SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना १०५ * * * * ********* ******************************************************41-42424016-11-* यहां वेंत, हाथ आदि का परिमाण उत्सेध अंगुल की अपेक्षा समझना चाहिए क्योंकि यहां शरीर परिमाण का वर्णन किया गया है। प्राकृत में तीन प्रकार के शब्द मिलते हैं। यथा - ' - १. पहुत्त - प्रभुत्व। जिस का अर्थ होता है स्वामीपना। इस शब्द की दूसरी तरह से संस्कृत छाया "प्रहृत्व" किया है। जिसका अर्थ है - नम्रपणा। २. पुहत्त - पृथक्त्व विस्तारे। जिसका अर्थ होता है विस्तार। ३. पुहुत्त - पृथक्त्व। “विस्तारे" (ठाणाङ्ग ४-२) ठाणाङ्ग सूत्र में इसका अर्थ विस्तार किया है। इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार किया गया है-"समयपरिभाषया द्वि प्रभृतौ आ नवतौ आ नवतो" सिद्धान्त की भाषा में इसका अर्थ होता है- दो से लेकर नौ यावत् निब्बे तक की संख्या।। इन तीन शब्दों में से प्रथम शब्द का तो यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि यहाँ परिमाण का प्रकरण चल रहा है। दूसरा शब्द विस्तार अर्थ में आता है। उसका भी यहाँ सम्बन्ध नहीं है। यहाँ सम्बन्ध केवल तीसरे शब्द से है। इसीलिये जहाँ दो से लेकर नौ अथवा नौ से अधिक संख्या बतलाना हो वहाँ पुहुत्त' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। थोकड़े वाले इसको प्रत्येक अङ्गल, प्रत्येक हाथ कहते हैं। वह उनकी भाषा में दो से लेकर नौ । की संख्या के लिए प्रत्येक रूढ़ हो गया है। इसी प्रकार पृथक्त्व शब्द भी उन लोगों के लिए रूढ़ हो .. गया है ऐसा समझना चाहिए। . पृथक्त्व शब्द का अर्थ टीकाकारों ने भी 'पृथक्त्वो बहुवाची' कहकर 'अनेक' या 'बहुत' अर्थ माना है अर्थात् कम से कम दो उत्कृष्ट अपने अपने प्रसंग के अनुसार नौ से कम या ज्यादा यावत् संख्यात, असंख्यात या अनन्त अर्थ भी होता है। पृथक्त्व शब्द के अनेकों अर्थों का खुलासा जानने वाले जिज्ञासुओं को स्वर्गीय श्रावक रत्न श्रीमान् रतनलालजी सा. डोशी सैलाना द्वारा लिखित 'समीक्षा की परीक्षा' पुस्तक का कदली प्रकरण देखना चाहिये। से किं तं भुयपरिसप्या? भुयपरिसप्पा अणेगविहा पण्णत्ता तंजहा - णउला, सेहा, सरडा, सल्ला, सरंठा, सारा, खोरा, घरोइला, विस्संभरा, मूसा, मंगुसा, पयलाइया, छीर विरालिया जोहा, चउप्पाइया, जेयावण्णे तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - संमुच्छिमा य गब्भवक्कंतिया य।तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा। तत्थ णं जे ते गब्भवक्कंतिया ते तिविहा पण्णत्ता। तं जहा - इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। एएसि णं एवमाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं भुयपरिसप्पाणं णव जाइकुलकोडि जोणि प्पमुह सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। से तं भुयपरिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिवख जोणिया।से तं परिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया॥५६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy