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तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार
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१. प्रथम दिशा द्वार दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा जीवा पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया॥१३७॥
कठिन शब्दार्थ - दिसाणुवाएणं - दिशाअनुपात-दिशाओं की अपेक्षा से, सव्वत्थोवा - सब से थोड़े, विसेसाहिया - विशेषाधिक, पुरच्छिम - पूर्व दिशा। पूर्व दिशा के लिए आगम में दो शब्दों का प्रयोग होता है। जैसे कि - पुरच्छिम, पुरथिम। पच्छिमेणं - पश्चिम दिशा। पश्चिम दिशा के लिए भी आगम में दो शब्दों का प्रयोग होता है। जैसे कि - पच्छिम और पच्चत्थिम।
भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े जीव पश्चिम दिशा में है, उनसे पूर्व दिशा में विशेषाधिक हैं, उनसे दक्षिण दिशा में विशेषाधिक हैं और उनसे उत्तरदिशा में विशेषाधिक हैं।
विवेचन - आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध में अनेक प्रकार की दिशाएं कही गई हैं उनमें से यहां प्रमुखता से क्षेत्र दिशाओं का ही ग्रहण किया गया है क्योंकि वे नियत हैं। ज्योतिषी देव देवियों की अल्प बहुत्व ताप दिशा की अपेक्षा से एवं वेमानिक देव देवियों की अल्प बहुत्व प्रज्ञापक दिशा की अपेक्षा समझना चाहिये। इसके सिवाय अन्य दिशाएं अनवस्थित एवं यहाँ अनुपयोगी होने से उनका यहां ग्रहण नहीं किया गया है। क्षेत्र दिशाओं का उत्पत्ति स्थान तिर्यक् लोक के मध्य भाग में रहे हुए आठ रुचक प्रदेश हैं और वे ही दिशाओं और विदिशाओं के उत्पत्ति स्थान हैं।
जिज्ञासुओं की जिज्ञासा का समाधान करने के लिए यहाँ आचाराङ्ग कथित दिशाओं का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है - 'प्रज्ञापक' अर्थात् कथन करने वाले पुरुष की अपेक्षा जो अठारह दिशाएँ बतलाई गयी हैं, वे इस प्रकार हैं - अधोदिशा-सातों नरक अधो (नीचे) भाव दिशा में लिये गये हैं। ऊर्ध्व दिशा (ऊपर की दिशा) - सभी ज्योतिषी और वैमानिक देव ऊपर की दिशा में हैं (यद्यपि भवनपति और वाणव्यन्तर देव नीची दिशा में है तथापि उनकी संख्या अल्प होने से अलग नहीं गिना गया है।) इसीलिये ऊर्ध्व दिशा एक गिनी गयी है। पृथ्वी आदि काया नरक और देव की तरह सम्मिलित नहीं है किन्तु भिन्न होने से पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय और वायुकाय, ये चार भाव दिशा हैं। इस तरह से ये छह भाव दिशाएँ हुई। वनस्पतिकाय के अधिक भेद होने से अग्रबीज, मूलबीज, स्कन्धबीज, पर्व बीज ये चार भाव दिशाएँ लेने से कुल दस भाव दिशाएँ हुई। मनुष्य में स्वभाव, दृष्टि, गतागत आदि की भिन्नता होने के कारण इनकी चार भाव दिशाएँ ली गयी यथा-कर्म भूमि का मनुष्य, अकर्मभूमि का मनुष्य, अन्तरद्वीप का मनुष्य और सम्मूछिम मनुष्य। ये चौदह भाव दिशाएँ हुयी। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय इस तरह से कुल अठारह भाव दिशाएँ हुई।
इन अठारह भेदों में वनस्पति के सूक्ष्म और बादर आदि भेद नहीं किये गये हैं किन्तु अग्रबीज
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