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दूसरा स्थान प- अप्काय स्थान
गुंजालिया - गुंजालिकाओं (टेढी मेढी बावडियों) में चिल्ललएसु - गड्ढों (खड्डों) में, पल्ललएसुपोखरों में, वप्पणेसु - वप्रों (क्यारियों) में।
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भावार्थ - हे भगवन् ! पर्याप्तक बादर अप्कायिक जीवों के स्थान कहां कहे गये हैं ?
उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान की अपेक्षा से - सात घनोदधियों में, सात घनोदधि वलयों में अधोलोक में - पातालों में, भवनों में तथा भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में, ऊर्ध्वलोक में, कल्पों में, विमानों में, विमानावलियों (पंक्तिबद्ध विमानों) में और विमानों के प्रस्तटों (मध्यवर्ती स्थानों) में, तिर्यक्लोक में - कुओं में, तालाबों में, नदियों में, द्रहों में, बावड़ियों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरः सरः पंक्तियों में, बिलों में, पंक्ति बद्ध बिलों में, उज्झरों (पर्वतीय जल स्रोतों) में, झरनों (निर्झरों) में, गड्डों (खड्डों) में, पोखरों में, क्यारियों में, द्वीपों में, समुद्रों में, सभी जलाशयों और जल के स्थानों में पर्याप्तक बादर अप्कायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यात भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यात भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यात भाग में हैं।
प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्तक बादर अप्कायिक जीवों के स्थान कहां पर कहे गये हैं ?
उत्तर
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हे गौतम! जहाँ पर्याप्तक बादर अप्कायिकों के स्थान हैं वहाँ अपर्याप्तक बादर अप्कायिकों के स्थान हैं। वे उपपात की अपेक्षा सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं।
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प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सूक्ष्म अपकायिक जीवों के स्थान कहां कहे गये हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सूक्ष्म अप्कायिक जीवों के जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक हैं वे सभी एक प्रकार के हैं अविशेष - विशेषता रहित हैं, अनानात्व - नानात्व से रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो! वे सर्वलोकव्यापी कहे गये हैं ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बादर और सूक्ष्म अप्कायिक जीवों के स्थानों का निरूपण किया गया है।
बादर अप्कायिक जीवों के स्वस्थान का वर्णन किया जाता है उसमें सर्वप्रथम " सत्तसु घणोदहीसु" शब्द दिया है जिसका अर्थ इस प्रकार है - रत्न प्रभा आदि सात पृथ्वियों के प्रत्येक के नीचे बीस बीस हजार योजन का मोटा बर्फ की तरह ठोस जमा हुआ पानी का समूह है उसको धनोदधि कहते हैं। इसके आगे " घणोदहिवलयेसु " शब्द दिया है। इसका अर्थ है घनोदधि वलय । चूडी के आकार जो गोल हो उसे 'वलय' कहते हैं। घनोदधि से उठे हुए अपनी अपनी नरक पृथ्वी को चारों तरफ से वेष्टित किये हुए थाली के उठे हुए किनारों की तरह जो गोल हैं उन्हें " घनोदधिवलय" कहते हैं।
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