द्रिय, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सब से थोड़े चउरिन्द्रिय पर्याप्तक हैं उनसे पंचेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, उनसे बेइन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, उनसे तेइन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, उनसे पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं, उनसे चउरिन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, उनसे तेइन्द्रिय अपर्याप्तक For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार २९५ ************************************************************************************ विशेषाधिक हैं, उनसे बेइन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, उनसे एकेन्द्रिय पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं, उनसे सइन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं और उनसे भी सइन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में समुच्चय सइन्द्रिय आदि पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों का शामिल अल्प बहुत्व कहा गया है। इस अल्प बहुत्व का स्पष्टीकरण पूर्ववत् समझ लेना चाहिये। ॥ तृतीय इन्द्रिय द्वार समाप्त॥ ४. चतुर्थ (चौथा) काय द्वार एएसि णं भंते! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं अकाइयाणं च कयरे कयरेहिंतो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा तसकाइया, तेउकाइया असंखिज गुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, वाउकाइया विसेसाहिया, अकाइया अणंत गुणा, वणस्सइकाइया अणंत गुणा, सकाइया विसेसाहिया॥१५२॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सब से थोड़े त्रसकायिक हैं, उनसे तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं उनसे अकायिक अनंत गुणा हैं, उनसे वनस्पतिकांयिक अनन्त गुणा हैं और उनसे भी सकायिक विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रश्न - काया किसे कहते हैं? उत्तर - "चीयते यथायोग्यम् औदारिक आदि वर्गणारूपं चयं नीयते इति कायः।" संस्कृत में "चिञ्" चयने धातु है। जिसका अर्थ है चुनना, इक्कट्ठा करना। इस चिञ् धातु से काय शब्द बनता है जिसका अर्थ है यथायोग्य औदारिक आदि वर्गणा के पुद्गलों को इक्कट्ठा करना। इसको काय कहते हैं। स्त्री लिंग में आप् प्रत्यय कर देने से काया शब्द बन जाता है। १. छह कायिक सकायिक और अकायिक जीवों का अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े त्रसकायिक हैं क्योंकि उनमें बेइन्द्रिय आदि जीव हैं जो अन्य कायों (पृथ्वीकाय आदि) की अपेक्षा कम है, उनसे तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं क्योंकि वे प्रचुर असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ प्रज्ञापना सूत्र ******************** *************************************************************** क्योंकि वे प्रचुरतर असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण है, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक है क्योंकि वे प्रचुरतम असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण है, उनसे अकायिक-काया रहित अनंत गुणा है क्योंकि सिद्ध अनंत हैं उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुणा है क्योंकि वे अनंत लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। उनसे सकायिक विशेषाधिक हैं क्योंकि उनमें पथ्वीकायिक आदि सभी कायों का समावेश है। एएसि णं भंते! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं अपजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? । गोयमा! सव्वत्थोवा तसकाइया अपजत्तगा, तेउकाइया अपजत्तगा असंखिज गुणा, पुढविकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया, आउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, वाउकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अपजत्तगा अणंत गुणा, सकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया॥१५३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अपर्याप्तक सकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक त्रसकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सकायिक विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अपर्याप्तक सकायिक आदि जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है। - एएसि णं भंते! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं पजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा तसकाइया पजत्तगा, तेउकाइया पजत्तगा असंखिज गुणा, पुढविकाइया पजत्तगा विसेसाहिया, आउकाइया पजत्तगा विसेसाहिया, वाउकाइया पजत्तगा विसेसाहिया, वणस्सइकाइया पजत्तगा अणंत गुणा, सकाइया पजत्तगा विसेसाहिया॥१५४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक सकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार २९७ ******************************** ***************************************************** उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक त्रसकायिक हैं, उनसे पर्याप्तक तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं उनसे भी पर्याप्तक सकायिक विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक सकायिक आदि जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है। एएसि णं भंते! सकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा सकाइया अपजत्तगा, सकाइया पजत्तगा संखिज गुणा॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सकायिक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े सकायिक अपर्याप्तक हैं, उनसे सकायिक पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! पुढविकाइयाणं पजत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा! सव्वत्थोवा पुढविकाइया अपजत्तगा, पुढविकाइया पजत्तगा संखिज गुणा॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? ___उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक हैं, उनसे पर्याप्तक पृथ्वीकायिक संख्यात 'गुणा हैं। एएसि णं भंते! आउकाइयाणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा आउकाइया अपजत्तगा, आउकाइया पजत्तगा संखिज गुणा॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अप्कायिक में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक अप्कायिक हैं और उनसे पर्याप्तक अप्कायिक संख्यात गुणा हैं। For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ *-*-*-*-* प्रज्ञापना सूत्र एएसि णं भंते! तेउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा तेउकाइया अपज्जत्तगा तेउकाइया पज्जत्तगा संखिज्ज गुणा ॥ - भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक तेजस्कायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक तेजस्कायिक हैं, उनसे पर्याप्तक तेजस्कायिक संख्यात गुणा है । एएसि णं भंते! वाउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा वाडकाइया अपज्जत्तगा, वाउकाइया पज्जत्तगा संखिज्ज गुणा ॥ भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वायुकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक वायुकायिक हैं, उनसे पर्याप्तक वायुकायिक संख्यात गुणा हैं। ********** एएसि णं भंते! वणस्सइकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा, वणस्सइकाइया पज्जत्तगा संखिज्ज गुणा ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वनस्पतिकायिकों में कौन किनसे अल्प बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? . उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक वनस्पतिकायिक हैं उनसे पर्याप्तक वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! तसकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा, तसकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा ॥ १५५ ॥ प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक त्रसकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार २९९ । **************************************** ***************** *** ***** **** * **** उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक त्रसकायिक हैं उनसे अपर्याप्तक त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सकायिक आदि जीवों का पर्याप्तक अपर्याप्तक प्रत्येक का अल्प बहुत्व कहा गया है। __ एएसि णं भंते! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं च पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा तसकाइया पजत्तगा, तसकाइया अपजत्तगा असंखिज . गुणा, तेउकाइया अपजत्तगा असंखिज गुणा, पुढविकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया, आउकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया, वाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, तेउकाइया . पज्जत्तगा संखिज्ज गुणा, पुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, आउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, वाउकाइया पजत्तगा विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अपजत्तगा अणंत गुणा, सकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया वणस्सइकाइया पजत्तगा संखिज गुणा, सकाइया पजत्तगा विसेसाहिया, सकाइया विसेसाहिया॥१५६॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक अपर्याप्तक सकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक त्रसकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं उनसे अपर्याप्तक अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक तेजस्कायिक संख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक सकायिक विशेषाधिक हैं और उनसे सकायिक विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक अपर्याप्तक सकायिक आदि जीवों का शामिल अल्प बहुत्व कहा गया है। सबसे थोड़े पर्याप्तक त्रसकायिक हैं उनसे अपर्याप्तक त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं। क्योंकि पर्याप्तक बेइन्द्रिय आदि अपर्याप्तक बेइन्द्रिय आदि असंख्यात गुणा हैं उनसे अपर्याप्तक तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं उनसे अपर्याप्तक For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना सूत्र पृथ्वीकाय, अप्काय और वायुकाय क्रमशः विशेषाधिक हैं उनसे पर्याप्तक तेजस्कायिक संख्यात गुणा हैं क्योंकि सूक्ष्म अपर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! सुहुमाणं सुहुम पुढविकाइयाणं सुहुम आउकाइयाणं सुहुम तेउकाइयाणं सुहुम वाउकाइयाणं सुहुम वणस्सइकाइयाणं सुहुम णिओयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा सुहम तेउकाइया, सुहुम पुढविकाइया विसेसाहिया, सुहुम आउकाइया विसेसाहिया, सुहुम वाउकाइया विसेसाहिया, सुहुम णिओया असंखिज गुणा, सुहम वणस्सइकाइया अणंत गुणा, सुहमा विसेसाहिया॥१५७॥ . भावार्थ - हे भगवन्! इन सूक्ष्म, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म निगोद में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? . उत्तर - हे गौतम! सब से थोड़े सूक्ष्म तेजस्कायिक हैं, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं उनसे सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं और उनसे सूक्ष्म विशेषाधिक हैं। विवेचन - काय द्वार में ही सूक्ष्म और बादर की अपेक्षा भी अल्पबहुत्व कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में सामान्य सूक्ष्म जीवों का अल्प बहुत्व कहा गया है। सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्कायिक हैं क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं क्योंकि वे प्रचुर (बहुत) असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। उनसे सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं क्योंकि वे प्रचुरतर असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं क्योंकि वे भी प्रचुरतम असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं, उनसे सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा- यहाँ सूक्ष्म का ग्रहण बादर का निषेध करने के लिए है। निगोद (साधारण वनस्पतिकायिक शरीर) को प्रकार के हैं। उनमें सूरण कंद आदि बादर निगोद हैं और सूक्ष्म निगोद सर्वलोक में व्याप्त है। वे सूक्ष्म निगोद प्रत्येक गोले में असंख्याता हैं अत: वे सूक्ष्म वायुकायिक जीवों से असंख्यात गुणा हैं। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं क्योंकि प्रत्येक निगोद में अनंत जीव हैं। उनसे सामान्य सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि का भी उनमें समावेश है। सूक्ष्म नामकर्म के उदय वाले जीवों को सूक्ष्म वनस्पतिकायिक कहते हैं तथा सूक्ष्म नाम कर्म के उदय वाले जीवों के औदारिक शरीरों को सूक्ष्म निगोद कहते हैं अर्थात् एक बोल में जीवों की गिनती है दूसरे बोल में उन्हीं के औदारिक शरीरों की गिना गया है। For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहवक्तव्यता-पद -काय द्वार ३०१ *-*210*40 * एएसि णं भंते! सुहुमअपज्जत्तगाणं सुहुमपुढविकाइयअपज्जत्तगाणं सुहुमआउकाइयअपजत्तगाणं सुहुमतेउकाइयअपज्जत्तगाणं सुहुमवाउकाइयअपज्जत्तगाणं सुहुमवणस्सइकाइय अपज्जत्तगाणं सुहुम णिओय अपज्जत्तगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तगा, सुहुमपुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुमआउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुमवाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहमणिओया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुमवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणंत गुणा, सुहमा अपज्जत्तगा विसेसाहिया॥१५८॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अपर्याप्तक सूक्ष्म, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोद में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? ... उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अपर्याप्तक सूक्ष्म जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है। एएसि णं भंते! सुहुमपज्जत्तगाणं, सुहुमपुढविकाइयपज्जत्तगाणं, सुहुमआउकाइयपज्जत्तगाणं, सुहुमतेउकाइयपज्जत्तगाणं, सुहुमवाउकाइयपज्जत्तगाणं, सुहुमवणस्सइकाइयपज्जत्तगांणं, सुहमणिओयपज्जत्तगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? .. गोयमा! सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया पज्जत्तगा, सुहुमपुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहमआउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुमवाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सहमणिओया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुमवणस्सइकाइया पज्जत्तगा अणंत गुणा, सुहुमपज्जत्तगा विसेसाहिया॥१५९॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक सूक्ष्म, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोद में कौन किनसे अल्प, बहुत तुल्य या विशेषाधिक हैं? For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ प्रज्ञापना सूत्र उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीका विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म विशेषाधिक हैं । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक सूक्ष्म जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है। एएसि णं भंते! सुहुमाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा ? ******** * * * * * * * * * गोयमा! सव्वत्थोवा सुहुमअपज्जत्तगा, सुहुमपज्जत्तगा संखिज्जगुणा ॥ भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े सूक्ष्म अपर्याप्तक हैं उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। सिणं भंते! सुहुम पुढविकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा सुहुम पुढविकाइया अपज्जत्तगा, सुहुम पुढविकाइया पज्जत्तगा संखिज्ज गुणा । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर हे गौतम! सबसे थोडे अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक संख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! सुहुम आउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोमा ! सव्वत्थोवा सुहुम आउकाइया अपज्जत्तगा, सुहुम आउकाइया पज्जत्तगा संखिज्ज गुणा ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक संख्यात गुणा हैं। - For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार ३०३ * * * * * * * * * * * * * * H-041842- *-*-22- 04- 4ksat a एएसि णं भंते! सुहुम तेउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? __गोयमा! सव्वत्थोवा सुहुम तेउकाइया अपजत्तगा, सुहुम तेउकाइया पजत्तगा संखिज्ज गुणा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोडे अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक हैं उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक संख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! सुहम वाउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अपण वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा सुहम वाउकाइया अपज्जत्तगा, सुहुम वाउकाइया पजत्तगा .. संखिज्जगुणा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक हैं उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक संख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! सुहम वणस्सइकाइयाणं पजत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___गोयमा! सव्वत्थोवा सुहुम वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा, सुहुम वणस्सइकाइया पजत्तगा संखिज्ज गुणा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं। ____ एएसि णं भंते! सुहुम णिओयाणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा सुहुम णिओया अपजत्तगा, सुहुम णिओया पजत्तगा संखिज गुणा॥१६॥ For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ प्रज्ञापना सूत्र ******************** *************************** ** ********************** *** भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोदों में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद संख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक अपर्याप्तक सूक्ष्म जीवों का प्रत्येक का अल्पबहुत्व कहा गया है। बादर जीवों में पर्याप्तक जीवों से अपर्याप्तक जीव असंख्यात गुणा हैं क्योंकि एक-एक पर्याप्तक जीव की नेश्राय में असंख्यात अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में कहा है - "पज्जत्तग णिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखिज्जा" - पर्याप्तकों के आश्रय में अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं जहाँ एक पर्याप्तक है वहाँ नियमा असंख्यात अपर्याप्तक हैं। किन्तु सूक्ष्म जीवों में यह क्रम नहीं हैं क्योंकि वहाँ अपर्याप्तक से पर्याप्तक दीर्घ काल की स्थिति वाले होते हैं अतः वे सदैव अधिक होते हैं इसीलिए कहा है कि सबसे थोड़े अपर्याप्तक सूक्ष्म हैं उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म संख्यात गुणा हैं। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक आदि जीवों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। एएसि णं भंते! सुहुमाणं, सुहुम पुढविकाइयाणं, सुहुम आउकाइयाणं, सुहम तेउकाइयाणं, सुहुम वाउकाइयाणं, सुहुम वणस्सइकाइयाणं, सुहुम णिओयाण य पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा सुहुम तेउकाइया अपज्जत्तगा, सुहुम पुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहम आउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहम वाउकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया, सुहुम तेउकाइया पजत्तगा संखिज गुणा, सुहुम पुढविकाइया पजत्तगा विसेसाहिया, सुहुम आउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम वाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम णिओया अपजत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम णिओया पजत्तगा संखिजगुणा, सुहुम वणस्सइकाइया अपजत्तगा अणंत गुणा, सुहुम अपजत्तगा विसेसाहिया, सुहुम वणस्सइकाइया पजत्तगा संखिजगुणा,सुहुम पजत्तगा विसेसाहिया, सुहमा विसेसाहिया॥१६१॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोद में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार ३०५ *********************** ************************************************************ पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद संख्यात गुणा है, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म विशेषाधिक हैं और उनसे भी सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म आदि पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवों का शामिल अल्पबहुत्व कहा गया है। सबसे थोड़े अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक हैं। इसका कारण पूर्व में बता चुके हैं उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, अपर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक और अपर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं। इसका कारण पूर्व में बताया गया हैं। उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक संख्यात गुणा हैं क्योंकि अपर्याप्तक से पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। उनसे भी सबसे थोड़े अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक कहे हैं और दूसरे अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि उत्तरोत्तर विशेषाधिक कहे हैं। विशेषाधिक यानी कुछ अधिक दुगुने से कम किन्तु दुगुने या तिगुने नहीं। उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक की अपेक्षा पर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक संख्यात गुणा हैं। उनसे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक से भी संख्यातगुणा है, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक है, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा है क्योंकि वे प्रचुर (बहुत) है। उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद संख्यात गुणा हैं क्योंकि सूक्ष्म जीवों में सामान्य रूप से अपर्याप्तक से पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं क्योंकि प्रत्येक निगोद में सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनंत हैं। उनसे सामान्यतः अपर्याप्तक सूक्ष्म विशेषाधिक हैं क्योंकि उनमें सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि शामिल हैं उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं क्योंकि सूक्ष्म जीवों में अपर्याप्तकों से पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। जो बीच में अपर्याप्तकों का विशेषाधिकपना कहा गया है, वह अल्प होने से संख्यात गुणा में कोई बाधा नहीं हैं उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म विशेषाधिक हैं उनसे सूक्ष्म विशेषाधिक हैं क्योंकि उनमें अपर्याप्तकों का भी समावेश है। एएसि णं भंते! बायराणं, बायर पुढवीकाइयाणं, बायर आउकाइयाणं, बायर तेउकाइयाणं, बायर वाउकाइयाणं, बायर वणस्सइकाइयाणं, पत्तेयसरीर-बायर वणस्सइकाइयाणं, बायर णिओयाणं, बायर तसकाइयाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ प्रज्ञापना सूत्र गोयमा! सव्वत्थोवा बायर तसकाइया, बायर तेउकाइया असंखिज्जगुणा, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया असंखिज्जगुणा, बायर णिओया असंखिज्जगुणा, बायर पुढवीकाइया असंखिज्जगुणा, बायर आउकाइया असंखिज्जगुणा, बायर वाउकाइया असंखिज्जगुणा, बायर वणस्सइकाइया अनंतगुणा बायरा विसेसाहिया ॥ १६२॥ - भावार्थ- प्रश्न हे भगवन्! इन बादर जीवों, बादर पृथ्वीकायिकों, बादर अप्कायिकों, बादर तेजस्कायिकों, बादर वायुकायिकों, बादर वनस्पतिकायिकों, प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिकों, बादर निगोदों और बादर त्रसकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक हैं, उनसे बादर तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकाय असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं, उनसे बादर जीव विशेषाधिक हैं। विवेचन - सूक्ष्म जीवों की अल्पबहुत्व कहने के बाद सूत्रकार बादर जीवों की अल्पबहुत्व कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में सामान्य बादर जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है जो इस प्रकार है - सबसे थोड़े सकायिक हैं क्योंकि बेइन्द्रिय आदि जीव ही बादर त्रस हैं और वे शेष पृथ्वीकाय आदि से थोड़े हैं। उनसे बाद तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण हैं । उनसे प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि उनका स्थान असंख्यात गुणा हैं. जबकि बादर तेजस्कायिक तो मनुष्य क्षेत्र में ही हैं। इस संबंध में दूसरे स्थान पद में इस प्रकार के प्रश्नोत्तर आये हैं यथा - ************** प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक बादर तेजस्कायिकों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान से मनुष्य क्षेत्र में अर्थात् अढाईद्वीप और दो समुद्रों में निर्व्याघात के अभाव में अर्थात् बीच में किसी प्रकार की रुकावट न होने पर पन्द्रह कर्मभूमि में और व्याघात की अपेक्षा पांच महाविदेह में पर्याप्त बादर तेजस्कायिकों के स्थान कहे गये हैं। जहाँ पर्याप्तक बादर तेजस्कायिकों के स्थान हैं वहीं अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिकों के स्थान हैं और बादर वनस्पतिकायिक तो तीनों लोक में भवन आदि में हैं इस विषय में दूसरे स्थान पद में इस प्रकार का वर्णन आया है प्रश्न - हे भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिकों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? - उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान की अपेक्षा सात घनोदधि में, सात घनोदधिवलयों में, अधोलोक मेंपाताल कलशों में, भवनों में, भवन प्रस्तटों में, ऊर्ध्वलोक में विमानों में, विमानावलिकाओं में, - For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार विमान प्रस्तटों में, तिर्यग्लोक में कुओं में, तालाब, नदी, द्रह, बावडी, पुष्करिणी, दीर्घिका, गुंजालिका, सरोवरों, पंक्तिबद्ध सरोवरों, सरसर पंक्तिओं, बिलों, बिल पंक्तियों, झरनों, निर्झरों, चिल्लों, खाबोचियों, क्यारियों, द्वीपों, समुद्रों और सभी जलाशयों और जल के स्थानों में पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिकों के स्थान कहे गये हैं । अतः असंख्यात गुणा क्षेत्र होने से बादर तेजस्कायिकों से असंख्यात गुणा प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक हैं। उनसे बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं क्योंकि बादर निगोद की अवगाहना अत्यंत सूक्ष्म है। पानी में बादर निगोद सर्वत्र होती है क्योंकि पानी में पनक शैवाल आदि अवश्य होती है और वे बादर अनंत कायिक हैं। उनसे बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि आठ पृथ्वियों में भवन, सभी विमान और पर्वत आदि होते हैं। उनसे बादर उप्कायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि समुद्रों में प्रचुर पानी है। उनसे बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं। क्योंकि सभी खाली स्थानों में वायु होती है। उनसे बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं क्योंकि प्रत्येक बादर निगोद में अनंत जीव होते हैं। उनसे सामान्य बादर जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि बादर त्रसकायिकों का भी उसमें समावेश होता है। इस प्रकार सामान्य बादर जीवों का प्रथम अल्प बहुत्व कहा गया है। पूर्व में काया की औघिक अल्पबहुत्व में 'त्रसकायिक' का वर्णन आया हैं यहाँ पर बादरों की अल्पबहुत्व में 'बादर त्रस कायिक' नाम आया है। त्रसकायिक और बादर त्रसकायिक में कोई अन्तर नहीं है। यहाँ पर बादर विशेषण मात्र स्वरूप दर्शक ही है अर्थात् सभी त्रसकायिक जीव बादर ही होते सूक्ष्म नहीं होते। यह बताने के लिए बादर विशेषण लगाया गया है। शेष पांचों स्थावर कायों में बादर विशेषण उनके सूक्ष्म के भेदों का व्यवच्छेद करने के लिए लगाया गया है। अर्थात् औधिक पांच स्थावर कायों से बादर एवं सूक्ष्म विशेषण वाले पांच स्थावरों में जीवों की संख्या में फर्क रहता है। अतः अलग-अलग भेद बताये गये हैं । ******************** एएसि णं भंते! बायर अपज्जत्तगाणं, बायर पुढवीकाइय अपज्जत्तगाणं, बायर आउकाइय अपज्जत्तगाणं, बायर तेउकाइय अपज्जत्तगाणं, बायर वाउकाइया अपज्जत्तगाणं, बायर वणस्सइकाइय अपज्जत्तगाणं, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइय अपज्जत्तगाणं, बायर णिओय अपज्जत्तगाणं, बायर तसकाइय अपज्जत्तगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर तसकाइया अपज्जत्तगा, बायर तेडकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर णिओया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर पुढवीकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर आउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर वाउकाइया ३०७ ***密密常省事倍 For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ प्रज्ञापना सूत्र ***************************** ***************************************** ************* अपजत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणंत गुणा, बायर अपज्जत्तगा विसेसाहिया॥१६३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिकों, बादर अप्कायिकों, बादर तेजस्कायिकों, बादर वायुकायिकों, बादर वनस्पतिकायिकों, प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिकों, बादर निगोदों और बादर त्रसकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं, उनसे बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अपर्याप्तक बादर जीवों का दूसरा अल्पबहुत्व कहा गया है - सबसे थोड़े अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक हैं। इसका स्पष्टीकरण पूर्व में दिया जा चुका है। उनसे अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण हैं। इसी प्रकार पहले कहे गये क्रम से यह अल्प बहुत्व भी समझना चाहिए। एएसिणं भंते! बायर पजत्तगाणं बायर पुढवीकाइय पजत्तगाणं बायर आउकाइय पजत्तगाणं बायर तेउकाइय पज्जत्तगाणं बायर वाउकाइय पजत्तगाणं पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइय पज्जत्तगाणं बायर णिओय पज्जत्तगाणं बायर तसकाइय पज्जत्तगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर तेउकाइया पज्जत्तगा, बायर तसकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया पजत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर णिआंया पज्जत्तगा असखिज्ज गुणा, बायर पुढवीकाइया पज्जत्तगा असखिज्ज गुणा, बायर आउकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर वाउकाइया पज्जत्तगा असंखिज गुणा, बायर वणस्सइकाइया पजत्तगा अणंत गुणा, बायर पजत्तगा विसेसाहिया॥१६४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक बादर जीवों, बादर पृथ्वीकायिकों, बादर अप्कायिकों, बादर तेजस्कायिकों, बादर वायुकायिकों, प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिकों, बादर निगोदों और बादर त्रसकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषधिक हैं ? For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार ३०९ **************************** ************************************* ***************** उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक हैं, उनसे पर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं और उनसे बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक बादर जीवों का तीसरा अल्पबहुत्व कहा गया है - सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक हैं क्योंकि वे आवलिका के समयों को वर्ग कर के उनसे कुछ कम आवलिका के समयों से गुणा करने पर जितने समय होते हैं उतने हैं। पर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि एक प्रतर में अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण जितने खंड होते हैं उतने हैं। उनसे पर्याप्तक प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि एक प्रतर में अंगुल के असंख्यातवें भाग जैसे जितने खंड होते हैं उतने हैं। उनसे पर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे सूक्ष्म अवगाहना वाले हैं और सभी जलाशयों में सर्वत्र होते हैं। उनसे पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि एक प्रतर के अति बहुतर संख्या वाले अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जितने खंड होते हैं उतने हैं। उनसे पर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे घनीकृत लोक के संख्यात भाग में रहे हुए असंख्यात प्रतरों में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने हैं। उनसे पर्याप्तक. बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं। क्योंकि बादर एक-एक निगोद में अनंत जीव होते हैं उनसे सामान्य पर्याप्तक, बादर जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक आदि का भी उनमें समावेश होता है। इस प्रकार यह तीसरा अल्पबहुत्व कहा गया है। एएसि.णं भंते! बायराणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर पज्जत्तगा, बायर अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक बादर जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम ! सबसे थोड़े बादर पर्याप्तक हैं, उनसे बादर अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! बायर पुढवीकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर पुढवीकाइया पज्जत्तगा, बायर पुढवीकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा। For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० प्रज्ञापना सूत्र ** * * - *-* - * - *-* -*- 4 -*-*-*- -*- *-*- *-*- *-*-* * * * * * * * * * ** * * * * भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक और अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! बायर आउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर आउकाइया पजत्तगा, बायर आउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन पर्याप्तक बादर अप्कायिक और अपर्याप्तक बादर अप्कायिक में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? ___ उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर अप्कायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा है। ___ एएसि णं भंते! बायर तेउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर तेउकाइया पज्जत्तगा, बायर तेउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन पर्याप्तक बादर तैजस्कायिक और अपर्याप्तक बादर तैजस्कायिक में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर तैजस्कायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर तैजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! बायर वाउकाइयाणं पजत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर वाउकाइया पज्जत्तगा, बायर वाउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन पर्याप्तक बादर वायुकायिक और अपर्याप्तक बादर वायुकायिक में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर वायुकायिक हैं और उनसे अपर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं। For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - कार्य द्वार एएसि णं भंते! बायर वणस्सइकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बायर वणस्सइकाइया पज्जत्तगा, बायर वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा । प्रश्न - हे भगवन् ! इन पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक और अपर्याप्तक बादर भावार्थ वनस्पतिकायिक में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कटरे करेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया पज्जत्तगा, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा । - भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! पर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक और अपर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! बायर णिओयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बायर णिओया पज्जत्तगा, बायर णिओया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा । प्रश्न- हे भगवन् ! पर्याप्तक बादर निगोद और अपर्याप्तक बादर निगोद में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? i उत्तर हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर निगोद हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! बायर तसकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बायर तसकाइया पज्जत्तगा, बायर तसकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा ॥ १६५ ॥ - ३११ 王谢谢谢常常打 - For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ प्रज्ञापना सूत्र *************** ****** ********************** ** ********* ***** ***** ******* प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक बादर त्रसकायिक और अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर त्रसकायिक हैं उनसे अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक और अपर्याप्तक बादर आदि प्रत्येक जीवों का अल्पबहुत्व कहा है। यहाँ एक एक बादर पर्याप्तक के आश्रयी असंख्यात बादर अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं क्योंकि पर्याप्तक की नेश्राय में असंख्य अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्तक है वहाँ अवश्य असंख्यात अपर्याप्तक हैं - ऐसा शास्त्र वचन है। अत: बादर जीवों की अपेक्षा सभी स्थानों पर पर्याप्तक से अपर्याप्तक असंख्यात गुणा कहना चाहिए। इस प्रकार चौथा अल्पबहुत्व कहा गया है। एएसि णं भंते! बायराणं, बायर पुढवीकाइयाणं, बायर आउकाइयाणं, बायर तेउकाइयाणं, बायर वाउकाइयाणं, बायर वणस्सइकाइयाणं, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइयाणं, बायर णिओयाणं, बायर तसकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर तेउकाइया पज्जत्तगा, बायर तसकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर तसकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, पत्तेयसरीर बायर वणस्पइकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर णिओया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर पुढवीकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज' गुणा, बायर आउकाइया पज्जत्तगा असंखिज गुणा, बायर वाउकाइया पजत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर तेउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, पत्तेय सरीर बायर वणस्सइकाइया अपज्जत्तया असंखिज्ज गुणा, बायर णिओया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर पुढवीकाइया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा, बायर आउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर वाउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा, बायर वणस्सइकाइया पज्जत्तगा अणंत गुणा, बायर पजत्तगा विसेसाहिया, बायर वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा, बायर अपज्जत्तगा विसेसाहिया, बायरा विसेसाहिया॥१६६॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक बादर जीवों, बादर पृथ्वीकायिकों, बादर अप्कायिकों, बादर तेजस्कायिकों, बादर वायुकायिकों, बादर वनस्पतिकायिकों, प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिकों, बादर निगोदों और बादर त्रसकायिकों में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार ३१३ ************************************************************************************ उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक हैं, उनसे पर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यातगुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा है, उनसे अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं और उनसे भी बादर जीव विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक और अपर्याप्तक बादर आदि जीवों का शामिल पांचवां अल्प बहुत्व कहा गया है जो इस प्रकार है - सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक हैं, उनसे पर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तकः बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा है3, उनसे पर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं। इस अल्प बहुत्व को पूर्वानुसार समझ लेना चाहिए। उनसे अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं। क्योंकि पर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात प्रतरों में जितने आकाश प्रदेशी हैं उतने हैं और अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण हैं अतः असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक प्रत्येक बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं - इस प्रकार उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा कहना क्योंकि ये सभी असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। फिर भी असंख्यात के असंख्यात भेद होने से उत्तरोत्तर असंख्यात गुणापन में बाधा नहीं है। अपर्याप्तक बादर वायुकायिक से पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं क्योंकि बादर एक एक निगोद में अनंत जीव होते हैं, उनसे सामान्य बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक आदि का भी उसमें समावेश होता है। उनसे अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि एक-एक पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक निगोद के आश्रयी असंख्यात अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक निगोद की उत्पत्ति होती है। उनसे सामान्य बादर के अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक आदि का भी उनमें For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ३१४ प्रज्ञापना सत्र ************** ** ********************************************* **** ** ********* समावेश होता है, उनसे पर्याप्तक अपर्याप्तक विशेषण रहित बादर जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि बादर पर्याप्तक तेजस्कायिक आदि का भी उसमें समावेश होता है। एएसि णं भंते! सुहमाणं, सुहुम पुढवीकाइयाणं, सुहुम आउकाइयाणं, सुहुम तेउकाइयाणं, सुहुम वाउकाइयाणं, सुहुम वणस्सइकाइयाणं, सुहुम णिओयाणं, बायराणं, बायर पुढवीकाइयाणं, बायर आउकाइयाणं, बायर तेउकाइयाणं, बायर वाउकाइयाणं, बायर वणस्सइकाइयाणं, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइयाणं, बायर णिओयाणं, तसकाइयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर तसकाइया, बायर तेउकाइया असंखिज गुणा, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया असंखिज गुणा, बायर णिओया असंखिज्ज गुणा, बायर पुढवीकाइया असंखिज्ज गुणा, बायर आउकाइया असंखिज गुणा, बायर वाउकाइया असंखिज गुणा, सुहुम तेउकाइया असंखिज गुणा, सुहुम पुढवीकाइया विसेसाहिया, सुहुम आउकाइया विसेसाहिया, सुहुम वाउकाइया विसेसाहिया, सुहुम णिओया असंखिज्ज गुणा, बायर वणस्सइकाइया अणंत गुणा, बायरा विसेसाहिया, सुहुम वणस्सइकाइया असंखिज गुणा, सुहमा विसेसाहिया॥१६७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन सूक्ष्म जीवों, सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों, सूक्ष्म अप्कायिकों, सूक्ष्म तेजस्कायिकों, सूक्ष्म वायुकायिकों, सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों, सूक्ष्म निगोदों, बादर जीवों, बादर पृथ्वीकायिकों, बादर अप्कायिकों, बादर तेजस्कायिकों, बादर वायुकायिकों, बादर वनस्पतिकायिकों, प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिकों, बादर निगोदों और बादर त्रसकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े बादरं त्रसकायिक हैं, उनसे बादर तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा है, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं, उनसे बादर जीव विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं और उन से सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। विवेचन - बादर जीवों के अल्पबहुत्व के पांच सूत्र कहने के बाद अब सूत्रकार सूक्ष्म और For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार ..३१५ ********************************************************* * 4101121 0 ** ************* बादर की अल्प बहुत्व कहते हैं। प्रस्तुत प्रथम सूत्र में सामान्य रूप से सूक्ष्म बादर जीवों का अल्प बहुत्व कहा गया है। बादर संबंधी अल्पबहुत्व बादर के प्रथम सूत्र के अनुसार बादर वायुकाय तक जानना चाहिए। उसके बाद सूक्ष्म संबंधी अल्पबहुत्व भी सूक्ष्म के जो पांच सूत्र कहे हैं उनमें से प्रथम सत्र के अनुसार सूक्ष्म निगोद तक समझ लेना चाहिए। उसके बाद बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं क्योंकि एक एक बादर निगोद में अनन्त जीव होते हैं। उनसे बादर जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि बादर तेजस्कायिक आदि का भी उसमें समावेश होता हैं, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि बादर निगोद से सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा है उनसे सामान्य सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। क्योंकि सूक्ष्म तेजस्कायिक आदि का भी उसमें समावेश होता है। इस प्रकार प्रथम अल्पबहुत्व कहा गया है। - एएसि णं भंते! सुहुम अपज्जत्तगाणं, सुहुम पुढवीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं, सुहुम आउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं, सुहम तेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं सुहुम वाउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं, सुहुम वणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं सुहुम णिओयाणं अपज्जत्तगाणं बायर अपज्जत्तगाणं, बायर पुढवीकाइयाणं अपजत्तगाणं बायर आउकाइयाणं अपजत्तगाणं बायर तेउकाइयाणं अपजत्तगाणं, बायर वाउकाइयाणं अपजत्तगाणं बायर वणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइयाणं अपजत्तगाणं बायर णिओयाणं अपजत्तगाणं, बायर तसकाइयाणं अपजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर तसकाइया अपजत्तगा, बायर तेउकाइया अपजत्तगा असंखिज्ज गुणा, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया अपजत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर णिओया अपजत्तगा असंखिज गुणा, बायर पुढवीकाइया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा, बायर आउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा, बायर वाउकाइया अपजत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम तेउकाइया अपजत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम पुढवीकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया, सुहम आउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम वाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम णिओया अपजत्तगा असंखिज गुणा, बायर वणस्सइकाइया अपजत्तगा अणंत गुणा, बायरा अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम वणस्सइकाइया अपजत्तगा असंखिज गुणा, सुहुमा अपजत्तगा विसेसाहिया॥१६८॥ For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ प्रज्ञापना सूत्र *********************************************************************************** भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन अपर्याप्तक सूक्ष्म, सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों, सूक्ष्म अप्कायिकों सूक्ष्म तेजस्कायिकों, सूक्ष्म वायुकायिकों, सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों, सूक्ष्म निगोद, बादर, बादर पृथ्वीकायिकों, बादर अप्कायिकों, बादर तेजस्कायिकों, बादर वायुकायिकों, बादर वनस्पतिकायिकों, प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिकों, बादर निगोदों और बादर त्रसकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य, या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक अनन्त गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अपर्याप्तक सूक्ष्म आदि जीवों का अल्पबहुत्व, कहा गया है जो इस प्रकार है- सबसे थोड़े अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक, बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वायुकायिक क्रमश: उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा हैं। यहाँ अल्पबहुत्व का विचार बादंर संबंधी पांच सूत्रों में जो अपर्याप्तक सूत्र हैं उसके अनुसार समझना चाहिए। उन अपर्याप्तक बादर वायुकायिक से अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे प्रचुरतम असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। उनसे अपर्याप्तक सक्ष्म पृथ्वीकायिक सक्ष्म अपकायिक, सक्ष्म वायुकायिक और सक्षा निगोद उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा हैं। यह अल्पबहुत्व सूक्ष्म संबंधी पांच सूत्रों में जो दूसरा सूत्र का है उसके अनुसार समझना चाहिए। अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद से अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीव अनंत गुणा हैं क्योंकि एक एक बादर निगोद में अनंत जीव होते हैं। उनसे सामान्य बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक आदि का भी उसमें समावेश होता है। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं। अपर्याप्तक बादर निगोद से अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं उनसे सामान्य सूक्ष्म अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि सूक्ष्म तेजस्कायिक आदि अपर्याप्तकों का भी उनमें समावेश होता है। इस प्रकार अपर्याप्तक की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है। एएसिणं भंते! सुहम पजत्तगाणं, सुहुम पुढवीकाइय पजत्तगाणं, सुहम आउकाइय For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार ३१७ **kata ************************************************** n a *********4-02-2016***4-12-14640012 पजत्तगाणं, सुहुम तेउकाइय पजत्तगाणं, सुहुम वाउकाइय पज्जत्तगाणं, सुहुम वणस्सइकाइय पज्जत्तगाणं, सुहुम णिओयपज्जत्तगाणं, बायर पजत्तगाणं, बायर पुढवीकाइय पजत्तगाणं बायर आउकाइय पज्जत्तगाणं, बायर तेउकाइय पज्जत्तगाणं, बायर वाउकाइय पजत्तगाणं, बायर वणस्सइकाइय पजत्तगाणं, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइय पजत्तगाणं, बायर णिओय पजत्तगाणं, बायर तसकाइय पजत्तगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर तेउकाइया पजत्तगा, बायर तसकाइया पजत्तगा असंखिज गुणा, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया पज्जत्तगा असंखिज गुणा, बायर णिओया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर पुढवीकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर आउकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर वाउकाइया पज्जत्तगा असंखिज । गुणा, सुहुम तेउकाइया पजत्तगा असंखिज गुणा, सुहुम पुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम आउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम वाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम णिओया पजत्तगा असंखिज गुणा, बायर वणस्सइकाइया पज्जत्तगा अणंत गुणा, बायर पजत्तगा विसेसाहिया, सुहुम वणस्सइकाइया पजत्तगा असंखिज गुणा, सुहुम पजत्तगा विसेसाहिया॥१६९॥ ___भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन पर्याप्तक १. सूक्ष्म जीवों २. सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों ३. सूक्ष्म अप्कायिकों ४. सूक्ष्म तेजस्कायिकों ५. सूक्ष्म वायुकायिकों ६. सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों ७. सूक्ष्म निगोदों ८. बादर जीवों ९. बादर पृथ्वीकायिकों १०. बादर अप्कायिकों ११. बादर तेजस्कायिकों १२. बादर वायुकायिकों १३. बादर वनस्पतिकायिकों १४. प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिकों १५. बादर निगोदों १६. बादर त्रसकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! १. सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक हैं २. उनसे पर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं ३. उनसे पर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं ४. उनसे पर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं ५. उनसे पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं ६. उनसे पर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं ७. उनसे पर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं ८. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं ९. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं १०. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं ११. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं १२. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद असंख्यात For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ प्रज्ञापना सूत्र ************************************** ****kapadeauradaayak * ** * * * kaalesteditatikalaak***** * * * * गुणा हैं १३. उनसे पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं १४. उनसे पर्याप्तक बादर जीव विशेषाधिक हैं १५. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं और १६. उनसे भी सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। _ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म आदि पर्याप्तकों का तीसरा अल्पबहुत्व कहा गया है जो इस प्रकार है - सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक हैं, उनसे बादर त्रसकायिक, बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वायुकायिक पर्याप्तक उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा हैं। यहाँ बादर के पांच सूत्रों में जो तीसरा पर्याप्तक सूत्र है उसके अनुसार समझना चाहिए। पर्याप्तक बादर वायुकायिक से पर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि बादर वायुकायिक असंख्यात प्रतर के प्रदेश राशि प्रमाण है और सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण है अतः उनसे असंख्यात गुणा हैं। उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक और सूक्ष्म वायुकायिक अनुक्रम से उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं। पर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक से पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे एक-एक गोले में बहुत होते हैं, उनसे पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक अनन्त गुणा हैं क्योंकि एक-एक बादर निगोद में अनंत जीव होते हैं। उनसे सामान्य बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक आदि का भी उसमें समावेश होता है। उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि बादर निगोद पर्याप्तक से सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक असंख्यात गुणा है, उनसे सामान्य सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि पर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक आदि का भी उनमें समावेश होता है। इस प्रकार पर्याप्तक की अपेक्षा तीसरा अल्प बहुत्व कहा गया है। . एएसि णं भंते! सुहुमाणं बायराणं च पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायरा पजत्तगा, बायरा अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहम अपजत्तगा असंखिज गुणा, सुहुम पजत्तगा संखिज गुणा॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन सूक्ष्म और बादर जीवों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर जीव हैं और उनसे अपर्याप्तक बादर जीव असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म जीव असंख्यात गुणा हैं और उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! सुहम पुढवीकाइयाणं बायर पुढवीकाइयाणं च पजत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार ३१९ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *************************************************************** गोयमा! सव्वत्थोवा बायर पुढवीकाइया पजत्तगा, बायर पुढवीकाइया अपजत्तगा असंखिज गुणा, सुहुम पुढवीकाइया अपजत्तगा असंखिज गुणा, सुहुम पुढवीकाइया पज्जत्तगा संखिज्ज गुणा॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों और बादर पृथ्वीकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सब से थोड़े पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं और उनसे भी पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक संख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! सुहम आउकाइयाणं, बायर आउकाइयाणं च पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर आउकाइया पज्जत्तगा, बायर आउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा, सुहुम आउकाइया अपजत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम आउकाइया पजत्तंगा संखिज गुणा॥ - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिकों और बादर अप्कायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सब से थोड़े पर्याप्तक बादर अप्कायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा है, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं और उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक संख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! सुहुम तेउकाइयाणं, बायर तेउकाइयाणं च पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बायर तेउकाइया पज्जत्तगा, बायर तेउकाइया अपजत्तगा असंखिज गुणा, सुहुम तेउकाइया अपजत्तगा असंखिज गुणा, सुहुम तेउकाइया पजत्तगा संखिज गुणा॥ __ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिकों और बादर तेजस्कायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक हैं उनसे अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक संख्यात गुणा हैं। For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० प्रज्ञापना सूत्र एएसि णं भंते! सुहुम वाउकाइयाणं, बायर वाउकाइयाणं च पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बायर वाउकाइया पज्जत्तगा, बायर वाउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम वाउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम वाउकाइया पज्जत्तगा संखिज्ज गुणा ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिकों और बादर वायुकायिकों में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर वायुकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक बाद वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तंक सूक्ष्म वायुकायिक संख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! सुहुम वणस्सइकाइयाणं, बायर वणस्सइकाइयाणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बायर वणस्सइकाइया पज्जत्तगा, बायर वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम वणस्सइकाइया अपज्जतगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम वणस्सइकाइया पज्जत्तगा संखिज्ज गुणा ॥ - भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों और बादर वनस्पतिकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं और उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं। एएसि णं भंते! सुहुम णिओयाणं बायर णिओयाण य पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बायर णिओया पज्जत्तगा, बायर णिओया अपज्जत्तगा असंखिज्जगुणा, सुहुम णिओया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम णिओया पज्जत्तगा संखिज्ज गुणा ॥ १७० ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोदों और बादर निगोदों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? *************************** For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - - काय द्वार उत्तर हे गौतम! सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर निगोद हैं, उनसे अपर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं और उनसे भी पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद संख्यात गुणा हैं । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म बादर आदि प्रत्येक का पृथक् पृथक् अल्पबहुत्व कहा गया है। सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर हैं क्योंकि वे परिमित क्षेत्र में रहते हैं। उनसे बादर अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि एक बादर पर्याप्तक के आश्रयी असंख्यात बादर अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। उनसे सूक्ष्म अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं। क्योंकि सर्वलोक व्यापी होने से उनका क्षेत्र असंख्यात गुणा हैं, उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं, वे अपर्याप्तक से लंबे काल तक रहने के कारण सदैव संख्यात गुणा होते हैं। यह चौथा अल्पबहुत्व कहा गया है। एएसि णं भंते! सुहुमाणं, सुहुम पुढवीकाइयाणं, सुहुम आउकाइयाणं, सुहुम तेउकाइयाणं, सुहुम वाउकाइयाणं, सुहुम वणस्सइकाइयाणं, सुहुम णिओयाणं, बायराणं, बायर पुढवीकाइयाणं, बायर आउकाइयाणं, बायर तेउकाइयाणं, बायर वाउकाइयाणं, बायर वणस्सइकाइयाणं, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइयाणं, बायर णिओयाणं, बायर तसकाइयाण य पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बायर तेउकाइया पज्जत्तगा, बायर तसकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर तसकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया पज्जत्तंगा असंखिज्ज गुणा, बायर णिओया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर पुढविकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर आउकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर वाउकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर तेउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर णिओया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा, बायर पुढविकाइया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा, बायर आउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर वाउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम तेउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम पुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम आउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम वाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम तेउकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, सुहुम ३२१ For Personal & Private Use Only ********************** Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ प्रज्ञापना सूत्र ** ******** ** ***** ** * * * **************************************** * पुढवीकाइया पजत्तगा विसेसाहिया, सुहम आउकाइया पजत्तगा विसेसाहिया, सुहम वाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम णिओया अपजत्तगा असंखिज गुणा, सुहुम णिओया पजत्तगा संखिज गुणा, बायर वणस्सइकाइया पजत्तगा अणंत गुणा, बायर पजत्तगा विसेसाहिया, बायर वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा, बायर अपजत्तगा विसेसाहिया, बायरा विसेसाहिया, सुहुम वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा, सुहुम अपजत्तगा. विसेसाहिया, सुहुम वणस्सइकाइया पजत्तगा संखिज गुणा, सुहुम पजत्तगा विसेसाहिया, सुहमा विसेसाहिया॥४ दारं ॥१७१॥ __भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक १. सूक्ष्म जीवों २. सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों ३. सूक्ष्म अप्कायिकों ४. सूक्ष्म तेजस्कायिकों ५. सूक्ष्म वायुकायिकों ६. सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों ७. सूक्ष्म निगोदों ८. बादर जीवों ९. बादर पृथ्वीकायिकों १०. बादर अप्कायिकों ११. बादर तेजस्कायिकों १२. बादर वायुकायिकों १३. बादर वनस्पतिकायिकों १४. प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिकों १५. बादर निगोदों और १६. बादर त्रसकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! १. सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक हैं २. उनसे पर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं ३. उनसे अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं ४. उनसे पर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं ५. उनसे पर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं ६. उनसे पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं ७. उनसे पर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं ८. उनसे पर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं ९. उनसे अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक असंख्यात गणा हैं १०. उनसे अपर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं ११. उनसे अपर्याप्तक बादर निगोद असंख्यात गुणा हैं १२. उनसे अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक असंख्यात गुणा हैं १३. उनसे अपर्याप्तक बादर अप्कायिक असंख्यात गुणा हैं १४. उनसे अपर्याप्तक बादर वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं १५. उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं १६. उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं १७. उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं १८. उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं १९. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं २०. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं २१. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं २२. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं २३. उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं २४. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद संख्यात गुणा हैं २५. उनसे पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं २६. उनसे बादर पर्याप्तक For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - काय द्वार ३२३ ************************* * ***************************** ***************te n ing विशेषाधिक है २७. उनसे अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं २८. उनसे बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं २९. उनसे बादर जीव विशेषाधिक हैं ३०. उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं ३१. उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं ३२. उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं ३३. उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं और ३४. उनसे भी सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि और बादर, बादर पृथ्वीकाय आदि का शामिल पांचवाँ अल्पबहुत्व कहा गया है - सबसे थोड़े पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक हैं क्योंकि वे आवलिका समयों का वर्ग करके उनसे कुछ समय कम आवलिका समयों से गुणित जितने समय होते हैं उतने प्रमाण हैं। उनसे पर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे एक प्रतर के अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण में जितने खंड होते हैं उतने हैं। उनसे अपर्याप्तक बादर त्रसकायिक असंख्यात गुणा हैं। क्योंकि वे एक प्रतर के अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण में जितने खण्ड होते हैं उतने हैं। उनसे पर्याप्तक प्रत्येक बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वायुकायिक उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा हैं जो कि प्रत्येक प्रतर के अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण में जितने खंड होते हैं उतने हैं फिर भी अंगुल के असंख्यातवें भाग के असंख्यात भेद होने से उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा होने का कथन परस्पर विरुद्ध नहीं है। उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण है। उनसे अपर्याप्तक प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वायुकायिक उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा हैं, अपर्याप्तक बादर वायुकायिक से अपर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक और सूक्ष्म वायुकायिक उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म तेजस्कायिक संख्यात गुणा हैं क्योंकि सूक्ष्म जीवों में अपर्याप्तक से पर्याप्तक सामान्य रूप से संख्यात गुणा हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे बहुत बड़ी संख्या में सर्वलोक में हैं, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद संख्यात गुणा हैं क्योंकि सूक्ष्म में अपर्याप्तकों की अपेक्षा पर्याप्तक सामान्य रूप से सदैव संख्यात गुणा होते हैं जो कि इन सभी बादर पर्याप्तक तेजस्कायिक से पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद तक सामान्य रूप से असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण कहे गये हैं फिर भी असंख्यात के असंख्यात भेद होने से यहाँ असंख्यात गुणा विशेषाधिकपना या संख्यात गुणा कहा हैं वह विरुद्ध नहीं समझना चाहिए। पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद से पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक अनंत गुणा हैं क्योंकि एक एक बादर निगोद में अनंत जीव होते हैं अतः सामान्य रूप से बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि उनके बादर पर्याप्तक तेजस्कायिक आदि For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३२४ ****** प्रज्ञापना सूत्र ****** *********************** का भी समावेश होता है उनसे अपर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि एक एक पर्याप्तक बादर निगोद के आश्रित असंख्यात अपर्याप्तक बादर निगोद की उत्पत्ति होती है । उनसे सामान्य रूप से बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि अपर्याप्तक बादर तेजस्कायिक आदि का भी इसमें समावेश होता है उनसे सामान्य बादर जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि उनमें पर्याप्तकों का भी समावेश होता है, उनसे अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि बादर निगोद की अपेक्षा अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं, उनसे सामान्यतः सूक्ष्म अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि उनमें अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि का भी समावेश होता है, उनसे पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं क्योंकि अपर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक से पर्याप्तक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक संख्यात गुणा हैं क्योंकि सूक्ष्म जीवों में सामान्य रूप से अपर्याप्तक से पर्याप्तक संख्यातगुणा होते हैं, इसलिए सूक्ष्म अपर्याप्तकों से संख्यात गुणा हैं क्योंकि सूक्ष्म अपर्याप्तकों का विशेषाधिकपना संख्यात गुणा में बाधक नहीं है। उनसे सामान्य सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि का भी उसमें समावेश होता है उनसे पर्याप्तक या अपर्याप्तक विशेषण रहित सामान्य सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि उनमें अपर्याप्तकों का भी समावेश होता है। इस प्रकार सूक्ष्म बादर का शामिल पांचवां अल्पबहुत्व कहा गया है। ॥