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________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना ४१ ******************************************************* ******* ******************** कहलाता है। उससे भी एक समय पहले सिद्ध होने वाला 'पर' कहलाता है। इस प्रकार परम्पर शब्द बनता है। परम्पर सिद्ध का आशय यह है कि जिस समय में कोई जीव सिद्ध हुआ है उससे पूर्ववर्ती समयों में जो जीव सिद्ध हुए हैं वे सब उसकी अपेक्षा परम्पर सिद्ध हैं। अनन्त अतीत काल से सिद्ध होते आ रहे हैं वे सब किसी भी विवक्षित प्रथम समय में सिद्ध होने वाले की अपेक्षा से परम्पर सिद्ध हैं। ऐसे मुक्तात्मा परम्पर सिद्ध असंसार समापन्न जीव हैं। इन जीवों के स्वरूप की प्रज्ञापना परम्पर सिद्ध असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कहलाती है। से किं तं अणंतर सिद्ध असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा? अणंतर सिद्धअसंसार समावण्ण जीव पण्णवणा पण्णरसविहा पण्णत्ता। तंजहा - १. तित्थ सिद्धा २. अतित्थ सिद्धा ३. तित्थगर सिद्धा ४. अतित्थगर सिद्धा ५. सयंबुद्ध सिद्धा ६. पत्तेयबुद्ध सिद्धा ७. बुद्धबोहिय सिद्धा ८. इत्थीलिंग सिद्धा ९. पुरिसलिंग सिद्धा १०. णपुंसगलिंग सिद्धा ११. सलिंग सिद्धा १२. अण्णलिंग सिद्धा १३. गिहिलिंग सिद्धा १४. एग सिद्धा १५. अणेग सिद्धा। से तं अणंतर सिद्ध असंसार समावण्ण जीव पण्णवणा॥९॥ भावार्थ - प्रश्न - अनन्तरसिद्ध असंसार समापन्न-जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गयी है ? उत्तर - अनन्तर सिद्ध-असंसार समापन्न-जीव प्रज्ञापना पन्द्रह प्रकार की कही गयी है, वह इस प्रकार है - १. तीर्थ सिद्ध २. अतीर्थ सिद्ध ३. तीर्थंकर सिद्ध ४. अतीर्थंकर सिद्ध ५. स्वयंबुद्ध सिद्ध ६. प्रत्येक बुद्ध सिद्ध ७. बुद्धबोधित सिद्ध ८. स्त्रीलिंग सिद्ध ९. पुरुषलिंग सिद्ध १०. नपुंसकलिंग सिद्ध ११. स्वलिंग सिद्ध १२. अन्यलिंग सिद्ध १३. गृहस्थलिंग सिद्ध १४. एक सिद्ध और १५. अनेक सिद्ध। यह अनन्तर सिद्ध असंसार समापन्न जीव प्रज्ञापना है। - विवेचन - अनन्तर सिद्ध असंसार समापन्न जीवों के पन्द्रह भेद इस प्रकार हैं - १. तीर्थ सिद्ध - प्रश्न - तीर्थ शब्द की व्युत्पत्ति क्या है ? उत्तर - तीर्यते संसार सागरो अनेन इति तीर्थं - यथावस्थितसकलजीवाजीवादि पदार्थ सार्थ प्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनम्, तच्च निराधारं न भवति इति सङ्घः, प्रथम गणधरो वा वेदितव्यः। अर्थ - जिससे संसार समुद्र तिरा जाय वह तीर्थ कहलाता है अर्थात् जीवाजीवादि पदार्थों की प्ररूपणा करने वाले तीर्थंकर भगवान् के वचन और उन वचनों को धारण करने वाला चतुर्विध (श्रावक श्राविका साधु साध्वी) संघ तथा प्रथम गणधर तीर्थ कहलाते हैं। इस प्रकार के तीर्थ की मौजूदगी में जो सिद्ध होते हैं वे तीर्थ सिद्ध कहलाते हैं। जैसे - गौतम स्वामी आदि। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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