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________________ १०४ प्रज्ञापना सूत्र ****** वि, कुच्छिं वि, कुच्छिपुहुत्तिया वि, धणुं वि, धणुपुहुत्तिया वि, गाउयं वि, गाउयपुहुत्तिया वि, जोयणं वि, जोयणपुहुत्तिया वि, जोयणसयं वि, जोयणसयपुहुत्तिया वि, जोयणसहस्सं वि। ते णं थले जाया, जले वि चरंति, थले वि चरंति, ते णत्थि इहं, बाहिरएस दीवेसु समुद्दएस हवंति, जे यावण्णे तहप्पगारा। से तं महोरगा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - संमुच्छिमा य गब्भवक्कंतिया य। तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा। तत्थ णं जे ते गब्भवक्कंतिया ते तिविहा पण्णत्ता तंजहा - इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। एएसि णं एवमाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं उरपरिसप्पाणं दस जाइ कुलकोडि जोणि प्पमुह सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। से तं उरपरिसप्पा॥५५॥ ___ कठिन शब्दार्थ - पुहुत्त - पृथक्त्व, अंगुलपुहुत्तिया - अंगुल पृथक्त्व, वियत्थिं - वितस्ति, रयणिंरलि-हाथ, कुच्छिं - कुक्षि। भावार्थ - प्रश्न - महोरग कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - महोरग अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - कई महोरग एक अंगुल परिमाण, अंगुल पृथुत्व परिमाण, वितस्ति-वेंत परिमाण, रनि-हस्त, रनि पृथक्त्व, कुक्षि-दो हाथ, कुक्षि पृथक्त्व, धनुष, धनुष पृथक्त्व, गाऊ, गाऊ पृथक्त्व परिमाण, योजन, योजन पृथक्त्व, सौ योजन, सौ योजन पृथक्त्व और हजार योजन परिमाण होते हैं। वे स्थल में उत्पन्न होते हैं किंत जल में भी विचरण करते हैं और स्थल में भी विचरण करते हैं। वे यहां अढाई द्वीप में नहीं होते किंतु मनुष्य क्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं। इसी प्रकार के अन्य जो प्राणी हों उन्हें महोरग समझना चाहिये। वे उर:परिसर्प स्थलचर संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं - सम्मूर्छिम और गर्भज। इनमें जो सम्मूर्च्छिम हैं वे सभी नपुंसक होते हैं। इनमें से जो गर्भज हैं वे तीन प्रकार के कहे गए हैं - स्त्री, पुरुष और नपुंसक। इस प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त उर:परिसरों के दस लाख जातिकुलकोटि-योनि प्रमुख होते हैं। ऐसा कहा गया है। इस प्रकार उर:परिसॉं का वर्णन यहाँ तक पूर्ण हुआ। विवेचन - महोरग एक अंगुल की अवगाहना से लेकर एक हजार योजन तक की अवगाहना वाले होते हैं। ये स्थल में उत्पन्न होकर जल और स्थल दोनों में विचरण करते हैं। महोरग इस मनुष्य क्षेत्र में नहीं होते किंतु इससे बाहर के द्वीप समुद्रों में उत्पन्न होते हैं। ___ यहाँ पर महोरग की अवगाहना अंगुल आदि की बताई है वह अवगाहना पूरे भव की समझनी चाहिये। कोई अंगुल जितना ही होता है तो कोई हजार योजन की अवगाहना वाला भी हो सकता है यहाँ पर अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना में बढ़ने वालों की विवक्षा नहीं है। परिपूर्ण अवगाहना की ही विवक्षा समझनी चाहिये ! महोरग सर्पो का ही एक विशिष्ट प्रकार समझना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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