चौथा काय द्वार समाप्त॥ ५. पांचवां योग द्वार . एएसि णं भंते! जीवाणं सजोगीणं मणजोगीणं वइजोगीणं कायजोगीणं अजोगीणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणजोगी, वइजोगी असंखिज गुणा, अजोगी अणंत गुणा, कायजोगी अणंत गुणा, सजोगी विसेसाहिया॥५ दारं॥१७२॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन सयोगी, मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? . उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव मनोयोगी हैं, उनसे वचनयोगी असंख्यात गुणा हैं, उनसे अयोगी अनंत गुणा हैं उनसे काय योगी अनन्त गुणा हैं और उनसे भी सयोगी विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रश्न - योग किसे कहते हैं ? उत्तर - यः आत्मानं अष्ट विधेन कर्मणा योजयति इति योगः। अथवा योज्यते आत्मा अष्ट विधेन कर्मणा येन स योगः। For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - योग द्वार ३२५ * ** * * * *** *************** *********************************************** संस्कृत में "युजिद् योगे" धातु है जिसका अर्थ है जोड़ना। जो आत्मा को आठ प्रकार के कर्म से जोड़ता है अथवा जिसके द्वारा आत्मा आठ प्रकार के कर्मों से जोड़ दिया जाता है उसे योग कहते हैं। उसके तीन भेद हैं - मनोयोग, वचनयोग, काययोग। ___ काय द्वार का वर्णन करने के बाद सूत्रकार योगद्वार का वर्णन करते हैं - सबसे थोड़े मनोयोगी हैं क्योंकि संज्ञी पर्याप्त जीव ही मनोयोग वाले होते हैं जो कि बहुत अल्प हैं, उनसे वचन योगी असंख्यात गुणा हैं क्योंकि बेइन्द्रिय आदि जीव वचन योग वाले हैं और वे संज्ञी से असंख्यात गुणा हैं, उनसे अयोगी अनन्त गुणा हैं क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं उनसे काय योगी अनन्तगुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं। अनंत निगोद जीवों का एक शरीर है और वे सभी जीव एक शरीर से ही आहार आदि ग्रहण करते हैं अतः सभी जीव काय योगी होने से उनके अनन्तगुणत्व में बाधा नहीं है उनसे सामान्य सयोगी विशेषाधिक हैं क्योंकि वचन योग वाले और काय योग वाले बेइन्द्रिय आदि जीवों का उसमें समावेश होता है। ॥ पांचवां योग द्वार समाप्त॥ ६. छठा वेद द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं सवेयगाणं इत्थीवेयगाणं पुरिसवेयगाणं णपुंसगवेयगाणं अवेयगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा पुरिसवेयगा, इत्थीवेयगा संखिज गुणा, अवेयगा अणंत गुणा, णपुंसग वेयगा अणंत गुणा, सवेयगा विसेसाहिया॥६ दारं॥१७३॥ ____भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन सवेदी-वेदसहित, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और अवेदी-वेद रहित जीवों में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पुरुषवेदी हैं, उनसे स्त्रीवेदी संख्यात गुणा हैं, उनसे अवेदी अनंत गुणा हैं, उससे नपुंसगवेदी अनन्त गुणा हैं, उनसे सवेदी विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रश्न - वेद किसे कहते हैं? . उत्तर - "वेद्यते इति वेदः।" संस्कृत में "विद् ज्ञाने" धातु है उससे वेद शब्द बनता है जिसका अर्थ है जिसके द्वारा वेदन किया जाता है, उसको वेद कहते हैं अर्थात् वेदमोहनीय कर्म के उदय से मैथुन सेवन करने की अभिलाषा को वेद कहते हैं। इसके दो भेद हैं - द्रव्य वेद और भाव वेद। स्त्री-पुरुष आदि के बाह्य चिह्न को द्रव्य वेद कहते हैं। ये निर्माण नाम कर्म के उदय से प्रकट होते हैं और मैथुन सेवन करने की अभिलाषा को भाव वेद कहते हैं। इसके तीन भेद है - स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद। For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ प्रज्ञापना सूत्र ******************** ******** जीवाजीवाभिगम सूत्र में स्त्रीवेद को कुंफर्म (छाणों की अग्नि) की उपमा दी गयी है। पुरुष वेद को तृण (घास फूस) की अग्नि की उपमा दी गयी है और नपुंसक वेद को नगर दाह की उपमा दी गयी है।। ___ योग द्वार के बाद अब वेद द्वार कहते हैं - सबसे थोड़े पुरुषवेद वाले हैं क्योंकि संज्ञी जीवों में तिर्यंच, मनुष्य और देवों को ही पुरुषवेद होता है उनसे स्त्रीवेद वाले संख्यात गुणा हैं क्योंकि जीवाभिगग सूत्र में कहा है कि - तिर्यंच योनिक पुरुषों से तिर्यंचयोनिक स्त्रियाँ तीन गुणी और तीन अधिक है, मनुष्यों से मनुष्य स्त्रियाँ २७ गुणी और २७ अधिक है और देवों से देवियाँ ३२ गुपी और ३२ अधिक है। उनसे अवेदक - वेद रहित अनंत गुणा हैं क्योंकि सिद्ध भगवान् अनन्त हैं उनसे नपुंसक वेद वाले अनन्त गुणा हैं क्योंकि सिद्धों से वनस्पतिकायिक अनन्त गुणा हैं, उनसे सामान्य वेद सहित विशेषाधिक है क्योंकि उसमें स्त्रीवेद वालों और पुरुष वेद वालों का समावेश होता है। ॥छठा वेद द्वार समाप्त॥ ७. सातवां कषाय द्वार एएसि णं भंते! सकसाईणं कोहकसाईणं माणकसाईणं मायाकसाईणं लोहकसाईणं अकसाईणं च कयरे कयरेहितो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अकसाई, माणकसाई अणंतगुणा, कोहकसाई विसेसाहिया, मायाकसाई विसेसाहिया, लोहकसाई विसेसाहिया, सकसाई विसेसाहिया॥७ दारं॥१७४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सकषायी, क्रोध कषायी, मान कषायी, माया कषायी, लोभ कषायी और अकषायी में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव अकषायी हैं, उनसे मान कषायी अनंतगुणा हैं, उनसे क्रोध कषायी विशेषाधिक हैं उनसे माया कषायी विशेषाधिक हैं, उनसे लोभ कषायी विशेषाधिक हैं, उनसे सकषायी विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रश्न - कषाय किसको कहते हैं ? उत्तर - कष्यन्ते, पीड्यन्ते, दुःखी भवन्ति प्राणिनो यस्मिन स कषः संसार इति। कषयस्य संसारस्य आयः लाभ: स कषाय। कषाया विद्यन्ते यस्य स कषायी। कषायै सह वर्तन्ते ते सकषाया।अथवा सकषायिणः। For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****** ************************-*-*- *- *-*-648-8-+-+-+-++ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - लेश्या द्वार ३२७ ********** अर्थात् - संस्कृत में "कष'' धातु है। जिसका अर्थ है पीड़ित होना। इस धातु से "कष" शब्द बना है। जिसकी व्युत्पत्ति ऊपर लिखी है। उससे "कषः" शब्द बनता है। जिसका अर्थ है संसार । जिसमें प्राणी पीड़ित होते हैं दुःखी होते हैं। वह कष अर्थात् संसार है। उस संसार परिभ्रमण का लाभ जिससे होता हो उसे कषाय कहते हैं। कषाय के उदय से ही संसार में परिभ्रमण होता है। जिन प्राणियों में कषाय पाया जाता है, उनको सकषायी कहते हैं। वेद द्वार समाप्त होने पर अब कषाय द्वार कहते हैं - सबसे थोड़े अकषायी-कषाय रहित हैं क्योंकि सिद्ध और कितने ही ग्यारहवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान वाले) मनुष्य अकषायी होते हैं, उनसे मान कषायी-मान कषाय के परिणाम वाले अनन्त गुणा है क्योंकि इन छह जीव निकाय में मान कषाय का परिणाम होता है, उनसे क्रोध कषाय के परिणाम वाले विशेषाधिक हैं, उनसे माया कषाय के परिणाम वाले विशेषाधिक हैं, उनसे लोभ कषाय के परिणाम वाले विशेषाधिक हैं क्योंकि मान कषाय के परिणाम के काल की अपेक्षा क्रोधादि कषाय के परिणाम का काल उत्तरोत्तर विशेषाधिक होने से क्रोधादि कषाय वाले उत्तरोत्तर विशेषाधिक होते हैं। लोभ कषायी से सामान्य सकषायी-कषाय के परिणाम वाले विशेषाधिक हैं क्योंकि मान आदि कषायों का भी उसमें समावेश होता है। सकषायी शब्द से यहाँ कषायोदय का ग्रहण करना यानी सकषाय अर्थात् कषाय के उदय वाला। .|| सातवां कषाय द्वार समाप्त॥ ८. आठवां लेश्या द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं सलेस्साणं किण्हलेस्साणं णीललेस्साणं काउलेस्साणं तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुक्कलेस्साणं अलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखिज्जगुणा, तेउलेस्सा संखिजगुणा, अलेस्सा अणंतगुणा, काउलेस्सा अणंत गुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, सलेस्सा विसेसाहिया॥ ८ दारं॥१७५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सलेशी, कृष्णलेशी, नीललेशी, कापोतलेशी, तेजोलेशी, पद्मलेशी, शुक्ललेशी और अलेशी जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव शुक्ललेश्या वाले हैं, उनसे पद्म लेश्या वाले संख्यात गुणा हैं, उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यात गुणा हैं, उनसे लेश्या रहित अनंत गुणा हैं, उनसे कापोत लेश्या वाले For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ************************************************************************************ *********rane..... प्रज्ञापना सूत्र अनंत गुणा हैं, उनसे नील लेश्या वाले विशेषाधिक हैं, उनसे कृष्ण लेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे सलेशी-सामान्य लेश्या वाले विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रश्न - लेश्या किसे कहते हैं ? उत्तर - "लिश्यते-श्लिष्यते कर्मणा सह आत्मा अनया सा लेश्या" "कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आत्मनः। स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्त्तते॥" अर्थ - जिसके द्वारा कर्म आत्मा के साथ चिपकाये जाते हैं। अपने स्वरूप को रखती हुई सम्बन्धित लेश्या के द्रव्यों की छाया मात्र धारण करती है जैसे कि वैडूर्य मणी में लाल धागा पिरोने पर वह अपने नील वर्ण को रखती हुई धागे की लाल छाया को धारण करती है। लेश्या के दो भेद हैं - द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या। योगान्तर्गत कृष्णादि द्रव्य लेश्या कहलाती है। उस द्रव्य लेश्या के सहयोग से होने वाला आत्मा का परिणाम विशेष भाव लेश्या कहलाती है। इसके छह भेद हैं - १. कृष्ण २. नील ३. कापोत ४. तेजो ५. पद्म और ६. शुक्ल। कषाय द्वार के बाद लेश्या द्वार कहते हैं - सबसे थोड़े शुक्ल लेश्या वाले हैं क्योंकि छठे देवलोक लान्तक से लेकर अनुत्तर विमान तक के वैमानिक देवों में और कितनेक गर्भज कर्म भूमि के संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले मनुष्यों में तथा संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले कितनेक तिर्यंच स्त्री पुरुषों में शुक्ल लेश्या संभव है, उनसे पद्म लेश्या वाले संख्यात गुणा हैं क्योंकि पद्म लेश्या सनत्कुमार, माहेन्द्र एवं ब्रह्मलोक कल्पवासी देवों में तथा बहुत से गर्भज कर्मभूमि के संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले मनुष्य स्त्री पुरुषों में एवं संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले गर्भज तिर्यंच स्त्री पुरुषों में होती है। सनत्कुमार आदि देव सभी मिल कर लान्तक आदि देवों से संख्यात गुणा होते हैं अतः शुक्ललेशी से पद्मलेशी संख्यातगुणा समझना चाहिए। उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यात गुणा होते हैं क्योंकि सौधर्म, ईशान, ज्योतिषी देवों, कितनेक भवनपति, व्यन्तर, गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रियों में तेजोलेश्या होती है। यद्यपि ज्योतिषी देव भवनवासी देवों तथा सनत्कुमार आदि देवों से असंख्यातगुणे होने से तेजोलेश्या वाले जीव असंख्यात गुणा कहने चाहिये तथापि पद्म लेश्या वालों से तेजोलेश्या वाले जीव संख्यात गुणा ही हैं। यह कथन केवल देवों की लेश्याओं की अपेक्षा नहीं कहा है अपितु समग्र जीवों की अपेक्षा कहा है। पद्म लेश्या वालों में देवों के अतिरिक्त बहुत से तिर्यंच भी सम्मिलित हैं इसी तरह तेजोलेश्या वालों में भी हैं अतएव उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यातगुणे ही अधिक हो सकते हैं असंख्यात गुणा नहीं। For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहवक्तव्यता पद - सम्यक्त्व द्वार ३२९ ************************************************************************************ तेजोलेश्या वालों से लेश्या रहित जीव (अलेशी) अनंत गुणा हैं क्योंकि सिद्ध भगवान् अनन्त हैं। उनसे कापोत लेश्या वाले अनन्त गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीवों में भी कापोत लेश्या संभव है और वनस्पतिकायिक सिद्धों से भी अनंत गुणा हैं। उनसे नील लेश्या वाले विशेषाधिक हैं क्योंकि कापोत लेश्या वाले जीवों की अपेक्षा नील लेश्या वाले जीव अधिक हैं उनसे कृष्ण लेश्या वाले जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि नीललेश्या वालों से कृष्णलेश्या वाले जीव बहुत अधिक हैं उनसे सामान्यतः लेश्या सहित (सलेशी) जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि नीललेश्या वालों आदि का भी उसमें समावेश होता है। ॥आठवां लेश्या द्वार समाप्त॥ ९. नौवां सम्यक्त्व द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं सम्मदिट्ठीणं मिच्छादिट्ठीणं सम्मामिच्छादिट्ठीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा सम्मामिच्छदिट्ठी, सम्मदिट्ठी अणंत गुणा, मिच्छादिट्ठी अणंत गुणा॥९ दारं॥१७६ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव मिश्रदृष्टि वाले हैं उनसे सम्यग्दृष्टि अनन्त गुणा हैं, उनसे मिथ्यांदृष्टि जीव अनन्त गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - सम्यक्त्व किसे कहते हैं ? उत्तर - अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा मिथ्यात्व मोहनीय, समकित मोहनीय और मिश्र मोहनीय। इन सात प्रकृतियों का उपशम क्षय या क्षयोपशम होने से आत्मा में जो गुण प्रकट होता है उसको "सम्यक्त्व" कहते हैं। समकित या सम्यग्दृष्टि इसके पर्यायवाची नाम हैं। समकित के तीन भेद हैं - औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व। सबसे थोड़े जीव मिश्रदृष्टि हैं क्योंकि मिश्रदृष्टि के परिणाम का काल अन्तर्मुहूर्त (श्वासोच्छ्वास पृथक्त्व) प्रमाण ही है अत: बहुत अल्पकाल होने से थोड़े जीव ही पाये जाते हैं उनकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीव अनंत गुणा हैं क्योंकि सिद्ध भगवान् अनन्त हैं। उनसे मिथ्यादृष्टि अनंत गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से अनंत गुणा हैं और वनस्पतिकायिक जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। ॥ नौवां सम्यक्त्व द्वार समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० प्रज्ञापना सूत्र ** ** kddakadhakadhak ************** ********************** *** *** *** *** १०. दसवां ज्ञान द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं आभिणिबोहिय णाणीणं सुय णाणीणं ओहि णाणीणं मणपज्जव णाणीणं केवल गाणीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणपजव णाणी, ओहि णाणी असंखिज गुणा, आभिणिबोहिय णाणी सुय णाणी दोवि तुल्ला विसेसाहिया, केवल णाणी अणंतगुणा ॥१७७॥ ___ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े मनःपर्यवज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा हैं, उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और परस्पर तुल्य हैं उनसे केवलज्ञानी अनन्त गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - ज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तर - ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्तु तत्त्वं अनेन इति ज्ञानः।" अर्थ - संस्कृत में "ज्ञा अवबोधने" धातु है जिसका अर्थ है जानना। ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति ऊपर दी गयी है। जिसका अर्थ है जिससे वस्तु तत्त्व का अवबोध (जाणपणा)हो उसे ज्ञान कहते हैं। ज्ञान के पांच भेद हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यव ज्ञान और केवलज्ञान। सम्यक्त्व द्वार के बाद अब ज्ञान द्वार कहा जाता है - सबसे थोड़े मन:पर्यवज्ञाती हैं क्योंकि आमर्ष औषधि आदि ऋद्धि प्राप्त संयतों को ही मन:पर्यवज्ञान होता है, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अवधिज्ञान नारक, संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देवों को भी होता है। उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी(मतिज्ञानी) और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं क्योंकि संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों में जो अवधिज्ञान से रहित हैं। उनमें से भी कईयों को आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान होता है और स्वस्थान की अपेक्षा दोनों परस्पर तुल्य हैं क्योंकि जहाँ मतिज्ञान है वहाँ श्रुतज्ञान अवश्य है और जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ मतिज्ञान अवश्य है-ऐसा शास्त्र वचन है। उनसे केवलज्ञानी अनंत गुणा हैं क्योंकि सिद्ध भगवान् अनन्त हैं। एएसि णं भंते! जीवाणं मइ अण्णाणीणं सुय अण्णाणीणं विभंग णाणीणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************** तीसरा बहुवक्तव्यता पद - गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा विभंग णाणी, मइ अण्णाणी सुय अण्णाणी दोवि तुल्ला अनंत गुणा ॥ १७८ ॥ - भावार्थ प्रश्न हे भगवन्! इन मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी और विभंग ज्ञानी में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े विभंगज्ञानी हैं, उनसे मति अज्ञानी और श्रुतअज्ञानी अनन्त गुणा - ज्ञान द्वार और परस्पर तुल्य हैं। अज्ञान किसे कहते हैं ? विवेचन प्रश्न उत्तर - अज्ञान में दो शब्द मिले हुए हैं यथा अ + ज्ञान संस्कृत में नञ् शब्द है। जिसके हिन्दी में दो रूप होते हैं। यथा - अ और अन् । नञ् के आगे जब कोई व्यंजन होता है तो न का अ बनता है जैसे कि न+विवेक=अविवेक । न+मर अमर, न+जर= अजर। स्वर आगे होने पर न का अन् होता है यथा-न+आकार=अनाकार, न+अगार अनगार, न+उपयोग = अनुपयोग, न+अधिकार = अनधिकार आदि आदि । - ३३१ इस प्रकार नञ् दो अर्थों में आता है यथा- पर्युदास और प्रसज्जक । नञ का तीसरा अर्थ हैकुत्सा (नञ् कुत्सार्थत्वम्) यहाँ पर ज्ञान शब्द के साथ नञ का अर्थ कुत्सा किया गया है यथा- नञ्कुत्सितम् ज्ञानम् - अज्ञानम् । अर्थात् कुत्सित अर्थात् निन्दित ज्ञान अज्ञान कहलाता है। यहाँ पर नञ् का अर्थ निषेध नहीं करना चाहिए। यथा नञ् + ज्ञानम् = अज्ञानम् । अर्थात् ज्ञान नहीं। ऐसा अर्थ नहीं करना . चाहिए क्योंकि यह अर्थ आगमकार को इष्ट नहीं है। क्योंकि बिना ज्ञान का कोई जीव होता ही नहीं है। क्योंकि नन्दी सूत्र में बतलाया गया है कि चाहे जीव निगोद में चला जाय तो अक्षर का अनन्तवाँ भाग जितना ज्ञान तो वहाँ पर भी अनावृत ( उघाड़ा) रहता ही है। यदि वह अनन्तवाँ भाग जितना ज्ञान भी ढक जाय तो जीव अजीव हो जाता है । परन्तु ऐसा कभी होता ही नहीं है कि जीव अजीव बन जाय। इसलिए सब जीवों में न्यूनाधिक ज्ञान होता ही है किन्तु मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान कहलाता है क्योंकि इसकी दृष्टि विपरीत है इसलिए उसका ज्ञान भी विपरीत ज्ञान है। निष्कर्ष यह है कि मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान (कुत्सिक ज्ञान) कहलाता है। ज्ञानियों का अल्पबहुत्व कहने के बाद सूत्रकार अब ज्ञानियों के प्रतिपक्ष रूप अज्ञानियों का अल्पबहुत्व कहते हैं - सबसे थोड़े विभंग ज्ञानी हैं क्योंकि कितनेक नारक, देव, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों को विभंगज्ञान होता है। उनसे मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी अनन्त गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीवों में भी मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान होता हैं और वे अनन्त हैं तथा स्व स्थान की अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं क्योंकि "जहाँ मति अज्ञान है वहाँ श्रुत अज्ञान अवश्य है और जहाँ श्रुत अज्ञान है वहाँ मति अज्ञान अवश्य है।" ऐसा आगम वचन है। For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ प्रज्ञापना सूत्र ******************************************************** * * * ___एएसि णं भंते! जीवाणं आभिणिबोहिय णाणीणं सुय णाणीणं ओहि णाणीणं मणपज्जव णाणीणं केवल णाणीणं मइ अण्णाणीणं सुय अण्णाणीणं विभंग णाणीणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणपजव णाणी, ओहि णाणी असंखिज गुणा, आभिणिबोहिय णाणी सुयणाणी दोवि तुल्ला विसेसाहिया, विभंग णाणी असंखिज गुणा, केवल णाणी अणंत गुणा, मइ अण्णाणी सुय अण्णाणी य दो वि तुल्ला अणंतगुणा॥१० दारं ॥१७९॥ __ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या . विशेषाधिक हैं। उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े मनः पर्यवज्ञानी जीव हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुणा हैं, उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी परस्पर तुल्य और विशेषाधिक हैं, उनसे विभंगज्ञानी असंख्यात गुणा हैं, उनसे केवलज्ञानी अनंत गुणा हैं, उनसे मति अज्ञानी और श्रुतअज्ञानी अनंत गुणा है और परस्पर तुल्य हैं। _ विवेचन - ज्ञानी और अज्ञानी का शामिल अल्पबहुत्व - १. सबसे थोड़े मनःपर्यवज्ञानी हैं २. उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुणा है ३. उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक और परस्पर तुल्य है इसका कारण उपरोक्तानुसार है ४. उनसे विभंगज्ञानी असंख्यात गुणा हैं क्योंकि देव गति और नरक गति में सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि असंख्यात गुणा कहे गये हैं और देवों और नैरयिकों में सम्यग्दृष्टि जीव अवधिज्ञानी और मिथ्यादृष्टि जीव विभंगज्ञानी होत हैं अतः असंख्यात गुणा कहा गया है ५. उनसे केवलज्ञानी अनंत गुणा है क्योंकि सिद्ध भगवान् अनन्त हैं ६. उनसे मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी अनन्त गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्त गुणा हैं और वे मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी हैं तथा स्वस्थान की अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं। || दसवां ज्ञान द्वार समाप्त॥ ११. ग्यारहवां दर्शन द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं चक्खुदंसणीणं अचक्खुदंसणीणं ओहिदंसणीणं केवलदसणीणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - संयत द्वार ३३३ ****************************************************************** * ************* गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा ओहिदसणी, चक्खुदंसणी असंखिज गुणा, केवलदंसणी अणंत गुणा, अचक्खुदंसणी अणंत गुणा ॥११ दारं॥१८०॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव अवधिदर्शनी हैं, उनसे चक्षुदर्शनी असंख्यात गुणा हैं, उनसे केवलदर्शनी अनंत गुणा हैं, उनसे अचक्षुदर्शनी अनंत गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - दर्शन किसे कहते हैं ? उत्तर - "दृश्यन्ते श्रद्धीयन्ते ज्ञायन्ते वा जीवाजीवादयः पदार्था अनेन अस्माद् अस्मिन् वा इति दर्शनम्।" अर्थ - संस्कृत में "दृशिर प्रेक्षणे" धातु है। इस धातु से दर्शन शब्द बनता है। जिसकी व्युत्पत्ति ऊपर दी गयी है। जिससे जीव अजीव आदि पदार्थ सामान्य रूप से जाने जाते हैं अथवा जीव आदि पदार्थों पर श्रद्धा की जाती है उसे दर्शन कहते हैं। ज्ञान द्वार समाप्त हुआ अब दर्शन द्वार कहते हैं - सबसे थोड़े अवधिदर्शनी हैं क्योंकि देव, नैरयिक और कितनेक संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों को अवधिदर्शन होता है, उनसे चक्षुदर्शनी असंख्यात गुणा हैं क्योंकि सभी देव, नैरयिक, गर्भज मनुष्य, संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों को चक्षुदर्शन होता है, उनसे केवलदर्शनी अनन्त गुणा हैं, क्योंकि सिद्ध भगवान् अनन्त हैं, उनसे अचक्षुदर्शनी अनन्त गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकाय सिद्ध भगवन्तों से भी अनन्त गुणा हैं। ||ग्यारहवां दर्शन द्वार समाप्त॥ १२. बारहवां संयत द्वार एएसिणं भंते! जीवाणं संजयाणं असंजयाणं संजयासंजयाणं णोसंजय णोअसंजय णोसंजयासंजयाणं च कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?.. गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा संजया, संजयासंजया असंखिज गुणा, णोसंजय णोअसंजय णोसंजयासंजया अणंत गुणा, असंजया अणंत गुणा॥१२ दारं॥१८१॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन संयत, असंयत, संयतासंयत और नो-संयत-नो-असंयत-नो संयतासंयत जीवों में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? १२ For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव संयत हैं, उनसे संयतासंयत असंख्यातगुणा हैं, उनसे नो संयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत अनंत गुणा हैं और उनसे भी असंयत अनंत गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - हे भगवन् ! संयत (संजय) किसको कहते हैं ? उत्तर - "सम् एकीभावेन यतः संयतः। संयच्छति स्म सर्वसावद्ययोगेभ्यः सम्यग् उपरमते स्म इति संयतः। संस्कृत में "यम् उपरमे" धातु है। जिसका अर्थ होता है निवृत्त होना। इस धातु से संयत शब्द बनता है। जिसका प्राकृत में संजय शब्द बन जाता है। इसकी व्युत्पत्ति ऊपर दे दी गयी है जिसका अर्थ होता है कि जो सर्व सावद्य योगों से अर्थात् अठारह ही पापों से निवृत्त हो जाता है उसे संयत कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में संयत, असंयत, संयतासंयत और नो संयत-नो असंयत-नो संयता-संयत की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। सबसे थोड़े संयत-सर्व विरति वाले जीव हैं, क्योंकि वे उत्कृष्ट हजार करोड़ पृथक्त्व प्रमाण होते हैं कहा भी है - 'कोडिसहस्सपुहुत्तं मणुयलोए संजयाणं" - मनुष्य लोक में संयत कोटि सहस्र पृथक्त्व प्रमाण होते हैं। उनसे संयतासंयत-देश विरति वाले असंख्यात गुणा हैं क्योंकि असंख्यात तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में भी देश विरति संभव है। उनसे नो संयत-नो असंयत-नो संयतासंयत अनन्त गुणा हैं क्योंकि सिद्ध भगवन्तत अनन्त हैं। उनसे असंयतविरति रहित जीव अनन्त हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्त गुणा हैं। ॥ बारहवां संयत द्वार समाप्त॥ १३. तेरहवां उपयोग द्वार एएसिणं भंते! जीवाणं सागारोवउत्ताणं अणागारोवउत्ताणं च कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अणागारोवउत्ता, सागारोवउत्ता संखिज गुणा ॥१३ दारं॥१८२॥ __ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन साकारोपयोग वाले और अनाकारोपयोग वाले जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव अनाकार उपयोग वाले हैं, उनसे साकार उपयोग वाले संख्यात गुणा हैं। - विवेचन - प्रश्न - हे भगवन् ! उपयोग किसको कहते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - आहार द्वार ३३५ ******* *- *-*-*-*-*-*-*-*-* * * * * * * * * ************* ********** उत्तर - "उपयोजनम् उपयोगः। उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवः अनेन इति उपयोगः।" ____ अर्थ - संस्कृत में "युजिर् योगे" धातु है। जिसका अर्थ है जोड़ना इससे योग शब्द बनता है। "उप्" उपसर्ग लगाने से उपयोग शब्द बनता है। प्राकृत में "उवओग" शब्द बन जाता है। जिसका अर्थ है वस्तु तत्त्व को जानने के लिए जीव जिसके द्वारा प्रेरित किया जाता है उसको उपयोग कहते हैं। उपयोग जीव का स्वभाव है जैसा कि-उत्तराध्ययन सूत्र के अट्ठाईसवें अध्ययन में कहा है "जीवो उवओग लक्खणो।" यही बात तत्त्वार्थ सूत्र में कही गयी है 'उपयोगः लक्षणं जीवस्य' जिसके दो भेद हैं - साकार उपयोग और अनाकार उपयोग। ज्ञानोपयोग को साकार उपयोग कहते हैं और दर्शनोपयोग को अनाकार उपयोग कहते हैं। साकार उपयोग के आठ भेद हैं - पांच ज्ञान और तीन अज्ञान और अनाकार उपयोग के चार भेद हैं - चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन। ___ संयत द्वार समाप्त हुआ अब उपयोग द्वार कहते हैं - अनाकार-दर्शन उपयोग काल सबसे थोड़ा है और उससे साकार उपयोग-ज्ञानोपयोग काल संख्यात गुणा है अतः अनाकारोपयोग वाले सबसे थोड़े हैं क्योंकि प्रश्न के समय वे थोड़े ही होते हैं उनसे साकारोपयोग वाले संख्यात गुणा हैं क्योंकि साकारोपयोग का काल लंबा होता है अतः प्रश्न समय वे बहुत होते हैं। || तेरहवां उपयोग द्वार समाप्त॥ १४. चौदहवां आहार द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं आहारगाणं अणाहारगाणं च कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अणाहारगा, आहारगा असंखिज गुणा॥ १४ दारं॥१८३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन आहारक और अनाहारक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अनाहारक जीव हैं, उनसे आहारक जीव असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - हे भगवन्! आहार किसे कहते हैं ? उत्तर - "आहरणम् आहारः। अथवा आह्रियते परिगृह्यते जीव इति आहारः।" अर्थ - जीवों के द्वारा जो पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं उसको आहार कहते हैं। आहार के तीन भेद हैं - ओज आहार, रोम आहार और कवलाहार (प्रक्षेपाहार या ग्रास आहार)। For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ************************************************************** ********* wittentitra......... प्रज्ञापना सूत्र प्रस्तुत सूत्र में आहारक, अनाहारक जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है। सबसे थोड़े अनाहारक जीव हैं क्योंकि विग्रह गति को प्राप्त हुए जीव आदि ही अनाहारक होते हैं। कहा भी है - विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहया अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा॥ - विग्रह गति को प्राप्त हुए जीव, समुद्घात प्राप्त केवली, अयोगी केवली और सिद्ध भगवान् अनाहारक होते हैं शेष सभी जीव आहारक होते हैं। अतः आहारक जीव असंख्यात गुणा हैं। शंका - आहारक जीवों में वनस्पतिकायिक जीव भी हैं और वे सिद्धों से अनन्त गुणा हैं तो फिर अनाहारक से आहारक अनंत गुणा क्यों नहीं कहे गये हैं ? समाधान - सभी सूक्ष्म निगोद मिल कर भी असंख्यात ही हैं और उनमें अन्तर्मुहूर्त समय प्रमाण सूक्ष्म निगोद हमेशा विग्रह गति में होते हैं अत: अनाहारक भी बहुत हैं और वे सर्व राशि के असंख्यातवें भाग जितने हैं, अत: उनकी अपेक्षा आहारक जीव असंख्यात गुणा ही हैं, अनन्त गुणा नहीं। . ॥चौदहवां आहार द्वार समाप्त ॥ १५. पन्द्रहवां भाषक द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं भासगाणं अभासगाणं च कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा भासगा, अभासगा अणंत गुणा॥१५ दारं॥१८४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन भाषक और अभाषक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े भाषक जीव हैं उनसे अभाषक जीव अनन्त गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - भाषक किसे कहते हैं? उत्तर - "भाषते इति भाषक: भाषा लब्धि सम्पन्न भाषकः" अर्थ - जो बोलता है उसे भाषक कहते हैं अथवा जो जीव भाषा लब्धि संपन्न हैं वे भाषक कहलाते हैं। . प्रश्न - अभाषक किसे कहते हैं ? उत्तर - जो जीव भाषा लब्धि से रहित हैं वे अभाषक कहलाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - परित्त द्वार ३३७ * ********************** **************************************************************** __सबसे थोड़े जीव भाषक हैं क्योंकि बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव भाषकबोलने की शक्ति वाले हैं, उनसे अभाषक-एकेन्द्रिय जीव अनंत गुणा हैं क्योंकि एकेन्द्रिय में वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्त हैं इसलिये भाषकों से अभाषक जीव अनन्त गुणा कहे गये हैं। ॥ पन्द्रहवां भाषक द्वार समाप्त॥ १६. सोलहवां परित्त द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं परित्ताणं अपरित्ताणं णोपरित्तणोअपरित्ताणं च कयरे कयरेहिंतो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा परित्ता, णोपरित्तणोअपरित्ता अणंत गुणा, अपरित्ता अणंत गुणा॥१६ दारं॥१८५॥ ___ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन परित्त, अपरित्त और नो परित्त-नो अपरित्त जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े परित्त जीव हैं, उनसे नोपरित्त-नोअपरित्त जीव अनंत गुणा हैं, उनसे भी अपरित्त जीव अनन्त गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - परित्त शब्द की व्युत्पत्ति क्या है ? उत्तर - "परिसमन्तात इत: गतः इति परित्त।" जिसने संसार परिमित कर लिया है उसे परित्त संसारी कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त जीवों की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है। यहाँ परित्त शब्द अल्पार्थक है। परित्त का सामान्य अर्थ है - परिमित या सीमित। परित्त के दो भेद हैं - १. भव परित्त - शुक्लपाक्षिक बनने के बाद जिन्होंने एक बार भी समकित प्राप्त कर ली है वे जीव भव परित्त कहलाते हैं इन्हें संसार परित्त भी कहा जाता है। प्रश्न - शुक्लपाक्षिक किसको कहते हैं? उत्तर - जेसिमवडो पोग्गल-परियट्टो होइ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिए पुण कण्ह पक्खिया। अर्थ - जिन जीवों का संसार परिभ्रमण अर्धपुद्गल परावर्तन बाकी रह गया है, उनको शुक्लपाक्षिक कहते हैं और जिनका संसार परिभ्रमण अर्धपुद्गल परावर्तन से अधिक है उनको कृष्ण पाक्षिक कहते हैं। अतः यहाँ परित्त शब्द का अर्थ यह है कि वर्तमान सम्यग्दृष्टि जीव और प्रतिपतित For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ प्रज्ञापना सूत्र ****** **************-*-*-**-*-**-********************************************************* जीव और २. काय परित्त - जिनके अल्प काय-शरीर है यानी एक शरीर है ऐसे प्रत्येक शरीरी जीव काय परित्त कहलाते हैं। दोनों प्रकार के परित्त जीव सबसे थोड़े हैं क्योंकि वर्तमान सम्यग्दृष्टि जीव और प्रतिपतित जीव तथा प्रत्येक शरीरी जीव अन्य जीवों की अपेक्षा बहुत कम हैं उनसे नोपरित्त-नोअपरित्त जीव अनंत गुणा है क्योंकि परित्त और अपरित्त से रहित सिद्ध जीव अनन्त हैं, उनसे अपरित्त जीव अनन्त गुणा हैं क्योंकि २३ दण्डक (वनस्पति के सिवाय) के अनादि मिथ्यादृष्टि जीव और साधारण वनस्पतिकायिक जीव सिद्ध भगवन्त से अनन्त गुणा हैं। ॥ सोलहवां परित्त द्वार समाप्त॥ १७. सतरहवां पर्याप्त द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं णोपजत्तगाणोअपज्जत्तगाणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा णोपजत्तगाणोअपजत्तगा, अपजत्तगा अणंत गुणा, पज्जत्तगा संखिज गुणा॥१७ दारं॥