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________________ . प्रज्ञापना सूत्र २०८ *********** * * * * ** * * *-*-*-*-*-*-*-*--*-* *-*- *-*-*- * *-*-*-*-*-*-*-*-* -*-*-*-*-*-*-*- *-* उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे छोड़ कर शेष भाग में सुवर्ण कुमार देवों के ७२ लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल यावत् प्रतिरूप हैं। वहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक सुवर्णकुमार देवों के स्थान हैं यावत् वे उपपात, समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों की अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से सुवर्णकुमारदेव रहते हैं। वे महाऋद्धि वाले इत्यादि सारा वर्णन सामान्य भवनपतियों की तरह यावत् विचरण करते हैं तक जानना चाहिये। यहाँ वेणुदेव और वेणुदाली नाम के दो सुवर्ण कुमार देवों के इन्द्र और सुवर्ण कुमार देवों के राजा रहते हैं वे महाऋद्धि वाले यावत् विचरण करते हैं। कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! दाहिणिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे जाव मझे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं अट्ठत्तीसं भवणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा जाव पडिरूवा। एत्थ णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिजइभागे। एत्थ णं बहवे सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति। वेणुदेवे य इत्थ सुवण्णकुमारिंदे सुवण्णकुमार राया परिवसइ, सेसं जहा णागकुमाराणं॥११४॥ · भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक दक्षिण दिशा के सुवर्णकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! दक्षिण के सुवर्णकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के यावत् एक लाख अठहतर हजार योजन परिमाण मध्य भाग में दक्षिण दिशा के सुवर्णकुमारों के ३८ लाख भवनावास हैं। ऐसा कहा गया है। वे भवन बाहर से गोल यावत् प्रतिरूप अर्थात् अत्यंत सुन्दर हैं। यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक सुवर्णकुमार देवों के स्थान कहे गये हैं। उपपात, समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों अपेक्षाओं से वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। यहाँ बहुत से सुवर्णकुमार देव निवास करते हैं। यहाँ वेणुदेव नामक सुवर्णकुमार का इंद्र, सुवर्णकुमार देवों का राजा रहता है। शेष सारा वर्णन नागकुमारों की तरह जानना चाहिये। कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए जाव एत्थ णं उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं चउतीसं भवणावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं भवणा जाव एत्थ णं बहवे उत्तरिल्ला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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