SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना १०३ *************************** आगमानुरूप प्रतीत होता है। उरपरिसर्प तिर्यंच पंचेन्द्रिय का तीसरा भेद 'आसालिक' होने से उसकी 'पंचेन्द्रियता' तो आगम से पूर्ण स्पष्ट है ही। आगमकार सर्वत्र जिस पद्धति से भेदों का वर्णन करते हैं, वैसा ही यहाँ भी है। अतः इसे पंचेन्द्रिय मानना ही आगम सम्मत है। ___ 'पुतं' शब्द बहुवचन का द्योतक है। अतः इसका अर्थ 'नौ' से अधिक करने में कोई बाधा नहीं आती है। आगमों के अनेक स्थलों पर तो 'पुहुत' शब्द का अर्थ 'नौ' से अधिक करना ही होता है। टीकाकारों ने भी 'नौ' के अर्थ को प्रायिक कह कर सम्मूछिम उरपरिसर्प पंचेन्द्रिय की 'योजन पृथक्त्व' अवगाहना में बारह योजन का समावेश होना माना है। जो आगमोचित है। अतः आसालिक को पंचेन्द्रिय ही समझना चाहिये एवं उसकी उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना भी समझनी चाहिये। इसमें न भ्रांति है न भूल ही लगती है। आसालिक सम्मूछिम है, गर्भज नहीं। क्योंकि आगम के मूल पाठ में उसके लिए 'असण्णी' एवं 'समुच्छइ' पाठ आये हैं। जो उसे सम्मूर्च्छिम सिद्ध करते हैं। गर्भज अन्तर्मुहुर्त में बारह योजन का हो ही नहीं सकता है वह तो 'धनुषपृथक्त्व' का ही हो पाता है। मूल पाठ में आये ग्राम आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है - १. ग्राम - जहाँ प्रवेश करने पर कर, महसूल, टेक्स लगता हो (यह प्राचीन व्याख्या मात्र है). जिसके चारों ओर कांटों की बाड़ हो अथवा जहाँ मिट्टी का परकोटा हो और जहाँ किसान लोग रहते हों उसे ग्राम कहते हैं। २. नगर - जहाँ राज्य का कर न लगता हो उसे नगर या नकर कहते हैं (यह शब्द की व्युत्पत्ति मात्र है अन्यथा आजकल सब नगरों और शहरों में राज्य का कर लगता ही है।) ३. निगम - जहाँ महाजनों की बस्ती अधिक हो उसे निगम कहते हैं। ४. खेट - जिसके चारों ओर धूल का परकोटा हो उसे खेट या खेडा कहते हैं । ५. कर्बट - कुनगर को कर्बट कहते हैं। गांव से बड़ा और नगर से छोटा कस्बा कर्बट कहलाता है। ६. मडम्ब - जिसके चारों तरफ अढ़ाई-अढ़ाई कोस तक कोई गांव न हो उसे मडम्ब कहते हैं। ७. द्रोणमुख - जिसमें जाने के लिये जल और स्थल दोनों प्रकार के रास्ते हों उसे द्रोणमुख कहते हैं। जिसे आज की भाषा में बन्दरगाह कहते हैं। ८. पत्तन - जिसमें जाने के लिये जल या स्थल दोनों में से एक रास्ता हो उसे पत्तन कहते हैं। ९. आकर - लोह आदि की खान को आकर कहते हैं। १०. आश्रम - परिव्राजकों के रहने के स्थान को एवं तीर्थस्थान को आश्रम कहते हैं। ११. संबाह - धान्य की सुरक्षा के लिए कृषकों के द्वारा निर्मित पर्वत आदि के दुर्गम स्थानों को संबाह कहते हैं। जहाँ पर अतिवृष्टि एवं अल्पवृष्टि में भी धान्य आदि सुरक्षित रखा जा सकता है। १२. राजधानी- जहाँ राजा का निवास होता है उसे राजधानी कहते हैं। से किं तं महोरगा? महोरगा अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा - अत्थेगइया अंगुलं वि, अंगुलपुहुत्तिया वि, वियत्थिं वि, वियत्थिपुहुत्तिया वि, रयणिं वि, रयणिपुहुत्तिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy