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________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान पर छठा देवलोक, पौणे चार राजु पर सातवाँ और चार राजु पर आठवाँ देवलोक हैं । साढे चार राजु पर नौवाँ दसवाँ तथा पांच राजु पर ग्यारहवाँ और बारहवाँ देवलोक है। नवग्रैवेयक की पहली त्रिक साढ़े पांच राजु ऊँची है। पौणे छह राजु पर दूसरी त्रिक और छह राजु पर तीसरी त्रिक है। सात राजु माठेरा (कुछ कम ) ऊँचाई पर पांच अनुत्तर विमान हैं। प्रश्न - ये विमान किसके आधार पर रहे हुए हैं ? उत्तर पहला और दूसरा देवलोक घनोदधि के आधार पर हैं। तीसरा, चौथा और पांचवाँ देवलोक घनवात के आधार पर हैं। छठा, सातवाँ और आठवाँ देवलोक घनोदधि और घनवात के आधार पर हैं। नववाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ और बारहवाँ देवलोक नवग्रवेयक और पांच अनुत्तर विमान ये सब आकाश के आधार पर रहे हुए हैं। पहले दूसरे देवलोक के २७०० सौ योजन का आंगण ( आंगण की मोटाई नींव ) है और महल पांच सौ योजन के ऊंचे हैं। तीसरे चौथे देवलोक में २६०० सौ योजन का आंगण है और छह सौ योजन का ऊँचा महल हैं। पांचवें छठे देवलोक में २५०० सौ योजन का आंगण है और सात सौ योजन के ऊँचे महल है। सातवें, आठवें देवलोक में २४०० सौ योजन का आगण है और आठ सौ योजन के ऊंचे महल हैं। नववें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें देवलोक में २३०० योजन का आंगण है और नौ सो योजन के ऊँचे महल हैं। नवग्रैवेयक में २२०० योजन का आंगण है और एक हजार योजन के ऊँचे महल हैं। प्रश्न- देवों के शरीर की ऊँचाई कितनी होती है ? उत्तर - भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, पहला, दूसरा देवलोक के देवों के शरीर की ऊँचाई सात हाथ की होती है। तीसरे, चौथे देवलोक के देवों के शरीर की ऊँचाई छह हाथ। पांचवें छठे में पांच हाथ। सातवें आठवें में चार हाथ । नौवे, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें में तीन हाथ । नवग्रैवेयक में दो हाथ और पांच अनुत्तर विमान में एक हाथ, यह भवधारणीय अवगाहना है। उत्तर वैक्रिय सभी देवों में बारहवें देवलोक तक जघन्य अङ्गुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है। नवग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमान के देवों में उत्तर वैक्रिय करने की शक्ति तो है परन्तु करते नहीं हैं। प्रश्न- रज्जु (राजु) किसको कहते हैं ? उत्तर - यहाँ से असंख्यात द्वीप समुद्र उल्लन्धन कर आगे जाने से सब से अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र आता है वह चूड़ी आकार जैसा गोल है। वह असंख्यात द्वीप समुद्रों को घेरे हुए है। उसकी पूर्व वेदिका (पूर्वी किनारे) से लेकर पश्चिम वेदिका (पश्चिम किनारे) तक की दूरी को एक रज्जु कहते हैं। तत्त्वार्थाधिगम भाष्य की टिप्पणी में लिखा है कि लोक की अवगाहना (दूरी) चौदह राजु परिमाण है। यहाँ राजु दो प्रकार का बतलाया गया है। पारमार्थिक और औपचारिक। साधारण लोगों को समझाने के लिये दृष्टान्त देना औपचारिक राजु है। जैसे कि - Jain Education International - For Personal & Private Use Only २५३ www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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