१८६॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नो-पर्याप्तक नो-अपर्याप्तक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव हैं, उनसे अपर्याप्तक अनन्त गुणा हैं और उनसे भी पर्याप्तक जीव संख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक किसको कहते हैं? उत्तर - "पर्याप्त एवं पर्याप्तकः। पर्याप्तिनामकर्मोदयात् निज-निज पर्याप्तियुक्तः।" अर्थ - पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से जिस जीव ने अपने योग्य सब पर्याप्तियों को बांध लिया है उसे पर्याप्तक कहते हैं। प्रश्न - पर्याप्ति किसको कहते हैं ? उत्तर - "आहारादि पुद्गलग्रहण परिणमनहेतु आत्मनः शक्तिविशेषः, स च पुद्गलोपचयात् उपजायते। किमुक्तं भवति? उत्पत्ति देशभाग गतेन प्रथमं ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां तथा अन्येषामपि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तसतत्सम्पर्कतस्तद् रूपतया जातानां यः शक्तिविशेषः आहारादि पुद्गलखलरस रूपता आपादन हेतु यथा उदरान्तर गतानां पुद्गल विशेषाणां आहार पुद्गल खल रस रूपता परिणमन हेतु सा पर्याप्तिः।" For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तीसरा बहुवक्तव्यता पद - सूक्ष्म द्वार ३३९ ************************************************************************************ अर्थ :- आहार आदि पुद्गलों को ग्रहण कर उनके परिणमन का हेतु आत्मा की शक्ति विशेष को पर्याप्ति कहते हैं। वह पुद्गलों के उपचय से होती है इसका आशय यह है कि जीव जब उत्पत्ति स्थान में पहुंचता है तथा सर्व प्रथम जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है तथा दूसरे भी प्रति समय में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों को खल, रस आदि रूप परिणमाने की शक्ति विशेष को पर्याप्ति कहते हैं। प्रश्न - पर्याप्ति के कितने भेद हैं? उत्तर - पर्याप्ति के छह भेद हैं यथा - आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति (प्राणापाण पर्याप्ति), भाषा पर्याप्ति और मन पर्याप्ति। जिस जीव को जितनी पर्याप्तियाँ बांधना होता है उतनी पर्याप्तियाँ पूरी बांध लेने के बाद वह पर्याप्तक कहलाता है। एकेन्द्रिय जीव के पहले की चार पर्याप्तियाँ होती हैं, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और असन्नी पंचेन्द्रिय के भाषा पर्याप्ति तक पांच पर्याप्तियाँ होती हैं और सन्नी पंचेन्द्रिय के छहों पर्याप्तियाँ होती है। अपने बांधने योग्य पर्याप्तियों से कम बांधे तब तक वह जीव अपर्याप्तक कहलाता है। परित्त द्वार के बाद अब पर्याप्तक द्वार कहते हैं - सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नो अपर्याप्तक जीव हैं क्योंकि पर्याप्ति और अपर्याप्ति से रहित सिद्ध जीव थोड़े हैं, उनसे अपर्याप्तक जीव अनंत गुणा हैं क्योंकि साधारण वनस्पतिकायिक और सक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों के असंख्याता शरीर (औदारिक) होते हैं। जिन्हें निगोद कहा जाता है उन निगोदों में हर एक निगोद शरीर में सिद्धों से अनन्तगुणे जीव होते हैं। ऐसे सभी निगोदों का एक असंख्यातवाँ भाग अर्थात् असंख्याता निगोद शरीरवर्ती जीव हमेशा विग्रह गति में वर्तते हुए मिलते ही है और वे सभी अपर्याप्तक होते हैं। वे जीव सिद्धों से अनन्तगुणे होते हैं। उनसे पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। यहाँ सबसे अधिक जीव सूक्ष्म हैं और सूक्ष्म जीव में सदैव अपर्याप्तक से पर्याप्तक संख्यात गुणा होते हैं अत: संख्यात गुणा कहा है। ॥ सतरहवां पर्याप्त द्वार समाप्त॥ १८. अठारहवां सूक्ष्म द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं सुहुमाणं बायराणं णोसुहुमणोबायराणं च कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा णोसुहुमणोबायरा, बायरा अणंत गुणा, सुहुमा असंखिज गुणा॥१८ दारं॥१८७॥ For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ************ प्रज्ञापना सूत्र ******************* ******* भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन सूक्ष्म, बादर और नो-सूक्ष्म नो-बादर जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव नो-सूक्ष्म नो-बादर हैं, उनसे बादर अनंत गुणा हैं, उनसे सूक्ष्म असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - सूक्ष्म किसे कहते हैं ? उत्तर - सूक्ष्म नाम कर्मोदयात् सूक्ष्मः । पृथ्विव्यादिषु एकेन्द्रियेषु।" अर्थ - जो जीव सूक्ष्म नाम कर्म को वेदते हैं, वे सूक्ष्म कहलाते हैं। सूक्ष्म भेद सिर्फ पृथ्वीकाय आदि पांच एकेन्द्रिय जीवों में ही होता है। पर्याप्त द्वार के बाद अब सूक्ष्म द्वार कहते हैं - सबसे थोड़े जीव नो-सूक्ष्म नो-बादर यानी सिद्ध हैं क्योंकि वे सूक्ष्म जीव राशि और बादर जीव राशि के अनंतवें भाग में हैं उनसे बादर जीव अनन्तगुणा हैं क्योंकि बादर निगोद के जीव सिद्ध भगवंतों से भी अनन्त गुणा हैं, उनसे सूक्ष्म जीव असंख्यात गुणा हैं क्योंकि बादर निगोद की अपेक्षा सूक्ष्म निगोद असंख्यात गुणा हैं। ॥ सूक्ष्म द्वार समाप्त॥ १९. उन्नीसवां संज्ञी द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं सण्णीणं असण्णीणं णोसण्णी णोअसण्णीणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा सण्णी, णोसण्णी णोअसण्णी अणंतगुणा, असण्णी अणंत गुणा॥१९ दारं॥१८८॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन संज्ञी, असंज्ञी और नोसंजी-नोअसंज्ञी जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव संज्ञी हैं, उनसे नोसंजी-नोअसंज्ञी जीव अनन्त गुणा हैं और उनसे असंज्ञी जीव अनन्त गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - संज्ञी किसे कहते हैं ? उत्तर - *"संज्ञानं संज्ञा भूत भवत् भावी भाव स्वभाव पर्यालोचनम्। तत् विद्यते यस्य स संज्ञी। अथवा विशिष्ट स्मरणादि रूप मनोविज्ञान सहित इन्द्रिय पंचक समन्वितः प्राणी।" अर्थ - जिससे अवबोध हो उसे संज्ञा कहते हैं। जिस प्राणी में संज्ञा हो उसे संज्ञी (सन्नी) कहते हैं। तीनों काल सम्बन्धी जिसे ज्ञान हो उसे संज्ञी कहते हैं। अथवा विशिष्ट स्मरण प्रत्यभिज्ञान आदि रूप For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - भवसिद्धिक द्वार सूत्र मनोविज्ञान सहित जो पंचेन्द्रिय प्राणी हैं उन्हें संज्ञी कहते हैं । वाचकमुख्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ द्वितीय अध्याय में कहा है- "संज्ञिनः समनस्का । " अर्थात् - जो मन सहित हैं वे संज्ञी कहलाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में संज्ञी, असंज्ञी और नो- संज्ञी नो-असंज्ञी जीवों की अल्पबहुत्व का वर्णन किया गया है। सबसे थोड़े जीव संज्ञी हैं क्योंकि मन वाले जीव ही संज्ञी होते हैं, उनसे नो-संज्ञी नो-असंज्ञी जीव अनन्त गुणा हैं क्योंकि संज्ञी और असंज्ञी से रहित ऐसे सिद्ध जीव संज्ञी से अनंत गुणा हैं। उनसे असंज्ञी अनन्त गुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव सिद्ध भगवन्तों से अनन्त गुणा हैं। ***************** ॥ उन्नीसवां संज्ञी द्वार समाप्त ॥ २०. बीसवां भवसिद्धिक द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं भवसिद्धियाणं अभवसिद्धियाणं णोभवसिद्धिया णोअभवसिद्धियाणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अभवसिद्धिया, णोभवसिद्धिया णोअभवसिद्धिया अनंत गुणा, भवसिद्धियां अनंत गुणा ॥ २० दारं ॥ १८९ ॥ भावार्थ - प्रश्न हे भगवन्! इन भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक-नोअभव - सिद्धिक जीवों में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव अभवसिद्धिक हैं, उनसे नो भवसिद्धिक-नो अभवसिद्धिक जीव अनंत गुणा हैं, उनसे भवसिद्धिक जीव अनंत गुणा हैं। विवेचन प्रश्न भव सिद्धिक किसको कहते हैं ? - उत्तर " भवे भवैर्वा सिद्धिर् यस्स असौ भवसिद्धिकः । भविष्यती इति भवा भाविनी सा सिद्धिर् निर्वृत्ति यस्य स भवसिद्धिकः । " अर्थ - एक भव में या कुछ अनेक भवों में जिसकी सिद्धि अवश्य है उसको भवसिद्धिक कहते हैं। भवसिद्धिक की दूसरी व्युत्पत्ति जो लिखी है उसका भी अर्थ यही है कि जिन जीवों के सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त करने की योग्यता होती है। उनको भवसिद्धिक कहते हैं । भवसिद्धिक का दूसरा नाम 44 'भव्य" भी है जिसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है - " भवितुं योग्यः भव्यः । " अर्थ - जो सिद्धि (मोक्ष) जाने के योग्य है उसे भव्य (भवी) कहते हैं । भवसिद्धिक से विपरीत ३४१ * * * * * * * * * * * ******** - For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ प्रज्ञापना सूत्र ********************************************** ********************* *************** अभव सिद्धिक शब्द बनता है जिसका अर्थ है - जो जीव कभी भी सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त नहीं करेंगे उन्हें अभवसिद्धिक (अभव्य-अभवी) कहते हैं। नोट - भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक के विषय में जयन्ती श्राविका ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्रश्न किये हैं और भगवान् ने उत्तर दिये हैं उन प्रश्नोत्तरों का वर्णन भगवती सूत्र के बारहवें शतक के दूसरे उद्देशक में है। प्रश्नोत्तर बड़े रोचक हैं विशेष जिज्ञासुओं को वहाँ अवश्य देखना चाहिए। संज्ञी द्वार कहने के बाद अब भवसिद्धिक द्वार कहते हैं - सबसे थोड़े जीव अभवसिद्धिकं अभव्य (अभवी) हैं क्योंकि वे जघन्य युक्तानंत परिमाण वाले हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में कहा है कि - "उक्कोसए परित्ताणंतए रूवे पक्खित्ते जहण्णयं जुत्ताणंतयं होइ, अभवसिद्धि या वि तत्तिया चेव" अर्थात्-उत्कृष्ट परित्तानंत में एक रूप मिलाने से जघन्य युक्तानन्त होता है और अभवसिद्धिक उतने ही हैं। उनसे नो-भवसिद्धिक नो-अभवसिद्धिक जीव अनंत गुणा हैं क्योंकि भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक दोनों से रहित सिद्ध जीव हैं और वे अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त परिमाण वाले हैं अत: अनंत गुणा हैं उनसे भी भवसिद्धिक (भव्य) जीव अनन्त गुणा हैं क्योंकि सिद्ध, एक भव्य निगोद राशि के अनंतवें भाग जितने हैं और भव्य जीव राशि की निगोद असंख्यात हैं। . ॥ बीसवां भवसिद्धिक द्वार समाप्त॥ २१. इक्कीसवां अस्तिकाय द्वार एएसि णं भंते! धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय-आगासत्थिकाय-जीवत्थिकायपोग्गलत्थिकाय-अद्धासमयाणं दवट्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए एए णं तिण्णि वि तुल्ला दव्वट्ठयाए सव्वत्थोवा, जीवत्थिकाए दवट्ठयाए अणंत गुणे, पोग्गलत्थिकाए दवट्ठयाए अणंत गुणे, अद्धासमए दव्वट्ठयाए अणंत गुणे॥१९०॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय (काल) में द्रव्यार्थ रूप से-द्रव्य की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय ये तीन द्रव्यार्थ रूप से तुल्य For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - अस्तिकाय द्वार ३४३ **************************************** ******************************************** और सबसे थोड़े हैं, उनसे जीवास्तिकाय द्रव्यार्थ रूप से अनंत गुणा हैं, उनसे पुद्गलास्तिकाय द्रव्यार्थ रूप से अनन्त गुणा हैं, उनसे अद्धा समय द्रव्यार्थ रूप से अनन्त गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - अस्तिकाय किसको कहते हैं ? उत्तर - अस्ति इति अस्ति। अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च इति भावना। अत्र अस्ति शब्दः प्रदेशवाचकः। अस्तयः प्रदेशाः तेषामं काया राशय इति अस्तिकायाः। __ अर्थ - संस्कृत में अस्ति शब्द तीन अर्थों में बनता है-- यथा “अस् भुवि" धातु से लट्लकार प्रथम पुरुष के एक वचन में "अस्ति" शब्द बनता है। जिसका अर्थ है - "होता है" अथवा "है"। अस्ति शब्द एक निपात या अव्यय है। जिसका अर्थ भी यही है अर्थात् 'है'। तीसरा अस्ति शब्द प्रदेशवाची है वह पुःलिङ्ग है और हरि शब्द के समान रूप चलते हैं। इसलिए यहाँ अस्ति शब्द का बहुवचन "अस्तयः" बनता है। जिसका अर्थ है प्रदेश। धर्मास्तिकाय आदि पांच शब्दों में "अस्ति" शब्द का प्रयोग हुआ है। जिसका अर्थ है प्रदेश अर्थात् धर्म नामक द्रव्य के प्रदेश। इसी तरह अधर्मास्ति आदि में भी समझना चाहिए। “अस्ति" अर्थात् प्रदेशों के समूह को . अस्तिकाय कहते हैं। काल के प्रदेश नहीं होते हैं वह अप्रदेशात्मक है इसलिए काल के साथ "अस्ति' शब्द नहीं लगाया गया है। अब अस्तिकाय द्वार कहते हैं - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों द्रव्य रूप से तुल्य-समान हैं क्योंकि प्रत्येक एक एक द्रव्य रूप है अत: सबसे थोड़े हैं उनसे जीवास्तिकाय द्रव्य रूप से अनन्त गुणा हैं क्योंकि जीव अनन्त हैं और प्रत्येक जीव द्रव्य है। उनसे पुद्गलास्तिकाय द्रव्य रूप से अनन्त गुणा हैं क्योंकि परमाणु और द्वि प्रदेशी स्कन्ध आदि पृथक्-पृथक् द्रव्य है, वे सामान्य रूप से तीन प्रकार के हैं -१. प्रयोग परिणत २. मिश्र परिणत और ३. विस्रसा परिणत। इनसे प्रयोग परिणत पुद्गल जीवों की अपेक्षा अनंत गुणा हैं क्योंकि प्रत्येक जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि प्रत्येक कर्म के अनन्त पुद्गल स्कंधों से व्याप्त है। उन प्रयोग परिणत पुद्गलों से मिश्र परिणत पुद्गल द्रव्य अनन्त गुणा हैं, उनसे विस्रसा परिणत-स्वभाव से परिणमित पुद्गल द्रव्य अनन्त गुणा हैं। भगवती सूत्र में भी कहा है - "सव्वत्थोवा पुग्गला पयोगपरिणया, मीस परिणया अणंत गुणा, वीससा परिणया अणंत गुणा". . प्रश्न - प्रयोग परिणत, मिश्र परिणत और विस्रसा परिणत किसे कहते हैं ? उत्तर - पुद्गल के तीन भेद हैं। जो प्रश्न में बताये गये हैं। उनका लक्षण इस प्रकार है - प्रयोगपरिणता जीव व्यापारेण तथाविधपरिणतिं उपनीता यथा पटादिषु कर्मादिषु वा। For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ प्रज्ञापना सूत्र ********************************************************************** ********** * ___ अर्थ - जीव के प्रयोग (क्रिया करने) से होने वाले पुद्गल के परिणमन को प्रयोग परिणत कहते हैं जैसे कि जीव के द्वारा कपड़ा, घट (घड़ा) आदि बनाये जाते हैं अथवा जीव द्वारा आठ प्रकार के कर्म पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं। वे पुद्गल प्रयोग परिणत कहलाते हैं। प्रयोगविश्रसाभ्यां परिणताः, यथा पटपुद्गला एव प्रयोगेण पटतया, विश्रसा परिणामेण च आभोगे पि पुराणतया इति। ___ अर्थ - विस्रसा का अर्थ है स्वाभाविक। जीव के प्रयोग से और स्वाभाविक रूप से परिणमन होना मिश्र परिणत कहलाता है। जैसे कि जीव के प्रयोग (व्यापार क्रिया) द्वारा कपड़ा बनाया जाता है। वह कपड़ा विस्रसा परिणाम के द्वारा पुराना बनता है। इसे मिश्र परिणत कहते हैं।' विश्रसास्वभावतः तत् परिणता अभ्रेन्द्रधनुःआदिवत् इति। अर्थ - स्वभाव से परिणत पुद्गलों को विस्रसा परिणत कहते हैं। जैसे कि आकाश में इन्द्र धनुष का होना तथा सायंकाल सन्ध्या फूलना अर्थात् सायंकाल के समय आकाश लाल हो जाना। इस विषय में हिन्दी कवि ने भी कहा है - जीव गहिया सो पओगसा, मिस्सा जीवा रहित। विश्रसा हाथ आवे नहीं, जिनवर वाणी तहत॥ अर्थात् - जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए पुद्गल प्रयोग परिणत कहलाते हैं। मिश्र पुद्गल जीव रहित होते हैं। विस्रसा पुद्गल ग्रहण नहीं किये जाते हैं अर्थात् वे पकड़े भी नहीं जाते हैं। सबसे थोड़े पुद्गल प्रयोग परिणत हैं उनसे मिश्र परिणत अनन्त गुणा हैं और उनसे विस्रसा परिणत अनन्त गुणा हैं। अतः जीवास्तिकाय से पुद्गलास्तिकाय द्रव्य रूप से अनन्त गुणा हैं। उनसे अद्धासमय-काल भी द्रव्यार्थ रूप से अनंत गुणा हैं क्योंकि एक ही परमाणु के भविष्यकाल में द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक यावत् दशप्रदेशिक, संख्यात प्रदेशिक, असंख्यात प्रदेशिक और अनन्त प्रदेशिक स्कंधों के साथ परिणत होने के कारण ही एक परमाणु के भावी संयोग अनन्त हैं और पृथक् पृथक कालों में होने वाले वे अनंत संयोग केवलज्ञान से ही जाने जा सकते हैं। जैसे एक परमाणु के अनन्त संयोग होते हैं वैसे द्विप्रदेशी स्कंध आदि सर्व परमाणुओं के प्रत्येक के अनन्त अनन्त संयोग भिन्न-भिन्न कालों में होते हैं। ये सब परिणमन मनुष्य लोक (क्षेत्र) के अन्तर्गत होते हैं। इसलिये क्षेत्र की दृष्टि से एक-एक परमाणु के भावी संयोग अनन्त हैं। जैसे यह परमाणु अमुक आकाश प्रदेश में एक समय की स्थिति वाला, दो समय की स्थिति वाला इस प्रकार एक परमाणु के एक आकाश प्रदेश में असंख्यात भावी संयोग होने वाले हैं वैसे ही सर्व आकाश प्रदेश में भी प्रत्येक के असंख्यात भावी संयोग तथा बारंबार उन आकाश प्रदेशों में परमाणु की परावृति होने से और काल अनन्त होने से काल से अनंत भावी संयोग होते हैं। जैसे एक परमाणु के अनंत संयोग होते हैं वैसे ही सर्व परमाणुओं के तथा सभी For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - अस्तिकाय द्वार ३४५ Halak * * * *************************************************** *************** द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों के अनन्त भावी संयोग होते हैं तथा भाव से भी अमुक परमाणु अमुक समय एक गुण काला होता है। इस प्रकार एक परमाणु के अलग-अलग समय में अनंत संयोग होते हैं जैसे एक परमाणु के वैसे ही सभी परमाणुओं के और सभी द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों के भाव से अलग-अलग अनंत भावी संयोग होते हैं। इस प्रकार एक परमाणु के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विशेष के संबंध से अनन्त भावी समय केवलज्ञानियों द्वारा जाने हुए हैं। जैसा एक परमाणु के विषय में है वैसा ही सब परमाणुओं एवं द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों के संबंध में भी समझ लेना चाहिये। यह सब परिणमनशील काल के बिना और परिणामी पदगलास्तिकाय के बिना घटित नहीं हो सकता। कहा है - संयोग पुरस्कारश्च नाम भाविनि ही युज्यते काले। न हि संयोग पुरस्कारो ह्यसतां केषांचिदुपपन्नः॥ - भविष्य में होने वाले संयोग भविष्य काल हो तब ही घटित हो सकते हैं परन्तु किसी के मत से भी (पुद्गल आदि और काल) अविद्यमान हो तो भावी संयोग घटित नहीं हो सकते। जैसे सभी परमाणुओं के और सभी द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों के प्रत्येक के द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव विशेष के संबंध से अनन्त भावी अद्धा समय होते हैं उसी प्रकार अतीत (भूत) समय भी सिद्ध होते हैं। अतः द्रव्य रूप से पुद्गलास्तिकाय से अनन्त गुण अद्धा समय-काल है। इस प्रकार द्रव्य की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा है। एएसि णं भंते! धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय-आगासत्थिकाय-जीवत्थिकायपोग्गलत्थिकाय-अद्धासमयाणं पएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए एए णं दोवि तुल्ला पएसट्ठयाए सव्वत्थोवा, जीवत्थिकाए पएसट्ठयाए अणंत गुणे, पोग्गलत्थिकाए पएसट्टयाए अणंत गुणे, अद्धासमए पएसट्ठयाए अणंत गुणे, आगासत्थिकाए पएसट्ठयाए अणंत गुणे॥१९१॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय और अद्धा समय इन द्रव्यों में प्रदेशार्थ रूप से (प्रदेश की अपेक्षा से) कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों प्रदेशार्थ रूप से तुल्य हैं और सबसे थोड़े हैं, उनसे जीवास्तिकाय प्रदेशार्थ रूप से अनंत गुणा हैं, उनसे पुद्गलास्तिकाय प्रदेश रूप से अनंत गुणा हैं, उनसे अद्धा समय प्रदेशार्थ से अनंत गुणा हैं और उनसे आकाशास्तिकाय प्रदेशार्थ रूप से अनंत गुणा हैं। For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ************************************************************************************ प्रज्ञापना सूत्र विवेचन - द्रव्य की अपेक्षा छह द्रव्यों का अल्पबहुत्व कहने के बाद प्रस्तुत सूत्र में प्रदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है - धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों प्रदेशों की अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं क्योंकि दोनों के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेश जितने हैं अतः शेष द्रव्यों की अपेक्षा इनके प्रदेश सबसे थोड़े हैं। उनसे जीवास्तिकाय प्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा हैं क्योंकि जीव द्रव्य अनन्त हैं और प्रत्येक जीव के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर है। लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात होते हैं इसी तरह एक जीव के प्रदेश भी लोकाकाश के जितने असंख्यात होते हैं। उनसे भी पुद्गलास्तिकाय प्रदेशार्थ रूप से अनन्त गुणा हैं यहाँ केवल कर्म स्कन्धों के प्रदेश भी सर्व जीव प्रदेशों से अनन्त गुणा है क्योंकि एक-एक जीव प्रदेश अनन्तानंत कर्म परमाणुओं से आवृत्त है तो सकल पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों के विषय में क्या कहना? अतः जीवास्तिकाय से पुद्गलास्तिकाय प्रदेशार्थ रूप से अनन्त गुणा हैं। उनसे भी अद्धा समय प्रदेशार्थ रूप से अनन्त गुणा हैं। क्योंकि एक-एक . पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश के पूर्वोक्त क्रम से उस उस द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विशेष के संबंध से अनन्त अतीत समय और अनन्त अनागत समय होते हैं। उनसे आकाशास्तिकाय प्रदेश की अपेक्षा अनंत गुणा हैं क्योंकि अलोक चारों ओर असीम और अनन्त है। अलोकाकाश की कोई सीमा (हद) नहीं है और अलोक का अन्त भी नहीं है। एयस्स णं भंते! धम्मत्थिकायस्स दव्वट्ठपएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेंसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवे एगे धम्मत्थिकाए दव्वट्ठयाए, से चेव पएसट्ठयाए असंखिज्जगुणे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इस धर्मास्तिकाय के द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़ा धर्मास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा एक है और प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा है। एयस्स णं भंते! अधम्मत्थिकायस्स दव्वट्ठपएसट्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवे एगे अधम्मत्थिकाए दव्वट्ठयाए, से चेव पएसट्टयाए असंखिज्जगुणे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इस अधर्मास्तिकाय के द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - अस्तिकाय द्वार ३४७ * ************40*** ********************* उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़ा अधर्मास्तिकाय द्रव्य रूप से एक है और प्रदेश रूप से असंख्यात गुणा है। ___एयस्स णं भंते! आगासत्थिकायस्स दव्वट्ठपएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा! सव्वत्थोवे एगे आगासत्थिकाए दव्वट्ठयाए, से चेव पएसट्टयाए अणंत गुणे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इस आकाशास्तिकाय के द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? ___उत्तर - हे गौतम! द्रव्य रूप से आकाशास्तिकाय एक है और सबसे थोड़ा है और प्रदेश रूप से अनन्त गुणा है। . एयस्स णं भंते! जीवत्थिकायस्स दवट्ठपएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवे जीवत्थिकाए दव्वट्ठयाए, से चेव पएसट्टयाए असंखिज्जगुणे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इस जीवास्तिकाय के द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? उत्तर - हे गौतम ! सबसे थोड़े जीवास्तिकाय द्रव्य रूप हैं और प्रदेश रूप से असंख्यात गुणा हैं। एयस्स णं भंते! पोग्गलत्थिकायस्स दव्वटुपएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? - गोयमा! सव्वत्थोवे पोग्गलत्थिकाए दबट्ठयाए, से चेव पएसट्ठयाए असंखिज्जगुणे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इस पुद्गलास्तिकाय में द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े पुद्गलास्तिकाय द्रव्य रूप है और प्रदेशार्थ रूप से असंख्यात गुणा हैं। अद्धासमए ण पुच्छिज्जइ, पएसाभावा॥१९२॥ - अद्धा समय (काल) के संबंध में प्रश्न नहीं पूछा जाता क्योंकि उसमें प्रदेशों का अभाव है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रत्येक द्रव्य की द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा से प्रत्येक द्रव्य का अल्प बहुत्व कहा गया है। सबसे अल्प धर्मास्तिकाय द्रव्य रूप है क्योंकि वह एक है और प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं क्योंकि उसके प्रदेश लोकाकाश के प्रदेश जितने हैं। धर्मास्तिकाय की तरह ही For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ****************************************************************** ***************** प्रज्ञापना सूत्र अधर्मास्तिकाय की अल्पबहुत्व समझना चाहिए । आकाशास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा सबसे अल्प है क्योंकि वह एक है और प्रदेश की अपेक्षा अनंत गुणा हैं, क्योंकि वह अपरिमित है । जीवास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा सबसे अल्प है और प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा क्योंकि प्रत्येक जीव के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर है। पुद्गलास्तिकाय द्रव्य रूप से सबसे अल्प हे क्योंकि प्रदेशों से द्रव्य थोड़े ही होते हैं प्रदेशों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय असंख्यात गुणा हैं। शंका - लोक में अनन्त प्रदेशी पुद्गल स्कंध बहुत हैं अतः पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा प्रदेशों से अनन्त गुणा होना चाहिए ? समाधान - अनन्त प्रदेशी स्कंध थोड़े हैं और परमाणु आदि अत्यधिक है। कहा भी है " सव्वत्थोवा अणतपएसिया खंधा दव्वट्टयाए, परमाणुपोग्गला दव्वट्टयाए अनंत गुणा संखिज्जपएसिया खंधा दव्वट्टयाए संखिज्जगुणा, असंखिज्जपएसिया खंधा दव्वट्टयाए असंखिज्ज गुणा" द्रव्य की अपेक्षा अनंत प्रदेशी स्कंध सबसे थोड़े हैं, उनसे परमाणु पुद्गल द्रव्य रूप से, अनंत गुणा है उनसे संख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्य रूप से संख्यात गुणा है उनसे असंख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा है। अतः जब समस्त पुद्गलास्तिकाय का प्रदेश की अपेक्षा से विचार किया जाता है तब अनंत प्रदेशी स्कंध अत्यंत कम और परमाणु अत्यधिक तथा पृथक् पृथक् द्रव्य होने से असंख्य प्रदेशी स्कंध परमाणुओं की अपेक्षा असंख्यात गुणा है अतः प्रदेशों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय असंख्यात गुणा ही हो सकता है, अनन्त गुणा नहीं । अद्धा समय (काल) के विषय में द्रव्यार्थ और प्रदेशार्थ रूप से प्रश्न नहीं किया क्योंकि काल के प्रदेश नहीं होते। इसका कारण यह है कि अद्धा समय परस्पर निरपेक्ष है, स्कंध के समान परस्पर सापेक्ष द्रव्य नहीं है। क्योंकि जब वर्तमान समय होता है तब अतीत और अनागत समय नहीं होता । अतएव उसमें स्कन्ध रूप परिणाम का अभाव है। स्कंध के अभाव के कारण अद्धा समय में प्रदेश नहीं होते हैं। एएसि णं भंते! धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय - आगासत्थिकाय - जीवत्थिकायपोग्गलत्थिकाय-अद्धासमयाणं दव्वट्टपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए एए तिण्णि वि तुल्ला दव्वट्ठयाए सव्वत्थोवा, धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए य एएसि णं दोण्णि वितुल्ला पसट्टयाए असंखिज्ज गुणा, जीवत्थिकाए दव्वट्टयाए अनंत गुणे, से चेव पएसट्टयाए असंखिज्ज गुणे, पोग्गलत्थिकाए दव्वट्टयाए अनंत गुणे, से चेव परसट्टयाए असंखिज्ज - For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९ तीसरा बहुवक्तव्यता पद -चरम द्वार *************************************************************************** ******* गुणे, अद्धासमए दव्वट्ठऽपएसट्टयाए अणंत गुणे, आगासत्थिकाए पएसट्ठयाए अणंत गुणे॥२१ दारं॥१९३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय में द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! १. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीन द्रव्य की अपेक्षा से परस्पर तुल्य और सबसे थोड़े हैं और २. उनसे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों प्रदेशों की अपेक्षा परस्पर तुल्य तथा असंख्यात गुणा है, ३. उनसे जीवास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा अनन्त गुणा है और ४. प्रदेश रूप से असंख्यात गुणा है, ५. उनसे पुद्गलास्तिकाय-द्रव्य की अपेक्षा अनन्त गुणा है और ६. प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात गुणा है ७. उनसे अद्धा समय द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त गुणा है और ८. उससे भी आकाशास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त गुणा है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से छह द्रव्यों का शामिल अल्पबहुत्व कहा गया है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, ये तीन द्रव्य रूप से तुल्य हैं और सबसे थोड़े हैं क्योंकि प्रत्येक एक-एक द्रव्य है उससे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात गुणा है और स्वस्थान की अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं। उससे जीवास्तिकाय द्रव्य रूप से अनन्त गुणा हैं क्योंकि जीव द्रव्य अनन्त हैं। वही जीवास्तिकाय प्रदेश रूप से असंख्यात गुणा हैं क्योंकि प्रत्येक जीव के असंख्यात प्रदेश होते हैं। प्रदेश रूप से जीवास्तिकाय से पुद्गलास्तिकाय द्रव्य रूप से अनन्त गुणा हैं, क्योंकि जीव के एक-एक प्रदेश पर अनन्त ज्ञानावरणीय आदि कर्म पुदगल स्कन्ध लगे हुए हैं, उनसे पुद्गलास्तिकाय प्रदेश रूप से असंख्यात गुणा है। इसका कारण पूर्व में कहे अनुसार समझना चाहिये। प्रदेशों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय से अद्धासमय-द्रव्यार्थ और अप्रदेशार्थ रूप से अनन्त गुणा है। इसका कारण भी पूर्व में कहे अनुसार समझना चाहिए। उनसे आकाशास्तिकाय प्रदेशार्थ रूप से अनंत गुणा हैं क्योंकि उसका सर्व दिशाओं में अन्त नहीं है और अद्धा समय मात्र मनुष्य क्षेत्र में ही होता है। इस प्रकार अस्तिकाय द्वार का कथन हुआ। ॥इक्कीसवां अस्तिकाय द्वार समाप्त॥ २२. बाईसवां चरम द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं चरिमाणं अचरिमाणं च कयरे कयरेहितो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा, चरिमा अणंत गुणा॥२२ दारं॥१९४॥ For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० प्रज्ञापना सूत्र *************** ***************************** ***** * * *** ** ** ***************** भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन चरम और अचरम जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अचरम जीव हैं, उनसे चरम जीव अनन्त गुणा हैं। विवेचन - जिन जीवों के द्वारा संसार का अन्त किया जाना संभव है। वे चरम कहलाते हैं अथवा चरम अर्थात् भव्य जीव जो निश्चित मोक्ष जाने की योग्यता वाले हैं। अचरम (चरम भव के अभाव वाले) अथवा अभव्य जीव अचरम हैं। सिद्ध भी अचरम कहलाते हैं क्योंकि उनका चरम भव (शेष) नहीं है। चरम और अचरम जीवों की अल्पबहुत्व का कथन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि सबसे कम अचरम जीव हैं क्योंकि अभव्य जीव तो जघन्य युक्त अनन्त जितनी निश्चित राशि वाले हैं और सिद्ध जीव अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त परिमाण वाले हैं उनसे चरम शरीरी भव्य जीव अनन्त गुणा हैं क्योंकि वे अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त परिमाण वाले हैं। नोट :- श्री पण्णवणा सूत्र के तीसरे पद में बाईस द्वार का वर्णन है। उसका बासठिया भी हैं। प्रश्न - एक सौ दो बोल कौन से हैं ? उत्तर - जीव के ६ भेद, गति के ८, इन्द्रिय के ७, काया के ८, योग के ५, वेद के ५, कषाय के ६, लेश्या के ८, दृष्टि के ३, सम्यक्त्व के ५, ज्ञान के ७, दर्शन के ४, संयम के ९, उपयोग के २, आहारक के २, भाषक के २, परित्त के ३, पर्याप्तक के ३, सूक्ष्म के ३, संज्ञी के ३, भव्य के ३ और चरम के २ इन सब को मिलाने पर एक सौ चार बोल होते हैं। परन्तु थोकड़ा वाले एक सौ दो बोल ही लेते हैं उनकी क्या विवक्षा है यह तो ज्ञात नहीं होता किन्तु शायद ऐसा हो सकता है कि यहाँ समुच्चय जीव का एक बोल और सम्यक्त्व द्वार में सम्यग्दृष्टि का भेद नहीं बताकर पांच सम्यक्त्व और मिथ्यात्व तथा मिश्र ये ७ भेद करके दृष्टि और सम्यक्त्व द्वार दोनों को एक सम्यक्त्व द्वार ही कर दिया गया है। तब एक सौ दो बोल ठीक बैठ जाते हैं। पण्णवणा सूत्र के तीसरे पद में यद्यपि सत्ताईस बोलों पर विचार किया गया है, परन्तु थोकड़ा वालों ने बाईस बोल ही लिये हैं यह उनकी अपनी विवक्षा है। प्रश्न - इसको बासठिया क्यों कहते हैं ? उत्तर - इस प्रत्येक बोल पर इकसठ बातों का विचार किया गया है वे इकसठ बोल इस प्रकार हैं। जीव के १४ भेद, गुणस्थान १४, योग १५, उपयोग १२ और लेश्या ६। ये सब मिलकर इकसठ ल होते हैं। जिस एक बोल पर ये घटित किये जाते हैं. वह एक बोल लिया जाता है। इस प्रकार बासठ बोल हो जाते हैं। जैसे कि मनुष्य में जीव के तीन भेद, गुणस्थान चौदह, योग पन्द्रह, उपयोग बारह और लेश्या छह। इसी प्रकार सब बोलों पर घटा लेना चाहिए। ॥ बाईसवां चरम द्वार समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - जीव द्वार ३५१ २३. तेईसवां जीव द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं पोग्गलाणं अद्धासमयाणं सव्वदव्वाणं सव्वपएसाणं सव्वपजवाणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा, पोग्गला अणंत गुणा, अद्धासमया अणंत गुणा, सव्वदव्वा विसेसाहिया, सव्वपएसा अणंत गुणा, सव्वपज्जवा अणतं गुणा॥ २३ दारं॥१९५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन जीवों, पुद्गलों, अद्धा-समयों, सर्वद्रव्यों, सर्वप्रदेशों और सर्वपर्यायों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव हैं, उनसे पुद्गल अनन्त गुणा हैं, उनसे अद्धा समय अनन्त गुणा हैं, उनसे सर्व द्रव्य विशेषाधिक हैं, उनसे सर्व प्रदेश अनन्त गुणा हैं और उनसे सर्व पर्याय अनन्त गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - जीव किसे कहते हैं ? उत्तर-"जीवति अजीवत् जीविष्यती इति उपयोग लक्षणत्वेन त्रिकालमपि जीवनात् जीवः।" . अर्थात् - जीव का लक्षण उपयोग है ( उपयोगो लक्षणं जीवस्य) इस उपयोग लक्षण से जो जीवित रहा था, जीवित है और जीवित रहेगा उसको जीव कहते हैं। जीव चाहे हलकी से हलकी गति में चला जाय और यहाँ तक कि निगोद अवस्था में चला जाय वहाँ भी बहुत हलके रूप में उपयोग पाया ही जाता है। यदि उपयोग गुण न पाया जाय तो जीव का अजीव बन जाता है किन्तु ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि जीव का अजीव बन जाय। जीव अजर-अमर है और सदाकाल रहने वाला है तथा वह अनादि अनन्त है। प्रस्तुत सूत्र में जीव, पुद्गल, काल (अद्धा समय), सर्व द्रव्य, सर्व प्रदेश और सर्व पर्याय का अल्पबहुत्व कहा गया है - १. सबसे थोड़े जीव हैं २. उनसे पुद्गल अनंत गुणा हैं ३. उनसे अद्धा समय (काल) अनन्त गुणा हैं इसका कारण पूर्व में कहे अनुसार समझना चाहिये। ४. अद्धा समय से सर्व द्रव्य विशेषाधिक हैं क्योंकि पुद्गलों से जो अद्धा समय अनन्त गुणा कहा गया हैं वह प्रत्येक द्रव्य है अतः द्रव्य की प्ररूपणा में वे भी ग्रहण किये जाते हैं। साथ ही अनंत जीव द्रव्य, समस्त पुद्गल द्रव्य, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन सब का भी द्रव्य में समावेश हो जाता है और ये सभी मिल कर भी अद्धा समय के अनंतवें भाग जितने होते हैं इसलिये अद्धा समय से सर्व द्रव्य विशेषाधिक हैं। उनसे सर्व प्रदेश अनंत गुणा हैं क्योंकि आकाश अनन्त हैं, उनसे सर्व पर्यायें अनन्त गुणा हैं क्योंकि एक आकाश प्रदेश में अनन्त अगुरुलघु पर्यायें होती हैं। ॥ तेईसवां जीव द्वार समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ************************************************ खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा जीवा उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलुक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया ॥ १९६॥ प्रज्ञापना सूत्र कठिन शब्दार्थ - खेत्ताणुवाएणं- क्षेत्रानुपात - क्षेत्र की अपेक्षा से, तेलुक्के - त्रेलोक्य- तीन लोक में । भावार्थ क्षेत्र की अपेक्षा १. सबसे थोड़े जीव ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में हैं २. उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक है ३. उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं ४. उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं ५. उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं ६. उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं । - - विवेचन प्रश्न क्षेत्र (खेत्त) किसको कहते हैं ? उत्तर - " क्षियन्ति निवसन्ति जीवा अजीवाश्च इति क्षेत्रम् । " अर्थात् संस्कृत में "क्षि निवासगत्योः " धातु है । इससे क्षेत्र शब्द बनता है। जिसका अर्थ है निवास करना और गति करना । निष्कर्ष यह हुआ कि जहाँ पर जीव और अजीव निवास करते हैं और गमनागमन आदि क्रिया करते हैं उसे क्षेत्र कहते हैं । यहाँ क्षेत्र शब्द से लोक विवक्षित है। लोक के तीन विभाग हैं-अधोलोक, तिर्यक्लोक (तिर्च्छा) और ऊर्ध्वलोक । परन्तु यहाँ सूत्रकार ने किसी अपेक्षा से लोक के छह विभाग कर दिये हैं । अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के बीच में तिर्च्छा लोक आया हुआ है। वह अठारह सौ योजन का ऊँचाई वाला है। समतल भूमि भाग अर्थात् रुचक प्रदेशों से नौ सौ योजन नीचे और नौ सौ योजन ऊपर इस प्रकार अठारह सौ योजन की मोटाई वाला तिच्र्च्छा लोक है। तिर्च्छा लोक का सबसे नीचे का प्रतर अधोलोक के सब से ऊपर से प्रतर का स्पर्श करता है उसे अधोलोक तिर्यक्लोक यहाँ विवक्षित किया गया है। तिर्च्छा लोक का सबसे ऊपर का प्रतर ऊर्ध्व लोक के सब से नीचे के तर स्पर्श करता है इसलिये इसको यहाँ ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक विवक्षित किया गया है। तथा तीनों लोकों की सम्मिलित विवक्षा की जाय तो त्रिलोक विवक्षित किया गया है। यह विवक्षा मरकर अन्य गति में जाते हुए जीव की अपेक्षा से की गयी है । प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र के छह भेद कर उनकी अपेक्षा से अल्पबहुत्व बताया गया है। छह भेद ये हैं१. ऊर्ध्वलोक २. अधोलोक ३. तिर्यक्लोक (तिरछा लोक) ४. ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक ५. अधोलोकतिर्यक्लोक और ६. त्रिलोक (तीन लोक) । - ********************************* २४. चौबीसवां क्षेत्र द्वार - प्रश्न- ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक किसे कहते हैं ? उत्तर सम्पूर्ण लोक चौदह रज्जु परिमाण है। उसके तीन विभाग हैं। For Personal & Private Use Only १. ऊर्ध्वलोक Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - क्षेत्र द्वार ३५३ ********************************************* ****** ****** *** * *** २. तिर्यक्लोक (मध्यलोक) और ३. अधोलोक। तीन लोक का यह विभाग मेरु पर्वत के ठीक बीचोबीच में रहे हुए रुचक प्रदेशों की अपेक्षा है। मेरु पर्वत एक हजार योजन भूमि में है और ९९ हजार योजन भूमि के ऊपर है भूमि पर १०,००० योजन का चौड़ा है। चारों तरफ से ५०००-५००० योजन तक अन्दर जाने पर उसका मध्य भाग आता है उस मध्य भाग भूमि के समतल के मेरु प्रदेश में आठ रुचक प्रदेश रहे हुए हैं। इन रुचक प्रदेशों के ९०० योजन नीचे अधोलोक है और रुचक प्रदेशों के ९०० योजन ऊपर ऊर्ध्वलोक है। ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के बीच अठारह सौ योजन प्रमाण तिर्यक् लोक है। ऊर्ध्वलोक का प्रमाण सात रन्जु से कुछ कम है और अधोलोक का प्रमाण सात रज्जु से कुछ अधिक है। रुचक प्रदेशों से ९०० योजन ऊपर तिर्यक लोक का अन्तिम एक आकाश प्रदेश का प्रतर तिर्यक्लोक प्रतर है और इसके ऊपर का ऊर्ध्वलोक के नीचे ही नीचे का एक आकाश प्रदेश का प्रतर ऊर्ध्वलोक प्रतर है। इन दोनों प्रतरों का सम्मिलित नाम ऊर्ध्वलोक तिर्यकलोक है। प्रश्न - अधोलोक-तिर्यक्लोक किसे कहते हैं ? उत्तर - अधोलोक के ऊपर ही ऊपर का एक आकाश प्रदेश का प्रतर अधोलोक प्रतर है और तिर्यक्लोक के नीचे ही नीचे का एक आकाश प्रदेश का प्रतर तिर्यक्लोक प्रतर है। इन दोनों प्रतरों का सम्मिलित नाम अधोलोक-तिर्यक्लोक है। ____ अल्प बहुत्व - सबसे थोड़े जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं क्योंकि तिर्यक्लोक से ऊर्ध्वलोक में और ऊर्ध्वलोक से तिर्यक्लोक में उत्पन्न होने वाले जीव तधा इन दोनों प्रतरों में रहने वाले जीव ही यहाँ ग्रहण किये गये हैं। ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में उत्पन्न होने वाले जीव यद्यपि इन दोनों प्रतरों का भी स्पर्श करते हैं पर वे यहाँ ग्रहण नहीं किये गये हैं इसलिये सबसे थोड़े हैं। उनसे अधोलोकतिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं क्योंकि अधोलोक से तिर्यक्लोक में और तिर्यक्लोक से अधोलोक में उत्पन्न होने वाले जीव अधोलोक प्रतर और तिर्यक्लोक प्रतर दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं और इन दोनों प्रतरों में रहने वाले जीव यहाँ ग्रहण किये गये हैं। अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले जीव यद्यपि इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं पर उन्हें यहाँ नहीं गिना गया है। क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक का क्षेत्र अधिक है इसलिए ऊर्ध्वलोक की अपेक्षा अधोलोक से तिर्यक्लोक में अधिक जीव उत्पन्न होते हैं अतः अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक कहे गये हैं। उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक-तिर्यक्लोक क्षेत्र से तिर्यक्लोक का क्षेत्र असंख्यात गुणा अधिक होने से तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा कहे गये हैं। उनसे त्रिलोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि विग्रह गति में मारणांतिक समुद्घात कर ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में और अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले जीव ही यहाँ ग्रहण किये गये हैं जो तिर्यक्लोक की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा जीव हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक में उपपात क्षेत्र अधिक है। उनसे अधोलोक में जीव For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ प्रज्ञापना सूत्र ************* * ***** *** * ********* *** * विशेषाधिक हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक का विस्तार विशेष है इसलिए अधोलोक में विशेषाधिक कहे गये हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा णेरड्या तेलोक्के, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए असंखिजगुणा॥१९७॥ ___ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े नैरयिक त्रिलोक में हैं, उनसे अधोलोक तिर्यग्लोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे भी अधोलोक में असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र की अपेक्षा नरक गति के जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है - सबसे थोड़े नैरयिक जीव तीन लोक में हैं - तीन लोक का स्पर्श करने वाले हैं। शंका - नैरयिक जीव तीनों लोकों को स्पर्श करने वाले कैसे हो सकते हैं क्योंकि वे तो अधोलोक में हैं तथा वे सबसे अल्प क्यों हैं ? ___समाधान - मेरु पर्वत के शिखर पर अथवा अंजन, दधिमुख आदि पर्वतों के शिखर पर रही हुई वापिकाओं (बावडियों) में रहने वाले जो मत्स्य आदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच नरक में उत्पन्न होने वाले हैं वे मरण समय में ईलिका गति से अपने आत्म-प्रदेशों को उत्पत्ति स्थान तक फैलाते हैं और तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं और उस समय वे नारक ही कहलाते हैं क्योंकि तत्काल ही उन की उत्पत्ति नरक में होने वाली होती है और वे नरकायु का वेदन करने वाले होते हैं ऐसे नैरयिक थोड़े ही होते हैं अतः त्रिलोक स्पर्शी नैरयिक सबसे कम कहे गये हैं। ___ तीन लोक का स्पर्श करने वाले नैरयिकों से अधोलोक तिर्यक् लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक् लोक के असंख्यात द्वीप समुद्रों में रहे हुए पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव नरक में उत्पन्न होते हुए अधोलोक और तिर्यक् लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। मेरु पर्वत आदि के क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात द्वीप समुद्र रूप क्षेत्र असंख्यात गुणा हैं अत: वहाँ से नरक में उत्पन्न होने वाले जीव भी असंख्यात गुणा हैं। उनसे अधोलोक में असंख्यात गुणा है क्योंकि अधोलोक में नैरयिकों के रहने का स्थान ही है। इस प्रकार नरक गति की अपेक्षा क्षेत्र के अनुसार अल्पबहुत्व कहा गया है। विशेष ज्ञातव्य - यहाँ पर नैरयिक जीवों की अल्प बहुत्व में क्षेत्र की अपेक्षा तीन भेद ही किये गये हैं। क्योंकि नरक में उत्पद्यमान (उत्पन्न होने वाले) ऊर्ध्वलोक एवं तिर्यंच लोक में रहे हुए जीव पहले तिर्यग् (तिरछा) विग्रह (मोड़) नहीं करते हैं। ऊर्ध्व या अधो विग्रह को करने से नैरयिक जीव तिर्यग् लोक और ऊर्ध्वलोक में नहीं मिलते हैं। यदि पहले तिर्यग् विग्रह करे तो ऊर्ध्वलोक और तिर्यग् लोक में मिल सकते हैं परन्तु स्वभाव से ही वे जीव ऐसी विग्रह गति नहीं करते हैं ऐसी संभावना है। अतः ऊर्ध्व और अधो विग्रह ही करने से क्षेत्र के शेष तीन भेदों (१ ऊर्ध्व लोक तिर्यग् लोक, २ For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - क्षेत्र द्वार ३५५ ****************************************** ******************** *************** तिर्यग्लोक, ३ ऊर्ध्व लोक) में नैरयिक जीव नहीं मिलते हैं। नैरयिक जीव समुद्घात आदि अवस्थाओं में भी स्वस्थान को नहीं छोड़ते हैं। इसलिए उपयुक्त तीन भेद ही बनते हैं, शेष तीन नहीं बनते हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणिया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिजगुणा, उड्ढलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाओ तिरिक्खजोणिणीओ उड्डलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणाओ, तेलोक्के संखिजगुणाओ, अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणाओ, अहोलोए संखिजगुणाओ, तिरियलोए संखिजगुणाओ॥१९८॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े तिर्यंच ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोकतिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़ी तिर्यंच स्त्रियाँ ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणी हैं, उनसे त्रिलोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं। विवचन - प्रस्तुत सूत्र में तिर्यंच गति की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है। इस अल्पबहुत्व का विचार सामान्य जीव सूत्र के अनुसार समझना चाहिए क्योंकि सामान्य जीवों का अल्पबहुत्व तिर्यंचों की अपेक्षा ही कहा गया है। _तिर्यंच स्त्री का अल्पबहुत्व इस प्रकार है - क्षेत्र की अपेक्षा तिर्यंच योनिक स्त्रियाँ सबसे थोड़ी ऊर्ध्वलोक में हैं क्योंकि मेरु पर्वत, अंजनगिरि आदि पर्वतों की बावड़ियों में तिर्यंच स्त्रियाँ होती हैं और वह क्षेत्र अल्प होने से तिर्यंच स्त्रियाँ थोड़ी हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणी हैं क्योंकि सहस्रार देवलोक तक के देव और अन्य जीव भी ऊर्ध्वलोक से तिर्यक्लोक में तिर्यंच पंचेन्द्रिय स्त्री रूप में आयुष्य वेदते हुए उत्पन्न होते हैं। तिर्यक्लोक में रहने वाली तिर्यंच स्त्रियाँ ऊर्ध्वलोक में देव रूप से अन्य काय में उत्पन्न होते समय मारणांतिक समुद्घात से उत्पत्ति स्थान पर अपने अपने आत्म प्रदेश रूपी दंड का विस्तार करते हैं वे भी पूर्वोक्त दो प्रतरों का स्पर्श करते हैं इसलिए वे तिर्यंच स्त्रियाँ असंख्यात गुणी हैं क्योंकि क्षेत्र असंख्यात गुणा हैं, उनसे त्रिलोक में तिर्यंच स्त्रियाँ संख्यात गुणी हैं क्योंकि भवनपति, वाणव्यंतर, नैरयिक तथा अन्य जीव अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में तिर्यंच स्त्री रूप से उत्पन्न होते हुए तथा ऊर्ध्वलोक के देव आदि भी अधोलोक में तिर्यंच स्त्री रूप से उत्पन्न होते हुए मारणांतिक समुद्घात कर तीनों लोक का स्पर्श करते हैं अतः वे संख्यात गुणी हैं। उनसे अधोलोक, For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ प्रज्ञापना सूत्र ******* तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं क्योंकि बहुत से नैरयिक आदि जीव समुद्घात के अलावा भी तिर्यक्लोक में तिर्यंच स्त्री रूप से उत्पन्न होते हैं और तिर्यक्लोक में रहे हुए जीव तिर्यंच योनिक स्त्री रूप से अधोलौकिक ग्रामों (सलिलावती विजय और वप्रा विजय) में उत्पन्न होते हुए अधोलोक तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं तथा कई तिर्यंचस्त्रियाँ इन दोनों प्रतरों में रहती हैं अतः ये संख्यात गुणी हैं। उनसे अधोलोक में संख्यात गुणी हैं क्योंकि अधोलौकिक ग्राम और समुद्र १००० योजन गहरे हैं उनमें ९०० योजन तिर्यक्लोक में और १०० योजन अधोलोक में है यहाँ मछली आदि बहुत सी तिर्यंच स्त्रियाँ हैं, यह उनका स्वस्थान हैं तथा क्षेत्र भी संख्यात गुणा हैं इसलिये संख्यात गुणी कही हैं उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं क्योंकि तिर्यक्लोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं वहाँ तिर्यंच स्त्रियाँ बहुत हैं इसलिए संख्यात गुणी कही गयी है। यह तिर्यंच गति की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा मणुस्सा तेलोक्के, उड्डलोयतिरियलोए असंखिज गुणा, अहोलोयतिरियलोए संखिज गुणा, उड्ढलोए संखिज गुणा, अहोलोए संखिज गुणा, तिरियलोए संखिज गुणा। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाओ मणुस्सीओ तेलोक्के, उड्डलोयतिरियलोए संखिजगुणाओ, अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणाओ, उड्डलोए संखिजगुणाओ, अहोलोए संखिजगुणाओ, तिरियलोए संखिज्जगुणाओ॥१९९॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े मनुष्य तीन लोक में (तीन लोक का स्पर्श करने वाले) हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़ी मनुष्य स्त्रियाँ तीन लोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में संख्यातगुणी हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणी हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में मनुष्य गति की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है - मनुष्य और मनुष्य स्त्रियाँ सबसे थोड़ी त्रिलोक में हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक (अधोलौकिक ग्रामों) में उत्पन्न होते हुए मारणांतिक समुद्घात करते हुए तथा केवली समुद्घात करते हुए वे तीनों लोक का स्पर्श करते हैं वे थोड़े हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में मनुष्य असंख्यात गुणा हैं और मनुष्य स्त्रियाँ संख्यात गुणी हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक से वैमानिक देव तथा एकेन्द्रियादि मनुष्य में उत्पन्न होते हुए दोनों ऊर्ध्वलोक तिर्यक् For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - क्षेत्र द्वार ********************************************** pahetatitiott २८. १०.....३५७ i . . लोक के प्रतरों का स्पर्श करते हैं। विद्याधर भी मेरु पर्वत पर जाते हैं उनके शुक्र रुधिर आदि पुद्गलों में बहुत सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। विद्याधर जब इन पुद्गलों के साथ जाते हैं तब सम्मूर्छिम मनुष्य भी इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। तिर्यक्लोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले मनुष्य अन्त समय में मारणान्तिक समुद्घात कर आत्म-प्रदेशों को ऊर्ध्वलोक में फैला देते हैं उस समय भी दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं इसलिए अधिक हैं। उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक के गांवों में स्वभावतः बहुत मनुष्य हैं। तिर्यक्लोक से मनुष्य एवं अन्य काय के जीव मर कर जब इन अधोलोक के गांवों में गर्भज और सम्मूर्छिम मनुष्य रूप से उत्पन्न होते हैं तो अधोलोक तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। इसी तरह अधोलोक के गांवों (सलिलावती विजय और वप्रावती विजय) से तथा नरक भवनपति आदि से तिर्यक्लोक में गर्भज और सम्मूर्छिम मनुष्य होकर उत्पन्न होते हैं तो इन दोनों प्रतरों को स्पर्श करते हैं। अधोलौकिक ग्रामों में कई मनुष्य स्वस्थान से भी इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अत: संख्यात गुणा हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि मेरु पर्वत पर विद्याधर कीड़ा निमित्त जाते हैं तथा चारण मुनि भी जाते हैं उनके शुक्र रुधिर आदि पुद्गलों में बहुत सम्मूछिम मनुष्य उत्पन्न हो सकते हैं अतः संख्यात गुणा हैं। उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं। क्योंकि अधोलोक में सलिलावती विजय और वप्रावती विजय है जो मनुष्यों का स्वस्थान है अतः संख्यात गुणा हैं। उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक का क्षेत्र संख्यात गुणा हैं। अढ़ाई द्वीप मनुष्य स्त्रियों का स्वस्थान हैं अतः संख्यात गुणा हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा उड्डलोए उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के संखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए संखेजगुणा, अहोलोए संखिजगुणा, तिरियलोए संखिज गुणा। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाओ देवीओ उद्दलोए, उडलोयतिरियलोए असंखिजगुणाओ, तेलोक्के संखिजगुणाओ, अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणाओ, अहोलोए संखिजगुणाओ, तिरियलोए संखिजगुणाओ॥२००॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े देव ऊर्ध्वलोक में हैं उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे त्रिलोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे भी तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। " क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़ी देवियाँ ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणी हैं, उनसे त्रिलोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणी हैं और उनसे भी तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं। For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************* *********************** 'विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र की अपेक्षा समुच्चय देव और देवियों का अल्पबहुत्व कहा गया है - सबसे थोड़े देव ऊर्ध्वलोक में हैं क्योंकि वैमानिक देव सबसे कम हैं। उनसे ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि ये दोनों प्रतर ज्योतिषी देवों के समीप हैं इसलिए उनके स्वस्थान हैं तथा भवनपति, वाणव्यंतर और ज्योतिषी देव मेरु पर्वत आदि पर जाते हैं, सौधर्म आदि कल्पों के देव स्व स्थान में आते जाते हैं और जो सौधर्म आदि कल्पों में देव रूप से उत्पन्न होने की योग्यता वाले हैं और देवाय का वेदन कर रहे होते हैं वे अपने उत्पत्ति स्थान पर जाते हैं तो पर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अत: ऊर्ध्वलोक से ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में देव असंख्यात गुंणा हैं। उनसे तीन लोक का स्पर्श करने वाले देव संख्यात गुणा हैं क्योंकि भवनपति , वाणव्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक देव और तथारूप प्रयत्न विशेष से जब वैक्रिय समुद्घात करते हैं तब तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं तथा मारणांतिक समुद्घात के द्वारा एवं उपपात के प्रथम समय में भी तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं। अतः ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक से त्रिलोक में संख्यात गुणा देव कहे गये हैं। उनसे अधोलोक . तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा है क्योंकि ये दोनों प्रतर भवनपति और वाणव्यंतर देवों के नजदीक होने से स्वस्थान हैं तथा बहुत से भवनपति देव अपने भवन में रहते हुए भी तिर्यक्लोक में गमनागमन करते हैं, मृत्यु के समय, वैक्रिय समुदघात करते हुए अथवा तिर्यकलोक में रहने वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, भवनपति में उत्पन्न होते हुए और भवनपति की आयु का वेदन करते हुए पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं और वे बहुत है अतः संख्यात गुणा कहे गये हैं। उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं, क्योंकि वह भवनपति देवों का स्वस्थान है, उनसे तिर्यक् लोक में संख्यात गुणा है क्योंकि तिर्यक्लोक ज्योतिषी और वाणव्यंतर देवों का स्वस्थान हैं। देवों की तरह ही देवियों का अल्पबहुत्व समझन लेना चाहिये। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा भवणवासी देवा उड्डलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के संखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, तिरियलोए असंखिजगुणा, अहोलोए असंखिजगुणा।। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाओ भवणवासिणीओ देवीओ उड्वलोए, उड्डूलोयतिरियलोए असंखिजगुणाओ, तेलोक्के संखिजगुणाओ, अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणाओ, तिरियलोए असंखिजगुणाओ, अहोलोए असंखिजगुणाओ। भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े भवनवासी देव ऊर्ध्वलोक में है। उनसे ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा, उनसे अधोलोक में असंख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से सबसे थोड़ी भवनवासिनी देवियाँ ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - क्षेत्र द्वार ३५९ * * * * * * ** * * * ** * * ********************************************************* तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणी हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणी हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणी हैं और उनसे अधोलोक में असंख्यात गुणी हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भवनपति देवों का और देवियों का क्षेत्र की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा ' गया है - भवनपति देव-देवी सबसे थोड़े ऊवलोक में हैं क्योंकि भवनपति देव-देवियाँ पहले की मित्रता के कारण सौधर्मादि देवलोक में जाते हैं, तीर्थंकरों के जन्म महोत्सव पर मेरुपर्वत पर जाते हैं, क्रीड़ा निमित्त भी ये मेरु पर्वत पर जाते हैं, अंजनगिरि दधिमुख पर्वत पर भी जाते हैं फिर भी ये थोड़े हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक में रहे हुए भवनपति देव और देवी वैक्रिय समुद्घात कर ऊर्ध्वलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। तिर्यक्लोक में रहे हुए मारणान्तिक समुद्घात कर ऊर्ध्वलोक में बादर पृथ्वीकायादि में उत्पन्न होते हुए भी ये उक्त; दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। वैक्रिय समुद्धात करते हुए तथा क्रीड़ा स्थान पर जाते आते दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। उनसे त्रिलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक में रहे हुए पंचेन्द्रिय तिर्यंच भवनपति में उत्पन्न होते हुए उपपात के प्रथम समय में तीनों लोक का स्पर्श करते हैं। भवनपति देव भी मारणान्तिक समुद्घात करते हुए तीनों लोक का स्पर्श करते हैं अत: संख्यात गुणा हैं। उनसे अधोलोक तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक में गमनागमन करते हुए तथा समुद्घात करते हुए पति देव अधोलोक और तिर्यकलोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। तिर्यकलोक के तिर्यंच और मनुष्य मर कर भवनपति देव में उत्पन्न होते हुए इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अतः असंख्यात गुणा हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा है क्योंकि समवसरण में वंदना निमित्त तथा तीर्थंकर के पंच कल्याणक के अवसर पर भवनपति देव तिर्यक्लोक में आते हैं तथा रमणीय द्वीपों में भवनपति देव क्रीड़ा निमित्त आते हैं तथा वहीं पर चिर काल तक रहते हैं अतः असंख्यात गुणा है। उनसे अधोलोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक भवनपति देवों का स्वस्थान हैं अत: असंख्यात गुणा है। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वाणमंतरा देवा उड्डलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के संखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, अहोलोए असंखिजगुणा, तिरियलोए संखिजगुणा। . खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाओ वाणमंतरीओ देवीओ उड्डलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणाओ, तेलोक्के संखिजगुणाओ, अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणाओ, अहोलोए संखिजगुणाओ, तिरियलोए संखिजगुणाओ। भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े वाणव्यंतर ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० प्रज्ञापना सूत्र ********************************************************************* ************* में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़ी वाणव्यंतर देवियाँ ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणी हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक में असंख्यात गुणी हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र की अपेक्षा वाणव्यंतर देव और देवियों का अल्प-बहुत्व कहा गया है- सबसे थोड़े वाणव्यंतर देव ऊर्ध्वलोक में हैं क्योंकि तीर्थंकर भगवान् के जन्म महोत्सव पर वाणव्यंतर देव मेरु पर्वत पर जाते हैं तथा कुछ देव पण्डक वन आदि में जाते हैं अत: ऊर्ध्वलोक में सबसे थोड़े हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा होते हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक के दोनों प्रतर कई व्यन्तर देव-देवियों के अपने स्थान के अन्दर हैं, कई देव देवियों के अपने स्थान के नजदीक हैं। मेरु पर्वत आदि पर जाते आते भी व्यन्तर देव देवियाँ इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। ऊर्ध्वलोक के मच्छ कच्छ आदि मर कर व्यन्तर जाति के देव देवियों में उत्पन्न होते हुए इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। उनसे त्रिलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक या अधोलोक में गये हुए व्यंतर देव देवी ऊर्ध्वलोक अथवा अधोलोक में उत्पन्न होने वाले अन्त समय में मारणान्तिक समुद्घात कर तीनों लोक का स्पर्श करते हैं जो पहले से बहुत अधिक हैं अत: संख्यात गुणा हैं। उनसे अधोलोकतिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक-तिर्यक्लोक के दोनों प्रतर कई व्यन्तर देव देवियों का स्वस्थान है इसलिए इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करने वाले बहुत हैं। नीचे लोक के मच्छ कच्छ आदि तिर्यक्लोक में व्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हुए इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक के ग्रामों में व्यन्तर देवों के अपने स्थान हैं तथा क्रीड़ा निमित्त भी अधोलोक में जाते हैं। तीर्थंकर भगवान् के दर्शनार्थ भी व्यन्तर देव और देवी अधोलोक में जाते हैं। उनसे तिर्यक् लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक व्यन्तर देव और देवियों का स्वस्थान हैं इसलिए वहाँ संख्यात गुणा हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा जोइसिया देवा उड्डलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के संखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, अहोलोए संखिजगुणा, तिरियलोए असंखिजगुणा। __खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाओ जोइसिणीओ देवीओ उड्डलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणाओ, तेलोक्के संखिजगुणाओ, अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणाओ, अहोलोए संखिज्जगुणाओ, तिरियलोए असंखिज्जगुणाओ॥ For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - क्षेत्र द्वार ३६१ ********************************************** ************************************* भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े ज्योतिषी देव ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़ी ज्योतिषी देवियाँ ऊर्ध्वलोक में है, उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणी हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणी हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में ज्योतिषी देव और देवियों का क्षेत्र की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है जो इस प्रकार है - सबसे थोड़े ज्योतिषी देव और देवियाँ ऊर्ध्वलोक में हैं क्योंकि कुछ ज्योतिषी देव मेरु पर्वत पर तीर्थंकर भगवान् के जन्म महोत्सव पर जाते हैं तथा कई क्रीड़ा निमित जाते हैं अत: सबसे थोड़े हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक जाते आते हुए इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। दोनों प्रतरों का स्पर्श करने वाले ये ज्योतिषी देव देवी पूर्वोक्त से असंख्यात गुणा है। उनसे त्रिलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि मारणांतिक समुद्घात कर ज्योतिषी देव और देवी तीन लोक का स्पर्श करते हैं जो स्वभावतः बहुत होते हैं अत: संख्यात गुणा हैं। उनसे अधोलोक तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि समवसरणादि निमित्त व क्रीड़ा निमित्त अधोलोक के ग्रामों में जाते हुए ज्योतिषी देव अधोलोक-तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। अधोलोक से ज्योतिषियों में उत्पन्न होने वाले जीव भी इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अतः असंख्यात गुणा हैं। उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक में क्रीडा निमित ज्योतिषी देव और देवी दीर्घकाल तक रहते हैं तथा अधोलोक के गांवों में समवसरण आदि में रहते हैं इसलिये संख्यात गुणा हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं। क्योंकि तिर्यक्लोक ज्योतिषी देवों का अपना स्वस्थान है अतः वहां असंख्यात गुणा. हैं। ___ खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वेमाणिया देवा उड्डलोयतिरियलोए, तेलोक्के संखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा, अहोलोए संखिजगुणा, तिरियलोए संखिजगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा। - खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाओ वेमाणिणीओ देवीओ उड्डलोयतिरियलोए, तेलोक्के संखिज्जगुणाओ, अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणाओ, अहोलोए संखिजगुणाओ, तिरियलोए संखिजगुणाओ, उड्डलोए असंखिजगुणाओ॥२०१॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोडे वैमानिक देव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं। For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ प्रज्ञापना सूत्र *a ****************************************************************** strate** ** ** * * * * * * क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़ी वैमानिक देवियाँ ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं उनसे अधोलोक में संख्यात गुणी हैं उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं और उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणी हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वैमानिक देव और देवियों का क्षेत्रानुसार अल्पबहुत्व कहा गया हैसबसे थोड़े वैमानिक देव और देवी ऊर्ध्वलोक -तिर्यक्लोक में हैं क्योंकि तिर्यक्लोक के मनुष्य और तिर्यंच मर कर वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हुए ऊर्ध्वलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। तिर्यक्लोक में गमनागमन करते हुए वैमानिक देव और देवी भी इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। इन दोनों प्रतर में रहे हुए क्रीड़ा स्थान पर गये हुए तथा तिर्यक्लोक में रह कर वैक्रिय तथा मारणान्तिक समुद्घात करते हुए वैमानिक देव और देवी इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं इसलिए सबसे थोड़े हैं। उनसे त्रिलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि मारणान्तिक समुद्घात कर ऊर्ध्वलोक से 'अधोलोक में में उत्पन्न होते हए वैमानिक देव और देवी तीनों लोकका स्पर्श करते हैं अतः त्रिलोक में संख्यात गुणा हैं। उनसे अधोलोक तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में समवसरणादि निमित्त जाते आते हुए तथा इन दोनों प्रतरों में स्थित समवसरणादि में चिरकाल तक रहते हुए अधोलोक-तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अत: संख्यात गुणा है। उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा है क्योंकि बहुत से वैमानिक देव और देवी अधोलौकिक ग्रामों में समवसरणादि में रहते हैं कारणवश भवनपति देवों के भवनों में तथा नरक में जाते हैं इसलिए संख्यात गुणा हैं। उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक में मनुष्य क्षेत्र में जघन्य २० उत्कृष्ट १७० तीर्थकर भगवान् हैं उनके पंच कल्याणक के अवसर पर तथा दर्शन निमित्त आते हैं, समवसरण में रहते हैं तथा क्रीड़ा के स्थानों में रहते हैं इसलिये संख्यात गुणा हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक वैमानिक देवों का स्वस्थान है वहाँ सदैव अधिकतर वैमानिक देव और देवी रहते हैं अत: असंख्यात गुणा हैं। विशेष ज्ञातव्य - 'ऊर्ध्वलोक तिर्यग् लोक' की अपेक्षा 'अधोलोक तिर्यग् लोक' में वैमानिक देव देवियाँ अधिक बताये हैं क्योंकि बहुत से वैमानिक देव देवियाँ अधोलोक में भवनपति देव देवियों से मिलने आदि के निमित्त से जाते हैं। (भवनपति तो प्रथम आदि देवलोक में अनन्त काल में कोई कोई ही जाते हैं) यद्यपि जाते समय ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक का स्पर्श तो होता है परन्तु अधोलोक में लम्बे काल तक रुकने से एवं वहाँ से बारबार समुद्घात आदि करते हुए अधोलोक तिर्यग् लोक का स्पर्श करते हैं। अतः इन दो प्रतरों पर अधिक देव-देवियाँ बताये हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा एगिदिया जीवा उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद क्षेत्र द्वार विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा एगिंदिया जीवा अपज्जत्तगा उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा एगिंदिया जीवा पज्जत्तगा उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया ॥ २०२ ॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े एकेन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक है। 1 क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े अपर्याप्तक एकेन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं । क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे भी अधोलोक में विशेषाधिक हैं। