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________________ १७० प्रज्ञापना सूत्र Jain Education International ************** - उत्तर - हे गौतम! ऊर्ध्वलोक में उसके एक देश भाग में होते हैं, अधोलोक में उसके एक देश भाग में होते हैं । तिर्यग्लोक में कुओं में, तालाबों में, नदियों में, द्रहों में, वापियों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरसर पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जल प्रवाहों में, निर्झरों में, तलैयों में, पोखरो में, वनों में, द्वीपों में, समुद्रों में, सभी जलाशयों में तथा समस्त जल स्थानों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक बेइन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गये हैं । उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं । ***** विवेचन - बेइन्द्रिय जीवों के स्वस्थान, उपपात और समुद्घात ये तीनों लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। क्योंकि बेइन्द्रिय जीव प्रतर के असंख्यातवें भागवर्ती असंख्यात श्रेणियों के प्रदेश तुल्य ही होते हैं । तिरछे लोक का पानी भवन आदि में ले जाने पर उसमें विकलेन्द्रिय जीव हो सकते हैं क्योंकि ऊपर मूल पाठ में ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के एक देश में उनका होना माना गया है। बेइन्द्रिय आदि जीवों का स्वस्थान प्रायः तिर्यक् लोक में ही है ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के विभाग में तो अल्प ही होते हैं और वह भी तिर्यक् लोक स्थित मेरु आदि पर्वतों का जो भाग ऊर्ध्व अधोलोक में गया है उसमें भी मिल सकते हैं परन्तु देवलोक की बावड़ियों में तथा ऊर्ध्व-लोक में आये हुए तमस्काय के भाग में और घनोदधि आदि में नहीं मिलते हैं। ऊर्ध्व लोक की तमस्काय में मेरु पर्वत की हद तक कोई पर्वत आदि के स्वाभाविक कारण नहीं है। बिना कारणों से वहाँ तक त्रस जीवों का उत्पन्न होना और आगे नहीं होना ऐसा नहीं बनता है। अतः तिरछा लोक की सीमा के आगे इनका सामान्य रूप से स्वस्थान नहीं होने से ऊर्ध्वलोक की तमस्काय में बेइन्द्रिय आदि सजीवों की उत्पत्ति नहीं समझी जाती है। समुद्रों का सौ योजन का हिस्सा तथा सलितावती एवं वप्रा विजय आदि का जितना-जितना भाग अधोलोक में आया हुआ है, उनमें विकलेन्द्रिय जीव होने से अधोलोक के एक देश में बताया है, किन्तु अधोलोक में आये हुए भवनपतियों के भवनों आदि में बेइन्द्रिय आदि जीव नहीं होते हैं। तेइन्द्रिय-स्थान कहि णं भंते! तेइंदियाणं पज्जत्ता - पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उड्ढलोए तदेक्क देसभाए, अहोलोए तदेक्क देसभाए, तिरियलोए अगडेसु, तलाएसु, नदीसु, दहेसु, वावसु, पुक्खरिणीसु, दीहियासु, गुंजालियासु, सरेसु, सरपंतियासु, सरसरपंतियासु, बिलेसु, बिलपंतियासु, उज्झरेसु, णिज्झरेसु, चिल्ललेसु, पल्ललेसु, वपिणे, दीवेसु, समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु, जलट्ठाणेसु, एत्थ णं तेइंदियाणं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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