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प्रथम प्रज्ञापना पद - जीव प्रज्ञापना
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परिणता वि, महुर रस परिणता वि, फासओ कक्खड फास परिणता वि, मउय फास परिणता वि, गरुय फास परिणता वि, लहुय फास परिणता वि, सीय फास परिणता वि उसिण फास परिणता वि, णिद्ध फास परिणता वि, लुक्ख फास परिणता वि २० । १०० । से 'रूवि अजीवपण्णवणा । से त्तं अजीव पण्णवणा ॥ ६ ॥ भावार्थ - जो संस्थान से आयत संस्थान परिणत होते हैं वे वर्ण से कृष्ण वर्ण आदि पांच वर्ण रूप, गंध से दोनों सुगंध और दुर्गन्ध रूप रस से तिक्त, कटु आदि पांचों रसों रूप, स्पर्श से आठों ही स्पर्शो रूप परिणत होते हैं २० ।
यह रूपी अजीव प्रज्ञापना है। इस प्रकार अजीव प्रज्ञापना का वर्णन समाप्त हुआ।
विवेचन पांच संस्थानों में से प्रत्येक के रूप में परिणत पुद्गल यदि पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस तथा आठ स्पर्शों के रूप से परिणत हों तो उनके २०+२०+२०+२०+२० = १०० भंग होते हैं। इस प्रकार वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान इन पांचों के पारस्परिक संबंध की अपेक्षा से क्रमश: १००+४६+१००+१८४+१००= कुल ५३० भंग बनते हैं।
यह जो भंग संख्या दी गयी है वह स्थूल दृष्टि से ही समझनी चाहिये क्योंकि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो तरतमता की अपेक्षा से इनमें से प्रत्येक के अनंत अनंत भेद होने के कारण अनंत भंग हो सकते हैं। इन वर्णादि परिणामों की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल की होती है। जीव प्रज्ञापना
से किं तं जीव पण्णवणा ? जीव पण्णवणा दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - संसार समावण्णजीव पण्णवणा य, असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा य ॥७॥
भावार्थ- प्रश्न- जीव प्रज्ञापना कितनी प्रकार की कही गयी है ?
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उत्तर - जीव प्रज्ञापना दो प्रकार की कही गई हैं। वह इस प्रकार है - १. संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना और २. असंसार समापन - जीव प्रज्ञापना ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जीव प्रज्ञापना के भेद बतलाये गये हैं। जो जीते हैं, प्राणों को धारण करते हैं वे जीव कहलाते हैं । प्राण दो प्रकार के हैं- १. द्रव्य प्राण और २. भाव प्राण । द्रव्य प्राण के दस भेद इस प्रकार हैं
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पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास निःश्वासमथान्युदायुः ।
प्राणाः दशैते भगवद्भिरुक्ताः तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥
- १. स्पर्शनेन्द्रिय बल प्राण २. रसनेन्द्रिय बल प्राण ३. घ्राणेन्द्रिय बल प्राण ४. चक्षुरिन्द्रिय बल
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