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________________ ४० ************ प्रज्ञापना सूत्र प्राण ५. श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण ६. काय बल प्राण ७. वचन बल प्राण ८. मन बल प्राण ९. श्वासोच्छ्वास बल प्राण और १०. आयुष्य बल प्राण । भाव प्राण चार हैं- ज्ञान, दर्शन, सुख और आत्म सामर्थ्य । संसारी जीव द्रव्य प्राणों एवं भाव प्राणों से युक्त होते हैं जबकि असंसारी (सिद्ध) जीव भाव प्राणों से ही युक्त होते हैं। संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना - जो जीव नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति रूप संसार को प्राप्त हैं वे संसार समापन्न जीव कहलाते हैं। ऐसे जीवों की प्रज्ञापना (स्वरूप) का निरूपण करना, संसार समापन जीव प्रज्ञापना है। असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना - जो जीव संसार- चतुर्गति रूप परिभ्रमण से रहित हैं वे जीव असंसार समापन्न कहलाते हैं। ऐसे असंसार समापन्न - मोक्ष प्राप्त जीवों की प्रज्ञापना (स्वरूप) का निरूपण करना असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कहलाती है। * * * * * * * * * * * असंसार समापन जीव प्रज्ञापना से किं तं असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा ? असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा दुविहा पण्णत्ता । जहा - अनंतर सिद्ध असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा य परंपर सिद्ध असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा य ॥ ८ ॥ भावार्थ - - प्रश्न असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गयी है ? उत्तर असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है १. अनन्तर सिद्ध - असंसार समापन्न - जीव प्रज्ञापना और २. परम्पर सिद्ध असंसार समापन्न जीव - Jain Education International प्रज्ञापना । विवेचन - यद्यपि सूत्र क्रम के अनुसार संसार समापन्न जीवों का वर्णन पहले करना चाहिए किन्तु पूर्व कथित " सूची कटाह न्याय" से असंसार समापन्न जीवों की वक्तव्यता अल्प होने के कारण पहले असंसार समापन्न जीवों की व्याख्या (प्रज्ञापना) कर दी गयी है। - प्रश्न - अनंतर सिद्ध किसे कहते हैं ? उत्तर- जिन जीवों के सिद्ध होने में अनन्तर अर्थात् एक समय का भी अन्तर नहीं है अर्थात् जो वर्तमान समय में सिद्ध हुए हैं, जिनको सिद्ध हुए प्रथम ही समय हुआ है वे अनन्तर सिद्ध कहलाते हैं। अनन्तर सिद्ध जीवों के स्वरूप की प्रज्ञापना अनन्तर सिद्ध संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कहलाती है। प्रश्न- परम्पर सिद्ध किसे कहते हैं ? उत्तर- जिन जीवों के सिद्ध होने में एक, दो, तीन आदि समयों का अन्तर पड गया है वे परम्पर सिद्ध कहलाते हैं । जो किसी भी प्रथम समय में सिद्ध है उससे एक समय पहले सिद्ध होने वाला 'पर' For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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