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________________ दूसरा स्थान पद - नैरयिक स्थान ** ******************** ******* ****** ****...............१८१ * **************** **** *** * णिच्चं तसिया, णिच्चं उव्विग्गा, णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति॥१०१॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक धूमप्रभा नामक पांचवीं पृथ्वी (नरक) के नैरयिकों के स्थान कहां कहे गये हैं ? हे भगवन् ! धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहां रहते हैं ? उत्तर - हे गौतम! धूमप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन है उसमें ऊपर के भाग से एक हजार योजन प्रवेश कर और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर शेष एक लाख सोलह हजार प्रमाण मध्य भाग में धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के तीन लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरक अंदर से गोल, बाहर से चौकोण और नीचे ले क्षुरप्र-उस्तुरे के आकार वाले हैं। वे प्रकाश के अभाव में निरन्तर अंधकार वाले, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग में मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड के लेप से लिप्त, अशुचि अपवित्र, बीभत्स अत्यंत दुर्गधित, कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के, कर्कश (कठोर) स्पर्शवाले, दुःसह और अशुभ नरक हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। इनमें धूमप्रभा पृथ्वी के पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में समदघात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में है। वहाँ धूमप्रभा पृथ्वी के बहुत से नैरयिक निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! वे काले, काली आभा वाले, गंभीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयंकर), उत्कट त्रासजनक और अतीव काले वर्ण के कहे गये हैं। वे नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य परस्पर एक दूसरे को त्रास पहुँचाए हुए, सदैव उद्विग्न तथा नित्य अत्यंत अशुभ रूप और संबद्ध-निरंतर नरक भय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं। कहि. णं भंते! तमप्पभा पुढवी जेरइयाणं पजत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! तमप्पभा पुढवी णेरइया परिवसंति?, गोयमा! तमप्पभाए पुढवीए सोलसुत्तर जोयण सयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं ज़ोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठा, चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे चउदसुत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं तमप्पभा पुढवी णेरइयाणं एगे पंचूणे णरगावास सयसहस्से भवंतीति मक्खायं। ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, णिच्चंधयार तमसा ववगय गह-चंदसूर-णक्खत्तजोइसियप्पहा, मेद-वसा-पूयपटल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ल लित्ताणुलेवणतला, असुईवीसा, परमदुब्भिगंधा, कक्खडफासा, दुरहियासा, असुभा णरगा, असुभा णरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं तमप्पभा पुढवी रइयाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइ भागे, समुग्घाएणं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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