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________________ १०२ प्रज्ञापना सूत्र ** ******** ********** भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल होता है। अवसर्पिणी काल का सुषम-सुषमा, सुषमा ये दो आरे बीत जाने के बाद तीसरे सुषम-दुषमा आरे के अन्तिम भाग में तीर्थङ्कर चक्रवर्ती आदि होते हैं। जो कि चौथे आरे तक क्रमश: होते रहते हैं। इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के तीसरे और चौथे आरे में भी तीर्थङ्कर चक्रवर्ती आदि होते हैं और यह आसालिका भी उसी समय में पैदा होता है। इसलिये उसकी उत्पत्ति में यह काल "व्याघात" (बाधा) रहित होता है। इसलिए इस काल को निर्व्याघात काल कहा गया है। इसके अतिरिक्त भरत और ऐरवत की अपेक्षा सुषम-सुषमा सुषमा, सुषम-दुषमा तथा दुःषमदुषमा काल की अपेक्षा इसे व्याघात काल कहा गया है। महाविदेह क्षेत्र में तो काल चक्र होता ही नहीं है। वहाँ तो हमेशा अवसर्पिणी काल के चौथे आरे जैसे भाव रहते हैं। उसे नो उत्सर्पिणी नो अवसर्पिणी काल कहते हैं। अतएव तीर्थंकर और चक्रवर्ती हमेशा विद्यमान रहते हैं। इसलिए आसालिका जानवर की उत्पत्ति में व्याघात (बाधा) नहीं पड़ती है। इस अपेक्षा उपर्युक्त पाठ में जो बतलाया गया है कि निर्व्याघात की अपेक्षा पन्द्रह कर्म भूमि में यह आसालिका उत्पन्न होता है और व्याघात की अपेक्षा सिर्फ पांच महाविदेह में उत्पन्न होता है। यहाँ पर सम्मूछिम उरपरिसर्प के भेदों में आसालिका का नाम आया है उसकी अवगाहना उत्कृष्ठ १२ योजन की बताई गई है। इसी प्रकार बेइन्द्रिय जीवों के भेदों में एक नाम अलसिया (केंचुआ) भी बताया है उसकी अवगाहना भी उत्कृष्ट १२ योजन की बताई गई है दोनों भेदों में प्रायः समानता होने से एवं अवगाहना भी सरीखी होने से कई बार किन्हीं-किन्हीं को समझने में भ्रान्ति हो जाती है। अत: उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिये - आसालिक पंचेन्द्रिय है, द्वीन्द्रिय नहीं। क्योंकि आगमकार, टीकाकार एवं हमारे स्थविर उसे पंचेन्द्रिय ही कहते आये हैं। पनवणा सूत्र (पद १ के) मूलपाठ में उरपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय को चार प्रकार का बताया है जिसमें तीसरा भेद 'आसालिक' का है। टीकाकार भी इसे पंचेन्द्रिय ही कहते हैं, एवं हमारे स्थविर भी उपर्युक्त आधार से पंचेन्द्रिय ही कहते आये हैं। अनुयोग द्वार सूत्र में चार ही गति के जीवों के शरीर की अवगाहना का मान उत्सेधांगल बताया गया है। चक्रवर्ती का स्कन्धावार (सेना का पड़ाव स्थल) आत्माङ्गल से होता है। अत: द्वीन्द्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना और चक्रवर्ती स्कन्धावार दोनों एक सरीखे होते ही नहीं है। दूसरी बात स्कन्धावार नौ योजन का चौड़ा होता है। द्वीन्द्रिय में यह चौड़ाई भी संभव नहीं है। अत: आसालिक को पंचेन्द्रिय ही समझना चाहिये। आसालिक चक्रवर्ती आदि के स्कन्धावार के नीचे एवं ग्रामादि के नीचे सम्मूर्छता (उपजता) है। उरपरि सर्प होने से स्कन्धावार एवं ग्रामादि जितनी चौड़ाई संभव नहीं है। 'तयणुरूवं' का अर्थ 'लम्बाई के अनुरूप' (न कि स्कन्धावारादि के अनुरूप) करना ही संगत लगता है। स्कन्धावार, ग्रामादि के जितने देश में वह होगा, उतना ही विनाश होगा। ऐसा अर्थ ही गुरु भगवन्त फरमाया करते थे एवं वही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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