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्रानुसार एकेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है। एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय अपर्याप्तक एवं एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव सबसे थोड़े ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक नामक दोनों प्रतरों में है क्योंकि कई एकेन्द्रिय जीव वहाँ रहे हुए हैं और कई ऊर्ध्वलोक से तिर्यक्लोक में तथा तिर्यक्लोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले जब मारणांतिक समुद्घात करते हैं तब वे पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं वे बहुत थोड़े होते हैं। उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में विशेषाधिक है क्योंकि अधोलोक से तिर्यक्लोक में या तिर्यक्लोक से अधोलोक में ईलिका गति से उत्पन्न होने वाले एकेन्द्रिय उक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। वहाँ रहने वाले एकेन्द्रिय भी ऊर्ध्वलोक में अधोलोक में अधिक होते हैं उनसे भी अधिक अधोलोक से तिर्यक्लोक में उत्पन्न होने वाले जीव पाये जाते हैं अतः इन दोनों प्रतरों में विशेषाधिक कहे गये हैं। उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि उक्त दोनों प्रतरों के क्षेत्र से तिर्यक्लोक का क्षेत्र असंख्यात गुणा अधिक है। उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि बहुत से एकेन्द्रिय ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में और अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होते हैं ****************** - For Personal & Private Use Only ३६३ ********************** Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ प्रज्ञापना सूत्र और उनमें से बहुत से एकेन्द्रिय जीव मरण समुद्घात से आत्म प्रदेशों को दण्ड रूप फैला कर तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं अतः असंख्यात गुणा हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा है क्योंकि उनका उपपात क्षेत्र अत्यधिक है। उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक का क्षेत्र विशेषाधिक है। इसी प्रकार अपर्याप्तक और पर्याप्तक एकेन्द्रिय के विषय में समझना चाहिये । खेत्ताणुवारणं सव्वत्थोवा बेइंदिया उडूलोए, उडूलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलुक्के असंखिज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए संखिज्जगुणा, तिरियलोए संखिज्जगुणा । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा बेइंदिया अपज्जत्तगा उड्ढलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए संखिज्जगुणा, तिरियलोए संखिज्जगुणा । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा बेइंदिया पज्जत्तगा उड्ढलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए संखिज्जगुणा, तिरियलोए संखिज्जगुणा ॥ भावार्थ क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े बेइन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा अपर्याप्तक बेइन्द्रिय जीव सबसे थोड़े ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पर्याप्तक बेइन्द्रिय ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तेइंदिया उड्ढलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए संखिज्जगुणा, तिरियलोए संखिज्जगुणा । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तेइंदिया अपज्जत्तयगा उड्ढलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए संखिज्जगुणा, तिरियलोए संखिज्जगुणा । - ************************** For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद क्षेत्र द्वार खेत्ताणुवारणं सव्वत्थोवा तेइंदिया पज्जत्तयगा उड्डलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए खिज्जगुणा, तिरियलोए संखिज्जगुणा ॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े तेइन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा अपर्याप्तक तेइन्द्रिय जीव सबसे थोड़े ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पर्याप्तक तेइन्द्रिय ऊर्ध्वलोक में है, उनसे ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यातगुणा हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा चउरिंदिया जीवा उड्ढलोए, उड्ढलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए संखिज्जगुणा, तिरियलोए संखिज्जगुणा । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा चउरिंदिया जीवा अपज्जत्तया उड्ढलोए, उड्ढलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए संखिज्जगुणा, तिरियलोए संखिज्जगुणा । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा चउरिदिया जीवा पज्जत्तया उड्ढलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए संखिज्जगुणा, तिरियलोए संखिज्जगुणा ॥ २०३ ॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े चउरिन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा है, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा अपर्याप्तक चउरिन्द्रिय जीव सबसे थोड़े ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा 1 ********************* For Personal & Private Use Only ३६५ ********** ******** Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ प्रज्ञापना सूत्र क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पर्याप्तक चउरिन्द्रिय ऊर्ध्वलोक में है, उनसे ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय, अपर्याप्तक और पर्याप्तक जीवों का क्षेत्र की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है। समुच्चय तीन विकलेन्द्रिय (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय), तीन विकलेन्द्रिय के अपर्याप्तक और तीन विकलेन्द्रिय के पर्याप्तक सबसे थोड़े ऊर्ध्वलोक में हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक के एक देश में यानी मेरु पर्वत की बावडी में विकलेन्द्रिय हैं, इसलिए सबसे थोड़े हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक से तिर्यक्लोक में और तिर्यक्लोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले बेइन्द्रिय आदि विकलेन्द्रिय ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। कई विकलेन्द्रिय इन दोनों प्रतरों के क्षेत्र में रहे हुए हैं। इसलिए दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अतः असंख्यात गुणा हैं। उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक से ऊर्ध्वलोक और ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में जो विकलेन्द्रिय मारणान्तिक समुद्घात कर एकेन्द्रिय में उत्पन्न होने वाले हैं तथा जो एकेन्द्रिय आदि विकलेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने वाले हैं वे मारणान्तिक समुद्घात कर तीनों लोक का स्पर्श करते हैं । ये पहले से असंख्यात गुणा हैं। उनसे अधोलोक तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक से तिर्यक्लोक में तथा तिर्यक्लोक से अधोलोक में विकलेन्द्रिय रूप से उत्पन्न होने वाले विकलेन्द्रिय की आयु वेदते हुए ईलिका गति से उत्पन्न होते हैं वे अधोलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं तथा जो बेइन्द्रिय आदि तिर्यक्लोक से अधोलोक में और अधोलोक से तिर्यक्लोक में एकेन्द्रियादि रूप में उत्पन्न होने वाले वे पहला मारणान्तिक समुद्घात कर विकलेन्द्रिय की आयु वेदते हुए उत्पत्ति देश पर्यन्त आत्म-प्रदेशों को फैलाते हुए इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं ऐसे जीव बहुत हैं अतः असंख्यात गुणा हैं। उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं। क्योंकि विकलेन्द्रिय के उत्पत्ति स्थान अधोलोक में बहुत हैं। सभी समुद्र १००० योजन गहरे हैं। नीचे के १०० योजन अधोलोक में हैं वहाँ बहुत से विकलेन्द्रिय उत्पन्न होते हैं, अतः संख्यात गुणा हैं। विशेष ज्ञातव्य - यहाँ पर पर्याप्त अपर्याप्त की अल्पबहुत्व लब्धि पर्याप्त और लब्धि अपर्याप्त की अपेक्षा से है अतः वैक्रिय दण्डकों में पर्याप्त अपर्याप्त दो भेद नहीं किये हैं। यद्यपि तिर्यंच पंचेन्द्रिय एवं मनुष्य में भी दो भेद नहीं किये हैं फिर भी समझ लेना चाहिए। बेइन्द्रिय आदि के पर्याप्त की अपेक्षा अपर्याप्त असंख्यात गुणा होते हुए भी दोनों की अल्प बहुत्व एक समान की बनती है। किन्तु पंचेन्द्रिय के पर्याप्त अपर्याप्त की अल्प बहुत्व समान नहीं बनती है क्योंकि किन्हीं जीवों की कहीं पर बहुलता होती है तो किन्ही जीवों की अन्यत्र बहुलता होती है । त्रिलोक का स्पर्श करने वाले बेइन्द्रिय - ******* For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - क्षेत्र द्वार ३६७ ***** ************************* के पर्याप्ता और अपर्याप्ता तो असंख्यात गुणा बताये हैं परन्तु पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीव संख्यात गुणा ही बताये है क्योंकि बेइन्द्रिय तो बेइन्द्रिय के साथ संख्याता भव करने से समुद्घात वाले ज्यादा मिलते हैं परन्तु पंचेन्द्रिय पर्याप्ता तो सात आठ भव ही करते है अतः मारणांतिक समुद्घात करने वाले कम मिलने से संख्यात गुणा ही होते हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पंचिंदिया तेलोक्के, उड्डलोयतिरियलोए संखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा, उड्डलोए संखेजगुणा, अहोलोए संखिजगुणा, तिरियलोए असंखिज्जगुणा।। । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पंचिंदिया अपज्जत्तगा तेलोक्के, उड्डलोयतिरियलोए संखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा, उड्डलोए संखिजगुणा, अहोलोए संखिजगुणा, तिरियलोए असंखिजगुणा। __खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पंचिंदिया पज्जत्तगा उड्डलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के संखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा, अहोलोए संखिजगुणा, तिरियलोए असंखिजगुणा॥२०४॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय जीव तीन लोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में संख्यात गुणां हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं। ___ क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीव तीन लोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पर्याप्तक पंचेन्द्रिय ऊर्ध्वलोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्रानुसार पंचेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है - समुच्चय पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के अपर्याप्तक सबसे थोड़े तीन लोक में हैं क्योंकि अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में और ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में पंचेन्द्रिय रूप से उत्पन्न होने वाले जीव मारणान्तिक समुद्घात कर उत्पत्ति प्रदेश पर्यन्त आत्म-प्रदेशों को फैला देते हैं और तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं। वे सबसे थोड़े हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक से तिर्यक्लोक में और तिर्यक्लोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले ऊर्ध्वलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ******************* प्रज्ञापना सूत्र ********************************* करते हैं। ये जीव वैक्रिय और मारणान्तिक समुद्घात द्वारा भी दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में संख्यातगुणा हैं क्योंकि अधोलोक से तिर्यक्लोक में और तिर्यक्लोक से अधोलोक में उत्पन्न होने वाले अधोलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं तथा वैक्रिय और मारणान्तिक समुद्घात द्वारा भी दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक में वैमानिक देवों के शाश्वत स्थान हैं और मेरु पर्वत तथा अंजनादिक पर्वतों की बावड़ियों में तिर्यंच हैं अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक में चार पाताल कलश हैं, सलिलावती विजय वप्रा विजय एक-एक हजार योजन ऊँडी है तथा सभी समुद्र एक-एक हजार योजन गहरे हैं वहाँ तिर्यंच जीव बहुत अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, क्योंकि तिर्यक्लोक में तिर्यंच बहुत हैं अतः असंख्यात गुणा हैं। पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव सबसे थोड़े ऊर्ध्वलोक में हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक में प्रायः वैमानिक ही है। अतः पंचेन्द्रिय पर्याप्तक सबसे थोड़े हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक - तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों के समीप ज्योतिषी देव हैं। वैमानिक, व्यन्तर, ज्योतिषी देव विद्याधर चारण मुनि तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय ऊर्ध्वलोक से तिर्यक्लोक में और तिर्यक्लोक से ऊर्ध्वलोक में जाते आते इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अतः असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलोक में रहे हुए भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव तथा विद्याधर मारणान्तिक समुद्घात कर ऊर्ध्वलोक तक आत्म प्रदेश फैलाते हुए तीनों लोक का स्पर्श करते हैं अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, क्योंकि बहुत से वाणव्यन्तर देव अपने स्थान के समीप होने से अधोलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं । भवनपति देव अधोलोक से तिर्यक्लोक में जाते आते तथा वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव अधोलोक के ग्रामों में समवसरणादि में तथा अधोलोक में क्रीड़ा निमित्त जाते आते इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं तथा समुद्रों में कई तिर्यंच पंचेन्द्रिय अपने स्थान इन दोनों प्रतरों के समीप होने से तथा कई इन दोनों प्रतरों से आश्रित क्षेत्र में रहने से इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अतः संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा है क्योंकि अधोलोक में नैरयिक और भवनपतियों के अपने स्थान हैं अतः संख्यात गुणा है। उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक में तिर्यंच पंचेन्द्रिय-मनुष्य, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देवों के स्व स्थान हैं अतः यहाँ असंख्यात गुणा हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पुढवीकाइया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया । For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - क्षेत्र द्वार ३६९ ******************************* **************************************************** __ खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पुढवीकाइया अपज्जत्तगा उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिजगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। __ खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पुढवीकाइया पज्जत्तगा उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया॥२०५॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पर्याप्तक पृथ्वीकायिक ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोकतिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा आउकाइया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा आउकाइया अपज्जत्तया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिजगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा आउकाइया पज्जत्तया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के असंखिजगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया॥२०६॥ . भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े अप्कायिक ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में । असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० प्रज्ञापना सूत्र ** ****************** * * * * क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े अपर्याप्तक अप्कायिक ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पर्याप्तक अप्कायिक ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोकतिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तेउकाइया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के असंखिजगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तेउकाइया अपज्जत्तगा उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के असंखिजगुणा, उलूलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तेउकाइया पज्जत्तगा उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के असंखिजगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया॥२०७॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े तैजस्कायिक ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े अपर्याप्तक तैजस्कायिक ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पर्याप्तक तैजस्कायिक ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वाउकाइया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिजगुणा, तेलोक्के असंखिजगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वाउकाइया अपज्जत्तगा उड्डलोयतिरियलोए, For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद क्षेत्र द्वार - अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वाउकाइया पज्जत्तगा उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया ॥ २०८ ॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े वायुकायिक ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े अपर्याप्तक वायुकायिक ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक - तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पर्याप्तक वायुकायिक ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोकतिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया । ३७१ खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया पज्जत्तगा उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलोक्के असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया ॥ २०९ ॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े वनस्पतिकायिक ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े अपर्याप्तक वनस्पतिकायिक ऊर्ध्वलोक- तिर्यक्लोक में हैं, उनसे For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना सूत्र ३७२ ********** *********************************** *************** *************** अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पर्याप्तक वनस्पतिकायिक ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे तीन लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं और उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। विवेचन - उपरोक्त सूत्र क्रं. २०५ से २०९ तक में क्रमश: पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक इनके अपर्याप्तक और पर्याप्तक जीवों का क्षेत्र की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है। इसका स्पष्टीकरण एकेन्द्रिय सूत्र के अनुसार समझना चाहिये। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तसकाइया तेलोक्के, उड्डलोयतिरियलोए संखिजंगुणा, अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा, उड्डलोए संखिजगुणा, अहोलोए संखिजगुणा, तिरियलोए असंखिजगुणा। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तसकाइया अपजत्तगा तेलोक्के, उड्डलोयतिरियलोए संखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा, उड्डलोए संखिजगुणा, अहोलोए संखिजगुणा, तिरियलोए असंखिजगुणा। ___ खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तसकाइया पजत्तगा तेलोक्के, उड्डलोयतिरियलोय असंखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा, उड्डलोए संखिज्जगुणा, अहोलोए संखिजगुणा, तिरियलोय असंखिजगुणा॥ २४ दारं।। २१०॥ भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े त्रस जीव तीन लोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े अपर्याप्तक त्रस जीव तीन लोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में संख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पर्याप्तक त्रस जीव तीनों लोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक् लोक में संख्यात गुणा है, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा है, उनसे ऊर्ध्वलोक में संख्यात गुणा है। उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र की अपेक्षा समुच्चय त्रस, त्रस के अपर्याप्तक और त्रस के पर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व कहा गया है। त्रस एवं त्रस के अपर्याप्तक का अल्पबहुत्व समुच्चय For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - क्षेत्र द्वार ३७३ ************************************************************************************ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के अपर्याप्तक के अल्पबहुत्व के अनुसार एवं त्रस के पर्याप्तक का अल्पबहुत्व, पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक के अल्पबहुत्व के अनुसार समझना चाहिये। विशेष ज्ञातव्य - यहाँ पर तीन विकलेन्द्रिय जीवों को अधोलोक से तिर्यक् लोक में संख्यात गुणा और त्रसादि जीवों को असंख्यात गुणा बताया है। इसका कारण यह है कि यद्यपि त्रस जीवों में भी विकलेन्द्रिय जीव ही अधिक है तथापि पंचेन्द्रिय की अपेक्षा विशेषाधिक ही है। अत: विकलेन्द्रियों को जो संख्यात गुणा बताया वह बहुत बड़ा (ऊंचे दर्जे का) समझना तथा त्रसादि में जो असंख्यात गुणा बताया वह असंख्यात के प्रारम्भ का दर्जा समझना। तथा यह भी संभव है कि नीचे के पानी (अधोलोक के समुद्रों के भागों में) सम्मुछिम पंचेन्द्रिय कम होते होंगे और बीच में अर्थात् तिर्यक् लोक के समुद्र के भाग में ज्यादा होते होंगे। अतः असंख्यात गुणा हो सकता है। त्रस जीवों की त्रिलोक स्पर्शमा उपपात के प्रथम समय में ही माननी चाहिये। क्योंकि बीच में अलोक का व्याघात नहीं हो तो कोई भी जीव पहले ऊर्ध्व या अधोगति करके फिर मोड़ लेते हैं तथा त्रस जीव तो त्रसनाली में ही होते हैं। अत: उपपात के प्रथम समय में ही त्रिलोक स्पर्शना हो सकेगी। एकेन्द्रिय तो यथा संभव दूसरे तीसरे समय में भी कर सकते हैं। त्रिलोक स्पर्शना में टीकाकार तो ईलिका गति व एक समय के विग्रह गति वाले जीवों को ही ग्रहण करते हैं। परन्तु धारणानुसार ईलिका व मंडलुगति के तथा ऋजुगति व दो-तीन समयादि के वक्र गति वालों को भी यथा संभव त्रिलोक स्पर्शना में ग्रहण कर लेना चाहिए। समोहया मरण के उपपात में भी त्रिलोक की स्पर्शना हो सकती है। विदिशा से दिशा में आने पर अर्थात् ऊर्ध्वलोक की त्रस नाली से अधोलोक की त्रसनाली में आने पर वह उपपात के पहले दूसरे समय में भी त्रिलोक का स्पर्श करता है यद्यपि असमोहया मरण (ऋजुगति) में भी प्रथम समय में त्रिलोक की स्पर्शना हो सकती है। (जैसे अधोलोक से सिद्ध होने वाले की स्पर्शना त्रिलोक की होती है) परन्तु यहाँ पर इस प्रकार की त्रिलोक स्पर्शना की आगमकारों ने विवक्षा नहीं की होगी। अथवा इस प्रकार से भी त्रिलोक स्पर्शना मान लेवे तो भी अल्पबहुत्व में फर्क (अन्तर) नहीं पड़ता है। क्षेत्रानुपात से जीवों की अल्प बहुत्व में - एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के पर्याप्त अपर्याप्त की पृच्छा की गई है परन्तु नारक देवों के पर्याप्त अपर्याप्त की पृच्छा नहीं की गई है इसका कारण यह संभव है कि - एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के तो दोनों भेद शाश्वत मिलते हैं परन्तु नरक देवों के अपर्याप्त शाश्वत नहीं मिलते हैं। अथवा आगमकारों की कथन करने की विचित्र शैली होने से इस प्रकार कहा गया है। जैसे गति द्वार में पर्याप्त अपर्याप्त के भेद नहीं किये हैं परन्तु इन्द्रिय और कायद्वार में किये हैं। क्षेत्रानुपात में बताई हुई सभी अल्पबहुत्व उत्कृष्टता की अपेक्षा से समझना चाहिये अतः उपरोक्त सभी अल्पबहुत्व में कोई बाधा नहीं आती है। ॥चौबीसवां क्षेत्र द्वार समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * प्रज्ञापना सूत्र २५. पच्चीसवां बन्ध द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं आउयस्स कम्मस्स बंधगाणं अबंधगाणं पज्जत्तगाणं अज्जत्तगाणं सुत्ताणं जागराणं समोहयाणं असमोहयाणं सायावेयगाणं असायावेयगाणं इंदिओवउत्ताणं (इंदिय उवउत्ताणं ) णोइंदिओवउत्ताणं सागारोवउत्ताणं अणागारोवउत्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? . गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा आउयस्स कम्मस्स बंधगा १, अपज्जत्तगा संखिज्जगुणा २, सुत्ता संखिज्जगुणा ३, समोहया संखिज्जगुणा ४, सायावेयगा संखिज्जगुणा ५, इंदिओवउत्ता संखिज्जगुणा ६, अणागारोवउत्ता संखिज्जगुणा ७, सागारोवउत्ता संखिज्जगुणा ८, णोइंदिओवउत्ता विसेसाहिया ९, असायावेयगा विसेसाहिया १०, असमोहया विसेसाहिया ११, जागरा विसेसाहिया १२, पज्जत्तगा विसेसाहिया १३, आउयस्स कम्मस्स अबंधगा विसेसाहिया १४ ।। २५ दारं ।। २११ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन आयुष्य कर्म के बन्धक, अबन्धक, पर्याप्तक, अपर्याप्तक सुप्त, जागृत, समवहत - समुद्घात को प्राप्त, असमवहत समुद्घात नहीं करने वाला, सातावेदक, असातावेदक, इन्द्रियोपयुक्त - इन्द्रिय के उपयोग वाले, नोइन्द्रियोपयुक्त - नोइन्द्रिय के उपयोग वाले, साकार उपयोग वाले और अनाकार उपयोग वाले जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? - -- उत्तर - हे गौतम! १. सबसे थोड़े जीव आयुष्य कर्म के बंधक हैं २. उनसे अपर्याप्तक जीव संख्यातगुणा हैं ३. उनसे सुप्त - सोये हुए जीव संख्यातगुणा हैं ४. उनसे समवहत-समुद्घात करने वाले जीव संख्यातगुणा हैं ५. उनसे सातावेदक - साता वेदनीय का अनुभव करने वाले जीव संख्यातगुणा हैं ६ . उनसे इन्द्रियोपयुक्त - इन्द्रिय के उपयोग वाले जीव संख्यातगुणा हैं ७. उनसे अनाकार उपयोग वाले जीव संख्यातगुणा हैं ८. उनसे साकार उपयोग वाले जीव संख्यातगुणा हैं ९. उनसे नोइन्द्रियोपयुक्तनोइन्द्रिय (मन) के उपयोग वाले जीव विशेषाधिक हैं १०. उनसे असातावेदक-असातावेदनीय कर्म का अनुभव करने वाले जीव विशेषाधिक हैं ११. उनसे असमवहत समुद्घात नहीं करने वाले जीव विशेषाधिक हैं १२. उनसे जागृत जीव विशेषाधिक हैं १३. उनसे पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं और १४. उनसे आयुष्य कर्म के अबंधक जीव विशेषाधिक हैं। विवेचन प्रश्न- बन्ध किसे कहते हैं ? उत्तर - बन्धनं बन्धः । सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् आदत्ते यत् स बन्धः । * * * * हैं * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • तीसरा बहुवक्तव्यता पद - बन्ध द्वार ३७५ ********************************* ************** *******-*-*- *41*** ******** अर्थात् - संस्कृत में 'बन्ध बन्धने' धातु है। उससे बन्ध शब्द बनता है। जिसका सामान्य अर्थ है बान्धना। यहाँ पर आठ कर्मों को बान्धना बन्ध कहलाता है। जब तक जीव में कषाय है तब तक वह अपने योग्य कर्म पुद्गलों को बान्धता है। यद्यपि उस बन्ध के चार भेद हैं- यथा - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश। तथापि इन सब का एक में समावेश करके बन्ध शब्द से कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में बंधद्वार के अंतर्गत आयुष्य कर्म के १. बंधक-अबंधक २. पर्याप्तक- अपर्याप्तक ३. सुप्त-जागृत ४. समवहत-असमवहत ५. सातावेदक-असातावेदक ६. इन्द्रियोपयुक्त-नोइन्द्रियोपयुक्त एवं ७. साकारोपयुक्त-अनाकारोपयुक्त, इन सात युगलों के अल्प-बहुत्व का वर्णन किया गया है। इनमें से प्रत्येक युगल का अल्पबहुत्व इस प्रकर है - १. सबसे थोड़े आयुष्य कर्म के बंधक हैं, उनसे अबन्धक संख्यात गुणा हैं क्योंकि वर्तमान भव के अनुभव किये जाते हुए आयुष्य का तीसरा भाग, तीसरे भाग का तीसरा भाग, उसका भी तोसरा भाग आदि शेष रहता है तब जीव परभव का आयुष्य बांधता है अतः दो तृतीयांश अबंधकाल है और एक तृतीयांश बंधकाल है इसलिए आयुष्य के बंधक से अबंधक जीव संख्यात गुणा हैं २. सबसे थोड़े अपर्याप्तक हैं और उनसे पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं, यह सूक्ष्म जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए क्योंकि सूक्ष्म जीवों में बाह्य व्याघातउपक्रम नहीं होता अतः बहुत से सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती है और थोड़े ही जीव अनुत्पत्तिमरण को प्राप्त होते हैं ३. सबसे थोड़े जीव सुप्त हैं और उनसे जागृत जीव संख्यात गुणा हैं। यह भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए क्योंकि अपर्याप्तक जीव सुप्त होते हैं और पर्याप्तक जागृत होते हैं। मूल टीका में कहा है कि - "जम्हा अपज्जत्तगा सुत्ता लब्भंति, केइ अपजत्तगा जेसिं संखिज्जा समया अइया ते य थोवा, इयरे वि थोवगा चेव, सेसा जागरा पज्जत्तगा ते संखिजगुणा". _ अर्थात् - अपर्याप्तक सुप्त होते हैं और उसमें भी कितने अपर्याप्तक जिनका संख्यात समय व्यतीत हो गया है वे थोड़े हैं अन्य भी थोड़े हैं शेष जागृत जीव पर्याप्तक हैं और वे संख्यात गुणा हैं अतः जागृत पर्याप्तक होते हैं इसलिए सुप्त से जागृत संख्यात गुणा कहे गये हैं। ४. समवहत-समुद्घात प्राप्त जीव सबसे थोड़े हैं, क्योंकि यहाँ समवहत में मरण समुद्घात को प्राप्त जीव ग्रहण किये गये हैं और मरण समुद्घात तो मृत्यु के समय ही होता है, अन्य समय में नहीं, उसमें भी सभी जीवों को मरण समुद्घात नहीं होता अतः समवहत जीव सबसे थोड़े हैं, उनसे असमवहत-समुद्घात को नहीं प्राप्त जीव असंख्यात गुणा हैं क्योंकि जीवनकाल बहुत है। ५. सबसे थोड़े जीव सातावेदक-सातावेदनीय के उदय वाले हैं क्योंकि साधारण शरीरी जीव अधिक हैं और प्रत्येक शरीरी जीव थोड़े हैं। साधारण शरीरी अधिकांश जीव असातावेदक होते हैं और थोड़े जीव सातावेदक होते हैं तथा प्रत्येक शरीरी अधिकांश जीव सातावेदक होते हैं और थोड़े जीव असातावेदक For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ प्रज्ञापना सूत्र ****************************** ********************************************** *** होते हैं अतः सातावेदक जीव सबसे थोड़े हैं उनसे असातावेदक संख्यात गुणा हैं। ६. सबसे थोड़े जीव इन्द्रियोपयुक्त-इन्द्रियों के उपयोग वाले हैं, उनसे नोइन्द्रिय (कषाय, लेश्या आदि) के उपयोग वाले संख्यात गुणा हैं क्योंकि इन्द्रिय का उपयोग वर्तमान काल विषयक ही होता है इस कारण उसका काल थोड़ा ही है। नो इन्द्रिय का उपयोग अतीत और अनागत काल विषयक होने से उसका काल बहुत अधिक है इसलिए इन्द्रिय के उपयोग वाले संख्यात गुणा कहे गये हैं ७. सबसे थोड़े अनाकार (दर्शन) उपयोग वाले जीव हैं उनसे साकार उपयोग वाले संख्यात गुणा हैं क्योंकि दर्शन उपयोग का काल थोड़ा है उससे साकार (ज्ञान) उपयोग का काल संख्यात गुणा हैं अतः साकार उपयोग वाले संख्यात गुणा कहे गये हैं। उपरोक्त सातों ही युगलों का शामिल अल्पबहुत्व - १. सबसे थोड़े आयुष्य कर्म के बंधक हैं क्योंकि आयुष्य बंध का काल प्रतिनियत-भव का तीसरा आदि भाग है २. उनसे अपर्याप्तक संख्यात गुणा हैं क्योंकि अपर्याप्तक अनुभव किये जाते हुए वर्तमान भव के आयुष्य का तीसरा भाग आदि शेष रहता है तब परभव का आयुष्य बांधते हैं अतः दो तृतीयांश अबंधकाल और एक तृतीयांश बंध काल है इसलिए बंध काल से अबंधकाल संख्यात गुणा हैं । अबंधकाल के संख्यात गुणा होने से आयुष्य कर्म के बंधक से अपर्याप्तक संख्यात गुणा कहे गये हैं। ३. उनसे सुप्त संख्यात गुणा हैं क्योंकि अपर्याप्तक और पर्याप्तक दोनों में सुप्त होते हैं और अपर्याप्तक से पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं अत: अपर्याप्तक से सुप्त संख्यात गुणा हैं। ४. उनसे समवहत संख्यात गुणा हैं क्योंकि पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में बहुत से जीव सदैव मरण समुद्घात को प्राप्त होते हैं ५. उनसे साता वेदक संख्यात गुणा हैं क्योंकि आयुष्य के बंधक, अपर्याप्तक और सप्त जीवों में सातावेदक होते हैं ६. उनसे इन्द्रिय के उपयोग वाले संख्यात गुणा हैं क्योंकि असाता का वेदन करने वालों में भी इन्द्रिय का उपयोग होता हैं ७. उनसे अनाकार उपयोग वाले संख्यात गुणा हैं क्योंकि इन्द्रिय के उपयोग में और नोइन्द्रिय के उपयोग में अनाकार उपयोग होता है ८. उनसे साकार उपयोग वाले संख्यात गुणा हैं क्योंकि इन्द्रिय के उपयोग और नो इन्द्रिय के उपयोग में साकार उपयोग का काल अधिक होता है। ९. उनसे नोइन्द्रिय के उपयोग वाले विशेषाधिक हैं क्योंकि उसमें नोइन्द्रिय के अनाकार उपयोग वालों का भी समावेश होता है। इसे समझाने हेतु सूत्रकार असद्भाव स्थापना से दृष्टांत देते हैं - यहाँ साकार उपयोग वाले १९२ हैं जो दो प्रकार के कहे गये हैं - १. इन्द्रिय साकार उपयोग वाले और २. नोइन्द्रिय साकार उपयोग वाले। उनमें इन्द्रिय साकार उपयोग वाले बहुत थोड़े हैं अतः उनकी संख्या कल्पना से २० हैं शेष १७२ नोइन्द्रिय साकार उपयोग वाले हैं। नोइन्द्रिय अनाकार उपयोग वाले ५२ जितने हैं उनसे सामान्य रूप से साकार उपयोग वालों से बीस जितने इन्द्रिय साकार उपयोग वाले कम करके उसमें ५२ जितने अनाकार उपयोग वाले मिलाये जाय तो २२४ होते हैं अतः साकार उपयोग वालों से नोइन्द्रिय के उपयोग वाले For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - पुद्गल द्वार ३७७ * ******************************************************************************** विशेषाधिक हैं १०. उनसे असातावेदक विशेषाधिक हैं क्योंकि इन्द्रिय उपयोग वाले भी असातावेदक होते हैं। ११. उनसे असमवहत विशेषाधिक हैं क्योंकि साता वेदक भी असमवहत (समुद्घात नहीं किये हुए) होते हैं १२. उनसे जागृत विशेषाधिक हैं क्योंकि कितनेक समवहत भी जागृत होते हैं १३. उनसे पर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि कितनेक सुप्त भी पर्याप्तक होते हैं। सुप्त पर्याप्तक सुप्त भी होते हैं किन्तु जागृत पर्याप्तक ही होते हैं ऐसा नियम है १४. उनसे आयुष्य कर्म के अबंधक विशेषाधिक हैं क्योंकि अपर्याप्तक भी आयुष्य कर्म के अबंधक होते हैं। __इस उपर्युक्त अल्प बहुत्व में वर्तमान में आयुष्य कर्म को बांधने वाले जीवों को आयुष्य के बंधक समझना चाहिये। लब्धि अपर्याप्त अर्थात् अपर्याप्त अवस्था में ही मरने वाले जीवों की अपर्याप्त तथा लब्धि पर्याप्त (पर्याप्त नाम कर्म वाले) जीवों को पर्याप्त कहा गया है। सुप्त जीवों में वर्तमान में अपर्याप्त तथा अपर्याप्त नाम कर्म वाले जीवों का ग्रहण हुआ है। समवहत् जीवों में सातों समुद्घातों में से कोई भी समुद्घात करते हुए जीवों का ग्रहण हुआ है यद्यपि टीकाकार ने मात्र मारणांतिक समुद्घात वालों का ही ग्रहण किया है परन्तु ३६ वें पद की अल्प बहुत्व को देखते हुए यहाँ पर सातों ही समुद्घातों का ग्रहण कर लेना चाहिये। एकेन्द्रिय आदि जीवों के आयुष्य कर्म को बांधने का जघन्य व उत्कृष्ट कालमान कितना कितना होता है इसका खुलासा छठे व्युत्क्रान्ति पद के सातवें, आठवें द्वार के विवेचन में बताया गया है, जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिये। ॥ पच्चीसवां बंध द्वार समाप्त॥ २६. छब्बीसवां पुद्गल द्वार खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पुग्गला तेलोक्के, उड्डलोयतिरियलोए अणंतगुणा, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े पुद्गल तीन लोक में हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में अनन्त गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रश्न - पुद्गल किसे कहते हैं ? उत्तर - "पूरण गलन धर्माः पुद्गलाः। स्पर्श रस गन्ध वर्ण - शब्द मूर्त स्वभावकाः। संघात भेद निष्पन्नाः, पुद्गला जिनभाविताः। For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ प्रज्ञापना सूत्र ***************** ************************************************************** अर्थ - वस्तु को पूर्ण करना फिर काल मर्यादा के उपरान्त बिखर जाना यह पुद्गलों का धर्म है। इसके चार भेद हैं - १. स्कन्ध २. स्कन्ध देश ३. स्कन्ध प्रदेश और ४. परमाणु पुद्गल। यह परमाणुओं के मिलने से स्कन्ध बनता है और बड़े स्कन्ध के टुकड़े होने से यह भी स्कन्ध बनता है। इन में या पुद्गल में वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श पाये जाते हैं। यही मूर्त (रूपी) का लक्षण है। अर्थात् जिसमें वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श पाये जाय उसे रूपी कहते हैं। रूपी होने पर भी कोई पुद्गल दिखाई देता है कोई दिखाई नहीं देता है - जैसे कि - परमाणु, असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध और सूक्ष्म अनन्त प्रदेशी स्कन्ध ये सब छद्मस्थ जीव के इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होते हैं। बादर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध ही इन्द्रिय ग्राह्य होते हैं। ___पुद्गल द्वार में पुद्गलों का अल्पबहुत्व कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र की अपेक्षा पुद्गल का अल्पबहुत्व इस प्रकार हैं - १. सबसे थोड़े पुद्गल द्रव्य रूप से तीन लोक में हैं क्योंकि तीन लोक में । व्याप्त अचित्त महास्कंध आदि सबसे थोड़े हैं। २. उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में अनन्त गुणा हैं ' क्योंकि अनन्त संख्यात प्रदेशी, अनन्त असंख्यातप्रदेशी और अनन्त अनन्तप्रदेशी स्कंध ऊर्ध्वलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतर का स्पर्श करते हैं अत: अनंत गुणा हैं ३. उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं। यद्यपि ऊर्ध्वलोक तिर्यकलोक के दो प्रतरों की अपेक्षा अधोलोक तिर्यकलोक के प्रतर छोटे हैं, क्योंकि अधोलोक में ७ रज्जु जाने पर लोक का ७ रज्जु का विस्तार होता है जबकि ऊर्ध्वलोक में ३॥ रजु जाने पर ही लोक का विस्तार पांचवें देवलोकं के पास ५ रज्जु हो जाता है, अत: ऊर्ध्वलोक में विस्तार वृद्धि अधिक हुई है इसलिए ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक का प्रतर बड़ा है तथापि अधोलोक तिर्यक्लोक में पुद्गल अधिक हैं। क्योंकि उक्त दोनों प्रतर समुद्र में आये हुए होने से बादर निगोदादि से संबंधित कर्म स्कन्धादि रूप पुद्गल वर्गणा बढ़ जाने से विशेषाधिक हैं। ४. उनसे तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक का क्षेत्र असंख्यात गुणा हैं अतः पुद्गल भी असंख्यात गुणा हैं। ५. उनसे ऊर्ध्व लोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक से ऊर्ध्वलोक का क्षेत्र असंख्यात गुणा होने से पुद्गल भी असंख्यात गुणा हैं। ६. उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक का क्षेत्र विशेष अधिक है। ऊर्ध्वलोक सात राजू से कुछ कम है अधोलोक सात राजू से कुछ अधिक है अतः पुद्गल भी विशेषाधिक हैं। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पुग्गला उड्ढदिसाए, अहोदिसाए विसेसाहिया, उत्तरपुरच्छिमेणं दाहिणपच्चत्थिमेण उ दोवि तुल्ला असंखिजगुणा, दाहिणपुरच्छिमेणं उत्तरपच्चत्थिमेण य दोवि तुल्ला विसेसाहिया, पुरच्छिमेणं असंखिजगुणा, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। ___ भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा सबसे थोड़े पुद्गल ऊर्ध्वदिशा में हैं, उनसे अधोदिशा में विशेषाधिक हैं, उनसे उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) में और दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) में असंख्यात For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - पुद्गल द्वार ३७९ ******** ******************************************************* ************* *** गुणा और दोनों विदिशाओं में परस्पर तुल्य हैं, उनसे दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) में और उत्तरपश्चिम (वायव्य कोण) में परस्पर तुल्य और विशेषाधिक हैं, उनसे पूर्व दिशा में असंख्यात गुणा हैं, उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं, उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक है और उनसे उत्तरदिशा में विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में दिशा की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है - १. सबसे थोड़े पुद्गल ऊर्ध्वदिशा में हैं क्योंकि रत्नप्रभा के समतल मेरुप्रदेश में आठ रुचक प्रदेश हैं उनसे चार प्रदेश वाली ऊर्ध्वदिशा लोकान्त तक गई हुई है अत: ऊर्ध्वदिशा में पुद्गल सबसे थोड़े हैं। २. उनसे अधोदिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि अधोदिशा भी चार प्रदेश वाली है वह भी रुचक प्रदेशों से निकल कर नीचे लोकान्त तक गई है। अधोदिशा का क्षेत्र ऊर्ध्वदिशा से विशेषाधिक है अतः अधोदिशा में पुद्गल भी विशेषाधिक हैं। ३. उनसे उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) और दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) दिशा में परस्पर तुल्य असंख्यात गुणा हैं क्योंकि ये दोनों दिशाएँ रुचक प्रदेश से निकली हैं, मुक्तावली के आकार की हैं और तिर्यक्लोक ऊर्ध्वलोक और अधोलोक पर्यन्त गई हैं। इन दिशाओं में अधोदिशा की अपेक्षा असंख्यात गुणा क्षेत्र है अतः पुद्गल भी असंख्यात गुणा हैं। दोनों दिशाओं का क्षेत्र बराबर है अतः दोनों दिशाओं के पुद्गल भी बराबर हैं अतः परस्पर तुल्य हैं। ४. उनसे दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) और उत्तर-पश्चिम (वायव्य कोण) में परस्पर तुल्य विशेषाधिक हैं. क्योंकि यहाँ सौमनस और गंधमादन पर्वतों पर सात-सात कूट हैं जबकि ईशान कोण और नैऋत्य कोण में विद्युत्प्रभ और माल्यवान पर्वत पर नौ नौ कूट हैं। सौमनस और गंधमादन पर्वत पर दो-दो कूट कम होने से बूंवर और ओस आदि के सूक्ष्म पुद्गल बहुत हैं अत: विशेषाधिक हैं। दोनों दिशाओं में क्षेत्र समान है अत: परस्पर तुल्य हैं। ५. उनसे पूर्व दिशा में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि पूर्व दिशा का क्षेत्र असंख्यात गुणा होने से इसमें पुद्गल भी असंख्यात गुणा हैं। ६. उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि पश्चिम दिशा में अधोलौकिक ग्रामों में पोलार बहत है इसलिये इनमें बहत पदगल हैं अत: विशेषाधिक हैं। ७. उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि दक्षिण दिशा में भवनपतियों के भवन बहुत हैं उनमें पोलार बहुत हैं अतः पुद्गल विशेषाधिक हैं। ८. उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि उत्तर दिशा में संख्यात कोटा-कोटि (कोड़ा-कोड़ी) योजन प्रमाण मानससरोवर हैं जिसमें सात बोल (समुच्चय जीव, अप्काय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय) के जीव बहुत हैं उनमें तैजस कार्मण पुद्गल अधिक पाये जाते हैं अतः विशेषाधिक हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाइं दव्वाइं तेलोक्के, उड्डलोयतिरियलोए अणंतगुणाई, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहियाई, उड्डलोए असंखिजगुणाई, अहोलोए अणंतगुणाई, तिरियलोए संखिजगणाई। For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० प्रज्ञापना सूत्र *********************************** ***** kakakakaka k akak भावार्थ - क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़े द्रव्य तीन लोक में (त्रिलोकवर्ती) हैं, उनसे ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में अनन्त गुणा हैं, उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं, उनसे अधोलोक में अनन्त गुणा हैं और उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र की अपेक्षा द्रव्य का अल्पबहुत्व कहा गया हैं - १. सबसे थोड़े त्रिलोक में हैं क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय का महास्कन्ध और जीवास्तिकाय में मारणान्तिक समुद्घात द्वारा समुद्घात करने वाले जीव तीनों लोक का स्पर्श करते हैं अतः ये सबसे थोड़े हैं। २. उनसे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में अनंत गुणा हैं क्योंकि अनन्त पुद्गल द्रव्य और अनन्त जीव द्रव्य ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक के दोनों प्रतर का स्पर्श करते हैं अंतः अनन्त गुणा हैं। ३. उनसे अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक की अपेक्षा अधोलोक- तिर्यक्लोक का क्षेत्र विशेषाधिक होने से इन दोनों प्रतर में द्रव्य भी विशेषाधिक हैं। ४. उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक का क्षेत्र असंख्यात गुणा है अतः यहाँ द्रव्य भी असंख्यात गुणा हैं। ५. उनसे अधोलोक में अनंत गुणा हैं क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में काल है। परमाणु, संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी, अनन्त प्रदेशी स्कन्ध के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्याय के साथ काल का सम्बन्ध होने से प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्य की अपेक्षा अनन्त काल है अत: अधोलोक में अनन्त गुणा हैं। ६. उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि,तिर्यक्लोक में मनुष्य लोक है जहाँ काल है। मनुष्य लोक में अधोलौकिक ग्राम प्रमाण संख्यात खण्ड हैं अतः तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं। विशेष ज्ञातव्य - यद्यपि त्रिलोक में अत्यधिक जीव होते हैं तथापि पुद्गलों एवं काल द्रव्य के अनन्तवें भाग जितने ही हैं। अतः क्षेत्रानुपात से द्रव्यों की अल्पबहुत्व में ऐसे त्रिलोक व्यापी एवं स्पर्शी द्रव्य सबसे थोड़े ही होते हैं। क्योंकि समुद्घात जीवों से भी त्रिलोक व्यापी अन्य द्रव्य बहुत कम है। जबकि पुद्गल द्रव्य तो एक आकाश प्रदेश पर भी सब जीवों से अनन्तगुणा रह जाते हैं। अतः त्रिलोक में सबसे थोड़े बताये हैं। ____ अधोलोक में तथा तिर्यग्लोक में काल द्रव्य होने पर भी 'अधोलोक तिर्यग्लोक' रूप दो प्रतरों के क्षेत्र पर काल द्रव्य नहीं होता है। क्योंकि कालाणु एक ही होता है। (धर्मास्तिकायादि अन्य द्रव्यों की तरह उसके प्रदेश नहीं होते हैं। वह तो अप्रदेशी ही होता है अर्थात् वर्तमान का एक समय ही काल द्रव्य है) अतः अधोलोक के प्रदेशों पर रहे जीवादि द्रव्यों पर वर्तने वाला काल द्रव्य 'अधोलोक' में गिना जाता है तथा तिर्यग्लोक के प्रदेशों पर रहे हुए जीवादि द्रव्यों पर वर्तने वाला काल द्रव्य ‘तिर्यक् लोक' में गिना जाता है। अर्थात् एक ही काल द्रव्य इन दोनों प्रतरों पर नहीं वर्तता है। अतः इन दो प्रतरों के क्षेत्र में कालद्रव्य नहीं माना गया है। काल द्रव्य - जीवादि द्रव्यों पर, उनके प्रदेशों पर तथा For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - पुद्गल द्वार ३८१ *************************************************-*-*-*-*-*-*-*-* -*-*-*-*-*-42 410-16-10-%216424210-2012 उनकी पर्यायों पर भी वर्तता है। द्रव्यों का अलग कालद्रव्य, प्रदेशों का और पर्यायों का भी अलग अलग काल द्रव्य गिना जाता है। जैसे कोई द्विप्रदेशावगाढ़ द्रव्य है तो उसके दोनों प्रदेशों पर अलगअलग काल द्रव्य गिना जाता है। इस अपेक्षा से समझने पर 'अधोलोक तिर्यग्लोक' में काल द्रव्य नहीं होने से उपरोक्त अल्पबहुत्व में किसी प्रकार से भी विसंगति नहीं आती है। अर्थात् आगमपाठ की संगति बराबर बैठ जाती है। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवाइं दव्वाइं अहोदिसाए, उड्ढदिसाए अणंतगुणाई, उत्तरपुरच्छिमेणं दाहिणपच्चत्थिमेणं च दोवि तुल्लाइं असंखिजगुणाई, दाहिणपुरच्छिमेणं उत्तरपच्चत्थिमेणं च दोवि तुल्लाइं विसेसाहियाई, पुरच्छिमेणं असंखिजगुणाई, पच्चत्थिमेणं विसेसाहियाई, दाहिणेणं विसेसाहियाई, उत्तरेणं विसेसाहियाइं॥ २१२॥ भावार्थ - दिशा की अपेक्षा सबसे थोडे द्रव्य अधोदिशा में हैं, उनसे ऊर्ध्व दिशा में अनन्त गुणा हैं, उनसे उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) में और दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) में असंख्यात गुणा और परस्पर तुल्य हैं, उनसे दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) में और उत्तर-पश्चिम (वायव्य कोण) में परस्पर तुल्य और विशेषाधिक हैं, उनसे पूर्व में असंख्यात गुणा हैं, उनसे पश्चिम में विशेषाधिक हैं, उनसे दक्षिण में विशेषाधिक हैं और उनसे उत्तर में विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में दिशा की अपेक्षा द्रव्य का अल्पबहुत्व कहा गया है - १. सबसे थोड़े द्रव्य अधोदिशा में हैं क्योंकि अधोदिशा में काल नहीं होने से वहाँ द्रव्य सबसे थोड़े हैं २. उनसे ऊर्ध्वदिशा में अनन्तगुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्व दिशा में मेरु पर्वत का ५०० योजन का स्फटिकमय काण्ड है। वहाँ चन्द्र सूर्य की प्रभा का प्रवेश होने से काल द्रव्य है। यह काल प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्यों पर अनन्त अनन्त है अतः 'ऊर्ध्वलोक में द्रव्य अनन्त गणा हैं। ३. उनसे उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) और दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) में परस्पर तुल्य असंख्यात गुणा हैं क्योंकि इनका क्षेत्र असंख्यात गुणा होने से द्रव्य असंख्यात गुणा हैं। दोनों दिशा में क्षेत्र बराबर होने से परस्पर द्रव्य तुल्यं हैं। ४. उनसे दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) और उत्तर-पश्चिम (वायव्य कोण) में परस्पर तुल्य विशेषाधिक हैं क्योंकि सौमनस और गंधमादन पर्वत पर सात-सात कूट हैं। दो-दो कूट कम होने से वहाँ धूवर, ओस आदि के सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य बहुत हैं अत: विशेषाधिक हैं। ५. उनसे पूर्व दिशा में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि पूर्व दिशा का क्षेत्र असंख्यात गुणा हैं अतः इस दिशा में द्रव्य भी असंख्यात गुणा हैं। ६. उनसे पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि पश्चिम दिशा में अधोलौकिक ग्रामों में पोलार अधिक होने से बहुत पुद्गल द्रव्यों का सम्भव है अत: विशेषाधिक हैं। ७. उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि दक्षिण दिशा में भवनपति देवों के ४,०६,००,००० (चार करोड़ छह लाख) भवन हैं। पोलार अधिक होने से द्रव्य For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ***************************** प्रज्ञापना सूत्र ********** भी विशेषाधिक हैं। ८. उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि मानस सरोवर में सात बोल के जीव अधिक हैं उन जीवों के आश्रित तैजस कार्मण वर्गणा के पुद्गल द्रव्य भी बहुत हैं अतः विशेषाधिक हैं । टीका में ऊर्ध्व दिशा में काल द्रव्य मानने हेतु मेरु पर्वत में ५०० योजन का स्फटिक काण्ड माना है। आगम में तो ‘ऊर्ध्वदिशा में काल द्रव्य है' इतना ही उल्लेख मिलता है। अतः प्रज्ञापना टीकाकार के पास इस सम्बन्ध में कोई प्राचीन परम्परा रही होगी, ऐसी संभावना है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के चौथे वक्षस्कार की टीका में मेरु पर्वत के वर्णन में कोई निश्चित माप नहीं बताते हुए 'क्वचित् अंक बहुलात्......' ऐसा ही बताया है अतः स्फटिक काण्ड का निश्चित नहीं कह सकते हैं परन्तु होने में कोई आगमिक बाधा नहीं है । अतः मान भी सकते हैं। आठ रुचक प्रदेश तो अप्रकाशित ही होते हैं किन्तु ऊपर के चार रुचक प्रदेशों की सीध में आई हुई ऊर्ध्वदिशा में चन्द्र सूर्य का प्रकाश होता है इस अपेक्षा से ऊर्ध्व दिशा में काल द्रव्य माना गया है। ******************* एएसि णं भंते! परमाणुपोग्गलाणं संखिज्जपएसियाणं असंखिज्जपएसियाणं अणतपएसियाणं च खंधाणं दव्वट्टयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा अणतपएसिया खंधा दव्वट्टयाए, परमाणुपोग्गला दव्वट्टयाए अनंतगुणा, संखिज्जपएसिया खंधा दव्वट्टयाए संखिज्जगुणा, असंखिज्जपएसिया खंधा दव्वट्टयाए असंखिज्जगुणा । परसट्टयाए - सव्वत्थोवा अणतपएसिया खंधा परसट्टयाए, परमाणुपोग्गला अपएसट्टयाए अनंतगुणा, संखिज्जपएसिया खंधा पसट्टयाए संखिज्जगुणा, असंखिज्जपएसिया खंधा पएसट्टयाए असंखिज्जगुणा । दव्वट्ठपएसट्टयाएसव्वत्थोवा अणतपएसिया खंधा दव्वट्टयाए, ते चेव पएसट्टयाए अनंतगुणा, परमाणुपोग्गला दव्वट्टअप सट्टयाए अनंतगुणा, संखिज्जपएसिया खंधा दव्वट्टयाए संखिज्जगुणा, ते चेव पएसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखिज्जपएसिया खंधा दव्वट्टयाए असंखिज्जगुणा, ते चेव पएसट्टयाए असंखिज्जगुणा ॥ २१३ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन परमाणु पुद्गलों, संख्यात प्रदेशिक, असंख्यात प्रदेशिक और अनन्त प्रदेशिक स्कन्धों में द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेश की अपेक्षा से और द्रव्य तथा प्रदेश की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्यं या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े द्रव्य की अपेक्षा से अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध हैं, उनसे परमाणु पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा अनन्त गुणा हैं, उनसे संख्यात प्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - पुद्गल द्वार - ३८३ ********************************************************* * हैं, उनसे असंख्यात प्रदेशिक स्कंध द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं। प्रदेशों की अपेक्षा से - सबसे थोड़े प्रदेश की अपेक्षा से अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध हैं, उनसे परमाणु पुद्गल अप्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा हैं, उनसे संख्यात प्रदेशिक स्कन्ध प्रदेश की अपेक्षा संख्यातगुणा हैं, उनसे असंख्यात प्रदेशिक स्कंध प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं। द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से-सबसे थोड़े अनन्त प्रदेशिक स्कंध द्रव्य की अपेक्षा हैं, उनसे प्रदेश की अपेक्षा अनन्तगुणा हैं, उनसे परमाणु पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा-अप्रदेश की अपेक्षा अनंत गुणा हैं, उनसे संख्यात प्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं और प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं, उनसे असंख्यात प्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं और प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में द्रव्य, प्रदेश और द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा संख्यात-असंख्यात-अनंत प्रदेशी परमाणु पुद्गलों का अल्पबहुत्व का कथन किया गया है। ___एएसि णं भंते! एगपएसोगाढाणं संखिजपएसोगाढाणं असंखिजपएसोगाढाण य पोग्गलाणं दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दव्वट्ठपएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए, संखिजपएसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए संखिजगुणा, असंखिजपएसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए असंखिजगुणा, पएसट्ठयाए-सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला अपएसट्ठयाए, संखिज्जपएसोगाढा पोग्गला पएसट्ठयाए संखिजगुणा, असंखिज्जपएसोगाढा पोग्गला पएसट्टयाए असंखिज्जगुणा। दव्वट्ठपएसट्टयाए-सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पुग्गला दव्वट्ठपएसट्टयाए, संखिज्जपएसोगाढा पुग्गला दव्वट्ठयाए संखिजगुणा, ते चेव पएसट्टयाए संखिजगुणा, असंखिजपएसोगाढा पुग्गला दव्वट्ठयाए असंखिज्जगुणा, ते चेव पएसट्टयाए असंखिजगुणा॥ २१४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन एक प्रदेशावगाढ़, संख्यात प्रदेशावगाढ़ और असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों में द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेश की अपेक्षा और द्रव्य तथा प्रदेश की अपेक्षा कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? . उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा हैं, उनसे संख्यात प्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं उनसे असंख्यात प्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं। प्रदेशों की अपेक्षा - सबसे थोड़े एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल अप्रदेश की For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ प्रज्ञापना सूत्र अपेक्षा है, उनसे संख्यांत प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं, उनसे असंख्यात प्रदेशावगाढ पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं। द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा - सबसे थोड़े एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा है, उनसे संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं और प्रदेशों की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं, उनसे असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं और वे प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं। विशेष ज्ञातव्य - यहाँ पर क्षेत्र (आकाश प्रदेश) की मुख्यता से पुद्गलों की अल्पबहुत्व कही गई है अर्थात् क्षेत्रावगढ़ पुद्गलों की अल्पबहुत्व है। टीकाकार तो 'एक प्रदेशावगाढ़ परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेशी अनन्त स्कन्धों को विवक्षा से एक ही मानते हैं।' परन्तु आगमकार तो उन्हें एक द्रव्य नहीं मानकर जितने स्कन्ध हैं उतने ही द्रव्य मानते हैं क्षेत्र की मुख्यता होने से उन अनन्त द्रव्यों के प्रदेश तो वे जितने-जितने आकाश प्रदेशावगाढ़ हो उतने - उतने ही माने जाते हैं जैसे दो प्रदेशावगाढ़ दो प्रदेशी स्कन्ध से अनन्त प्रदेशी स्कन्ध है उनके प्रदेश दो तीन यावत् अनन्त जितने नहीं मानकर प्रत्येक स्कन्ध के दो-दो प्रदेश ही माने जाते हैं क्योंकि प्रत्येक स्कन्ध दो आकाश प्रदेशों पर रहा हुआ है। इसी तरह तीन प्रदेशावगाढ़ से लेकर असंख्यात प्रदेशावगाढ़ के लिए भी समझना चाहिये। ************** एएसि णं भंते! एगसमयठियाणं संखिज्जसमयठिड्याणं असंखिज्जसमयठिड्याणं पुग्गलाणं दव्वट्टयाए पएसट्टयाए दव्वट्टपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा एगसमयठिड्या पुग्गला दव्वट्टयाए, संखिज्जसमयठिड्या पुग्गला दव्वट्टयाए संखिज्जगुणा, असंखिज्जसमयठिड्या पुग्गला दव्वट्टयाए असंखिज्जगुणा । पएसट्टयाए - सव्वत्थोवा एगसमयठिझ्या पुग्गला पएसट्टयाए, संखिज्जसमयठिड्या, पुग्गला पएसट्टयाए संखिज्जगुणा, असंखिज्जसमयठिड्या पुग्गला परसट्टयाए असंखिज्जगुणा । दव्वट्ठपएसट्टयाए - सव्वत्थोवा एगसमयठिझ्या पुग्गला दव्वट्ठपएसट्टयाए, संखिज्जसमयठिझ्या पुग्गला दव्वट्टयाए संखिज्जगुणा, ते चेव पएसट्टयाए संखिज्जगुणा । असंखिज्जसमयठिड्या पुग्गला दव्वट्टयाए असंखिज्जगुणा, ते चेव पएसट्टयाए असंखिज्जगुणा ॥ २१५ ॥ भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! एक समय की स्थिति वाले, संख्यात समय की स्थिति वाले और असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गलों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! एक समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा सबसे थोड़े हैं, उनसे For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - पुद्गल द्वार ३८५ ************************************************************************************ संख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं, उनसे असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं। प्रदेश की अपेक्षा - सबसे थोड़े एक समय की स्थिति वाले पुद्गल अप्रदेश की अपेक्षा है, उनसे संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं, उनसे असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं। द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा सबसे थोड़े एक समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य एवं अप्रदेश की अपेक्षा है, उनसे संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं और प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा हैं, उनसे असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं और प्रदेश की अपेक्षा भी असंख्यात गुणा हैं।। विवेचन - यहाँ पर काल (स्थिति) की मुख्यता से पुद्गलों की अल्पबहुत्व कही गई है। अतः एक समय की स्थिति वाले जितने पुद्गल हैं उतने उनके द्रव्य और प्रदेश गिने जाते हैं। दो समय की स्थिति वाले पुद्गलों में प्रत्येक परमाणु और स्कन्धों के दो-दो प्रदेश गिने गये हैं, इसी तरह तीन समय की स्थिति वाले पुद्गलों में यावत् असंख्यात् समय के स्थिति वाले पुद्गलों में भी समझ लेना चाहिये। क्षेत्र की अल्प बहत्व में - अनन्त प्रदेशावगाढ पदगल नहीं होते हैं। क्योंकि पदगल तो लोक में ही होते हैं। संपूर्ण लोक के आकाश प्रदेश भी असंख्याता ही है। इसी प्रकार काल की अल्प बहुत्व में - अनन्त समय की स्थिति के पुद्गल नहीं होते हैं क्योंकि किसी भी पुद्गलों की असंख्याता काल (असंख्याता उत्सर्पिणी अवसर्पिणी) से अधिक स्थिति नहीं होती है इसके बाद तोवे संयुक्त (मिलना) और वियुक्त (अलग होना) होते ही हैं। अतः यहाँ क्षेत्र और काल की अल्प बहुत्व में उपर्युक्त एक-एक बोल नहीं बताया गया है। एएसिणं भंते! एगगुणकालगाणं संखिजगुणकालगाणं असंखिज्जगुणकालगाणं अणंतगुणकालगाणं च पुग्गलाणं दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! जहा पुग्गला तहा भाणियव्वा। एवं सेसावि वण्णा गंधा रसा फासा भाणियव्वा। फासाणं कक्खड-मउय-गरुय-लहुयाणं जहा एगपएसोगाढाणं भणियं तहा भाणियव्वं । अवसेसा फासा जहा वण्णा तहा भाणियव्वा ॥ २६ दारं॥ २१६॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन एक गुण काले, संख्यात गुण काले, असंख्यात गुण काले और अनन्त गुण काले पुद्गलों में द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेश की अपेक्षा तथा द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार सामान्य पुद्गलों के विषय में कहा है उसी प्रकार यहाँ भी कहना For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ************************************** प्रज्ञापना सूत्र ****************************************** चाहिये। इसी प्रकार शेष वर्ण, गंध और रस के विषय में कहना चाहिये। स्पर्श में कर्कश, मृदु, गुरु और लघु स्पर्शो के विषय में जिस प्रकार एक प्रदेशावगाढ आदि का अल्पबहुत्व कहा गया है उसी प्रकार कहना चाहिये। शेष स्पर्शों के विषय में भी जैसा वर्णों का कहा है उसी प्रकार कह देना चाहिये। ____ नोट - यहाँ पर भाव की अल्प बहुत्व में वर्णादि बीस बोलों की मुख्यता से पुद्गलों की अल्प बहुत्व कही गई है। अत: एक गुण काले परमाणु यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्धों को भाव की अपेक्षा एक प्रदेशी या अप्रदेशी कहा गया है इसी प्रकार दो गुण काले यावत् अनन्त गुण काले परमाणु से अनन्त प्रदेशी स्कन्धों के भाव की अपेक्षा दो प्रदेश यावत् अनन्त प्रदेश समय लेना चाहिए अर्थात् जितने गुण वर्णादि है उतने ही प्रदेश समझने चाहिये। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में पुद्गलों की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा ६९ अल्पबहुत्व इस प्रकार कहा गया है - द्रव्य के ३ अल्पबहुत्व-परमाणु पुद्गल, संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कंध की द्रव्य की अपेक्षा अल्पबहुत्व १. सबसे थोड़े अनन्त प्रदेशी स्कंध द्रव्य की अपेक्षा। २. परमाणु पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा अनन्त गुणा। ३. संख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा। ४. असंख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा। उक्त चारों के प्रदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्व१. सबसे थोड़े अनन्त प्रदेशी स्कंध प्रदेश की अपेक्षा। २. परमाणु पुद्गल अप्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा। ३. संख्यात प्रदेशी स्कंध प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा। ४. असंख्यात प्रदेशी स्कंध प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा। उक्त चारों का द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा सम्मिलित अल्पबहुत्व१. सबसे थोड़े अनन्त प्रदेशी स्कंध द्रव्य की अपेक्षा। २. अनन्त प्रदेशी स्कंध प्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा। ३. परमाणु पुद्गल द्रव्य और अप्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा। ४. संख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा। ५. संख्यात प्रदेशी स्कंध प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा। ६. असंख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा। ७. असंख्यात प्रदेशी स्कंध प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा। For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - पुद्गल द्वार ३८७ ************************************************************************************ क्षेत्र के ३ अल्पबहुत्व - एक प्रदेशावगाढ़ (एक आकाश प्रदेश में रहे हुए), संख्यात प्रदेशावगाढ़ और असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों का द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेश की अपेक्षा, द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्व १. सबसे थोड़े एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा २. संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा ३. असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा। ____२. सबसे थोड़े एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल अप्रदेश की अपेक्षा २. संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा ३. असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा। ३. सबसे थोड़े एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा और अप्रदेश की अपेक्षा २. संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा ३. संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा ४. असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा ५. असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा। काल के तीन अल्पबहुत्व - एक समय की स्थिति वाले, संख्यात समय की स्थिति वाले और असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गलों का द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेश की अपेक्षा तथा द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्व १. सबसे थोड़े एक समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा २. संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा ३. असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की . अपेक्षा असंख्यात गुणा। ___२. सबसे थोड़े एक समय की स्थिति वाले पुद्गल अप्रदेश की अपेक्षा २. संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा ३. असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा। ___३. सबसे थोड़े एक समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य और अप्रदेश की अपेक्षा २. संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा ३. संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा ४. असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा ५. असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा। . भाव के ६० अल्पबहुत्व - वर्ण, गंध और रस की अपेक्षा ३६ अल्पबहुत्व १. एक गुण काले, संख्यात गुण काले, असंख्यात गुण काले और अनन्त गुण काले वर्ण वाले पुद्गलों की द्रव्य, प्रदेश और द्रव्य प्रदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्व २. सबसे थोड़े अनन्त गुण काले वर्ण के पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा २. एक गुण काले वर्ण के For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ प्रज्ञापना सूत्र ************* ************************************************************* पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा अनन्त गुणा ३. संख्यात गुण काले वर्ण के पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा ४. असंख्यात गुण काले वर्ण के पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा। ३. सबसे थोड़े अनन्त गुण काले वर्ण के पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा २. एक गुण काले वर्ण के पुद्गल अप्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा ३. संख्यात गुण काले वर्ण के पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा ४. असंख्यात गुण काले वर्ण वाले पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा। द्रव्य प्रदेश की अपेक्षा सम्मिलित अल्पबहुत्व १. सबसे थोड़े अनन्त गुण काले वर्ण के पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा २. अनन्त गुण काले वर्ण के पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा ३. एक गुण काले वर्ण के पुद्गल द्रव्य और अप्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा ४. संख्यात गुण काले वर्ण के पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा ५. संख्यात गुण काले वर्ण के पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा ६. असंख्यात गुण काले वर्ण के पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा ७. असंख्यात गुण काले वर्ण के पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा। काले वर्ण की ऊपर द्रव्य, प्रदेश और द्रव्य प्रदेश की अपेक्षा तीन अल्पबहुत्व कहा गया, उसी तरह शेष चार वर्ण, दो गंध और पांच रस प्रत्येक का तीन-तीन अल्पबहुत्व कहना चाहिए। इस तरह पांच वर्ण, दो गंध और पांच रस के ३६ अल्पबहुत्व हुये। __ आठ स्पर्श के चौबीस अल्पबहुत्व - कर्कश स्पर्श के पुद्गलों की तरह द्रव्य, प्रदेश और द्रव्य प्रदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्व-- १. सबसे थोड़े एक गुण कर्कश पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा २. संख्यात गुण कर्कश पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा ३. असंख्यात गुण कर्कश पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा ४. अनन्त गुण कर्कश पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा अनन्त गुणा। २. सबसे थोड़े एक गुण कर्कश पुद्गल अप्रदेश की अपेक्षा २. संख्यात गुण कर्कश पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा ३. असंख्यात गुण कर्कश पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा ४. अनन्त गुण कर्कश पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा। ३. सबसे थोड़े एक गुण कर्कश पुद्गल द्रव्य अप्रदेश की अपेक्षा २. संख्यात गुण कर्कश पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा ३. संख्यात गुण कर्कश पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा ४. असंख्यात गुण कर्कश पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा ५. असंख्यात गुण कर्कश पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गणा ६. अनन्त गण कर्कश पदगल द्रव्य की अपेक्षा अनन्त गणा ७. अनन्त ग कर्कश पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा । जिस तरह कर्कश का ऊपर तीन अल्पबहुत्व कहा गया, उसी तरह मृदु, गुरु, लघु का तीन-तीन अल्पबहुत्व कह देना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - महादंडक द्वार ३८९ ********* ********************************************* **************************** शीत स्पर्श की द्रव्य, प्रदेश और द्रव्य प्रदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्व१. सबसे थोड़े अनन्त गुण शीत पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा। २. एक गुण शीत पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा अनन्त गुणा। ३. संख्यात गुण शीत पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा। ४. असंख्यात गुण शीत पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा। १. सबसे थोड़े अनन्त गुण शीत पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा। २. एक गुण शीत पुद्गल अप्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा। ३. संख्यात गुण शीत पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा। ४. असंख्यात गुण शीत पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा। १. सबसे थोड़े अनन्त गुण शीत पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा। २. अनन्त गुण शीत पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा। ३. एक गुण शीत पुद्गल द्रव्य और अप्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा। ४. संख्यात गुण शीत पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा संख्यात गुणा। ५. संख्यात गुण शीत पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा संख्यात गुणा। ६. असंख्यात गुण शीत पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा। ७. असंख्यात गुण शीत पुद्गल प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा। शीत स्पर्श का ये तीन अल्पबहुत्व कहा गया, उसी तरह उष्ण स्पर्श, स्निग्ध स्पर्श और रूक्ष स्पर्श का अल्पबहुत्व भी कह देना चाहिए। इस प्रकार आठ स्पर्श के २४ अल्पबहुत्व होते हैं। कुल ३+३+३+६०-६९ अल्पबहुत्व हुए। ॥