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________________ २५० **** 44 हैं। वे सब समान ऋद्धि वाले, समान बली, समान प्रभाव वाले महापुरुष, इन्द्र रहित, प्रेष्य (चाकर) रहित, पुरोहित रहित हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे देवगण अहमिन्द्र कहे जाते हैं। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सौधर्म आदि बारह देवलोकों, नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देवों के स्थानों, विमानों की संख्या, उनमें रहने वाले देवों, इन्द्रों और अहमिन्द्रों की ऋद्धि प्रभाव आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। वैमानिक देवों के कुल मिला कर ८४ लाख ९७ हजार २३ विमान होते हैं। बारह देवलोकों के देवों के पृथक्-पृथक् मुकुट चिह्न इस प्रकार हैं १. सौधर्म कल्प के देवों के मुकुट में मृग का २. ईशान देवों के मुकुट में भैंसे का ३. सनत्कुमार देवों के मुकुट में शूकर का ४. माहेन्द्र देवों के मुकुट में सिंह का ५. ब्रह्मलोंक के देवों के मुकुट में बकरे का ६. लान्तक देवों के मुकुट में मेंढक का ७. महाशुक्र के देवों के मुकुट में अश्व (घोड़े का ८. सहस्रार देवों के मुकुट में हाथी का ९. आनतदेवों के मुकुट में सर्प का १०. प्राणत देवों के मुकुट में गेंडे का और ११. आरण देवों के मुकुट में बैल का १२. अच्युत देवों के मुकुट में विडिम (मृग विशेष या शाखा विशेष) का चिह्न होता है। बारह देवलोकों के दस इन्द्र होते हैं क्योंकि आठवें देवलोक तक तो आठ इन्द्र होते हैं। फिर नौवें, दसवें दोनों देवलोकों का एक इन्द्र ( प्राणतेन्द्र ) है । ग्यारहवें, बारहवें दो देवलोकों का एक इन्द्र (अच्युतेन्द्र) होता है । प्रत्येक इन्द्र के विमानों में से पांच पांच विमान श्रेष्ठ होते हैं जिनको 'अवतन्सक" (आभूषण रूप ) कहते हैं। संख्या दो प्रकार की हैं- सम संख्या और विषम संख्या १, ३, ५, ७ आदि विषम संख्या है और २, ४, ६, ८ आदि सम संख्या है। विषम विषम संख्या वाले देवलोकों में प्रथम देवलोक के समान अवतन्सक विमान होते हैं। इसी प्रकार समसंख्या वाले देवलोकों में दूसरे देवलोक के समान नाम वाले अवतन्सक होते हैं। सिर्फ मध्य का अवतन्सक अपने अपने देवलोक के समान नाम वाला होता है। ये पांच-पांच अवतंसक इस प्रकार कहे गये हैं. मध्य में पूर्वदिशा में दक्षिणदिशा में पश्चिमदिशा में उत्तरदिशा में सौधर्मावतंसक अशोकावतंसक सप्तपर्णावतंसक चम्पकावतंसक चूतावतंसक ईशानावतंसक अंकावतंसक स्फटिकावतंसक रत्नावतंसक जातरूपावतंसक सनत्कुमारावतंसक अशोकावतंसक सप्तपर्णावतंसक चम्पकावतंसक चूतावतंसक माहेन्द्रावतंसक अंकावतंसक स्फटिकावतंसक रत्नावतंसक जातरूपावतंसक ब्रह्मलोकावतंसक अशोकावतंसक सप्तपर्णावतंसक चम्पकावतंसक चूतावतंसक लान्तकावतंसक अंकावतंसक स्फटिकावतंसक रत्नावतंसक जातरूपावतंसक महाशुक्रावतंसक अशोकावतंसक सप्तपर्णावतंसक चम्पकावतंसक चूतावतंसक क्रम १ २ 3 ४ ५ ६ ७ कल्प का नाम सौधर्म ईशान Jain Education International सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक प्रज्ञापना सूत्र महाशुक्र 台诺米案省装密密 For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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