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तीसरा बहुवक्तव्यता पद - महादंडक द्वार
अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ६० उनसे बादर निगोद के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ६१ उनसे बादर पृथ्वीकाय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ६२ उनसे बादर अप्काय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ६३ उनसे बादर वायुकाय के अपर्याप्तक असंख्यात गुण, ६४ उनसे सूक्ष्म तेउकाय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ६५ उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकाय के अपर्याप्तक विशेषाधिक, ६६ उनसे सूक्ष्म अप्काय के अपर्याप्तक विशेषाधिक., ६७ उनसे सूक्ष्म वायुकाय के अपर्याप्तक विशेषाधिक, ६८ उनसे सूक्ष्म तेउकाय के पर्याप्तक संख्यात गुणा, ६९ उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकाय के पर्याप्तक विशेषाधिक ७० उनसे सूक्ष्म अप्काय के पर्याप्तक विशेषाधिक, ७१ उनसे सूक्ष्म वायुकाय के पर्याप्तक विशेषाधिक, ७२ उनसे सूक्ष्म निगोद के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ७३ उनसे सूक्ष्म निगोद के पर्याप्तक संख्यात गुण, ७४ उनसे अभव्य जीव अनंत गुण, ७५ उनसे प्रतिपतित समदृष्टि अनंत गुणा, ७६ उनसे सिद्ध भगवंत अनंत गुणा, ७७ उनसे बादर वनस्पतिकाय के पर्याप्तक अनंत गुणा, ७८ उनसे बादर के पर्याप्तक विशेषाधिक, ७९ उनसे बादर वनस्पतिकाय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ८० उनसे बादर के अपर्याप्तक विशेषाधिक, ८१ उनसे समुच्चय बादर विशेषाधिक, ८२ उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकाय के अपर्याप्तक असंख्यात गुणा, ८३ उनसे सूक्ष्म के अपर्याप्तक विशेषाधिक, ८४ उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकाय के पर्याप्तक संख्यात गुणा, ८५ उनसे सूक्ष्म के पर्याप्तक विशेषाधिक, ८६ उनसे समुच्चय सूक्ष्म विशेषाधिक, ८७ उनसे भवसिद्धिक विशेषाधिक, ८८ उनसे निगोदिया जीव विशेषाधिक, ८९ उनसे वनस्पतिकाय के जीव विशेषाधिक, ९० उनसे एकेन्द्रिय जीव विशेषाधिक, ९१ उनसे तिर्यंच जीव विशेषाधिक, ९२ उनसे मिथ्यादृष्टि जीव विशेषाधिक, ९३ उनसे अव्रती जीव विशेषाधिक, ९४ उनसे सकषायी जीव विशेषाधिक, ९५ उनसे छद्मस्थ जीव विशेषाधिक, ९६ उनसे सयोगी जीव विशेषाधिक, ९७ उनसे संसारी जीव विशेषाधिक, ९८ उनसे समुच्चय जीव विशेषाधिक।
विवेचन - प्रश्न - इसको महा दण्डक क्यों कहा गया है?
उत्तर - इसमें सिद्ध और संसारी सभी जीवों का अल्पबहुत्व बतलाया गया है इसलिए इसको महादण्डक कहा गया है। वर्तमान में विद्यमान आगमों में अल्प बहुत्व का सबसे बड़ा आलापक यही होने से भी इसे महादण्डक कहा जाता है।
प्रश्न - मूल में "वण्णइस्सामि" शब्द दिया है इसका क्या अभिप्राय है? - उत्तर - संस्कृत में "वर्ण वणने" धातु है। जिसका अर्थ है वर्णन करना। उस धातु के 'लुट्' लकार (भविष्यत काल) में उत्तम पुरुष के एक वचन में 'वर्णयिष्यामि' रूप बनता है। जिसका पर्यायवाची शब्द टीकाकार ने "रचयिष्यामि" शब्द दिया है। इस शब्द का आशय यह है कि गणधर देव तीर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा होने पर ही सूत्र की रचना करते हैं किन्तु अपने श्रुतज्ञान के अनुसार नहीं। इस बात से यह बात भी स्पष्ट होती है कि शिष्य कितनाही विद्वान हो, कार्य में कुशल हो तो
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