छब्बीसवां पुद्गल द्वार समाप्त॥ २७. सत्ताईसवां महादंडक द्वार अह भंते! सव्वजीवप्पबहुं महादंडयं वण्णइस्सामि-सव्वत्थोवा गब्भवक्वंतिया मणुस्सा १, मणुस्सीओ संखिज्जगुणाओ २, बायरतेउकाइया पजत्तगा असंखिज्जगुणा ३, अणुत्तरोववाइया देवा असंखिजगुणा ४, उवरिमगेविजगा देवा संखिजगुणा ५, मज्झिमगेविज्जगा देवा संखिजगुणा ६, हिडिमगेविज्जगा देवः संखिजगुणा ७, अच्चुए कप्पे देवा संखिजगुणा ८, आरणे कप्पे देवा संखिजगुणा ९, पाणए कप्पे देवा संखिजगुणा १०, आणए कप्पे देवा संखिजगुणा ११, अहे सत्तमाए पुढवीए णेरड्या For Personal & Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० 姿嚳****楽楽楽楽楽東南安安安***出*物* प्रज्ञापना सूत्र ***************** * * * * * * ॐ ******** असंखिज्जगुणा १२, छंट्ठीए तमाए पुढवीए णेरड्या असंखिज्जगुणा १३, सहस्सारे कप्पे देवा असंखिज्जगुणा १४, महासुक्ने कप्पे देवा असंखिज्जगुणा १५, पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए णेरड्या असंखिजगुणा १६, लंतए कप्पे देवा असंखिज्जगुणा १७, चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए णेरड्या असंखिज्जगुणा १८, बंभलोए कप्पे देवा असंखिज्जगुणा १९, तच्चाए वालुयप्पभाए पुढवीए णेरड्या असंखिज्जगुणा २०, माहिंदे कप्पे देवा असंखिज्जगुणा २१, सणकुमारे कप्पे देवा असंखिज्जगुणा २२, दोच्चाए सक्करप्पभाए पुढवीए णेरड्या असंखिज्जगुणा २३, संमुच्छिमा मणुस्सा असंखिज्जगुणा २४, ईसाणे कप्पे देवा असंखिज्जगुणा २५, ईसाणे कप्पे देवीओ संखिज्जगुणाओ २६, सोहम्मे कप्पे देवा संखिज्जगुणा २७, सोहम्मे कप्पे देवीओ संखिज्जगुणाओ २८, भवणवासी देवा असंखिज्जगुणा २९, भवणवासिणीओ देवीओ ' संखिज्जगुणाओ ३०, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्या असंखिज्जगुणा ३१, खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पुरिसा असंखिज्जगुणा ३२, खहयर - पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखिज्जगुणाओ ३३, थलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया पुरिसा संखिज्जगुणा ३४, थलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिणीओ संखिज्जगुणाओ ३५, जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया पुरिसा संखिज्जगुणा ३६, जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिणीओ संखिज्जगुणाओ ३७, वाणमंतरा देवा संखिज्जगुणा ३८, वाणमंतरीओ देवीओ संखिज्जगुणाओ ३९, जोइसिया देवा संखिज्जगुणा ४०, जोइसिणीओ देवीओ संखिज्जगुणाओ ४१, खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया णपुंसगा संखिज्जगुणा ४२, थलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया णपुंसगा संखिज्जगुणा ४३, जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया णपुंसगा संखिज्जगुणा ४४, चउरिदिया पज्जत्तगा संखिज्जगुणा ४५, पंचिंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया ४६, बेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया ४७, तेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया ४८, पंचिंदिया अपज्जत्तगा असंखिज्जगुणा ४९, उरिदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया ५०, इंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया ५१, बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया ५२, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया पज्जत्तगा असंखिज्जगुणा ५३, बायर णिओया For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - महादंडक द्वार ************************************************************************4442 26 पज्जत्तगा असंखिजगुणा ५४, बायर पुढवीकाइया पज्जत्तगा असंखिजगुणा ५५, बायर आउकाइया पज्जत्तगा असंखिज्जगुणा ५६, बायर वाउकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज गुणा ५७, बायर तेउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज गुणा ५८, पत्तेयसरीर बायर वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखिजगुणा ५९, बायर णिओया अपज्जत्तगा असंखिजगुणा ६०, बायर पुढवीकाइया अपज्जत्तगा असंखिजगुणा ६१, बायर आउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्जगुणा ६२, बायर वाउकाइया अपज्जत्तगा असंखिजगुणा ६३, सुहुम तेउकाइया अपज्जत्तगा असंखिजगुणा ६४, सुहुम पुढवीकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया ६५, सुहम आउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया ६६, सुहुम वाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया ६७, सुहुमतेउकाइया पज्जत्तगा संखिजगुणा ६८, सुहुमपुढवीकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया ६९, सुहुम आउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया ७०, सुहमवाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया ७१, सुहमणिओया अपजत्तगा असंखिजगुणा ७२, सुहुम णिओया पजत्तगा संखिजगुणा ७३, अभव सिद्धिया अणंतगुणा ७४, परिवडिय सम्महिट्ठी अणंतगुणा ७५, सिद्धा अणंतगुणा ७६, बायर वणस्सइकाइया पजत्तगा अणंतगुणा ७७, बायर पजत्तगा विसेसाहिया ७८, बायर वणस्सइकाइया अपजत्तगा असंखिजगुणा ७९, बायर अपज्जत्तगा विसेसाहिया ८०, . बायरा विसेसाहिया ८१, सुहुम वणस्सइकाइया अपजत्तगा असंखिजगुणा ८२, सुहुम अपजत्तगा विसेसाहिया ८३, सुहुम वणस्सइकाइया पजत्तगा संखजगुणा ८४, सुहुम पजत्तगा विसेसाहिया ८५, सुहुमा विसेसाहिया ८६, भवसिद्धिया विसेसाहिया ८७, णिओयजीवा विसेसाहिया ८८, वणस्सइजीवा विसेस हिया ८९, एगिंदिया विसेसाहिया ९०, तिरिक्खजोणिया विसेसाहिया ९१, मिच्छादिट्ठी वसेसाहिया ९२, अविरया विसेसाहिया ९३, सकसाई विसेसाहिया ९४, छउमत्था वसेसाहिया ९५, सजोगी विसेसाहिया ९६, संसारत्था विसेसाहिया ९७, सव्वजीवा विसेसाहिया ९८॥२७ दारं ॥२१७॥ । पण्णवणाए भगवईए तइयं अप्पाबहुयपयं समत्तं॥ For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - हे भगवन्! सर्व जीवों का अल्पबहुत्व रूप महादंडक का वर्णन करूँगा - १ सबसे थोड़े गर्भज मनुष्य, २ उनसे मनुष्यनी संख्यात गुणी, ३ उनसे बादर तेउकाय पर्याप्तक असंख्यात गुणा, ४ उनसे पांच अनुत्तर विमान के देव असंख्यात गुणा, ५ उनसे ग्रैवेयक की ऊपर की त्रिक के देव संख्या गुणा, ६ उनसे मध्यम त्रिक के देव संख्यात गुणा, ७ उनसे नीचे की त्रिक के देव संख्यात गुणा, ८ उनसे बारहवें देवलोक के देव संख्यात गुणा, ९ उनसे ग्यारहवें देवलोक के देव संख्यात गुणा, १० उनसे दसवें देवलोक के देव संख्यात गुणा, ११ उनसे नौवें देवलोक के देव संख्यात गुणा १२ उनसे सातवीं नरक के ये असंख्यात गुणा, १३ उनसे छठी नरक के नेरइये असंख्यात गुणा, १४ उनसे आठवें देवलोक के देव असंख्यात गुणा, १५ उनसे सातवें देवलोक के देव असंख्यात गुणा, १६ उनसे पाँचवीं नरक के नेरइये असंख्यात गुणा, १७ उनसे छठे देवलोक के देव असंख्यात गुणा, १८ उनसे चौथी नरक के नेरइये असंख्यात गुणा, १९ उनसे पाँचवें देवलोक के देव असंख्यात गुणा, २० उनसे तीसरी नरक के नेरइये असंख्यात गुणा, २१ उनसे चौथे देवलोक के देव असंख्यात गुणा, २२ उनसे तीसरे देवलोक के देव असंख्यात गुणा, २३ उनसे दूसरी नरक के नेरइये असंख्यात गुणा, २४ उनसे संमूर्च्छिम मनुष्य असंख्यात गुण, २५ उनसे दूसरे देवलोक के देव असंख्यात गुणा, २६ उनसे दूसरे देवलोक की देवी संख्यात गुणी, २७ उनसे पहले देवलोक के देव संख्यात गुणा, २८ उनसे पहले देवलोक की देवी संख्यात गुणी, २९ उनसे भवनपति देव असंख्यात गुणा, ३० उनसे भवनपति देवी संख्यात गुणी, ३१ उनसे पहली नरक के नेरइये असंख्यात गुणा, ३२ उनसे खेचर तिर्यंच पुरुष असंख्यात गुणा, ३३ उनसे खेचर स्त्री संख्यात गुणी, ३४ उनसे थलचर पुरुष संख्यात गुणा, ३५ उनसे थलचर स्त्री संख्यात गुणी ३६ उनसे जलचर पुरुष संख्यात गुणा, ३७ उनसे जलचर स्त्री संख्यात गुणी, ३८ उनसे व्यन्तर देव संख्यात गुणा, ३९ उनसे व्यन्तर देवी संख्यात गुणी, ४० उनसे ज्योतिषी देव संख्यात गुणा, ४१ उनसे ज्योतिषी देवी संख्यात गुणी, ४२ उनसे खेचर नपुंसक ( गर्भज ) संख्यात गुणा, ४३ उनसे थलचर नपुंसक (गर्भज) संख्यात गुणा, ४४ उनसे जलचर नपुंसक ( गर्भज ) संख्यात गुणा, ४५ उनसे चौरिंद्रिय के पर्याप्तक संख्यात गुणा, ४६ उनसे पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक विशेषाधिक, ४७ उनसे बेइंद्रिय के पर्याप्तक विशेषाधिक, ४८ उनसे तेइंद्रिय के पर्याप्तक विशेषाधिक, ४९ उनसे पंचेंद्रिय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ५० उनसे चौरेंद्रिय के अपर्याप्तक विशेषाधिक, ५१ उनसे तेइंद्रिय के अपर्याप्तक विशेषाधिक, ५२ उनसे बेइंद्रिय के अपर्याप्तक विशेषाधिक, ५३ उनसे प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकाय के पर्याप्तक असंख्यात गुणा, ५४ उनसे बादर निगोद के पर्याप्तक असंख्यात गुणा, ५५ उनसे बादर पृथ्वीकाय के पर्याप्तक असंख्यात गुणा, ५६ उनसे बादर अप्काय के पर्याप्तक असंख्यात गुण, ५७ उनसे बादर वायुकाय के पर्याप्तक असंख्यात गुणा, ५८ उनसे बादर तेउकाय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ५९ उनसे प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकाय के For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ ************************************************************************************ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - महादंडक द्वार अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ६० उनसे बादर निगोद के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ६१ उनसे बादर पृथ्वीकाय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ६२ उनसे बादर अप्काय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ६३ उनसे बादर वायुकाय के अपर्याप्तक असंख्यात गुण, ६४ उनसे सूक्ष्म तेउकाय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ६५ उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकाय के अपर्याप्तक विशेषाधिक, ६६ उनसे सूक्ष्म अप्काय के अपर्याप्तक विशेषाधिक., ६७ उनसे सूक्ष्म वायुकाय के अपर्याप्तक विशेषाधिक, ६८ उनसे सूक्ष्म तेउकाय के पर्याप्तक संख्यात गुणा, ६९ उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकाय के पर्याप्तक विशेषाधिक ७० उनसे सूक्ष्म अप्काय के पर्याप्तक विशेषाधिक, ७१ उनसे सूक्ष्म वायुकाय के पर्याप्तक विशेषाधिक, ७२ उनसे सूक्ष्म निगोद के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ७३ उनसे सूक्ष्म निगोद के पर्याप्तक संख्यात गुण, ७४ उनसे अभव्य जीव अनंत गुण, ७५ उनसे प्रतिपतित समदृष्टि अनंत गुणा, ७६ उनसे सिद्ध भगवंत अनंत गुणा, ७७ उनसे बादर वनस्पतिकाय के पर्याप्तक अनंत गुणा, ७८ उनसे बादर के पर्याप्तक विशेषाधिक, ७९ उनसे बादर वनस्पतिकाय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ८० उनसे बादर के अपर्याप्तक विशेषाधिक, ८१ उनसे समुच्चय बादर विशेषाधिक, ८२ उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकाय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ८३ उनसे सूक्ष्म के अपर्याप्तक विशेषाधिक, ८४ उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकाय के पर्याप्तक संख्यात गुणा, ८५ उनसे सूक्ष्म के पर्याप्तक विशेषाधिक, ८६ उनसे समुच्चय सूक्ष्म विशेषाधिक, ८७ उनसे भवसिद्धिक विशेषाधिक, ८८ उनसे निगोदिया जीव विशेषाधिक, ८९ उनसे वनस्पतिकाय के जीव विशेषाधिक, ९० उनसे एकेन्द्रिय जीव विशेषाधिक, ९१ उनसे तिर्यंच जीव विशेषाधिक, ९२ उनसे मिथ्यादृष्टि जीव विशेषाधिक, ९३ उनसे अव्रती जीव विशेषाधिक, ९४ उनसे सकषायी जीव विशेषाधिक, ९५ उनसे छद्मस्थ जीव विशेषाधिक, ९६ उनसे सयोगी जीव विशेषाधिक, ९७ उनसे संसारी जीव विशेषाधिक, ९८ उनसे समुच्चय जीव विशेषाधिक। विवेचन - प्रश्न - इसको महा दण्डक क्यों कहा गया है? उत्तर - इसमें सिद्ध और संसारी सभी जीवों का अल्पबहुत्व बतलाया गया है इसलिए इसको महादण्डक कहा गया है। वर्तमान में विद्यमान आगमों में अल्प बहुत्व का सबसे बड़ा आलापक यही होने से भी इसे महादण्डक कहा जाता है। प्रश्न - मूल में "वण्णइस्सामि" शब्द दिया है इसका क्या अभिप्राय है? - उत्तर - संस्कृत में "वर्ण वणने" धातु है। जिसका अर्थ है वर्णन करना। उस धातु के 'लुट्' लकार (भविष्यत काल) में उत्तम पुरुष के एक वचन में 'वर्णयिष्यामि' रूप बनता है। जिसका पर्यायवाची शब्द टीकाकार ने "रचयिष्यामि" शब्द दिया है। इस शब्द का आशय यह है कि गणधर देव तीर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा होने पर ही सूत्र की रचना करते हैं किन्तु अपने श्रुतज्ञान के अनुसार नहीं। इस बात से यह बात भी स्पष्ट होती है कि शिष्य कितनाही विद्वान हो, कार्य में कुशल हो तो For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ प्रज्ञापना सूत्र भी गुरुमहाराज को पूछे बिना कुछ भी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। किन्तु उनकी आज्ञा को सामने रख कर ही प्रत्येक कार्य करना चाहिए। अन्यथा विनेयपन ( शिष्यपन) में अपूर्णता आती है क्योंकि विनेय (शिष्य) का यह लक्षण बतलाया गया है। *********** गुरोर्निवेदितात्मायो, गुरुभावानुवर्तकः । मुक्त्यर्थं चेष्टते नित्यं स विनेयः प्रकीर्तितः ॥ अनुसार अर्थात् - प्रत्येक कार्य गुरुदेव को निवेदित करके करने वाला, गुरु के भावों (इच्छा) के प्रवृत्ति करने वाला तथा नित्य मुक्ति के लिए प्रयत्न करने वाला विनेय कहलाता है । विनेय का लक्षण बताकर गुरु का लक्षण भी बता दिया गया है कि ऐसे गुरु से ही प्रश्न करना चाहिए यथा - धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मप्रवर्तकः । सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते ॥ अर्थात् - धर्म के मर्म को जानने वाला और धर्माचरण करने वाला अपने सम्पर्क में आने वाले को धर्म में प्रवृत्ति कराने वाला जगत् के सम्पूर्ण जीवों को शास्त्र के अनुसार धर्मोपदेश देने वाला गुरु कहलाता है। उपरोक्त सारे वक्तव्य का निष्कर्ष यह है कि गणधर देव तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा लेकर ही सर्व जीवों की अल्पबहुत्व बताने वाला महादण्डक का वर्णन करते हैं । प्रस्तुत सूत्र में समस्त जीवों के अल्पबहुत्व का क्रम बताया गया है जो इस प्रकार है(१) गर्भज मनुष्य सबसे कम इसलिए हैं कि उनकी संख्या संख्यात - कोटाकोटि परिमित है । कम से कम राशि इस प्रकार समझना - २८,२९,५७,७२, ३२, ६५, २२,९७,७७, ११,९७,९९, २९६ (लगभग) इस राशि में गर्भज मनुष्य पुरुष और नपुंसक दोनों शामिल है । (२) उनकी अपेक्षा मनुष्यस्त्रियाँ संख्यातगुणी अधिक हैं, क्योंकि मनुष्यपुरुषों की अपेक्षा सत्ताईसगुणी और सत्ताईस अधिक होती है । वह राशि कम से कम इस प्रकार समझना - ७६, ३९, ८५, ८५, २५, १६, १२,०,३९,८२, २३, ४५, ९५, २०, ४० यहाँ पर गर्भज मनुष्यों की सर्व जघन्य संख्या की अपेक्षा से मनुष्यों से मनुष्य स्त्रियाँ २७ गुणी और २७ अधिक गणित करके बताई गई है। उत्कृष्ट गर्भज मनुष्यों की संख्या की अपेक्षा तो राशि में फर्क हो सकता है। (३) उनसे बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक असंख्येयगुणा हैं, क्योंकि वे कतिपय वर्ग कम आवलिकाधन-समय-प्रमाण हैं। (४) उनकी अपेक्षा अनुत्तरौपपातिक देव असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भागवर्ती आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। यद्यपि टीका में अनुत्तर देवों को क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भागवर्ती आकाश प्रदेशों के तुल्य बताया है परन्तु जीवाजीवाभिगम सूत्र के वैमानिक उद्देशक को देखते हुए अद्धा पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - महादंडक द्वार ३९५ * *-*-***-*-*-*-*-* * * * * * * * ***** -*-*-*-*-*-*-* * * * ** ***************************** करना अधिक उचित रहता है। इसी प्रकार पांचवें बोल से ११ वें बोल तक के जीवों के प्रमाण के विषय में भी समझना चाहिये। (५) उनकी अपेक्षा उपरितन ग्रैवेयक त्रिक के देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे बृहत्तर अद्धापल्योपम के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। इसे जानने का मापदण्ड यह है कि उत्तरोत्तर विमानों की अधिकता है। क्योंकि अनुत्तर देवों के ५ विमान हैं, किन्तु ऊपर के तीन ग्रैवेयकों में सौ विमान हैं और प्रत्येक विमान में असंख्यात देव हैं। नीचे-नीचे के विमानों में अधिक-अधिक देव होते हैं, इसीलिए अनुत्तरविमानवासी देवों की अपेक्षा ऊपरी तीन ग्रैवेयकों के देव संख्यातगुणा हैं। आगे भी आनतकल्प के देवों (६ से ११) तक उत्तरोत्तर संख्यातगुणा हैं, कारण पहले बताया जा चुका है। यद्यपि आरण और अच्युत कल्प समश्रेणी में स्थित हैं और दोनों की विमानसंख्या समान हैं तथापि स्वभावतः कृष्णपक्षी जीव प्राय: दक्षिणदिशा में उत्पन्न होते हैं. उत्तरदिशा में नहीं और कृष्णपाक्षिक जीव शुक्लपाक्षिकों की अपेक्षा आधिक होत हैं। इसलिए अच्युत से आरण प्राणत, और आनत कल्प के देव उत्तरोत्तर संख्यातगुणा अधिक हैं। (१२) उनकी अपेक्षा सप्तम नरकपृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि वे श्रेणी के असंख्यातवें भाग में स्थित आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। उनसे उत्तरोत्तर क्रमशः (१३) छठी नरक के नारक, (१४) सहस्रारकल्प के देव, (१५) महाशुक्रकल्प के देव, (१६) पंचम धूमप्रभा नरक के नारक, (१७) लान्तककल्प के देव, (१८) चतुर्थ पंकप्रभा नरक के नारक, (१९) ब्रह्मलोककल्प के देव, (२०) तृतीय बालुकाप्रभा नरक के नारक, (२१) माहेन्द्रकल्प के देव, (२२) सनत्कुमारकल्प के देव, (२३) दूसरी शर्कराप्रभा नरक के नारक असंख्यात-असंख्यात गुणा हैं। __सातवीं पृथ्वी से लेकर दूसरी पृथ्वी तक के नारक प्रत्येक अपने स्थान में प्ररूपित किये जाएँ तो सभी घनीकृत लोकश्रेणी के असंख्यातवें भाग में स्थित आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं, मगर श्रेणी के असंख्यातवें भाग के भी असंख्यात भेद होते हैं। अतः इनमें सर्वत्र उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा अल्पबहुत्व कहने में कोई विरोध नहीं आता। शेष सब युक्तियाँ पूर्ववत् समझनी चाहिए। (२४) उनकी अपेक्षा सम्मूर्छिम मनुष्य असंख्यात गुणा हैं, क्योंकि अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के द्वितीय वर्गमूल से गुणित तीसरे वर्गमूल में जितनी प्रदेश राशि होती हैं, उतने प्रमाण में सम्मूर्च्छिम मनुष्य होते हैं। (२५) उनसे ईशानकल्प देव असंख्यात गुणा हैं, वे अंगुल प्रमाण सूचि श्रेणी के द्वितीय वर्ग मूल को तृतीय वर्ग मूल से गुणा करने पर जितने प्रदेश होते हैं उतनी श्रेणियों के तुल्य सभी वैमानिक देवदेवियाँ हैं। उनके संख्यातवें भाग जितने ये देव होते हैं। (२६) ईशानकल्प की देवियाँ उनसे संख्यात गुणी अधिक हैं, क्योंकि देवियाँ देवों से बत्तीस गुणी और बत्तीस अधिक होती हैं। (२७) इनसे सौधर्मकल्प के देव संख्यातगुणा अधिक हैं, क्योंकि ईशानकल्प में अट्ठाईस लाख विमान हैं, जबकि सौधर्मकल्प में बत्तीस लाख विमान हैं। अत: ये देव संख्यात गुणा अधिक हो जाते हैं। (२८) उनसे For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ************ प्रज्ञापना सूत्र ****************** सौधर्म कल्प की देवियाँ संख्यात गुणी, पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार सौधर्मकल्प की देवियाँ देवों से बतीस गुणी एवं बत्तीस अधिक होने से संख्यात गुणी हैं। (२९) इनकी अपेक्षा भवनवासी देव असंख्यात गुणा हैं। अंगुल प्रमाण सूचि श्रेणी के प्रथम वर्गमूल के संख्यातवें भाग प्रमाण प्रदेशों के तुल्य भवनपतियों का प्रत्येक निकाय है। दसों निकाय मिलकर भी प्रथम वर्गमूल के संख्यातवें भाग प्रमाण विष्कम्भ सूचि के प्रदेश तुल्य होते हैं। (३०) देवों की अपेक्षा देवियाँ बत्तीस गुणी एवं बत्तीस अधिक होती है, इस कारण भवनवासी देवियाँ संख्यात गुणी हैं। (३१) उनकी अपेक्षा रत्नप्रभापृथ्वी के नारक असंख्यातगुणा हैं। वे अंगुलमात्र परिमित क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल की जितनी प्रदेश राशि होती है उतनी श्रेणियों में रहे हुए आकाश प्रदेशों के बराबर कुल नैरयिक जीव हैं उसमें से एक असंख्यातवें भाग की विष्कम्भ सूचि के प्रदेश तुल्य प्रथम नरक के नैरयिक जीव होते हैं। (३२) उनकी अपेक्षा खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंच पुरुष असंख्यात गुणा हैं, क्योंकि वे प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों के आकाश प्रदेशों के बराबर हैं। (३३) उनकी अपेक्षा खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंच स्त्रियाँ संख्यात गुणी हैं, क्योंकि तिर्यंचों में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियाँ तीन गुणी और तीन अधिक होती हैं। (३४) इनकी अपेक्षा स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक पुरुष संख्यात गुणा हैं, क्योंकि वे बृहत्तर प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों की आकाश-प्रदेशराशि के बराबर हैं। (३५) इनकी अपेक्षा स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच स्त्रियाँ पूर्वोक्त युक्ति से संख्यात गुणी हैं। (३६) उनकी अपेक्षा जलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यंचपुरुष संख्यात गुणा अधिक हैं, क्योंकि वे बृहत्तम प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों की आकाश प्रदेश राशि के तुल्य हैं। (३७) उनकी अपेक्षा जलचरतिर्यंचपंचेन्द्रिय स्त्रियाँ पूर्वोक्त युक्ति से संख्यात गुणी हैं। (३८-३९) उनकी अपेक्षा वाणव्यन्तर देव एवं देवी उत्तरोत्तर क्रमशः संख्यात गुणा हैं। क्योंकि संख्यात योजन कोटाकोटि प्रमाण सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने ही सभी व्यन्तरदेव देवियाँ हैं। उनमें से लगभग एक तेतीसवें भाग जितने देव होते हैं। देवियाँ देवों से बत्तीसगुणी और बत्तीस अधिक होती हैं। (४०) उनकी अपेक्षा ज्योतिष्क देव संख्यातगुणा अधिक हैं, क्योंकि वे सामान्यतः २५६ अंगुलप्रमाण सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने कुल ज्योतिषी देव देवियाँ है उनके एक तेतीसवें भाग जितने ज्योतिषी देव होते हैं। (४१) उनसे ज्योतिषी देवियाँ संख्यात गुणी पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार इनसे ज्योतिष्क देवियाँ बत्तीस गुणी और बत्तीस अधिक है। (४२-४३-४४) उनकी अपेक्षा खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंच नपुंसक, स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यंच-नपुंसक, जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच नपुंसक, क्रमशः उत्तरोत्तर संख्यात गुणा हैं। घनीकृत लोक के एक प्रतर के छोटे-छोटे (क्रमशः आगे आगे संख्यातगुण हीन) अंगुल के संख्यातवें भाग रूप प्रतर खण्डों के तुल्य For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - महादंडक द्वार ३९७ होते हैं। (४५) इनकी अपेक्षा पर्याप्तक चतुरिन्द्रिय संख्यात गुणा हैं, क्योंकि वे अंगुल के संख्यातवें भागमात्र सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने हैं। (४६ से ४८) उनकी अपेक्षा पंचेन्द्रियपर्याप्तक, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं। _(४९-५२) पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय-अपर्याप्तक और द्वीन्द्रियअपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये सब अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने प्रमाण में होते हैं, किन्तु अंगुल के असंख्यात भाग के असंख्यात भेद होते हैं। अतः अपर्याप्तक-द्वीन्द्रिय पर्यन्त उत्तरोत्तर अंगुल का असंख्यातवां भाग कम अंगुल का असंख्यातवां भाग लेने पर कोई दोष नहीं। (५३ से ५६ तक) प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक, बादर निगोद-पर्याप्तक, बादर पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक, बादर अप्कायिक-पर्याप्तक, उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यातगुणा हैं क्योंकि घनीकृत लोक के एक प्रतर के छोटे-छोटे (क्रमशः आगे आगे असंख्यातगुणा हीन) अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप प्रतर खण्डों के तुल्य होते हैं। (५७) उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि घनीकृत लोक के असंख्यातवें भागवर्ती असंख्य प्रतरों के प्रदेश तुल्य होते हैं। ___(५८ से ७३ तक) बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तक, प्रत्येकशरीर-बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक, बादर निगोद-अपर्याप्तक, बादर पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक, बादर अप्कायिक-अपर्याप्तक, बादर वायुकायिक-अपर्याप्तक और सूक्ष्म तेजस्कायिक-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यात गुणा हैं, उनकी अपेक्षा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक-अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिकअपर्याप्तकं उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक-पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं उनकी अपेक्षा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक-पर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक-पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं तथा उनसे सूक्ष्म निगोदपर्याप्तक संख्यात गुणा अधिक हैं। ५८ से ७३ तक सभी बोल असंख्यात लोक के आकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। क्रमशः आगे आगे के बोलों में असंख्यातगुणा आदि लोक समझना। ५३ से ७३ वें बोल तक की प्रत्येक राशि आठवें असंख्याता जितनी होती है। यद्यपि अपर्याप्तक तेजस्कायिक से लेकर पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद पर्यन्त जीव सामान्यरूप से असंख्यात लोकाकाशों की प्रदेशराशि प्रमाण (तुल्य) अन्यत्र कहे गए हैं, तथापि लोक का असंख्येयत्व भी असंख्यात भेदों से युक्त होने के कारण यह अल्पबहुत्व संगत ही है। (७४) उनकी अपेक्षा अभव्य अनन्त गुणा हैं, क्योंकि वे जघन्य युक्त-अनन्तक प्रमाण हैं। (७५) उनसे प्रतिपतित सम्यग्दृष्टि अनन्त गुणा हैं ये जीव मध्यम युक्त अनंत (पांचवें अनंत) For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना सूत्र ३९८ ************* *********************************************************************** जितने होते हैं। इनके लिए प्रतिपतित सम्यग्दृष्टि शब्द कहा गया है जिसका अर्थ – 'सम्यक्त्व से गिरा हुआ' होता है। अर्थात् जिसने एक बार सम्यक्त्व को प्राप्त करके छोड़ दिया है, वह जब तक पुनः सम्यक्त्व प्राप्त नहीं करे तब तक ही प्रतिपतित सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। ऐसा अर्थ मानने पर ही आगे का सिद्धों का बोल अनन्तगुणा हो सकता है। अतः प्रतिपतित सम्यग् दृष्टि में प्रथम एवं तृतीय गुणस्थानवी जीवों को ही ग्रहण करना आगम से उचित ध्यान में आता है। . (७६) उनसे सिद्ध अनन्तगुणा हैं वे मध्यम अनन्तानंत (आठवें अनन्त) जितने होते हैं। श्री चन्द्रर्षि रचित 'पंचम संग्रह ग्रन्थ' गुजराती अनुवाद विवेचन सहित जो म्हेसाणा (गुजरात) से प्रकाशित हुआ है। इसके विवेचन में सिद्धों की संख्या मध्यम अनन्तानन्त जितनी बताई गई है तथा ऐसा मानना उचित ही लगता है। लोक प्रकाश' नामक ग्रन्थ में एक पुरानी गाथा उद्धृत की है - जिसमें सिद्धों को पांचवें अनन्त जितना बताया गया है। परन्तु आठवें अनन्त में मानना ही आगम पाठों को देखते हुए निराबाध ध्यान में आता है। __ (७७) उनसे बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक अनन्त गुणा हैं। इस बोल में सभी साधारण वनस्पतिकायिक (बादरनिगोद) के पर्याप्त जीवों का तथा पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों का ग्रहण हुआ है। एक बादर निगोदवर्ती जीवों की संख्या भी सिद्धों से अनन्तगुणी होती है, जबकि यहां पर तो असंख्य बादर निगोदों के अनन्तानन्त जीवों का ग्रहण है। अत: सिंद्धों से अनन्त गुणा होना सुस्पष्ट है। (७८) उनकी अपेक्षा सामान्यतः बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें बादर पर्याप्तकपृथ्वीकायिकादि का भी समावेश हो जाता है। (७९) उनसे बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं, क्योंकि एक एक बादर निगोद पर्याप्तक के आश्रय से असंख्यात-असंख्यात बादर निगोद-अपर्याप्तक रहते हैं। (८०) उनकी अपेक्षा बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें बादर अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक आदि का भी समावेश हो जाता है। (८१) उनसे सामान्यतः बादर विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पर्याप्तक-अपर्याप्तक दोनों प्रकार के बादर जीवों का समावेश हो जाता है। (८२) उनकी अपेक्षा सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं। बादर जीवों से सूक्ष्म जीव स्वभाव से असंख्यात गुणा होते हैं। (८३) उनसे सामान्यतः सूक्ष्म अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म अपर्याप्तक पृथ्वीकायादि का भी समावेश हो जाता है। For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - महादंडक द्वार ************************************** ३९९ ************** ********* **** **** (८४) उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं, क्योंकि अपर्याप्तक सूक्ष्म, से पर्याप्तक सूक्ष्म संख्यात गुणी स्थिति वाले होने से स्वभावतः सदैव संख्यात गुणा पाये जाते हैं। (८५) उनकी अपेक्षा सामान्यरूप से सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि भी सम्मिलित है। . (८६) उनसे भी पर्याप्तक-अपर्याप्तक विशेषणरहित (सामान्य) सूक्ष्म विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक के जीव सम्मिलित हैं। (८७) उनकी अपेक्षा भव्य जीव विशेषाधिक है, क्योंकि जघन्य युक्त अनन्तक प्रमाण अभव्यों को छोड़कर शेष सभी संसारी जीव भव्य हैं। (८८) उनकी अपेक्षा निगोद जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि भव्य और अभव्य जीवों की राशि में से असंख्यात लोकाकाशप्रदेशों की राशि-प्रमाण प्रत्येक शरीरी जीवों को कम करें उतने ही होते हैं। (८९) उनकी अपेक्षा वनस्पतिजीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सामान्य वनस्पतिकायिकों में प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक जीव भी सम्मिलित हैं। (९०) वनस्पति जीवों की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म एवं बादर पृथ्वीकायिक आदि का भी समावेश है। (९१) एकेन्द्रियों की अपेक्षा तिर्यंचजीव विशेषाधिक है, क्योंकि तिर्यंच सामान्य में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक सभी तिर्यंच सम्मिलित है। (९२) तिर्यंचों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि विशेषाधिक हैं, क्योंकि थोड़े-से अविरत सम्यग्दृष्टि आदि संज्ञी तिर्यंचों को छोड़कर शेष सभी तिर्यंच मिथ्यादृष्टि हैं, इसके अतिरिक्त अन्य गतियों के मिथ्यादृष्टि भी यहाँ सम्मिलित हैं, जिनमें असंख्यात नारक भी हैं अर्थात् इस बोल में तिर्यंच गति के सम्यग्दृष्टि जीव कम होते हैं तथा तीन गति के सभी मिथ्यादृष्टि जीव सम्मिलित हो जाते है। अधिक जीव मिलने से एवं कुछ जीव ही कम होने से पूर्व के बोल से यह बोल विशेषाधिक होता है। (९३) मिथ्यादृष्टि जीवों की अपेक्षा अविरत जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें दूसरे तीसरे गुणस्थान वाले एवं अविरत सम्यग्दृष्टि भी समाविष्ट हैं। (९४) अविरत जीवों की अपेक्षा सकषाय जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सकषाय जीवों में देशविरत से लेकर दशम गुणस्थान तक के सर्वविरत जीव भी सम्मिलित हैं। (९५) उनकी अपेक्षा छद्मस्थ विशेषाधिक हैं, क्योंकि उपशान्तमोह आदि भी छद्मस्थों में सम्मिलित हैं। ___(९६) छद्मस्थ जीवों की अपेक्षा सयोगी विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें सयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीवों का समावेश हो जाता है। For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० . प्रज्ञापना सूत्र ********************** ************** ***************************** . (९७) सयोगियों की अपेक्षा संसारी जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि संसारी जीवों में अयोगीकेवली भी हैं। (९८) संसारी जीवों की अपेक्षा सर्वजीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सर्वजीवों में सिद्धों का भी समावेश हो जाता है। विशेष ज्ञातव्य - यह महादण्डक की अल्पबहुत्व सर्व जीवों की अपेक्षा बताई गई है। अत: इस अल्प बहुत्व में व्यवहार राशि और अव्यवहार राशि इन दोनों राशियों के जीवों की अल्पबहुत्व कही गई है। क्योंकि व्यवहार राशि के जीव तो सिद्ध भगवान् से भी अनन्तवें भाग जितने ही होते हैं यह काय स्थिति पद से सुस्पष्ट हो जाता है। जबकि यहाँ पर तो बादर वनस्पतिकायिक जीव भी सिद्धों से अनन्तगुणे बताये हैं। अत: इस अल्पबहुत्व के चार बोलों (७७, ७९, ८२, ८४) में दोनों राशियों के जीव सम्मिलित है। ७६ वें बोल में सिद्ध भगवान् होने से उनमें कोई भी राशि नहीं होती है। इनके सिवाय प्रथम बोल से ७५ वें बोल तक चार बोलों (५४ ६०, ७२, ७३) को छोड़ कर मात्र व्यवहार राशि के जीव ही होते हैं। शेष सभी बोलों में दोनों राशियों के जीव शामिल गिने हैं। ॥सत्ताईसवां महादण्डक द्वार समाप्त॥ ॥ प्रज्ञापना सूत्र का तीसरा बहुवक्तव्यता पद समाप्त॥ ॥भाग-१ समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथ पावया सच्च जो उव CRIOUS शायरं वंदे / ज्वमिज्ज जइ सयय श्री अ.भा.सूध पयंतं संघ क संघ जोधपुर धर्म जैन संस्कृति संस्कृति रक्षक स रतीय भारतीय खिल भारतीय अखिल भारतीय अकसंघ संघ अखिल भारतीय भक संघ अखिल नरक्षक संघ अखिल भारतीय भक संघ अखिलभार स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अक संघ अखिल भारतीय सुधन नमजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृतामा भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय भक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय भक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अकसंघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय भक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय शक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सकसंघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय क्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय भक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीयसुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अस्तिल भारतीय NEARNING मनन