SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - महादंडक द्वार ३९५ * *-*-***-*-*-*-*-* * * * * * * * ***** -*-*-*-*-*-*-* * * * ** ***************************** करना अधिक उचित रहता है। इसी प्रकार पांचवें बोल से ११ वें बोल तक के जीवों के प्रमाण के विषय में भी समझना चाहिये। (५) उनकी अपेक्षा उपरितन ग्रैवेयक त्रिक के देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे बृहत्तर अद्धापल्योपम के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। इसे जानने का मापदण्ड यह है कि उत्तरोत्तर विमानों की अधिकता है। क्योंकि अनुत्तर देवों के ५ विमान हैं, किन्तु ऊपर के तीन ग्रैवेयकों में सौ विमान हैं और प्रत्येक विमान में असंख्यात देव हैं। नीचे-नीचे के विमानों में अधिक-अधिक देव होते हैं, इसीलिए अनुत्तरविमानवासी देवों की अपेक्षा ऊपरी तीन ग्रैवेयकों के देव संख्यातगुणा हैं। आगे भी आनतकल्प के देवों (६ से ११) तक उत्तरोत्तर संख्यातगुणा हैं, कारण पहले बताया जा चुका है। यद्यपि आरण और अच्युत कल्प समश्रेणी में स्थित हैं और दोनों की विमानसंख्या समान हैं तथापि स्वभावतः कृष्णपक्षी जीव प्राय: दक्षिणदिशा में उत्पन्न होते हैं. उत्तरदिशा में नहीं और कृष्णपाक्षिक जीव शुक्लपाक्षिकों की अपेक्षा आधिक होत हैं। इसलिए अच्युत से आरण प्राणत, और आनत कल्प के देव उत्तरोत्तर संख्यातगुणा अधिक हैं। (१२) उनकी अपेक्षा सप्तम नरकपृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि वे श्रेणी के असंख्यातवें भाग में स्थित आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। उनसे उत्तरोत्तर क्रमशः (१३) छठी नरक के नारक, (१४) सहस्रारकल्प के देव, (१५) महाशुक्रकल्प के देव, (१६) पंचम धूमप्रभा नरक के नारक, (१७) लान्तककल्प के देव, (१८) चतुर्थ पंकप्रभा नरक के नारक, (१९) ब्रह्मलोककल्प के देव, (२०) तृतीय बालुकाप्रभा नरक के नारक, (२१) माहेन्द्रकल्प के देव, (२२) सनत्कुमारकल्प के देव, (२३) दूसरी शर्कराप्रभा नरक के नारक असंख्यात-असंख्यात गुणा हैं। __सातवीं पृथ्वी से लेकर दूसरी पृथ्वी तक के नारक प्रत्येक अपने स्थान में प्ररूपित किये जाएँ तो सभी घनीकृत लोकश्रेणी के असंख्यातवें भाग में स्थित आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं, मगर श्रेणी के असंख्यातवें भाग के भी असंख्यात भेद होते हैं। अतः इनमें सर्वत्र उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा अल्पबहुत्व कहने में कोई विरोध नहीं आता। शेष सब युक्तियाँ पूर्ववत् समझनी चाहिए। (२४) उनकी अपेक्षा सम्मूर्छिम मनुष्य असंख्यात गुणा हैं, क्योंकि अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के द्वितीय वर्गमूल से गुणित तीसरे वर्गमूल में जितनी प्रदेश राशि होती हैं, उतने प्रमाण में सम्मूर्च्छिम मनुष्य होते हैं। (२५) उनसे ईशानकल्प देव असंख्यात गुणा हैं, वे अंगुल प्रमाण सूचि श्रेणी के द्वितीय वर्ग मूल को तृतीय वर्ग मूल से गुणा करने पर जितने प्रदेश होते हैं उतनी श्रेणियों के तुल्य सभी वैमानिक देवदेवियाँ हैं। उनके संख्यातवें भाग जितने ये देव होते हैं। (२६) ईशानकल्प की देवियाँ उनसे संख्यात गुणी अधिक हैं, क्योंकि देवियाँ देवों से बत्तीस गुणी और बत्तीस अधिक होती हैं। (२७) इनसे सौधर्मकल्प के देव संख्यातगुणा अधिक हैं, क्योंकि ईशानकल्प में अट्ठाईस लाख विमान हैं, जबकि सौधर्मकल्प में बत्तीस लाख विमान हैं। अत: ये देव संख्यात गुणा अधिक हो जाते हैं। (२८) उनसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy