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दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान
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सहस्रार
क्रम कल्प का नाम मध्य में
मध्य में पूर्वदिशा में दक्षिणदिशा में पश्चिमदिशा में उत्तरदिशा में
सहस्रारावतंसक अंकावतंसक स्फटिकावतंसक रत्नावतंसक जातरूपावतंसक (९-१०) आनत प्राणत प्राणतावतंसक अशोकावतंसक सप्तपर्णावतंसक चम्पकावतंसक चूतावतंसक (११-१२)आरण अच्युत अच्युतावतंसक अंकावतंसक स्फटिकावतंसक रत्नावतंसक जातरूपावतंसक
जिस प्रकार सात नरकों के गुणपचास (४९) प्रस्तट (पाथड़ा) होते हैं। इसी प्रकार छब्बीस (२६) ही देवलोकों के बासठ (६२) प्रस्तट होते हैं। यथा - पहले दूसरे देवलोक के तेरह प्रस्तट (प्रतर-पाथड़ा) होते हैं। तीसरे और चौथे देवलोक में बारह प्रस्तट होते हैं। पांचवें देवलोक में छह, छठे में पांच, सातवें में चार, आठवें में चार, नौवें और दसवें में चार तथा ग्यारहवें और बारहवें में चार प्रस्तट होते हैं। नव ग्रैवेयक के नौ.और पांच अनुत्तर विमान का एक। इस तरह से बासठ प्रतर होते हैं।
प्रश्न - इन प्रस्तटों में देवों की कितनी स्थिति होती है ?
उत्तर - सभी (२६) देवलोकों के अपने अपने सभी प्रतरों में जघन्य स्थिति अपने अपने देवलोक की जघन्य स्थिति के समान समझना चाहिये। उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार है-पहले प्रतर में एक सागर के तेरह भागों में से दो भाग २६ , दूसरे प्रतर में १३ , तीसरे प्रतर में १३ , चौथे में १३ , पांचवें में १० , छठे में १९, की स्थिति है। सातवें में एक सागर और एक सागर के तेरह भाग में से एक भाग १६३ , की स्थिति है। आठवें में १३ , नववें में १५३ , दसवें में १३ , ग्यारहवें में १२३, बारहवें में ११३ , तेरहवें में पूरे दो सागर की स्थिति है।
तीसरे चौथे देवलोक में बारह प्रतर हैं। पहले प्रतर में दो सागर और एक सागर के बारह भागों में से पांच भाग २६३ की स्थिति है। दूसरे में २३६ , तीसरे में ३३३, चौथे में २६६ , पांचवें में ४३३, छठे में ४६६ , सातवें में ४१३ आठवें में ५३३, नववे में ५३ , दसवें में ६३३ , ग्यारहवें में ६५, बारहवें में पूरे सात सागर की स्थिति है।
पांचवें देवलोक में छह प्रतर हैं। पहले प्रतर में ७३ , सागर की स्थिति है। दूसरे प्रतर में ८ (आठ) सागर, तीसरे में ८ - , चौथे में ९ सागर पांचवें में ९२, और छठे प्रतर की १० सागर की स्थिति है। पांचवें देवलोक के तीसरे प्रतर में रहने वाले नौ लोकान्तिक देवों की जघन्य स्थिति सात
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