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प्रज्ञापना सूत्र
सागरोपम की (सामान्य देवों की अपेक्षा) उत्कृष्ट स्थिति आठ सागरोपम की होती है। मुखिया देवों की तो सभी की स्थिति जघन्य उत्कृष्ट के बिना आठ सागरोपम की ही होती है।
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छठे देवलोक में पांच प्रतर हैं। पहले प्रतर में १० -
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पांचवें प्रतर में १४ सागर की स्थिति है ।
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चौथे प्रतर में १३
सातवें देवलोक में चार प्रतर है। पहले प्रतर में १४- दूसरे में १५, तीसरे में १६, और
चौथे प्रतर की १७ सागर की स्थिति है ।
दूसरे प्रतर ११ ३, तीसरे प्रतर में १२·
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आठवें देवलांक में चार प्रतर हैं। पहले प्रतर में १७, दूसरे में १७, तीसरे में १७, चौथे १८ सागर की स्थिति है ।
नववें और दसवें दो देवलोक को मिलाकर दोनों के चार प्रतर हैं। पहले प्रतर में १८ दूसरे में
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१९, तीसरे में १९ ई, चौथे में (बीस) २० सागर की स्थिति है।
ग्यारहवें और बारहवें देवलोक दोनों को मिलाकर चार प्रतर हैं- पहले प्रतर में २०, दूसरे में
२१ सागर, तीसरे में २१- चौथे में २२ सागर की स्थिति है।
नवग्रैवेयक में नौ प्रतर हैं। पहले प्रतर में तेईस सागर, दूसरे में चौबीस तीसरे में पच्चीस, चौथे में छब्बीस, पांचवें में सत्ताईस, छठे में अठ्ठाईस, सातवें में उनतीस, आठवें में तीस और नववें में ३१ सागर की स्थिति है।
पांच अनुत्तर विमानों में एक प्रतर है। उसमें विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजीत इन चार विमानों में जघन्य इगतीस और उत्कृष्ट तेतीस सागर की स्थिति है। सर्वार्थ सिद्ध विमान में जघन्य उत्कृष्ट के बिना तेतीस सागर की स्थिति है।
नोट : इस प्रकार प्रत्येक प्रतर की स्थिति का वर्णन संग्रहणी आदि ग्रन्थों में तथा टीका ग्रन्थों में मिलता है। मूल आगमों में इनका वर्णन देखने में नहीं आता है।
प्रश्न- सम रमणीय भूमि भाग से कितनी ऊँचाई पर ये देवलोक हैं ?
उत्तर - सम रमणीय भूमि भाग से डेढ़ राजु परिमाण ऊंचाई पर पहला, दूसरा देवलोक हैं । अढ़ाई राजु परिमाण ऊँचाई पर तीसरा चौथा देवलोक है। सवा तीन राजु परिमाण पर पांचवाँ साढे तीन राजु
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