________________
३९४
प्रज्ञापना सूत्र
भी गुरुमहाराज को पूछे बिना कुछ भी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। किन्तु उनकी आज्ञा को सामने रख कर ही प्रत्येक कार्य करना चाहिए। अन्यथा विनेयपन ( शिष्यपन) में अपूर्णता आती है क्योंकि विनेय (शिष्य) का यह लक्षण बतलाया गया है।
***********
गुरोर्निवेदितात्मायो, गुरुभावानुवर्तकः ।
मुक्त्यर्थं चेष्टते नित्यं स विनेयः प्रकीर्तितः ॥
अनुसार
अर्थात् - प्रत्येक कार्य गुरुदेव को निवेदित करके करने वाला, गुरु के भावों (इच्छा) के प्रवृत्ति करने वाला तथा नित्य मुक्ति के लिए प्रयत्न करने वाला विनेय कहलाता है ।
विनेय का लक्षण बताकर गुरु का लक्षण भी बता दिया गया है कि ऐसे गुरु से ही प्रश्न करना चाहिए यथा -
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मप्रवर्तकः ।
सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते ॥
अर्थात् - धर्म के मर्म को जानने वाला और धर्माचरण करने वाला अपने सम्पर्क में आने वाले को धर्म में प्रवृत्ति कराने वाला जगत् के सम्पूर्ण जीवों को शास्त्र के अनुसार धर्मोपदेश देने वाला गुरु कहलाता है।
उपरोक्त सारे वक्तव्य का निष्कर्ष यह है कि गणधर देव तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा लेकर ही सर्व जीवों की अल्पबहुत्व बताने वाला महादण्डक का वर्णन करते हैं ।
Jain Education International
प्रस्तुत सूत्र में समस्त जीवों के अल्पबहुत्व का क्रम बताया गया है जो इस प्रकार है(१) गर्भज मनुष्य सबसे कम इसलिए हैं कि उनकी संख्या संख्यात - कोटाकोटि परिमित है । कम से कम राशि इस प्रकार समझना - २८,२९,५७,७२, ३२, ६५, २२,९७,७७, ११,९७,९९, २९६ (लगभग) इस राशि में गर्भज मनुष्य पुरुष और नपुंसक दोनों शामिल है । (२) उनकी अपेक्षा मनुष्यस्त्रियाँ संख्यातगुणी अधिक हैं, क्योंकि मनुष्यपुरुषों की अपेक्षा सत्ताईसगुणी और सत्ताईस अधिक होती है । वह राशि कम से कम इस प्रकार समझना - ७६, ३९, ८५, ८५, २५, १६, १२,०,३९,८२, २३, ४५, ९५, २०, ४० यहाँ पर गर्भज मनुष्यों की सर्व जघन्य संख्या की अपेक्षा से मनुष्यों से मनुष्य स्त्रियाँ २७ गुणी और २७ अधिक गणित करके बताई गई है। उत्कृष्ट गर्भज मनुष्यों की संख्या की अपेक्षा तो राशि में फर्क हो सकता है। (३) उनसे बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक असंख्येयगुणा हैं, क्योंकि वे कतिपय वर्ग कम आवलिकाधन-समय-प्रमाण हैं। (४) उनकी अपेक्षा अनुत्तरौपपातिक देव असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भागवर्ती आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। यद्यपि टीका में अनुत्तर देवों को क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भागवर्ती आकाश प्रदेशों के तुल्य बताया है परन्तु जीवाजीवाभिगम सूत्र के वैमानिक उद्देशक को देखते हुए अद्धा पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org