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________________ २५४ प्रज्ञापना सूत्र ************* ******* ************************************ जोयण लक्खपमाणं, निमेसमित्तेण जाइ जो देवो। ता छम्मासे गमणं, एवं रज्जु जिणा विति॥ अर्थ - कल्पना की जाय कि एक देव एक निमेष (आँख की पलक गिरने में जितना समय लगता है उसे निमेष कहते हैं।) मात्र में एक लाख योजन जाता है। यदि वह छह मास तक लगातार इसी गति से चलता रहे तो वह एक राजु होता है। यह औपचारिक राजु का परिमाण है। पारमार्थिक राजु के परिमाण का स्पष्टीकरण आगमिक परिपेक्ष्य में इस प्रकार समझना चाहिये - ___तिर्यक् लोक की ऊँचाई (मोटाई-१८०० योजन) के बहुमध्य भाग में दो क्षुल्लक (लम्बाई चौड़ाई में सबसे छोटे) प्रतर बताये गये हैं। उनकी लम्बाई (पूर्व से पश्चिम तक) और चौड़ाई (उत्तर से दक्षिण तक) 'एक रज्जु परिमाण' ग्रन्थों में बताई है। नोट - यद्यपि आगमों में रजु शब्द व उसके परिमाण का वर्णन नहीं आया है। तथापि ग्रन्थों में बताये हुए रज्जु का परिणाम-आगम पाठों के फलितार्थों से स्पष्ट हो सकता है। एक रज्जु के परिमाण को समझने के लिए सबसे पहले हमें द्वीप समुद्रों की संख्या (परिमाण) व उनकी लम्बाई-चौड़ाई जानना आवश्यक होता है। अनुयोग द्वार सूत्र में (सूक्ष्म उद्वार पल्योपम सागरोपम का प्रयोजन बताते हुए) द्वीप समुद्रों की कुल संख्या (परिमाण) अढ़ाई उद्धार सागरोपम के समयों जितनी बताई है। एक उद्धार सागरोपम में दस कोड़ाकोड़ी (एक पद्म) पल्योपम होते हैं। अतः अढ़ाई उद्धार सागरोपम में २५ कोडी (१०कोडाकोडी x अढाई) उद्धार पल्योपम हो जाते हैं। इन सभी द्वीप समद्रों में सबसे पहला व सबसे छोटा जम्बूद्वीप है उसकी लम्बाई एक लाख योजन की बताई है। (सभी द्वीप समुद्रों में लम्बाई के समान ही चौड़ाई होती है तथा यह सभी माप प्रमाण अंगुल के योजन से बताया गया है।) उनसे आगे-आगे के द्वीप व समुद्र क्रमश: दुगुने-दुगुने परिमाण वाले बताये गये हैं। इस आगमिक माप के अनुसार जम्बूद्वीप की लम्बाई चौड़ाई के मध्य केन्द्र (रुचक प्रदेशों) से एक दिशा (पूर्व या पश्चिम) की तरफ से मापने पर जम्बूद्वीप के ५० हजार योजन (जम्बूद्वीप-पूर्णवृत होने से एक दिशा में आधा भाग ही आता है। शेष द्वीप समुद्र वलयाकार होने से उनका चक्रवाल विष्कंभ दोनों दिशाओं में उतना-उतना ही होता है यहाँ पर तो सभी द्वीप समुद्रों का एक दिशा की तरफ से ही चक्रवाल विष्कंभ-लम्बाई या चौड़ाई मापना है)। लवण समुद्र के २ लाख योजन, धातकी खण्ड द्वीप के ४ लाख योजन यावत् आगे आगे के द्वीप समुद्रों का परिमाण दुगुना-दुगुना करना है इस तरह क्रमश: अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र तक दुगुना-दुगुना करना है। इस विधि से सबसे पहले ५० हजार योजन, फिर दो लाख योजन, फिर ४ लाख योजन इस प्रकार २५ कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्योपम के समयों जितनी बार दुगुना दुगुना करके उस राशि का योग करने (जोड़ने) पर आधा रज्जु का परिमाण आता है। यह एक दिशा की तरफ का माप हुआ। इतना ही कोडाक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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